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Wednesday, July 28, 2010

ब्लॉगरों की तालिबानी संसद!

इस कथित संसद में सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और संविधान में कमजोर वर्गों तथा अल्पसंख्यकों के संरक्षण के लिये निर्धारित पवित्र सिद्धान्तों के विध्वंसक अधिक हैं। एक प्रकार से ये लोग संविधान, राष्ट्र, समाज, धर्मनिरपेक्षता एवं समाज की समरसता के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं। ऐसे तालिबानी एवं मनमानी सोच को बढावा देने वाले लोगों के कारण ही नक्सलवाद जैसी समस्याओं से इस देश को जूझना पड रहा है।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

हम सभी जानते हैं कि आजकल प्रिण्ट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया धनकुबेरों के इशारों पर कथ्थक करता रहता है। मीडिया द्वारा केवल उन्हीं मुद्दों को उठाया जाता है, जिससे उनकी पाठक/दर्शक संख्या में इजाफा हो। मीडिया को सामाजिक सरोकार को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिये, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पा रहा है। अफसरशाही की ही भांति मीडिया में भी मनमानी होने लगी है। मीडिया पर अनेक तरह के आरोप लगने लगे हैं कि कुछ संवाददाता तो लोगों को ब्लैक मेल भी करने लगे हैं। ऐसे में सच्चे लोगों के आलेख एवं सही मुद्दों को मीडिया में आसानी से समुचित स्थान मिलने की आशा करना निरा मूर्खता के सिवा कुछ भी नहीं है।

इन हालातों में सच्चे लेखकों, नौसिखियों, खोजी पत्रकारों और अपनी भडास निकालने वालों को इण्टरनेट (अन्तरजाल) ने ब्लॉग नामक मंच मुफ्त में उपलब्ध करवाकर पर बहुत बडा काम किया है। जहाँ पर आप कुछ भी, कैसे भी लिख सकते हैं। अनेक व्यक्ति तो इस पर जो कुछ लिखते हैं, उससे लगता है कि देशभक्ति का जज्बा अभी समाप्त नहीं हुआ है, जबकि इसके ठीक विपरीत कुछ लोग दूसरों को आहत करने और अपने बीमार मन के विचारों को कहीं भी और कैसे भी उंडेल देने के लिये भी ब्लॉग लिखते हैं। सौभाग्य से ऐसे लोगों की संख्या अभी तक बहुत अधिक नहीं है। ईश्वर से प्रार्थना है कि इनकी संख्या सीमित ही रहे।

सबसे दुःखद पहलु ये है कि ब्लॉग-जगत में ऐसे लोगों की जमान एकत्रित हो रही है, जो तालिबानी सोच को प्रतिनिधित्व करती है। जिन्हें न तो विषयों का ज्ञान है और न हीं जिन्हें ये पता है कि वे कर क्या रहे हैं? कह क्या रहे हैं? लिख क्या रहे हैं? केवल सफेदपोश अपराधियों एवं कट्टर राजनैतिक दलों या साम्प्रदायिक संगठनों के प्रभाव में आकर ऊलजुलूल बातें लिखकर स्वयं को बडा लेखक मानने लगे हैं। इनमें अनेक को हिन्दी भाषा में अभिव्यक्ति करने की महारत तो हासिल है, लेकिन जो कुछ भी लिखते हैं, उसमें पूर्वाग्रह कूट-कूट कर भरा पडा है। ये दूसरों के विचारों को सम्मान देने के बजाय कुतर्क या संख्याबल के जरिये अपनी बात को सही सिद्ध करने का प्रयास करके गौरवान्वित अनुभव करते हैं और दुःखद आश्चर्य तो ये है कि ऐसे लोगों का कहना है कि वे देशहित में काम कर रहे हैं। ये अपने आपको राष्ट्रवादी कहते हैं।

ऐसे ही लोगों की इण्टरनेट पर एक ब्लॉग संसद संचालित होती है, जिसमें मनमाने तरीके से मुद्दे पेश किये जाते हैं। अपने जैसे लोगों को इसमें आमन्त्रित किया जाता है और मतदान करके अपनी बात को पारित करके खुशियाँ मनाते हैं। यदि गलती से इस संसद में कोई निष्पक्ष व्यक्ति विचार रखने का प्रयास करता है तो सबसे पहले उसकी वैधानिक बातों को कुतर्कों के आधार दबाने के प्रयास किये जाते हैं और यदि सवाल ऐसे उठा दिये जावें, जिससे यह कथित संसद और संचालन की निष्पक्षता ही सवालों के घेरे में आ जाये तो मतदान रोककर ध्वनिमत से निर्णय लेकर अपने अवैधानिक एवं मनमाने विचारों को पारित करके खुशी मनाते हैं।

अन्त में बतलाना चाहूँगा कि इस कथित संसद में सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और संविधान में कमजोर वर्गों तथा अल्पसंख्यकों के संरक्षण के लिये निर्धारित पवित्र सिद्धान्तों के विध्वंसक अधिक हैं। एक प्रकार से ये लोग संविधान, राष्ट्र, समाज, धर्मनिरपेक्षता एवं समाज की समरसता के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं। ऐसे तालिबानी एवं मनमानी सोच को बढावा देने वाले लोगों के कारण ही नक्सलवाद जैसी समस्याओं से इस देश को जूझना पड रहा है।

अतः अब समाज के निष्पक्ष बुद्धिजीवियों को इस प्रकार के लोगों के कुप्रचार का जवाब देना चाहिये और समाज को इनसे सावधान रहने के लिये कार्य करना होगा। सरकार को भी देश व समाज को कमजोर करने वाली ताकतों के विरुद्ध शक्ति से पेश आना चाहिये। अन्यथा एक ऐसा वर्ग पैदा हो रहा है, जो अन्तरजाल पर जहर फैलाने में कामयाब हो गया तो नयी पीढी को भ्रमित होने से रोक पाना आसान नहीं होगा। इसके साथ-साथ सरकार को यह भी चाहिये कि वह संविधान की मर्यादा का पालन करे, जिससे ऐसे लोगों को अवसर ही नहीं मिले।