बेड़ियों और भेड़ियों से मुक्ति
सच्चे प्यार (स्नेह) और ध्यान से सम्भव!
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
आप लिखती हैं कि-
1- "औरत को आज़ाद तभी माना जा सकता है जब उसे बेड़ियों और भेड़ियों से रिहा कर दिया जाय। कहने का अर्थ उसे भी बराबरी का दर्जा दिया जाय।"
2- "प्यार, सम्मान और सुरक्षा की दरकार उसे भी है तथा औरत की आज़ादी के मायने भी यही हैं।"
आपके उक्त दो बिन्दुओं पर में कुछ लिखने की इच्छा रखता हूँ। आशा है कि आप इन विचारों को निरपेक्ष भाव से पढकर समझने का प्रयास करेंगी।
1. औरत को बेड़ियों और भेड़ियों से भारत में सरकार या समाज द्वारा अभियान चलाकर या घर-घर फैरी लगाकर आजाद करने की किसी नयी और पुख्ता व्यवस्था की उम्मीद करना, दिन में सपने देखने के समान है। जहाँ तक कानून की बात है तो सब आजाद हैं।
लेकिन सभी जानते हैं कि आप हम सब समाज के शिकंजे में फंसे हुए हैं। औरत की बेड़ियाँ मजबूत हैं। अत: औरत को ही क्यों और किसी भी कमजोर या संवेदनशील व्यक्ति को समाज से आजादी मिलना प्राय: असम्भव है। आप जिन बेड़ियों तथा भेड़ियों की बात कर रही हैं, ये इसी धर्मभीरू, बहुरंगी और ढोंगी समाज की दैन हैं।
मेरा मानना है कि इन बेड़ियों और भेड़ियों से केवल औरत या कोई भी व्यक्ति स्वयं सक्षम होने पर ही स्वयं को मुक्त कर सकता है।
इस दुनिया में लोग उसी की मदद करते हैं, जो स्वयं अपनी मदद करने को तत्पर हो। इसलिये निराशा के गहरे अन्धकार में डुबकी लगाने से बेहतर हैं कि हम वही देखें, वही सोचें और वही करें, जिसकी हमें वास्तव में जरूरत है।
हमारी स्वयं की सकारात्मक सोच, हमारी असम्भव सी प्रतीत होने वाली बहुत सारी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर देती है। जब हम सकारात्मक होते हैं तो बुरी से बुरी स्थिति में भी हमें आशा की किरण नजर आने लगती है और इसके विपरीत जब हम नकारात्मकता के भंवर में गौता लगा रहे होते हैं तो अच्छी से अच्छी स्थिति में भी हमें केवल निराशा एवं अन्धकार ही नजर आता है।
2-प्यार, सम्मान और सुरक्षा की दरकार औरत को भी है और आजादी के मायने भी यही हैं। आपकी इस बात से असहमत होने का कोई कारण ही नहीं
है
। यदि किसी औरत को प्यार, सम्मान और सुरक्षा नहीं मिलती तो उसका जीवन, नर्कमय हो जाता है। इसीलिये अधिकांश भारतीय गृहणियों का जीवन नर्कमय है। उन्हें हिस्टीरिया जैसी कभी न मिटने वाली बीमारियों को झेलना पडता है।
आपको एक कडवी बात बतला रहा हूँ कि भारत में प्रचलित वैवाहिक पारिवारिक बन्धनों रूपी
जेल
में (
सामाजिक व्यवस्था में) स्त्री द्वारा दैहिक सुरक्षा की आशा तो की जा सकती है, लेकिन प्यार और सम्मान किन्हीं अपवादों को छोड दिया जाये तो असम्भव है। जबकि हर कुंवारी लडकी विवाह के बाद आशा करती है कि उसे ससुराल में प्यार, सम्मान और सुरक्षा मिलेगी।
स्त्री ही नहीं पुरुष भी विवाह के बाद प्यार एवं सम्मान की अपेक्षा करते हैं। सुरक्षा के मामले में पुरुषों की स्थिति थोडी बेहतर है। लेकिन पुरुषों को भी कहाँ मिलता है-वांछित प्यार एवं सम्मान? मैं फिर से दौहराना चाहूँगा कि भारत में प्रचलित वैवाहिक पारिवारिक बन्धनों की व्यवस्था में प्यार और सम्मान किन्हीं अपवादों को छोड दिया जाये तो असम्भव है।
एक विद्वान मानव व्यवहार शास्त्री का कहना है कि यदि आप किसी स्त्री का या किसी पुरुष का प्यार पाने की आकांक्षा रखते/रखती हैं तो उस पुरुष/स्त्री से कभी भी विवाह नहीं करे और यदि आपने किसी से विवाह रचा लिया है और आपकी चाह है कि आपका विवाह ताउम्र चले तो अपने पति/पत्नी से कभी भी प्यार पाने की उम्मीद नहीं करें।
उक्त कथन की अन्तिम पंक्ति को समझ कर जीने क नाटक करने वाले पति-पत्नी समाज में सफल दम्पत्ति की उपाधि से नवाजे जाते हैं।
हो सकता है कि भारतीय सामाजिक परिवेश में आपको मेरी उपरोक्त बातें अप्रासंगिक लगें, लेकिन मानव हृदय के उदगार या प्यार के अहसास देश और समाज की सीमाआ में नहीं बांधे जा सकते!
जब व्यक्ति अपने अहसास और समाज के बन्धनों के बीच कशमशाता है तो वह सबसे बडी सजा भुगत रहा होता है, जिससे कोई समाज या कानून मुक्त नहीं कर सकता! स्वयं व्यक्ति को इस प्रकार की स्थिति से मुक्त होने के रास्ते अपनाने होते हैं, जिनका मार्ग सच्चे प्यार (स्नेह) और ध्यान से सम्भव है।
शुभकामनाओं सहित।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'