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Tuesday, November 15, 2011

क्या भारत का मतदाता भहरूपियों को नयी दिल्ली की गद्दी सौंपने को तैयार है?

इस समय देश की दिशा और दशा दोनों ही डगमगाने लगी हैं| सम्पूर्ण भारत में मंहगाई सुरसा की भांति विकराल रूप धारण करती जा रही है| जिसके प्रति केन्द्र सरकार तनिक भी चिन्तित नहीं दिखती है| परिणामस्वरूप जहॉं एक ओर गरीब मर रहा है| उसके लिये जीवनयापन भी मुश्किल हो गया है| किसान आत्महत्या कर रहे हैं| जबकि इसके विपरीत सम्पन्न और शासक वर्ग दिनोंदिन धनवान होकर विलासतपूर्ण जीवन जीने और उसका प्रदर्शन करने से भी नहीं चूक रहा है|


इन हालातों में जहॉं एक ओर युवा वर्ग निराशा और अवसाद से ग्रस्त होकर सृजन के बजाय विसृजन तथा आपराधिक कार्यों की ओर प्रवृत्त हो रहा है| जिसके चलते सड़क पर चलती औरतों के जैवर लूटे जा रहे हैं, चोरी-डकैतियॉं और एटीम मसीनों को चुराने तक की घटनाओं में भारत का भविष्य अर्थात् युवावर्ग लिप्त हो रहा है|

प्रतिपक्ष जिसका कार्य, सत्ताधारी दल की राजनैतिक असफलताओं, कमजोरियों और मनमानी नीतियों को उजागर करके देश और समाज के सामने लाना है, वह निचले दबके और अल्पसंख्यकों के प्रति पाले हुए स्थायी दुराग्रहों और धर्मान्धता की बीमारी से मुक्त नहीं हो पा रहा है| स्वयं प्रतिपक्षी पार्टी के लोग जो कभी ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ की बात किया करते थे, खुद भी उसी प्रकार से सत्ताधारियों की भांति भ्रष्ट हैं और गिरगिट की भांति रंग बदल रहे हैं| जिस प्रकार से कांशीराम के अवसान के बाद मायावती ने ‘तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार’ के नारे को भूलकर ब्राह्मणों के साथ दिखावटी दोस्ती करके सत्ता पर काबिज हो चुकी हैं| यही नहीं माया ने अन्य सभी राजनैतिक दलों को अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने को भी मजबूर कर दिया है|

सत्ताधारियों और सत्ता से बेदखल लोगों का चरित्र कहॉं है, आम लोग समझ ही नहीं पाते हैं| जो पार्टी सिर्फ सोनिया तथा मनमोहन की पूँजीवादी नीतियों के इर्दगिर्द घूमती रही है, उस पार्टी को मिश्रित अर्थव्यवस्था के जन्मदाता जवाहर लाल नेहरू को अचानक अपने बैनरों पर छाप देना और इन्दिरा, लाल बहादुर, राजीव और नरसिम्हाराव को एक ओर कर देना अपने आप में अनेक भ्रम और भ्रान्तियों का शिकार होने का द्योतक है| इसका मतलब ये समझा जाये कि अब मनमोहन सिंह के दिन लद गये हैं? जबकि स्वयं यूपीए का कहना है कि दुनिया के तमाम देश आर्थिक संकट से त्रस्त हैं, लेकिन भारत में अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री होने के कारण ही भारत की अर्थव्यवस्था बच सकी है?

भारत की सबसे बड़ी दूसरी पार्टी भाजपा का रिमोट कंट्रोल संघ भी अब अपने आपको इस कदर नीचे गिरा चुका है कि जबरन अन्ना के पीछे लग रहा है, जबकि अन्ना मानने को ही तैयार ही नहीं है| यह बात अलग है कि अब तो सारा देश जान चुका है कि अन्ना भाजपा और संघ का ही संयुक्त उत्पाद है| इसके बावजूद अन्ना अभी भी संघ और भाजपा से दूरी बनाये रखने में क्या कोई ऐसी राजनीति खेल रहे हैं, जिसके परिणाम यूपीए को उसकी बेवकूफियों और हठधर्मिता का दुष्परिणाम भोगने को विवश कर देंगे?

अब तो कॉंग्रेस से दशकों से जुड़े कट्टर कॉंग्रेसी भी यह मानने लगा है कि कॉंग्रेस दिशाभ्रम की शिकार होने के साथ-साथ भाजपा-संघ-हिन्दुत्वादी ताकतों के चक्रव्यूह में इतनी बुरी तरह से फंसती जा रही है कि २०१४ के चुनाव में कॉंग्रेस की नैया पार लगना आसान नहीं होगा| वहीं दूसरी ओर कॉंग्रेस की राजनीतिक सूझबूझ के जानकारों का कहना है कि २०१४ आने तक तो देश का परिदृश्य ही बदल चुका होगा| उनका कहना है कि नीतीश कुमार भाजपा से पीछा छुड़ा चुके होंगे और आडवाणी, मोदी, स्वराज, जेटली, राजनाथ सिंह और गडकरी की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षाओं से टकराकर भाजपा बिखरने के कगार पर पहुँच चुकी होगी| जबकि कुछ दूसरे जनाकारों का कहना है कि यदि हालात ऐसे ही रहे तो भाजपा के नेतृत्व की कमान पण्डित मुरली मनोहर जोशी को मिल सकती है, जो लम्बे समय से इन्तजार में हैं|

इन हालातों में भारत की दिशा और दशा दोनों ही पटरी से उतरी हुई लगती हैं, जिसके चलते न मात्र देश का शासकीय भविष्य भ्रष्ट ब्यूराक्रेट्स की मनमानी नीतियों का शिकार है, बल्कि अन्ना हजारे, बाबा रामदेव और श्रीश्री रविशंकर जैसे लोग भी नीति और अनीति को भूलकर इसी स्थिति का लाभ उठाकर तथा एकजुट होकर अपनी पूरी ताकत झोंक देने का रिस्क ले चुके हैं और हर हाल में इस देश में मुस्लिम, दमित, दलित, पिछड़ा, आदिवासी और महिला उत्थान के विराधी होने और साथ ही साथ हिन्दुत्वादी राष्ट्र की स्थापना करने की बातें करने का समय-समय पर नाटक करने वाले लोगों को भारत की सत्ता में दिलाने के हर संभव प्रयास कर रहे हैं| 

अब सबसे बड़ा सवाल यही है की क्या भारत का धर्मनिरपेक्ष, सामाजिक न्याय को समर्पित और सौहार्दपूर्ण संस्कारों में आस्था तथा विश्‍वास रखने वाला आम मतदाता, मंहगाई और भ्रष्टाचार से तंग होकर ऐसे भहरूपियों को नयी दिल्ली की गद्दी सौंपने को तैयार है? लगता तो नहीं, लेकिन यूपीए सरकार की वर्तमान आम आदमी विरोधी नीतियों से निजात पाने के लिये मतदाता गुस्से में कुछ भी गलती कर सकता है!