मेरे शुभचिंतक और समालोचक जिनके विश्वास एवं संबल पर मैं यहाँ लिख पा रहा हूँ!

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Thursday, August 19, 2010

डॉ. लोहिया

"भारतीय संस्कृति और डॉ. राम मनोहर लोहिया" पर मेरी टिप्पणी
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
Dr. Purushottam Meena 'Nirankush'

प्रवक्ता डॉट कॉम पर प्रदर्शित आलेख
भारतीय संस्कृति और डॉ. राम मनोहर लोहिया-लेखक डॉ. मजोज चतुर्वेदी पर मेरी टिप्पणी प्रस्तुत है-

बहुयामी लेख लिखने के लिए डॉ. चतुर्वेदी जी को धन्यवाद!

प्रस्तुत लेख के विद्वान लेखक डॉ. मनोज चतुर्वेदी जी का कहना है कि-

“डॉ. राममनोहर लोहिया भारतीय संस्कृति के व्याख्याता, भारतीय राजनीति के विराट् व्यक्तित्व, भारतीय समाजवाद के प्रचारक तथा एक महान देशभक्त थे। वे राजनीतिज्ञों तथा नौकरशाहों के लिए आतंक थे, तो दलितों के मसीहा, शोषितों के उध्दारक तथा भारतीय राजनीति के स्वप्नद्रष्टा थे।”
आगे आपने लिखा है कि-

“यह ठीक है कि महात्मा गांधी ने राम तथा कृष्ण को ऐतिहासिक व्यक्ति न मानकर (मिथकिय) काल्पनिक व्यक्ति माना है,……”

लेखक ने डॉ. लोहिया के विचारों के बारे में ये भी लिखा है कि-

“क्या शालीनता, सहनशीलता, त्याग, समर्पण तथा पतिव्रत धर्म का पालन करना मात्र स्त्री का ही धर्म है। कि वो पुरूषवादी मानसिकता को सहती रहे। पुरूष उसे संपत्ति माने। उसे जब चाहें रौदे। चाहे जो मन में आए वो करें। यह इसलिए कि वो उस पुरूष की व्याहिता है। उसकी पत्नी है। उसकी संपत्ति है। पर पुरूष के उपर ये नियम नही लागु होते क्या? अन्याय, अत्याचार तथा शोषण का प्रतिकार उसे करनी ही होगी।”

लेखक ने डॉ. लोहिया को उधृत करते हुए लिखा है कि डॉ. लोहिया ने कहा था कि-

१-”बनारस और दूसरी जगह के मंदिरों में हरिजन सवर्ण भेद खत्म हो।”

२-”भारतीय गणतंत्र के राष्ट्रपति ने पुण्य नगरी काशी में सार्वजनिक रूप से दो सौ ब्राह्मणों के पैर धोए। सार्वजनिक रूप से किसी का पैर धोना अश्लीलता है। इस अश्लील काम को ब्राह्मण जाति तक सीमित करना दंडनीय अपराध माना जाना चाहिए। इस विशेषाधिकार प्राप्त जाति में अधिकांशतः ऐसो को सम्मिलित करना, जिनमें न योग्यता हो न चरित्र, विवेक बुद्धि का पूरा त्याग है जो जाति-प्रथा और पागलपन अवश्यंभावी अंग है।”

३-"बलात्कार और वादाफरामोशी को छोड़कर औरत-मर्द के बीच सारे रिश्ते जायज है। लड़की की शादी करना मां-बाप की जिम्मेवारी नहीं, अच्छा स्वास्थ्य और अच्छी शिक्षा दे देने पर उनकी जिम्मेवारी खतम हो जाती है।”

४- "अवसर मिलने से योग्यता आती है। देश में सभी 60 प्रतिशत अवसर हिंदुस्तान की 90 प्रतिशत आबादी यानि शुद्र, हरिजन, धार्मिक अल्पसंख्यकों की पिछड़ी जातियां, औरत और आदिवासियों को मिलनी चाहिए। इस सिध्दांत को ऊंची-से-ऊंची प्रतियोगिता में लागू करना चाहिए।”

लेखक आगे लिखते है कि-

डॉ. लोहिया राष्ट्रीय एकता एवं समाजिक समरसता के लिए एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे जिसमें-

“जोशी, पांडेय, मिश्रा, उपाध्याय, त्यागी, प्रधान, सिंह, राठौर, रेड्डी, नंबुदरी, डोंगरा, मुखर्जी, यादव, हरिजन नामक जाति सूचक शब्दों का स्थान न होता तथा राज्यसत्ता पर ब्राह्मण तथा बनिया वर्चस्व समाप्त हो।”

विद्वान लेखक डॉ. मनोज चतुर्वेदी जी एवं डॉ. लोहिया के विचारों से सहमति या असहमति प्रकट किये बिना विचारणीय मुद्दा/सवाल यह है कि-

मेरे अनेक विद्वान मित्र प्रवक्ता पर डॉ. लोहिया के जैसे विचारों के प्रकटीकरण को देश, हिंदुत्व और संसकृति कि विरुद्ध मानते हैं. क्या डॉ. लोहिया जी भी देश, हिंदुत्व और संसकृति के विरोधी थे?
शायद इस बात से कोई भी सहमत नहीं होगा.

इसलिए सवाल ये नहीं है कि कौन क्या कह रहा है या कौन क्या कह गया है, बल्कि सवाल ये है कि कही हुई बातों पर कहने वालों ने कितना अमल किया? इस कसौटी पर डॉ. लोहिया जी को खरा मानने में कोई मतभेद नहीं हो सकते.

मैं केवल यही कहना चाहूँगा कि सत्य की आराधना करने वाले और सत्य को जीने वाले, सत्य को कहने में संकोच नहीं करते! बेशक महार जाती में जन्मे डॉ. आंबेडकर हों या वैश्य जाती में जन्मे डॉ. लोहिया हों.

हमें भारत के इन महान सपूतों से ईमानदारी से सच को कहने और बिना पूर्वाग्रह सच लो सुनने का सामर्थ्य सीखना होगा. तब ही हम राष्ट्र भक्त या संस्कृति के सच्चे संवर्धक या संरक्षक कहलाने के हक़दार हैं!