मेरे शुभचिंतक और समालोचक जिनके विश्वास एवं संबल पर मैं यहाँ लिख पा रहा हूँ!

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Monday, November 29, 2010

संगठित जनता की एकजुट ताकत के आगे झुकना सत्ता की मजबूरी!

"या तो हम अत्याचारियों के जुल्म और मनमानी को सहते रहें या समाज के सभी अच्छे, सच्चे, देशभक्त, ईमानदार और न्यायप्रिय-सरकारी कर्मचारी, अफसर तथा आम लोग एकजुट होकर एक-दूसरे की ढाल बन जायें।"

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
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आज हमारे लिये सबसे जरूरी और महत्वपूर्ण है कि देश या समाज के लिये न सही, कम से कम अपने आपके और अपनी आने वाली पीढियों के सुखद एवं सुरक्षित भविष्य के लिये तो हम अपने वर्तमान जीवन को सुधारें। यदि हम सब लोग केवल अपने वर्तमान को सुधारने का ही दृढ निश्चय कर लें तो आने वाले कल का अच्छा होना तय है, लेकिन हमारे आज अर्थात् वर्तमान के हालात तो दिन-प्रतिदिन बिगडते ही जा रहे हैं। हम चुपचाप सबकुछ देखते और झेलते रहते हैं। जिसका दुष्परिणाम यह है कि आज हमारे देश में जिन लोगों के हाथों में सत्ता की ताकत हैं, उनमें से अधिकतर का सच्चाई, ईमानदारी एवं इंसाफ से दूर-दूर का भी नाता नहीं रह गया है। अधिकतर भ्रष्टाचार के दलदल में अन्दर तक धंसे हुए हैं और अब तो ये लोग अपराधियों को संरक्षण भी दे रहे हैं। ताकतवर लोग जब चाहें, जैसे चाहें देश के मान-सम्मान, कानून, व्यवस्था और संविधान के साथ बलात्कार करके चलते बनते हैं और सजा होना तो दूर इनके खिलाफ मुकदमे तक दर्ज नहीं होते! जबकि बच्चे की भूख मिटाने हेतु रोटी चुराने वाली अनेक माताएँ जेलों में बन्द हैं। इन भ्रष्ट एवं अत्याचारियों के खिलाफ यदि कोई आम व्यक्ति या ईमानदार अफसर या कर्मचारी आवाज उठाना चाहे, तो उसे तरह-तरह से प्रताड़ित एवं अपमानित करने का प्रयास किया जाता है और सबसे दु:खद तो ये है कि पूरी की पूरी व्यवस्था अंधी, बहरी और गूंगी बनी देखती रहती है।

अब तो हालात इतने बिगडते चुके हैं कि मसाले, घी, तेल और दवाइयों तक में धडल्ले से मिलावट की जा रही है। ऐसे में कितनी माताओं की कोख मिलावट के कारण उजड जाती है और कितनी नव-प्रसूताओं की मांग का सिन्दूर नकली दवाईयों के चलते युवावस्था में ही धुल जाता है, कितने पिताओं को कन्धा देने वाले तक नहीं बचते, इस बात का अन्दाजा भी नहीं लगाया जा सकता। इस सबके उपरान्त भी इन भ्रष्ट एवं अत्याचारियों का एकजुट होकर सामना करने के बजाय हम चुप्पी साधकर, अपने कानूनी हकों तक के लिये भी गिडगिडाते रहते हैं।

अधिकतर लोग तो इस डर से ही चुप्पी साध लेते हैं कि यदि वे किसी के खिलाफ बोलेंगे तो उन्हें भी फंसाया जा सकता है। इसलिये वे अपने घरों में दुबके रहते हैं! ऐसे लोगों से मेरा सीधा-सीधा सवाल है कि यदि ऐसा ही चलता रहा तो आने वाले समय में हमारे आसपास की गंदगी को साफ करने वाले यह कहकर सफाई करना बन्द कर देंगे, कि गन्दगी साफ करेंगे तो गन्दगी से बीमारी होने का खतरा है? खानों में होने वाली दुर्घटनाओं से भयभीत होकर खनन मजदूर यह कहकर कि खान गिरने से जीवन को खतरा है, खान में काम करना बंद कर दे, तो क्या हमें खनिज उपलब्ध हो पायेंगे? इलाज करते समय मरीजों से रोगाणुओं से ग्रसित होने के भय से डॉक्टर रोगियों का उपचार करना बन्द कर दें, तो बीमारों को कैसे बचाया जा सकेगा? आतंकियों, नक्सलियों एवं गुण्डों के हाथों आये दिन पुलिसवालों के मारे जाने के कारण यदि पुलिस यह सोचकर इनके खिलाफ कार्यवाही करना बन्द कर दें कि उनको और उनके परिवार को नुकसान पहुँचा सकता हैं, तो क्या सामाज की कानून व्यवस्था नियन्त्रित रह सकती है? पुलिस के बिना क्या हमारी जानमाल की सुरक्षा सम्भव है? आतंकियों तथा दुश्मनों के हाथों मारे जाने वाले फौजियों के शवों को देखकर, फौजी सरहद पर पहरा देना बंद कर दें, तो क्या हम अपने घरों में चैन की नींद सो पाएंगे?

यदि नाइंसाफी के खिलाफ हमने अब भी अपनी चुप्पी नहीं तोडी और यदि आगे भी ऐसा ही चलता रहा तो आज नहीं तो कल जो कुछ भी शेष बचा है, वह सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट हो जाने वाला है। आज आम व्यक्ति को लगता है कि उसकी रक्षा करने वाला कोई भी नहीं है! क्या इसका कारण ये नहीं है, कि आम व्यक्ति स्वयं ही अपने आप पर विश्वास खोता जा रहा है? ऐसे हालात में दो ही रास्ते हैं-या तो हम अत्याचारियों के जुल्म और मनमानी को सहते रहें या समाज के सभी अच्छे, सच्चे, देशभक्त, ईमानदार और न्यायप्रिय-सरकारी कर्मचारी, अफसर तथा आम लोग एकजुट होकर एक-दूसरे की ढाल बन जायें। क्योंकि लोकतन्त्र में समर्पित, संगठित एवं सच्चे लोगों की एकजुट ताकत के आगे झुकना त्ता की मजबूरी है और सत्ता वो धुरी है, जिसके आगे सभी प्रशासनिक निकाय और बडे-बडे अफसर आदेश की मुद्रा में मौन खडे रहते हैं।

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