मेरे शुभचिंतक और समालोचक जिनके विश्वास एवं संबल पर मैं यहाँ लिख पा रहा हूँ!

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Tuesday, October 4, 2016

ऐसे निर्दयी रिश्तों और समाज का मूल्य क्या है?

ऐसे निर्दयी रिश्तों और समाज का मूल्य क्या है?
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लेखक : सेवासुत डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
हमारे समाज में बात-बात पर रिश्तों, नैतिकता, संस्कारों और संस्कृति की दुहाई दी जाती है। जिनकी आड़ में अकसर खुनकर नजर आने वाली हकीकत और सत्य से मुख मोड़ लिया जाता है। जबकि समाजिक और खूनी रिश्तों का असली चेहरा अत्यन्त विकृत हो चुका है। आत्मीय रक्त सम्बन्धों में असंवेदनशीलता/ Insensibility/Non-Sensitivity और उथलापन/Shallowness अब बहुत आम बात हो चुकी है। यदि हम अपने आसपास सतर्क और पैनी दृष्टि से अवलोकन करें तो एक नहीं कई सौ ऐसे क्रूर उदाहरण देखने को मिल जायेंगे। जिन पर सहजता से सार्वजनिक रूप से बात तक नहीं की जा सकती। कुछ आँखों देखे हर जगह देखे जा सकने वाले उदाहरण :—
1. अपने पूर्वाग्रहों के चलते बेटे अपने ही पिता की हत्या करने को उद्यत/prepared रहते हैं। मारपीट आम बात बन चुकी है। अनेक बार पिता की हत्या तक कर दी जाती हैं।
2. पिता द्वारा अपने ही बेटों में से किसी एक कमजोर बेटे के साथ साशय/intentionally और क्रूरतापूर्ण विभेद किया जाता है। जिसकी कीमत वह जीवनभर चुकाने को विवश हो जाता है।
3. रिश्वत तथा उच्च पद की ताकत से मदमस्त कुछ भाईयों द्वारा अपने से कमजोर भाई या भाईयों के साथ सरेआम अपमान, विभेद तथा नाइंसाफी की जाती है।
उपरोक्त हालातों में आर्थिक रूप से कमजोर और उच्च-पदस्थ सक्षम भाईयों, पिता, बेटों के आतंक का दुष्परिणाम, कमजोर और उत्पीड़ितों के लिये मानसिक विषाद, तनाव और अनेक मामलों में आत्महत्या की घटनाओं तक में देखने-सुनने को मिलता है। इससे भी दुखद यह है कि ऐसी अमानवीय तथा आपराधिक घटनाओं को हम, सभ्य समाज के सभ्य लोग सिर्फ छोटी सी घटना और, या खबर मानकर अनदेखी करते रहते हैं, जबकि ऐसी घटनाएं ही समाज और समाज के ताने-बाने का ध्वस्त कर रहती हैं। ऐसी अनदेखी ही आत्मीय रिश्तों को बेमौत मार देती हैं। कितने ही पुत्र, पिता और भाई आत्मग्लानी, तनाव, रुदन और आत्मघात के शिकार हो रहे हैं। बावजूद इसके ऐसे मामले सूचना क्रान्ति के वर्तमान युग में भी दबे-छिपे रहते हैं, क्योंकि आत्मीय रिश्तों को किसी भी तरह से बचाने की जद्दो-जहद में इस प्रकार की अन्यायपूर्ण घटनाएं चाहकर भी व्यथित पक्ष द्वारा औपचारिक तौर पर सार्वजनिक रूप उजागर नहीं की जाती हैं। यद्यपि उत्पीड़क और उत्पीड़ित दोनों ही पक्षों के बारे में आस-पास के लोग और सभी रिश्तेदार सबकुछ जानते हुए भी मौन साधे रहते हैं। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि व्यथित और उत्पीड़ित पक्ष के लिये ऐसे निर्दयी रिश्तों और समाज का मूल्य क्या है?
लेखक : सेवासुत डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
मोबाईल एवं वाट्स एप नं. : 9875066111

Sunday, November 24, 2013

नाम बताये बिना आरटीआई

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

कलकत्ता हाईकोर्ट ने एक याचिका पर निर्णय सुनाते हुए इस बात को मान्यता दी है कि सूचना का अधिकार अधिनियम कानून के तहत सूचना प्राप्त करने के लिये आरटीआई का आवेदन दायर करने वाले आवेदकों के जीवन को खतरा है। कलकत्ता हाईकोर्ट ने अपने आदेश में केवल इतना ही नहीं स्वीकारा है, बल्कि साथ-साथ यह आदेश भी पारित किया है कि सूचना चाहने वाले अपना नाम-पता जाहिर किये बिना ही आरटीआई का आवेदन पेश कर सकते हैं और इस प्रकार से पेश आवेदन पर सूचना दी जायेगी।

Friday, January 7, 2011

रूपम पाठक एक चेतावनी है!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

रूपम पाठक का मामला केवल बिहार, भाजपा, नीतिश कुमार या राजनैतिक ताकतों के मनमानेपन का ही प्रमाण नहीं है, बल्कि यह प्रकरण एक ऐसा उदाहरण है जो हर छोटे-बडे व्यक्ति को यह सोचने का विवश करता है कि नाइंसाफी से परेशान इंसान किसी भी सीमा तक जा सकता है।
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सारे देश में लोगों के लिये यह खबर एक नया सन्देश लेकर आयी है कि-बिहार विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी के टिकिट पर चुनकर आये बाहुबली विधायक राजकिशोर केसरी का जनता से मेलमिलाप के दौरान रूपम पाठक ने सार्वजनिक रूप से चाकू घोंपकर बेरहमी से कत्ल कर दिया। मौके पर तैनात पुलिस वालों ने रूपम को घटनास्थल पर पकड लिया और पीट-पीट कर अधमरा कर दिया।

घटनास्थल पर उपस्थित अधिकांश लोगों को और विशेषकर पुलिसवालों को इस बात की पूरी जानकारी थी कि विधायक पर क्यों हमला किया गया है एवं हमला करने वाली महिला कितनी मजबूर थी। बावजूद इसके पुलिस वालों ने आक्रमण करने वाली महिला अर्थात् रूपम पाठक द्वारा किये गए आक्रमण के समय सुरक्षा गार्ड उसको नियन्त्रित नहीं कर सके और उसकी बेरहमी से पिटाई की, जिसका पुलिस को कोई अधिकार नहीं था। जहाँ तक मुझे जानकारी है, रूपम की पिटाई करने वाले पुलिस वालों के विरुद्ध किसी प्रकार का प्रकरण तक दर्ज नहीं किया गया है। जबकि रूपम के विरुद्ध हत्या का अभियोग दर्ज करने के साथ-साथ, रूपम पर आक्रमण करने वालों के विरुद्ध भी मामला दर्ज होना चाहिये था।

राजकिशोर केसरी की हत्या के बाद यह बात सभी के सामने आ चुकी है कि इस घटना से पहले रूपम पाठक ने बाकायदा लिखित में फरियाद की थी कि राज किशोर केसरी, विधायक चुने जाने से पूर्व से ही गत तीन वर्षों से उसका यौन-शोषण करते रहे थे और उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित भी कर रहे थे। जिसके विरुद्ध नीतिश कुमार प्रशासन से कानूनी संरक्षण प्रदान करने और दोषी विधायक के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करने की मांग भी की गयी थी, लेकिन पुलिस प्रशासन एवं नीतिश सरकार कुमार ने रूपम पाठक को न्याय दिलाना तो दूर, किसी भी प्रकार की प्राथमिक कानूनी कार्यवाही करना तक जरूरी नहीं समझा। आखिर सत्ताधारी गठबन्धन के विधायक के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही कैसे की जा सकती थी?

स्वाभाविक रूप से रूपम पाठक द्वारा पुलिस को फरियाद करने के बाद; विधायक राज किशोर केसरी एवं उनकी चौकडी ने रूपम पाठक एवं उसके परिवार को तरह-तरह से प्रताड़ित करना शुरू कर दिया। सूत्र यह भी बतलाते हैं कि रूपम पाठक से राज किशोर केसरी के लम्बे समय से सम्बन्ध थे। जिन्हें बाद में रूपम ने यौन शोषण का नाम दिया है। हालांकि इन्हें रूपम ने अपनी नीयति मानकर स्वीकार करना माना है, लेकिन पिछले कुछ समय से राज किशोर केसरी ने रूपम की 17-18 वर्षीय बेटी पर कुदृष्टि डालना शुरू कर दिया था, जो रूपम पाठक को मंजूर नहीं था। इसी कारण से रूपम पाठक ने पहले पुलिस में गुहार की और जब कोई सुनवाई नहीं हुई तो खुद ने ही विधायक एवं विधायक के आतंक का खेल खतम कर दिया!

रूपम पाठक ने जिस विधायक का खेल खत्म किया है, उस विधायक के विरुद्ध दाण्डिक कार्यवाही नहीं करने के लिये बिहार की पुलिस के साथ-साथ नीतिश कुमार के नेतृत्व वाली संयुक्त सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती है। विशेषकर भाजपा इस कलंक को धो नहीं सकती, क्योंकि राजकिशोर केसरी को भाजपा ने यह जानते हुए भी टिकिट दिया कि राज किशोर केसरी पूर्णिया जिले में आपराधिक छवि के व्यक्ति के रूप में जाना जाता था। जिसकी पुष्टि चुनाव लडने के लिये पेश किये गये स्वयं राज किशोर केसरी के शपथ-पत्र से ही होती है।

पवित्र चाल, चरित्र एवं चेहरे तथा भय, भूख एवं भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने का नारा देने वाली भाजपा का यह भी एक चेहरा है, जिसे बिहार के साथ-साथ पूरे देश को ठीक से पहचान लेना चाहिये और नीतिश कुमार को देश में सुशासन के शुरूआत करने वाला जननायक सिद्ध करने वालों को भी अपने गिरेबान में झांकना होगा। इससे उन्हें ज्ञात होना चाहिये कि बिहार के जमीनी हालात कितने पाक-साफ हैं। जो सरकार एक महिला द्वारा दायर मामले में संज्ञान नहीं ले सकती, उससे किसी भी नयी शुरूआत की उम्मीद करना दिन में सपने देखने के सिवा कुछ भी नहीं है!

रूपम पाठक का मामला केवल बिहार, भाजपा, नीतिश कुमार या राजनैतिक ताकतों के मनमानेपन का ही प्रमाण नहीं है, बल्कि यह प्रकरण एक ऐसा उदाहरण है जो हर छोटे-बडे व्यक्ति को यह सोचने का विवश करता है कि नाइंसाफी से परेशान इंसान किसी भी सीमा तक जा सकता है। पुलिस, प्रशासन एवं लोकतान्त्रिक ताकतें आम व्यक्ति के प्रति असंवेदनशील होकर अपनी पदस्थिति का दुरूपयोग कर रही हैं और देश के संसाधनों का मनमाना उपयोग तथा दुरूपयोग कर रही हैं। सत्ता एवं ताकत के मद में आम व्यक्ति के अस्तित्व को ही नकार रही हैं।

ऐसे मदहोश लोगों को जगाने के लिये रूपम ने फांसी के फन्दे की परवाह नहीं करते हुए, अन्याय एवं मनमानी के विरुद्ध एक आत्मघाती कदम उठाया है। जिसे यद्यपि न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन रूपम का यह कदम न्याय एवं कानून-व्यवस्था की विफलता का ही प्रमाण एवं परिणाम है। जब कानून और न्याय व्यवस्था निरीह, शोषित एवं दमित लोगों के प्रति असंवेदनशील हो जाते हैं तो रूपम पाठक तथा फूलन देवियों को अपने हाथों में हथियार उठाने पडते हैं। जब आम इंसान को हथियार उठाना पडता है तो उसे कानून अपराधी मानता है और सजा भी सुनाता है, लेकिन देश के कर्णधारों के लिये और विशेषकर जन प्रतिनिधियों तथा अफसरशाही के लिये यह मनमानी के विरुद्ध एक ऐसी शुरूआत है, जिससे सर्दी के कडकडाते मौसम में अनेकों का पसीना छूट रहा है।

अत: बेहतर होगा कि राजनेता, पुलिस एवं उच्च प्रशासनिक अधिकारी रूपम के मामले से सबक लें और लोगों को कानून के अनुसार तत्काल न्याय देने या दिलाने के लिये अपने संवैधानिक और कानूनी फर्ज का निर्वाह करें, अन्यथा हर गली मोहल्लें में आगे भी अनेक रूपम पैदा होने से रोकी नहीं जा सकेंगी। समझने वालों के लिये रूपम एक चेतावनी है!

Friday, November 5, 2010

जागरूकता का प्रकाश ही दिवाली!

जागरूकता का प्रकाश ही दिवाली!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

हमारे पूर्वजों द्वारा लम्बे समय से दिवाली के अवसर पर रोशनी हेतु दीपक जलाये जाते रहे हैं। एक समय वह था, जब दीपावली के दिन अमावस की रात्री के अन्धकार को चीरने के लिये लोगों के मन में इतनी श्रृद्धा थी कि अपने हाथों तैयार किये गये शुद्ध घी के दीपक जलाये जाते थे। समय बदला और साथ ही साथ श्रृद्धा घटी या गरीबी बढी कि लोगों ने घी के बजाय तेल के दिये जालाने की परम्परा शुरू कर दी।

समय ने विज्ञान के साथ करवट बदली माटी का दीपक और कुम्हार भाईयों का सदियों पुराना परम्परागत रोजगार एक झटके में छिन गया। दिवाली पर एक-दो सांकेतिक दीपक ही मिट्टी के रह गये और मोमबत्ती जलने लगी। अब तो मोमबत्ती की उमंग एवं चाह भी पिघल चुकी है। विद्युत की तरंगों के साथ दीपावली की रोशनी का उजास और अन्धकार को मिटाने का सपना भी निर्जीव हो गया लगता है।

दीपक जलाने से पूर्व हमारे लिये विचारणीय विषय कुछ तो होना चाहिये। आज के समय में मानवीय अन्धकार के साये के नीचे दबे और सशक्त लोगों के अत्याचार से दमित लोगों के जीवन में उजाला कितनी दूर है? क्या दिवाली की अमावस को ऐसे लोगों के घरों में उजाला होगा? क्या जरूरतमन्दों को न्याय मिलने की आशा की जा सकती है? क्या दवाई के अभाव में लोग मरेंगे नहीं? क्या बिना रिश्वत दिये अदालतों से न्याय मिलेगा? दर्द से कराहती प्रसूता को बिना विलम्ब डॉक्टर एवं नर्सों के द्वारा संभाला जायेगा? यदि यह सब नहीं हो सकता तो दिवाली मनाने या दीपक जलाने का औचित्य क्या है?

हमें उन दिशाओं में भी दृष्टिपात करना होगा, जिधर केवल और अन्धकार है! क्योंकि अव्यवस्था एवं कुछेक दुष्ट, बल्कि महादुष्ट एवं असंवेदनशील लोगों की नाइंसाफी का अन्धकार न केवल लोगों के वर्तमान एवं भविष्य को ही बर्बाद करता रहा है, बल्कि नाइंसाफी की चीत्कार नक्सलवाद को भी जन्म दे रही है। जिसकी जिनगारी हजारों लोगों के जीवन को लील चुकी है और जिसका भष्टि अमावश की रात्री की भांति केवल अन्धकारमय ही नजर आ रहा है। आज नाइंसाफी की चीत्कार नक्सलवाद के समक्ष ताकतवर राज्य व्यवस्था भी पंगु नजर आ रही है। आज देश के अनेक प्रान्तों में नक्सलवाद के कहर से कोई नहीं बच पा रहा है!

अन्धकार के विरुद्ध प्रकाश या नाइंसाफी के विरुद्ध इंसाफ के लिये घी, तेल, मोम या बिजली के दीपक या उजाले तो मात्र हमें प्रेरणा देने के संकेतभर हैं। सच्चा दीपक है, अपने अन्दर के अन्धकार को मिटाकर उजाला करना! जब तक हमारे अन्दर अज्ञानता या कुछेक लोगों के मोहपाश का अन्धकार छाया रहेगा, हम दूसरों के जीवन में उजाला कैसे बिखेर सकते हैं।

अत: बहुत जरूरी है कि हम अपने-आपको अन्धेरे की खाई से निकालें और उजाले से साक्षात्कार करें। अत: दिवाली के पावन और पवित्र माने जाने वाले त्यौहार पर हमें कम से कम समाज में व्याप्त अन्धकार को मिटाने के लिये नाइंसाफी के विरुद्ध जागरूकता का एक दीपक जलाना होगा, क्योंकि जब जागरूक इंसान करवट बदलता है तो पहा‹डों और समुद्रों से मार्ग बना लेता है। इसलिये इस बात को भी नहीं माना जा सकता कि मानवता के लिये कुछ असम्भव है। सब कुछ सम्भव है। जरूरत है, केवल सही मार्ग की, सही दिशा की और सही नेतृत्व की। आज हमारे देश में सही, सशक्त एवं अनुकरणीय नेतृत्व का सर्वाधिक अभाव है।

किसी भी राष्ट्रीय दल, संगठन या समूह के पास निर्विवाद एवं सर्वस्वीकार्य नेतृत्व नहीं है। सब काम चलाऊ व्यवस्था से संचालित है। पवित्रा के प्रतीक एवं धार्मिक कहे जाने वाले लोगों पर उंगलियाँ उठती रहती हैं। ऐसे में आमजन को अपने बीच से ही मार्ग तलाशना होगा। आमजन ही, आमजन की पीडा को समझकर समाधान की सम्भावनाओं पर विचार कर सकता है। अन्यथा हजारों सालों की भांति और आगे हजारों सालों तक अनेकानेक प्रकार के दीपक जलाते जायें, यह अन्धकार घटने के बजाय बढता ही जायेगा।

-लेखक (डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश') : जयपुर से प्रकाशित हिन्दी पाक्षिक समाचार-पत्र प्रेसपालिका के सम्पादक, होम्योपैथ चिकित्सक, मानव व्यवहारशास्त्री, दाम्पत्य विवादों के सलाहकार, विविध विषयों के लेखक, टिप्पणीकार, कवि, शायर, चिन्तक, शोधार्थी, तनाव मुक्त जीवन, सकारात्मक जीवन पद्धति आदि विषय के व्याख्याता तथा समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध 1993 में स्थापित एवं 1994 से राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली से पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान- (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। जिसमें 05 नवम्बर, 2010 तक, 4542 रजिस्टर्ड आजीवन कार्यकर्ता राजस्थान के सभी जिलों एवं दिल्ली सहित देश के 17 राज्यों में सेवारत हैं। फोन नं. 0141-2222225 (सायं 7 से 8 बजे), मो. नं. 098285-02666.