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Saturday, September 8, 2012

पुनर्विवाह-Re-Marriage


नई दिल्ली। एक सर्वे में पुनर्विवाह के प्रमुख कारणों का पता लगाया गया है। फिर से विवाह करने के पीछे घर बसाने की चाह है या जीवन साथी की तलाश या फिर वित्तीय सुरक्षा। सर्वे में पता चला है कि ज्यादातर लोग (53 प्रतिशत) घर बसाने के लिए पुनर्विवाह करते हैं। 38 प्रतिशत लोगों की राय में पुनर्विवाह का दूसरा बडा कारण जीवन साथी की तलाश है। यह सर्वे ऑनलाइन किया गया। इसमें एक हजार सदस्यों ने अपनी राय जाहिर की। 


सर्वे में दो प्रमुख वर्ग थे- पुनर्विवाह का मेरा कारण और तलाक लेने का मेरा कारण। आम धारणा के विपरीत वित्तीय सुरक्षा ही पुनर्विवाह का प्रमुख कारण नहीं बताया गया। सिर्फ 3 प्रतिशत लोगों ने ही इसे पुनर्विवाह का कारण माना है। अर्थात यह कहा जा सकता है कि पुनर्विवाह का सबसे बडा कारण जीवन साथी की तलाश है। सर्वे के पीछे पुनर्विवाह के सामान्य कारणों की तलाश करने के साथ ही यह भी जानना था कि लोग तलाक क्यों लेते हैं।-स्त्रोत : प्रेसनोट डोट इन, 07-01-2009


जिंदगी में खुश रहने का अधिकार सभी को है. फ़िर क्यों हम पुरानी धारणाओं में बंधे रह कर किसी को उस रिश्ते के नाम पूरा जीवन बिताने के लिए बाध्य करते हैं, जिसका वजूद खत्म हो चुका होता है. ऐसे रिश्ते को पीछे छोड़ जिंदगी की नये सिरे से शुरुआत करने का रास्ता दिखाता है पुनर्विवाह. हमें जरूरत है तो बस जीवन में खुशहाली बिखेरने वाले इस नये रास्ते के बारे में सकारात्मक नजरिया अपनाने और इसके प्रति लोगों की सोच में भी परिवर्तन लाने की..

यूं तो वक्त के साथ हमारे समाज में कई बदलाव आये हैं, लेकिन कुछ मुद्दों पर आज भी लोग खुले विचार अपनाने को तैयार नहीं. ऐसा ही एक मुद्दा है पुनर्विवाह. यदि किसी महिला की किस्मत में उसके जीवनसाथी का साथ जीवनभर के लिए नहीं लिखा होता, तो लोग उसे विधवा या तलाकशुदा की पहचान देने में जरा भी देर नहीं करते. इसके विपरीत कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो समाज का विरोध सहने के बावजूद अपनों को चोट पहुंचाने वाली ऐसी पहचान से दूर करके जिंदगी को नये सिरे से शुरू करने के लिए प्रेरित करते हैं.

आज हम आपको मिलाते हैं ऐसे ही लोगों से जिन्होंने पुनर्विवाह को बढ़ावा देकर न सिर्फ़ अपनी बहू-बेटियों की जिंदगी को संवारा, बल्कि समाज को भी इसके माध्यम से लोगों की जिंदगी में खुशियां लाने के लिए प्रेरित किया.

बहू नहीं बेटी को किया विदा

दुनिया में आपको ऐसे लोग कम ही मिलेंगे, जो 65 वर्षीय मिसेज मनोरमा जैसे विचार रखते हों. मिसेज मनोरमा उन महिलाओं में से हैं, जिन्होंने अपनी तलाकशुदा बहू की दूसरी शादी करा कर उसे एक नयी जिंदगी की शुरुआत करने के लिए प्रेरित किया. इसके लिए उन्हें अपने परिवार का विरोध भी सहना पड़ा, लेकिन इस फ़ैसले पर वे पीछे नहीं हटीं.

मनोरमा बताती हैं कि इसमें भला मेरी बहू की क्या गलती थी, जो शादी के तीन साल बाद मेरे बेटे ने उसे तलाक देकर किसी और के साथ शादी करने का फ़ैसला कर लिया. हमने बेटे को समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन वह नहीं माना. उसी दिन मैंने फ़ैसला किया कि बेटे के कारण मैं अपनी बहू की जिंदगी बरबाद नहीं होने दूंगी. मैंने बेटे से नाता तोड़ बहू को अपनी बेटी के रूप में स्वीकार करने का फ़ैसला किया. उस दिन से हर माता-पिता की तरह मुङो भी उसकी शादी की चिंता होने लगी.

हालांकि दूसरी शादी करने के लिए बहू तैयार नहीं थी, लेकिन वक्त के साथ वह भी समझ गयी कि अकेले जिंदगी बिताना आसान नहीं होता. कुछ वक्त बाद वह मेरे फ़ैसले से सहमत हो गयी. उसकी शादी को आज दो साल हो चुके हैं और वह अपने पति के साथ खुशहाल शादीशुदा जीवन व्यतीत कर रही है. उसे देखकर मुङो यही लगता है कि कम से कम मेरी बेटी को जिंदगी में किसी से धोखा मिलने का दुख नहीं होगा.

मिलती है विधवा की पहचान से मुक्ति

दुनिया में कई लोग इंसान और उसकी खुशियों से ज्यादा रिश्तों को अहमियत देते हैं, लेकिन ऐसे रिश्ते के नाम जिंदगी बिताना कहां की समझदारी है, जिसे निभाने वाला अब आपके साथ न हो. किस्मत के नाम पर जिंदगी भर गम के साथ जिंदा रहने के बजाय आगे बढ़ते रहना ही जिंदगी है. यह कहना है पटना की सुनीता झा का, जिन्होंने बेटे की मृत्यु के बाद अपनी बहू को दूसरी शादी करने के लिए मनाया. एक हादसे में बेटे को खो देने के बाद बहू को रोजाना फ़ीके कपड़ों में बेरंग-सी जिंदगी जीते देखना सुनीता को अच्छा नहीं लगता था.

वक्त के साथ जब बेटे की मौत का गम भरा तो उन्होंने बहू को समझाया कि उसके सामने पूरी जिंदगी पड़ी है. ऐसे में उसे एक बार फ़िर से उसे नये सिरे से जिंदगी की शुरुआत करने के बारे में सोचना चाहिए. बेटे की मृत्यु के एक साल बाद ही उन्होंने अपनी बहू की दूसरी शादी कराके उसे विधवा की पहचान से मुक्ति दिला दी.

बेटी की दूसरी शादी से सुधारी गलती

बड़ा घर, अच्छा परिवार और सुंदर लड़का देखकर लखनऊ के राजवीर गुप्ता ने अपनी बेटी सुमोना की शादी काफ़ी धूमधाम से की थी. उन्हें क्या पता था कि अच्छाई के इस मुखौटे को उतरने में चार दिन भी नहीं लगेंगे और उनकी बेटी का जीवन दुख के अंधेरे में घिर जायेगा. शादी के कुछ दिनों बाद उन्हें पता लगा कि दिखावे की आड़ में उनके साथ धोखा हुआ है. जिस लड़के से उन्होंने अपनी बेटी की शादी की है, वह अपने माता-पिता के पैसों पर अय्याशी करने वाला एक ड्रग्स ऐडक्टेड है.

शुरू में तो सुमोना ने पति की इस बुरी आदत को छुड़ाने की काफ़ी कोशिश की लेकिन वह सुधरने की बजाय सुमोना पर हाथ उठाने लगा. यह जानने के बाद राजवीर ने फ़ैसला किया कि समाज चाहे कुछ भी कहे, वे ऐसे व्यक्ति के साथ अपनी बेटी का जीवन खराब नहीं होने देंगे. उन्होंने पहले अपनी बेटी का तलाक कराया और फ़िर उसकी दूसरी शादी करवायी. आज भले ही सुमोना ज्यादा धनी परिवार में नहीं है, लेकिन राजवीर को खुशी है कि उनकी बेटी अपने घर में खुश है. स्त्रोत : प्रभात खबर, 24-10-2012

पुनर्विवाह के बाद कैसे करें एडजेस्टमेंट, पुनर्विवाह से पहले जरूरी है प्लानिंग और कैसे बैठें तालमेल पुनर्विवाह के बाद ? तीनों लेख पढने के लिए स्त्रोत : अपने विचार


वृद्धावस्था में पुनर्विवाह !
MONDAY, 23 JULY 2012 12:21


वृद्धावस्था उम्र का एक ऐसा पड़ाव होता है जिसमें कदम रखते-रखते आप अपने परिवार और बच्चों की परवरिश से जुड़े लगभग सभी कर्तव्यों को पूरा कर लेते हैं. परिवार की जरूरतों और उनकी इच्छाओं को पूरा करते-करते आप जो अनमोल क्षण अपने साथी के साथ व्यतीत नहीं कर पाते इस दौरान आप एक-दूसरे के और अधिक नजदीक आ जाते हैं. इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि आपके जीवन में जीवनसाथी की क्या अहमियत है यह आपको वृद्धावस्था में ही पता चलती है.

लेकिन अगर दुर्भाग्यवश आपका जीवन साथी बीच राह में ही आपका साथ छोड़कर चला जाए तो?शायद इस पीड़ा को सहन कर पाना किसी के लिए भी संभव ना हो. जीवनसाथी की याद और रोजाना अकेलेपन से जूझते हुए व्यक्ति अंदर ही अंदर कमजोर पड़ने लगता है, उसके लिए जीवन का महत्व ही समाप्त हो जाता है. संतानें चाहे आपसे कितना ही प्रेम और लगाव क्यों ना रखती हों लेकिन जब उनका अपना परिवार बस जाता है तो कहीं ना कहीं वह अपने बच्चों और साथी की जरूरतों को अपने अभिभावकों से ज्यादा महत्व देने लगते हैं. ऐसा भी नहीं है कि अब आपके बच्चों के जीवन में आपकी पहले जैसी आवश्यकता नहीं है लेकिन समय के साथ-साथ मनुष्य की प्राथमिकताएं भी बदल ही जाती हैं. वैसे भी आज जब बच्चे काम और कॅरियर के सिलसिले में अभिभावकों से दूर हो रहे हैं तो ऐसे में अकेला जीवन बोझिल लगने लगता है.

भले ही आप अपने जीवन साथी से कितना ही लड़ते-झगड़ते क्यों ना हों, लेकिन जब वह आपके जीवन से दूर चला जाता है तो आपको उसकी वही सब आदतें बहुत याद आती हैं. आप खुद को अकेले रहने के लिए तैयार नहीं कर पाते. आप एक-दूसरे से कितना ही लड़ते-झगड़ते क्यों ना हों, उसकी फिजूल की आदतों से परेशान क्यों ना हो जाते हों, लेकिन आप उसके बिना और अकेले रहने के लिए भी खुद को तैयार नहीं कर पाते. निश्चित रूप से यह आपको भावनात्मक क्षति तो पहुंचाता ही है साथ ही भरा-पूरा परिवार होने के बावजूद आपको अकेलेपन का अहसास होने लगता है.http://hi.wikipedia.org

कुछ समय पहले तक अगर अभिभावक अपने बच्चों या फिर किसी और से अकेलेपन की शिकायत करते थे तो उन्हें गंभीरता से नहीं लिया जाता था लेकिन अब समय बदलने के साथ-साथ बच्चों के नजरिये में भी अत्याधिक परिवर्तन देखा जा रहा है. अभिभावक तो बच्चों के लिए सुयोग्य जीवनसाथी तलाशते थे लेकिन अब बच्चों ने भी अपने अभिभावकों की भावनाओं और उनके तन्हां हो चुके जीवन में खुशियां भरने की कोशिशें प्रारंभ कर दी हैं. आज बच्चे स्वयं अपने माता-पिता का विवाह करवा रहे हैं और वो भी 60-70 की उम्र में. भले ही कुछ लोगों को यह खबर अटपटी लगे लेकिन सच यही है कि अब पुन: विवाह के लिए उम्र कोई मायने नहीं रखती. इतना ही नहीं, पहले जहां सौतेले अभिभावकों का अहसास भी बच्चों को सहन नहीं होता था आज वह स्वयं अपने लिए योग्य लेकिन सौतेले माता-पिता की तलाश कर रहे हैं.वे बच्चे जो नौकरी या फिर अन्य किसी कारण से अपने माता-पिता से दूर रहते हैं, वह नहीं चाहते कि अपने जीवन साथी को खोने के बाद अभिभावक तन्हां जीवन व्यतीत करें इसीलिए वह स्वयं उनके लिए साथी चुन रहे हैं. अभिभावकों से दूर रहने के कारण उन्हें उनकी चिंता सताती रहती है इसीलिए वह अब उनका घर दोबारा से बसाने के लिए प्रयासरत हैं. स्त्रोत : बहुजन इण्डिया  


विवाह के सम्बंध में देश-काल के अनुसार अनेक मान्याताओं में हेरा-फेरी स्वाभाविक एवं आवश्यक है । इनमें से कुछ मान्याताएँ अंधविश्वास का परिणाम हैं और कुछ भिन्न परिस्थितियों व कालखण्ड में निर्धारित व्यवस्थाएँ हैं, जो अब समय तथा समाज का स्वरूप बदल जाने के कारण अप्रासंगिक और अर्थहीन हो गई है ।

आदर्शो की स्थापना, पालन एवं उन्हें सुदृढ़ परिपक्व बनाने का अभ्यास विवाह का उद्देश्य है । आन्तरिक अनुकूलता ही इस उद्देश्य की पूर्ति में प्रधान साधन एवं योग्यता है । साथ ही, भौतिक-सामाजिक जीवन में सफलता तथा प्रगति के लिये उपयुक्त अनुरूपता और सहयोग की प्रवृत्तियों को देखा-परखा जाना चाहिए । जो भिन्नताएँ उद्देश्य पूर्ति में बाधक बनती हैं, उनका ध्यान रखा जाना चाहिए । गुण, कर्म एवं स्वभाव की अनुकूलता तथा सामंजस्य विचार ही इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । अन्य बाहरी भिन्नताएँ विवाह के लिये बाधक नहीं बननी चाहिए ।

व्यक्तित्व को परखने की कसौटियाँ इसी प्रकार की होनी चाहिए कि स्वभाव और चरित्र की छानबीन की जाये । इसके अतिरिक्त वे बाहरी भिन्नताएँ नगण्य समझी जानी चाहिए, जिनसे आपसी तालमेल बनाकर गृहस्थ-जीवन में आगे बढ़ने में कोई वास्तविक व्यवधान न उत्पन्न होते हों ।

जिस प्रकार जन्मपत्री के गुणों के मिलान में कोई दम नहीं, अपितु व्यक्तित्व में सन्निहित गुणों की अनुकूलता ही जीवन में काम आती है, उसी प्रकार आयु, कद, वजन के सम्बंध में रूढ़ हो गई अनावश्यक मान्यताओं का आग्रह भी किसी काम का नहीं । स्वभाव, प्रवृत्ति तथा जीवन-दृष्टि की अनुरूपता हो तो सफल दाम्पत्य-जीवन उम्र, ऊँचाई और भार की असमानताओं से पारस्परिक प्रेम ओर प्रगति में रंचमात्र भी फर्क नहीं पड़ता । यदि सिर्फ ऊपरी समानता भी देखनी हो, तो भी रहन-सहन का वातावरण, रुचियाँ, शौक, स्वास्थ्य, शैक्षाणिक एवम् तकनीकी दक्षताएँ आदि दर्जनी बाहरी समानताएँ हैं, जो कद, आयु आदि की अपेक्षा बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण हैं ।

लड़का-लड़की से बड़ा ही हो, यह आग्रह अर्थहीन है । जब पत्नी को दबाकर रखा जाना जरुरी माना जाता था, तब शायद यह भी आवश्यक माना जाने लगा था कि लड़का -लड़की से उम्र में बड़ा हो, जिससे वह लड़की के व्यक्तित्व पर हावी हो जाय, उसे दबा सके । लड़की के व्यक्तित्व विकसति होने से पहले ही उसे ससुराल भेजकर वहाँ के अजनबी वातावरण में उसे इस प्रकार ढलने देना भी तब जरूरी माना जाता था, जिससे कि वह ससुराल वालों को शासक और स्वयं को शासित मानने लगे । जिनसे खून का रिश्ता नहीं, पहले से मैत्री नहीं, वे अपने को अन्न-वस्त्र आदि की सुविधाएँ दे रहे हैं, स्नेह-सम्मान भी कुछ दे देते हैं, यह सोचकर लड़की एहसानमंद होकर दबी रहे, जो पाती है, उसे अपने अधिकार नहीं, ससुराल वालों की कृपा माने, इस तरह के विचारों के रहने पर तो लड़की किन्तु यह सहयोग-सहकार एवम् समानता का युग है । अब तो लड़की का विकसित व्यक्तित्व ही उसका वास्तविक गुण एवं पात्रता है ।

आज के जमाने में दबी-घुटी लड़की पति का साथ नहीं दे पाएगी । योग्य लड़के योग्य लड़की को ही पत्नी के रूप में पाने की इच्छा रखते हैं । लेकिन कई बार ऐसा होता है कि उम्र कम होने की रूढ़ि का आंतक अभिभावकों तथा लड़कों की इच्छा एवम् पसन्द के बीच व्यवधान बन जाता है । यह समाप्त होना चाहिए । लड़की की उम्र लड़के के बिल्कुल बराबर हो या अधिक भी हो तो उसमें कुछ भी अनुचित नहीं । पाश्चात्य देशों का भौंडा अनुकरण तो अपने यहाँ भी सीख लिया गया और उसी की उल्टी-सीधी नकल के रूप में लड़के लोग लड़कियाँ देखकर पसन्द करने की पहल भी करने लगे हैं । किन्तु वहाँ की अच्छाइयों तथा सही प्रवृत्तियों को मानने से अभी भी कतराया जाता है । पश्चिमी जगत में एक-दूसरे के गुणों, रुचियों की परख को देखकर विवाह की आपसी सहमति होने से उम्र कभी बाधा नहीं बनती । लड़की का अधिक उम्र का होना किसी भी हिचक का कारण नहीं बनता ।

कद के बारे में भी आग्रह इसी प्रकार का है । यदि दोनों के व्यक्तित्व में साम्य है, सामंजस्य की सम्भावनाएँ हैं । तो इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि लड़की लड़के से ३० सेण्टीमीटर छोटी है या बराबर है या थोड़ी बड़ी है । बाजार में देखने वालों में से कुछ लोगों को जोड़े की ऊँचाई का आनुपातिक सन्तुलन भाता है अथवा नहीं, इस आधार पर भला कभी जीवन सम्बंधी महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये जाने चाहिए । दोनों को जीवन ऐसी चालू बाजारू टिप्पणियों के सहारे नहीं,संसार की कठोर वास्तविकताओं के बीच जीना पड़ेगा, यह तथ्य सदा ध्यान में रखना आवश्यक है । 

वजन की भिन्नता भी ऐसी ही बेमतलब है । पति छरछरा है और पत्नी स्थूल अथवा पति मोटा-तगड़ा है, पत्नी दुबली-पतली, यह कोई गणना एवं विचार योग्य तथ्य नहीं है । क्योंकि इससे दोनों के आपसी रिश्तों तथा सामाजिक जीवन में कोई भी प्रभाव पड़ने वाला है नहीं, ऐसी भिन्नताओं को उपहास या टीका-टिप्पणी का विषय बनाना मात्र कुछ खाली दिमाग और निठल्ले-बेकार लोगों का स्वभाव होता है । इन भिन्नताओं के कारण हर प्रकार से अनुकूल और अनुरूप लड़के-लड़की का विवाह टाल देना हर दर्जे की मूर्खता और हानिकारक संकीर्णता ही मानी जानी चाहिए थी । परन्तु आज अभी स्थिति यह है कि अच्छे-खासे, समझदार कहे जाने वाले और प्रतिष्ठत लोग भी इन भिन्नताओं के कारण अपने बेटे या बेटी का रिश्ता टालकर अपेक्षाकृत कम उपयुक्त, किन्तु बाहरी समानताओं वाले रिश्ते तय कर लेते हैं, इसका कारण समाज की नुक्ता चीनी का काल्पनिक भय है । समाज के जो लोग ऐसी बेमतलब की नुक्ता चीनी करते रहते हैं, उनकी बातें सुनने और मानने लगें तो जीवन दूभर हो जायेगा । 

कद, वजन, आयु सम्बंधी रूढ़मान्यताओं का संबंध साथी के शरीर से ही है । इससे भिन्न, किन्तु इसी प्रकार अनुचित और भी अनेक भ्रान्त मान्यताएँ हैं; जो मात्र प्रचलन के आधार पर लोक स्वीकृति पाये हुए हैं । उनका तर्कसंगत आधार कुछ नहीं है । जैसे विधुर और विधवा के विवाहसम्बंधी यह रूढ़ि कि विधुर के पूर्व पत्नी से हुए बच्चे तो दूसरी पत्नी आकर पाले-सम्भाले किन्तु यदि विधुर किसी विधवा से ब्याह करे, तो उसके पूर्व के बच्चे वह न स्वीकार करे । बच्चे बाप से भी अधिक माँ के सगे और निकट होते हैं । अतः विधवा के बच्चे उसके साथ रहने ही चाहिए । कोई व्यक्ति जब उससे विवाह करे तो उसे उसके बच्चों की भी जिम्मेदारी सहज रूप में सहर्ष उठानी चाहिए उसमें लज्जा, संकोच या हिचक जैसी कोई भी बात है नहीं । ऐसा रहने पर, किन्हीं कारणों से ब्याह आवश्यक मानने वाले विधुर कई बार अपने अनुकूल विधवा से मात्र इसी कारण ब्याह नहीं कर पाते कि उसके भी पहले के बच्चे हैं । 

उपजातियों की भिन्नता से भी कई बार बहुत उपयुक्त रिश्ते टल जाते हैं और बेमल बंधन बाँध दिये जाते हैं । एक तो जाति-बिरादरी की मान्यता ही संकीर्ण और भ्रान्त हैं । सोचा यह जाना चाहिए कि मनुष्य मात्र एक है । सांस्कृतिक, धार्मिक समानताएँ सोचनी हैं तो हिन्दू मात्र एक हैं यह विचार करना चाहिये जो लोग इतना नहीं कर पाते और जाति की जकड़न से मुक्त होने की दृष्टि अभी जिनमें विकसित नहीं हो सकी है, वे भी उपजाति का बंधन तो अवश्य ही अस्वीकार करें । क्योंकि उपजातियाँ पूरी तरह स्थान-विशेष के आधार पर बन गई हैं और उन पर आग्रह घोर अज्ञानता, इतिहास-बोध की कमी तथा मनुष्य के वास्तविक स्वरूप, विकास-क्रम एवं सामाजिक व्यवस्था-क्रम की गैर जानकारी का परिणाम है । 

ब्राह्मणों में जो लोग कन्नौज के आस-पास के थे वे कान्यकुब्ज हो गये, जो मालवा के थे वे मालवीय हो गये, जो सरयू नदी के उत्तर में बसते थे वे सरयूपारीण हो गये । अब उन्हीं के वंशजों द्वारा उन विशेषणों को चाहे जहाँ जाने पर भी ढोते फिरना तथा उसे ही रोटी-बेटी का सघन आधार एवं मापदण्ड बना रखना जड़-बुद्धि बने रहने के अतिरिक्त और कुछ नहीं । अन्य सब जातियों में भी उपजातीय विभाजनों के आधार मुख्यतः स्थानाधारित है । इतने छोटे-छोटे मानदण्डों को मानकर चलने से, इतनी संकरी परिधि में बँधे रहने से, प्रगति की उस दिशा में बाधाएँ पैदा होती हैं, जिस ओर मानव-समाज जा रहा है और भविष्य में जैसा उसका स्वरूप बनने वाला है । 

कृत्रिम विभाजनों और ओछी संकीर्णतओं पर तत्त्वदृष्टा मनीषी निरन्तर प्रहार करते रहे हैं और कर रहे हैं । समाज में अब जड़ता तथा ठहराव अधिक दिनों तक चलने का नहीं । ऐसी स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम इन संकीर्णताओं को तो तत्काल तिलांजलि दे देनी चाहिए, जो सामंजस्यपूर्ण गृहस्थ-जीवन प्रारम्भ करने के मार्ग तक में अड़चने-रुकावटें बनकर खड़ी होती रहती हैं । इन व्यवधानों के कारण मनुष्य का स्वयं का जीवन अधिक अनुकूल साथी से वंचित रहकर अभावग्रस्त बनता है और समाज को भी अधिक अच्छे नागरिक नहीं मिल पाते । उपयुक्त और उत्तम दम्पत्ति निश्चय ही अधिक योग्य संतति समाज को सौंपने में समर्थ होते हैं । 

इतने महत्त्वपूर्ण लाभों-अनुदानों से स्वयं को तथा समाज को वंचित रखने में जो कष्ट है, छोटी-छोटी भिन्नताओं को समाप्त करने के लिये साहसपूर्वक आगे बढ़ने में उससे कम ही कष्ट होता है और लाभ अनेक होते हैं । समाज के जाग्रत-जीवन्त वर्ग का समर्थन भी प्राप्त होता है । अतः इस दिशा में कदम बढ़ाना ही चाहिए । 

स्त्रोत : (विवाहोन्मादः समस्या और समाधान पृ सं २.८)
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हालांकि पहले भी बेमेल विवाह जैसी कुप्रथाओं का अनुसरण बिना किसी रोक-टोक के किया जा रहा था, जिसके अंतर्गत विवाह योग्य महिला और पुरुष की उम्र में बहुत बड़ा अंतर होता था. कई प्रयत्नों और सुधारों के पश्चात यह प्रथा समाप्त की गई. लेकिन लगता है एक बार फिर यह प्रथा अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रही है. लेकिन इस बार विवशता या कुप्रथा के रूप में नहीं बल्कि आधुनिकता और मॉडर्न विचारों के आधार पर.

एक अधेड़ व्यक्ति और उससे आधी उम्र की युवती के बीच प्रेम कहानियों को जॉगर्स पार्क औरनिःशब्द जैसी फिल्मों में आपने काफी बार पर्दे पर देखा होगा. बेमेल प्रेमी जोड़ों के बीच प्रेम और लगाव जैसी बातें और इन पर आधारित फिल्मी कहानियां कई लोगों को बेमानी और हास्यास्पद लग सकती हैं. लेकिन अगर आप ऐसी प्रेम कहानियों को निर्देशक के मस्तिष्क की एक भ्रामक कल्पना समझकर नजरअंदाज कर रहे हैं तो आपको इस संबंध में थोड़ी गंभीरता से सोचने की जरूरत है.

आप इसे पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण कह सकते हैं लेकिन अब भारत में भी अधेड़ व्यक्तियों का अपने से काफी छोटी उम्र की महिला के साथ प्रेम संबंध और फिर विवाह जैसे मसले आम होते जा रहे हैं. उल्लेखनीय है कि महिलाएं किसी मजबूरी या विवशता के कारण नहीं बल्कि अपनी इच्छा से ऐसे संबंधों को ना सिर्फ स्वीकार कर रही हैं बल्कि कहीं ज्यादा दिलचस्पी भी ले रही हैं.

यद्यपि मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि एक स्थायी संबंध की इच्छा और प्राथमिकता के कारण ही महिलाएं अधेड़ आयु के पुरुषों का चुनाव करती हैं. क्योंकि वह युवक या अपरिपक्व व्यक्ति से कहीं ज्यादा समर्पित और ईमानदार साबित हो सकते हैं, लेकिन फिर भी वह ऐसी मनोवृत्ति को मानसिक दुर्बलता या बीमारी जिसे इलेक्ट्रा कॉम्पलेक्स कहा जाता है, के साथ जोड़कर देख रहे हैं.

इस बीमारी की चपेट में 20-26 वर्ष की वे युवतियां आती हैं जो अपने जीवन-साथी में पिता की तलाश करती हैं. उन्हें लगता है कि पिता से ज्यादा उन्हें कोई प्यार नहीं कर सकता, इसीलिए वह अपने प्रेमी या जीवन-साथी में पिता की छवि खोजती हैं.

इलेक्ट्रा कॉम्पलेक्सा

इलेक्ट्रा कॉम्पलेक्सा नामक यह बीमारी महिलाओं के मस्तिष्क में विकसित एक अजीब सी बीमारी है. इसके अंतर्गत महिलाएं अपने पिता को अपने सबसे ज्यादा करीब और हितैषी समझती हैं. विवाह एक आवश्यक सामाजिक प्रथा है सिर्फ इसीलिए वह अपने पिता से दूर जाने के लिए राजी होती हैं. लेकिन फिर भी वह अपने जीवन-साथी में पिता की छवि ही तलाशती हैं ताकि वह एक खुशहाल और सुरक्षित जीवन जी सकें.

इस बीमारी के अतिरिक्त भी कई ऐसे कारक हैं जो महिलाओं को एक अधेड़ उम्र के पुरुष के साथ विवाह करने में दिलचस्पी पैदा करते हैं. जिनमें सबसे ज्यादा प्रभावी है पाश्चात्य सोच. पश्चिमी सभ्यता में यह सब कोई बहुत ज्यादा मायने नहीं रखता. लेकिन भारत में ऐसे प्रेमी जोड़ों को सम्मानजनक नहीं माना जाता. इसके अलावा भौतिकवादी सोच और मानसिक संतुष्टि भी एक बहुत बड़ा कारण है जो एक आम पृष्ठभूमि की लड़की को एक अमीर अधेड़ से विवाह करने के लिए तैयार करती है. वर्तमान परिदृश्य में भौतिकवादी वस्तुएं, आर्थिक स्थिति और समाज में आदर जैसे मापदंड समानांतर हैं. महिलाएं अपनी सभी जरूरतों की पूर्ति के लिए एक अमीर व्यक्ति से विवाह करने जैसी इच्छाएं रखती हैं. उनकी यह इच्छाएं अगर किसी अधेड़ द्वारा पूरी होती हैं तो उन्हें कोई बुराई नजर नहीं आती.

जबकि पति-पत्नी का संबंध शारीरिक या भौतिक जरूरतों पर नहीं बल्कि भावनात्मक जुड़ाव पर आधारित होता है. अपने भविष्य और भावनाओं को नजरअंदाज कर अगर कोई संबंध जोड़ा जाता है तो उसका परिणाम कभी भी किसी के लिए फायदेमंद नहीं हो सकता. महिलाओं को यह बात समझनी चाहिए कि पति के साथ एक स्वस्थ संबंध बहुत जरूरी होता है. उसे अगर वस्तुओं या अन्य सामग्रियों की कीमत के अनुसार तोला जाएगा तो यह कदापि हितकारी नहीं हो सकता. जीवन का दूसरा नाम संघर्ष है, इसकी आदत डाल लेनी चाहिए.

हालांकि महिलाओं और पुरुषों की आयु में अंतर होने से संबंध में स्थायित्व और समझदारी विकसित होती है लेकिन अंतर इतना नहीं होना चाहिए कि दोनों के बीच दोस्ती का संबंध ही ना बन पाए, वे दोनों एक-दूसरे से अपनी भावनाएं ही ना कह पाएं. वैवाहिक संबंध को एक औपचारिकता के रूप में निभाना बहुत भारी पड़ जाता है.
स्त्रोत : जागरण जंक्शन

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वृद्धावस्था उम्र का एक ऐसा पड़ाव होता है जिसमें कदम रखते-रखते आप अपने परिवार और बच्चों की परवरिश से जुड़े लगभग सभी कर्तव्यों को पूरा कर लेते हैं. परिवार की जरूरतों और उनकी इच्छाओं को पूरा करते-करते आप जो अनमोल क्षण अपने साथी के साथ व्यतीत नहीं कर पाते इस दौरान आप एक-दूसरे के और अधिक नजदीक आ जाते हैं. इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि आपके जीवन में जीवनसाथी की क्या अहमियत है यह आपको वृद्धावस्था में ही पता चलती है.

लेकिन अगर दुर्भाग्यवश आपका जीवन साथी बीच राह में ही आपका साथ छोड़कर चला जाए तो?शायद इस पीड़ा को सहन कर पाना किसी के लिए भी संभव ना हो. जीवनसाथी की याद और रोजाना अकेलेपन से जूझते हुए व्यक्ति अंदर ही अंदर कमजोर पड़ने लगता है, उसके लिए जीवन का महत्व ही समाप्त हो जाता है. संतानें चाहे आपसे कितना ही प्रेम और लगाव क्यों ना रखती हों लेकिन जब उनका अपना परिवार बस जाता है तो कहीं ना कहीं वह अपने बच्चों और साथी की जरूरतों को अपने अभिभावकों से ज्यादा महत्व देने लगते हैं. ऐसा भी नहीं है कि अब आपके बच्चों के जीवन में आपकी पहले जैसी आवश्यकता नहीं है लेकिन समय के साथ-साथ मनुष्य की प्राथमिकताएं भी बदल ही जाती हैं. वैसे भी आज जब बच्चे काम और कॅरियर के सिलसिले में अभिभावकों से दूर हो रहे हैं तो ऐसे में अकेला जीवन बोझिल लगने लगता है.

भले ही आप अपने जीवन साथी से कितना ही लड़ते-झगड़ते क्यों ना हों, लेकिन जब वह आपके जीवन से दूर चला जाता है तो आपको उसकी वही सब आदतें बहुत याद आती हैं. आप खुद को अकेले रहने के लिए तैयार नहीं कर पाते. आप एक-दूसरे से कितना ही लड़ते-झगड़ते क्यों ना हों, उसकी फिजूल की आदतों से परेशान क्यों ना हो जाते हों, लेकिन आप उसके बिना और अकेले रहने के लिए भी खुद को तैयार नहीं कर पाते. निश्चित रूप से यह आपको भावनात्मक क्षति तो पहुंचाता ही है साथ ही भरा-पूरा परिवार होने के बावजूद आपको अकेलेपन का अहसास होने लगता है.http://hi.wikipedia.org

कुछ समय पहले तक अगर अभिभावक अपने बच्चों या फिर किसी और से अकेलेपन की शिकायत करते थे तो उन्हें गंभीरता से नहीं लिया जाता था लेकिन अब समय बदलने के साथ-साथ बच्चों के नजरिये में भी अत्याधिक परिवर्तन देखा जा रहा है. अभिभावक तो बच्चों के लिए सुयोग्य जीवनसाथी तलाशते थे लेकिन अब बच्चों ने भी अपने अभिभावकों की भावनाओं और उनके तन्हां हो चुके जीवन में खुशियां भरने की कोशिशें प्रारंभ कर दी हैं. आज बच्चे स्वयं अपने माता-पिता का विवाह करवा रहे हैं और वो भी 60-70 की उम्र में. भले ही कुछ लोगों को यह खबर अटपटी लगे लेकिन सच यही है कि अब पुन: विवाह के लिए उम्र कोई मायने नहीं रखती. इतना ही नहीं, पहले जहां सौतेले अभिभावकों का अहसास भी बच्चों को सहन नहीं होता था आज वह स्वयं अपने लिए योग्य लेकिन सौतेले माता-पिता की तलाश कर रहे हैं.वे बच्चे जो नौकरी या फिर अन्य किसी कारण से अपने माता-पिता से दूर रहते हैं, वह नहीं चाहते कि अपने जीवन साथी को खोने के बाद अभिभावक तन्हां जीवन व्यतीत करें इसीलिए वह स्वयं उनके लिए साथी चुन रहे हैं. अभिभावकों से दूर रहने के कारण उन्हें उनकी चिंता सताती रहती है इसीलिए वह अब उनका घर दोबारा से बसाने के लिए प्रयासरत हैं.
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2 comments:

  1. श्री मति जी कृपया ऐसी सभी संस्थाओं के नाम और जानकारी देने का कष्ट करें जहाँ से विधवा/तलाकशुदा से पुनर्विवाह-Re-Marriage हो सके ... मै एक 31 वर्षीय पुरुष हूं

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  2. Mera devorce hua hain aur main punarvivah karna chahata hoon
    Mo.no.7798452480

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