मेरे शुभचिंतक और समालोचक जिनके विश्वास एवं संबल पर मैं यहाँ लिख पा रहा हूँ!

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Wednesday, April 22, 2015

किसानों की आत्महत्या-लोकतंत्र की असफलता-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा

किसानों की आत्महत्या-लोकतंत्र की असफलता-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा
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आत्महत्या किसी समस्या का समाधान नहीं, लेकिन आत्महत्या करने को कोई क्यों विवश होता है, ये सवाल उत्तर माँगता है!
देश में लगातार हो रही किसानों की आत्महत्या, प्रशासन, सरकार और जनप्रतिनिधियों के निष्ठुर होने का अकाट्य प्रमाण!
लोकतंत्र को सर्वश्रेष्ठ शासन व्यवस्था मानकर अपनाया गया था, लेकिन किसानों की आत्महत्याओं के चलते अब ये भ्रम भरभराकर टूट रहा है!
दलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में संवेदनशील जन-प्रतिनिधि नहीं, बल्कि असंवेदनशील दल+प्रतिनिधि पैदा हो रहे हैं, दुष्परिणाम-किसानों की आत्महत्या!
निष्ठुर और असंवेदनशील जन-प्रतिनिधि, नहीं, दल-प्रतिनिधि जनता का विश्वास खो चुके हैं! लोकतंत्र असफल हो रहा है!
ऐसे में सर्वाधिक विचारणीय सवाल-क्या लोकतंत्र असफल हो गया है या असफल किया जा चुका है? क्या किसानों की आत्महत्या-लोकतंत्र की असफलता का प्रमाण नहीं?
अत: क्या अब वर्तमान लोकतंत्र से बेहतर किसी नयी और अधिक जनोन्मुखी शासन व्यवस्था को ईजाद करने का समय नहीं आ गया है?-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा

Wednesday, November 11, 2009

बेवफा पत्नी को क्यों मिले गुजारा भत्ता?


डॉ. पुरुषोत्तम मीणा

स्वयं स्त्रियों को ही आगे आकर इस कानून के सम्भावित बदलाव का विरोध करना चाहिए, क्योंकि यदि कानून में प्रस्तावित बदलाव हो जाता है तो इससे स्त्रियाँ पुरुष के वंश के संचालन के लिये उपलब्ध विश्वास को खा सकती हैं। इसके बाद स्त्रियों के चरित्र पर सन्देह गहरा सकता है। स्त्री यौन-पवित्रता जैसे पवित्र आभूषण को खो सकती हैं। यही नहीं, ऐसा होने पर हमें परिवार की परिभाषा भी नई बनानी पड़ सकती है!अतः समय रहते न मात्र कानूनविदों को ही, बल्कि इस विषय पर समाजशास्त्रियों को भी चिन्तन मनन करके, किसी भी प्रकार का निर्णय लेने से पूर्व अपनी राय से सरकार को अवगत करना चाहिए। अन्यथा यदि किसी दबाव में और जल्दबाजी में सरकार इस प्रकार के बदलाव के लिए राजी हो जाती है तो यह घोर अनर्थकारी सिद्ध हो सकता है।
नई दिल्ली: राष्ट्रीय महिला आयोग ने भारत सरकार को सुझाव दिया है कि विवाहित पुरुष को न सिर्फ अपनी पत्नी व बच्‍चों, बल्कि सौतेले बच्‍चों व सौतेले अभिभावकों को भी गुजारा भत्ता देना चाहिए। इस तर्क के आधार पर महिला आयोग द्वारा बेवफा पत्नी (पूर्व) को भी पति से गुजारा भत्ता पाने का कानूनी रूप से हकदार बनाने की सलाह दी गई है।

विवाह अधिनियम में यह प्रावधान है कि यदि पत्नी अपने पति से बवफाई करती है तो केवल इसी आधार पर उसे तलाक तो दिया ही जा सकता है। साथ ही साथ ऐसी पत्नी को अपने पूर्व पति से किसी भी प्रकार का गुजारा भत्ता पाने की हकदार भी नहीं रहती है। यह प्रावधान इसलिए किया गया है ताकि पति-पत्नी का सम्बन्ध उसी प्रकार से बना रहे, जिस प्रकार से की वैवाहिक सम्बन्धों के बने रहने की अपेक्षा की जाती रही है। अर्थात्‌ दोनों एक दूसरे के प्रति समर्पित एवं वफादार रहें।


हाँ इस बात में भी कोई दो राय नहीं है कि कुछ मामलों में जब स्वयं पुरुष बेवफा हो, तो वह अपनी पत्नी से पीछा छुड़ाकर दूसरा विवाह रचाने के लिए अपनी पूर्व पत्नी के चरित्र पर को संदिग्ध करार देकर तलाक की अर्जी लगाते हैं। यद्यपि किसी स्त्री या पुरुष के किसी अन्य स्त्री या पुरुष से नाजायज यौन सम्बन्ध हैं, इस तथ्य को अदालत में सिद्ध करना आसान नहीं है। फिर भी जिन कुछ गिने-चुने मामलों में पत्नियों को अदालत के समक्ष बदचरित्र सिद्ध कर दिया जाता है। उन मामलों में पत्नियाँ, अपने पूर्व पति से दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा १२५ के तहत गुजारा भत्तापाने की हकदार नहीं रह जाती हैं।

सम्भवतः इसी प्रावधान के दुरुपयोग की सम्भावना को रोकने के लिए ही राष्ट्रीय महिला आयोग बेवफा सिद्ध की जा चुकी पूर्व पत्नियों को भी गुजारा भत्ता दिलाने के पक्ष में कानून में संशोधन करवाना चाहती हैं। लेकिन देखने वाली बात ये है कि पति और पत्नियाँ दोनों ही आपसी सम्बन्धों में बेवफा भी होते रहें हैं, इस बात को नकारा नहीं जा सकता। पुरुष को तो आमतौर पर पूर्व पत्नी से गुजारा मिलता नहीं, लेकिन यदि पूर्व पत्नियों को अपने पूर्व पति से गुजारा प्राप्त करने का कानून में हक दिया गया था, तो साथ में उसकी पात्रता भी निर्धारित की गयी है।

विधिवेत्ताओं ने कानून के अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित किए हैं, उनमें से एक-कर्त्तव्य एवं अधिकार का सिद्धान्त है। जिसके तहत कहा गया है कि केवल अधिकारों की बात करने से काम नहीं चल सकता, व्यक्ति को अपने दायित्वों का भी बोध होना चाहिए और दायित्वों का निर्वाह नहीं करने पर ऐसे व्यक्ति को उसके हकों से वंचित करने का कड़ा कानून भी होना ही चाहिए। इसी सिद्धान्त के तहत पति से बेवफाई करना वह आधार है, जिसके आधार पर पूर्व पत्नी को गुजारा भत्ता पाने के हक से वंचित किया जाता है, क्योंकि आदि काल से ही समाज एवं कानून द्वारा पत्नी पर अपने पति के प्रति वफादार रहने का कर्त्तव्य अधिरोपित किया गया है। जिसका निर्वाह नहीं करने वाली स्त्रियों को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 (5) में गुजारा भत्ता नहीं देने का भी स्पष्ट प्रावधान किया गया है।

राष्ट्रीय महिला आयोग इसी प्रावधान को हटाने के पक्ष में है। जिसे उक्त कानूनी सिद्धान्तों के प्रकाश में न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता है। केवल इतना ही नहीं, बल्कि महिला आयोग तो यह भी चाहता है कि कानून में पत्नी की परिभाषा का दायरा बढ़ा दिया जाए। जिसके तहत उस स्त्री को भी पत्नी माना जावे, जिसके किसी अन्य व्यक्ति से (विवाह के बाद) वैवाहिक जैसे रिश्ते हैं या जो अपनी शादी को अमान्य करती हो। इसके अलावा आयोग ने किसी बच्‍चों के लिए धारा 125 (आई) (बी) में से अवैध संतान शब्द हटाने की एक अच्छी भी सलाह दी है, जिसे उचित माना जा सकता है। यद्यपि अनेक पुरुष के संगठनों ने आयोग की इन सिफारिशों पर कड़ा ऐतराज जताया है। सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन के विराग धुलिया ने कहा कि ऐसे मामले गुण-दोषों के आधार पर निपटाए जाने चाहिए, न कि लिंगभेद के आधार पर।

मेरा तो यहाँ तक मानना है कि सर्वप्रथम तो अब समय बदल रहा है, स्त्री भी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो रही है। ऐसे हालात में तलाक के बाद गुजारा भत्ता को भी सशर्त बनाये जाने की जरूरत है। उन महिलाओं को गुजारा भत्ता नहीं मिले, जो धन अर्जित करने में अक्षम हों। आखिर यह भी तो विचारणीय तथ्य है कि एडवोकट, हाऊस डेकोरेटर, डाक्टर, आर्चीटेक्ट या ऐसे ही किसी अन्य पेशे को करने के लिए कानूनी रूप से योग्य, निपुण एवं दक्ष महिलाओं को गुजारा भत्ता क्यों दिया जावे? हाँ ऐसा कार्य शुरु करने पर सरकार को ऐसी महिलाओं को न्यूनतम ब्याज दर पर बैंक से ऋण दिलाकर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करने में योगदान देना चाहिए। इससे देश की उत्पादकता बढाने में महिलाओं के हुनर एवं योग्यता का सही दोहन भी हो सकेगा। इससे स्त्रियों का आत्मसम्मान भी बढेगा।

द्वितीय स्वयं स्त्रियों को ही आगे आकर इस कानून के सम्भावित बदलाव का विरोध करना चाहिए, क्योंकि यदि कानून में प्रस्तावित बदलाव हो जाता है तो इससे स्त्रियाँ पुरुष के वंश के संचालन के लिये उपलब्ध विश्वास को खा सकती हैं। इसके बाद स्त्रियों के चरित्र पर सन्देह गहरा सकता है। स्त्री यौन-पवित्रता जैसे पवित्र आभूषण को खो सकती हैं। यही नहीं, ऐसा होने पर हमें परिवार की परिभाषा भी नई बनानी पड़ सकती है!अतः समय रहते न मात्र कानूनविदों को ही, बल्कि इस विषय पर समाजशास्त्रियों को भी चिन्तन मनन करके, किसी भी प्रकार का निर्णय लेने से पूर्व अपनी राय से सरकार को अवगत करना चाहिए। अन्यथा यदि किसी दबाव में और जल्दबाजी में सरकार इस प्रकार के बदलाव के लिए राजी हो जाती है तो यह घोर अनर्थकारी सिद्ध हो सकता है।-लेखक भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।