सबको पता है कि राजस्थान में यादव जाति के कारण शुरू से ही राजस्थान की अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियॉं असहज थी, लेकिन जाट जाति को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने बाद अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों में भयंकर असमानता उत्पन्न हो गयी, असल में इसी का दुष्परिणाम है-राजस्थान गुर्जर आरक्षण आन्दोलन। जिसका समाधान है-जाट जाति को ओबीसी से हटाना या ओबीसी के टुकड़े करना। दोनों ही न्यायसंगत उपाय करने की राजस्थान के किसी भी राजनैतिक दल में हिम्मत नहीं हैं। स्वयं गुर्जर भी इस बात को जानते हुए खुलकर नहीं बोल रहे हैं। ऐसे में गुर्जरों की समस्या का समाधान कहीं दूर तक भी नजर नहीं आता!
मेरे शुभचिंतक और समालोचक जिनके विश्वास एवं संबल पर मैं यहाँ लिख पा रहा हूँ!
‘यदि आपका कोई अपना या परिचित पीलिया रोग से पीड़ित है तो इसे हलके से नहीं लें, क्योंकि पीलिया इतना घातक है कि रोगी की मौत भी हो सकती है! इसमें आयुर्वेद और होम्योपैथी का उपचार अधिक कारगर है! हम पीलिया की दवाई मुफ्त में देते हैं! सम्पर्क करें : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, 098750-66111
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Sunday, November 25, 2012
गुर्जर आरक्षण : समाधान कोई नहीं चाहता!
Friday, November 9, 2012
अनर्गल बयानबाजी का कड़वा सच?
कोई पुरानी पत्नी को मजा रहित बतलाये या कोई किसी की पत्नी को पचास करोड़ गर्लफ्रेंड कहे| चाहे कोई किसी को बन्दर कहे! चाहे कोई राम को अयोग्य पति कहे या कोई राधा को रखैल| चाहे कोई दाऊद और विवेकानंद को एक तराजू में तोले या कोई मंदिरों से शौचालयों को पवित्र बतलाये! इन सब अनर्गल बातों को रोक पाना अब लगभग मुश्किल सा हो गया है! क्योंकि हम ही लोगों ने दुष्टों को महादुष्ट और महादुष्टों को मानव भक्षक बना दिया है और इन सभी के आगे हम और हमारे तथाकथित संरक्षक जनप्रतिनिधी पूंछ हिलाते देखे जा सकते हैं|
Sunday, November 4, 2012
धारा 498-ए अप्राकृतिक व अन्यायपूर्ण!
"केवल एफआईआर में नाम लिखवा देने मात्र के आधार पर ही पति-पक्ष के लोगों के विरुद्ध धारा-498ए के तहत मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिये"-सुप्रीम कोर्ट
Thursday, November 1, 2012
मनुवादियों ने दलित जोड़ों को मंदिर से खदेड़ा!
यदि हम वास्तव में चाहते हैं कि देश में अमन-चैन बना रहे और समाज के सभी दबे-कुचले लोग तरक्की करें और सम्मान के साथ जीवन यापन करें तो हमें मनुवाद को तत्काल प्रतिबन्धित करने और मुनवादी कुकृत्यों को अंजाम देने वालों को देशद्रोही के समान दण्डनीय अपराध घोषित करने की सख्त जरूरत है| जिसके लिये संविधान के भाग तीन के अनुच्छेद 13 (1) एवं 13 (3) में सरकार को सम्पूर्ण अधिकार प्राप्त हैं| यदि सरकार में राजनैतिक इच्छा-शक्ति हो तो इस प्रावधान के तहत मनुवादी दैत्य को नेस्तनाबूद किया जा सकता है| लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है, जिसके पीछे हर पार्टी में मनुवादियों का वर्चस्व होना बड़ा कारण है|
Tuesday, July 19, 2011
विभागीय जाँच रूपी अभेद्य सुरक्षा कवच को भेदना होगा!
इन दिनों देशभर में लोकपाल कानून को बनाये जाने और लोकपाल के दायरे में ऊपर से नीचे तक के सभी स्तर के लोक सेवकों को लाने की बात पर लगातार चर्चा एवं बहस हो रही है| सरकार निचले स्तर के लोक सेवकों को लोकपाल की जॉंच के दायरे से मुक्त रखना चाहती है, जबकि सिविल सोसायटी के प्रतिनिधि सभी लोक सेवकों को लोकपाल के दायरे में लाना चाहते हैं| ऐसे में लोक सेवकों को वर्तमान में दण्डित करने की व्यवस्था के बारे में भी विचार करने की जरूरत है| इस बात को आम लोगों को समझने की जरूरत है कि लोक सेवकों को अपराध करने पर सजा क्यों नहीं मिलती है|
लोक सेवकों को सजा नहीं मिलना और लोक अर्थात् आम लोगों को लगातार उत्पीड़ित होते रहना दो विरोधी और असंवैधानिक बातें हैं| नौकर मजे कर रहे हैं और नौकरों की मालिक आम जनता अत्याचार झेलने को विवश है| आम व्यक्ति से भूलवश जरा सी भी चूक हो जाये तो कानून के कथित रखवाले ऐसे व्यक्ति को हवालात एवं जेल के सींखचों में बन्द कर देते हैं| जबकि आम जनता की रक्षा करने के लिये तैनात और आम जनता के नौकर अर्थात् लोक सेवक यदि कानून की रक्षा करने के बजाय, स्वयं ही कानून का मखौल उड़ाते पकडे़ जायें तो भी उनके साथ कानूनी कठोरता बरतना तो दूर किसी भी प्रकार की दण्डिक कार्यवाही नहीं की जाती! आखिर क्यों? क्या केवल इसलिये कि लोक सेवक आम जनता नहीं है या लोक सेवक बनने के बाद वे भारत के नागरिक नहीं रह जाते हैं? अन्यथा क्या कारण हो सकता है कि भारत के संविधान के भाग-3, अनुच्छेद 14 में इस बात की सुस्पष्ट व्यवस्था के होते हुए कि कानून के समक्ष सभी लोगों को समान समझा जायेगा और सभी को कानून का समान संरक्षण भी प्राप्त होगा, भारत का दाण्डिक कानून लोक सेवकों के प्रति चुप्पी साध लेता है?
पिछले दिनों राजस्थान के कुछ आईएएस अफसरों ने सरकारी खजाने से अपने आवास की बिजली का बिल जमा करके सरकारी खजाने का न मात्र दुरुपयोग किया बल्कि सरकारी धन जो उनके पास अमनत के रूप में संरक्षित था उस अमानत की खयानत करके भारतीय दण्ड संहिता की धारा 409 के तहत वर्णित आपराधिक न्यासभंग का अपराध किया, लेकिन उनको गिरफ्तार करके जेल में डालना तो दूर अभी तक किसी के भी विरुद्ध एफआईआर तक दर्ज करवाने की जानकारी समाने नहीं आयी है| और ऐसे गम्भीर मामले में भी जॉंच की जा रही है, कह कर इस मामले को दबाया जा रहा है| हम देख सकते हैं कि जब कभी लोक सेवक घोर लापरवाही करते हुए और भ्रष्टाचार या नाइंसाफी करते हुए पाये जावें तो उनके विरुद्ध आम व्यक्ति की भांति कठोर कानूनी कार्यवाही होने के बजाय, विभागीय जॉंच की आड़ में दिखावे के लिये स्थानान्तरण या ज्यादा से ज्यादा निलम्बन की कार्यवाही ही की जाती है| यह सब जानते-समझते हुए भी आम जनता तथा जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि चुपचाप यह तमाशा देखते रहते हैं| जबकि कानून के अनुसार लोक सेवकों के विरुद्ध विभागीय कार्यवाही के साथ-साथ भारतीय आपराधिक कानूनों के तहत दौहरी दण्डात्मक कार्यवाही किये जाने की व्यवस्था है|
इस प्रकार की घटनाओं में पहली नजर में ही आईएएस अफसर उनके घरेलु बिजली उपभोग के बिलों का सरकारी खजाने से भुगतान करवाने में सहयोग करने वाल या चुप रहने वाले उनके साथी या उनके अधीनस्थ भी बराबर के अपराधी हैं| जिन्हें वर्तमान में जेल में ही होना चाहिये, लेकिन सभी मजे से सरकारी नौकरी कर रहे हैं| ऐसे में विचारणीय मसला यह है कि जब आईएएस अफसर ने कलेक्टर के पद पर रहेतु अपने दायित्वों के प्रति न मात्र लापरवाही बरती है, बल्कि घोर अपराध किया है तो एसे अपराधियों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता एवं भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत तत्काल सख्त कानूनी कार्यवाही क्यों नहीं की जा रही है? नीचे से ऊपर तक सभी लोक सेवकों के मामलों में ऐसी ही नीति लगातार जारी है| जिससे अपराधी लोक सेवकों के होंसले बुलन्द हैं!
इन हालातों में सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सरकारी सेवा में आने से कोई भी व्यक्ति महामानव बन जाता है? जिसे कानून का मखौल उड़ाने का और अपराध करने का ‘विभागीय जॉंच’ रूपी अभेद्य सुरक्षा कवच मिला हुआ है| जिसकी आड़ में वह कितना ही गम्भीर और बड़ा अपराध करके भी सजा से बच निकलता है| जरूरी है, इस असंवैधानिक और मनमानी व्यवस्था को जितना जल्दी सम्भव हो समाप्त किया जावे| इस स्थिति को सरकारी सेवा में मेवा लूटने वालों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता| क्योंकि सभी चोर-चोर मौसेरे भाई होते हैं, जो हमेशा अन्दर ही अन्दर एक-दूसरे को बचाने में जुटे रहते हैं| आम जनता को ही इस दिशा में कदम उठाने होंगे| इस दिशा में कदम उठाना मुश्किल जरूर है, लेकिन असम्भव नहीं है| क्योंकि विभागीय जॉंच कानून में भी इस बात की व्यवस्था है कि लोक सेवकों के विरुद्ध विभागीय कार्यवाही के साथ-साथ आपराधिक मुकदमे दायर कर आम व्यक्ति की तरह लोक सेवकों के विरुद्ध भी कानूनी कार्यवाही की जावे| जिसे व्यवहार में ताक पर उठा कर रख दिया गया लगता है| अब समय आ गया है, जबकि इस प्रावधान को भी आम लोगों को ही क्रियान्वित कराना होगा| अभी तक पुलिस एवं प्रशासन कानून का डण्डा हाथ में लिये अपने पद एवं वर्दी का खौफ दिखाकर हम लोगों को डराता रहा है, लेकिन अब समय आ गया है, जबकि हम आम लोग कानून की ताकत अपने हाथ में लें और विभागीय जॉंच की आड़ में बच निकलने वालों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमे दर्ज करावें| जिससे कि उन्हें भी आम जनता की भांति कारावास की तन्हा जिन्दगी का अनुभव प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त हो सके और जिससे आगे से लोक सेवक, आम व्यक्ति को उत्पीड़ित करने तथा कानून का मखौल उड़ाने से पूर्व दस बार सोचने को विवश हों|
लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश' सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित और अठारह राज्यों में प्रसारित हिन्दी पाक्षिक) तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
Thursday, August 12, 2010
बुद्धिजीवियों की उपयोगिता?
(मैंने इस आलेख पर जो शीर्षक लिखा है, सर्वोत्तम नहीं जान पड़ता है,
अत: निवेदन है कि आप इसका सही शीर्षक निर्धारित करने का कष्ट करें!)
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
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इस देश में जाति के आधार पर जनगणना करने और नहीं करने पर काफी समय से बहस चल रही है। अनेक विद्वान लेखकों ने जाति के आधार पर जनगणना करवाने के अनेक फायदे गिनाये हैं। उनकी ओर से और भी फायदे गिनाये जा सकते हैं। दूसरी और ढेर सारे नुकसान भी गिनाने वाले विद्वान लेखकों की कमी नहीं है। जो जाति के आधार पर जनगणना चाहते हैं, उनके अपने तर्क हैं और जो नहीं चाहते हैं, उनके भी अपने तर्क हैं। कोई पूर्वाग्रह से सोचता है, तो कोई बिना पूवाग्रह के, लेकिन सभी अपने-अपने तरीके से सोचते हैं। लेकिन लोकतन्त्र में कोई भी व्यक्ति किसी पर भी दबाव के जरिये अपने विचारों को थोप नहीं सकता है।
इस सबके उपरान्त भी यदि भारत सरकार जाति आधारित जनगणना करवाने को राजी हो जाती है, तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जाना चाहिये कि केवल जाति आधारित जनगणना की मांग करने वालों के तर्क ही अधिक मजबूत और न्याससंगत हैं और इसके विपरीत यदि सरकार जाति आधारित जनगणना करवाने को राजी नहीं होती है, तो भी इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जाना चाहिये कि जाति आधारित जनगणना की मांग का विरोध करने वालों के तर्क गलत या निरर्थक हैं!
हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में अपनाये गये, दलगत राजनीति पर अधारित संसदीय जनतन्त्र में सबसे पहले राजनैतिक दलों को किसी भी कीमत पर मतदाता को रिझाना जरूरी होता है। जिसके लिये 1984 में सिक्खों के इकतरफा कत्लेआम और गुजरात में हुए नरसंहार को दंगों का नाम दे दिया जाता है। वोटों की खातिर बाबरी मस्जिद को शहीद करके देश के धर्मनिरपेक्ष मस्तक पर सारे विश्व के सामने झुका दिया जाता है। मुसलमानों के वोटों की खातिर, मुसलमानों की औरतों के हित में शाहबानों प्रकरण के न्यायसंगत निर्णय को संसद की ताकत के बल पर बदल दिया जाता है और दूसरी ओर धर्मनिरपेक्षता की संरक्षक कहलाने वाली काँग्रेस की नेतृत्व वाली केन्द्रीय सरकार बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा को मौलवियों के विरोध के चलते भारत में वीजा देने में लगातार इनकार करती रही है?
हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना को लेकर जन्मी जनसंघ के वर्तमान स्वरूप भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान संरक्षक लालकृष्ण आडवाणी, धर्म के आधार पर भारत विभाजन के खलनायक माने जाने वाले मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर सजदा करके, पाकिस्तान की सरजमीं पर ही जिन्ना को धर्मनिरेपक्षता का प्रमाण-पत्र दे आते हैं। फिर भी भाजपा की असली कमान उन्हीं के हाथ में है।
इसके विपरीत भाजपा के वरिष्ठ नेता जसवन्त सिंह को जिन्ना का समर्थन करने एवं सरदार वल्लभ भाई पटेल का विरोधी ठहराकर, सफाई का अवसर दिये बिना ही पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है, लेकिन राजपूत वोटों में सेंध लगाने में सक्षम पूर्व राष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत के इन्तकाल के कुछ ही माह बाद, राजपूतों को अपनी ओर लुभाने की खातिर बिना शर्त जसवन्त सिंह की ससम्मान भाजपा में वापसी किस बात का प्रमाण है। नि:सन्देह जातिवादी राजनीति का ही पोषण है!
उपरोक्त के अलावा भी ढेरों उदाहरण गिनाये जा सकते हैं। असल समझने वाली बात यह है कि इस देश की राजनीति की वास्तविकता क्या है? 5-6 वर्ष पूर्व मैं राजस्थान के एक पूर्व मुख्यमन्त्री के साथ कुछ विषयों पर अनौपचारिक चर्चा कर रहा था, कि इसी बीच राजनैतिक दलों के सिद्धान्तों का सवाल सामने आ गया तो उन्होनें बडे ही बेवाकी से टिप्पणी की, कि-"मुझे तो नहीं लगता कि इस देश में किसी पार्टी का कोई सिद्धान्त हैं? हाँ पहले साम्यवादियों के कुछ सिद्धान्त हुआ करते थे, लेकिन अब तो वे भी अवसरवादी हो गये हैं।" कुछ वर्षों के सत्ता से सन्यास के बाद जब इन्हीं महाशय को राज्यपाल बना दिया गया तो मैंने एक कार्यक्रम में उन्हें यह कहते हुए सुना कि-"इस देश में काँग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है, जो सिद्धान्तों की राजनीति करती है।"
भारतीय जनता पार्टी की एक प्रान्तीय सरकार में काबीना मन्त्री रहे एक मुसलमान नेता से चुनाव पूर्व जब यह सवाल किया गया कि आपने भाजपा, भाजपा की नीतियों से प्रभावित होकर जोइन की है या और कोई कारण है? इस पर उनका जवाब भी काबिले गौर है? "मेरे क्षेत्र में मसुलामनों का वोट बैंक है और कांग्रेस ने मुझे टिकिट नहीं देकर जाट जाति के व्यक्ति को अपना उम्मीदवार बनाया है। चूँकि मुसलमान किसी को भी वोट दे सकता है, लेकिन जाट को नहीं देगा, ऐसे में मौके का लाभ उठाने में क्या बुराई है! जीत गये तो मुस्लिम कोटे में मन्त्री बनने के भी अवसर हैं।" आश्चर्यजनक रूप से ये महाशय चुनाव जीत गये और काबीना मन्त्री भी रहे, लेकिन एक बार इन्होंने अपने किसी परिचत के दबाव में अपने विभाग के एक तृतीय श्रेणी के कर्मचारी का स्थानान्तरण कर दिया, जिसे मुख्यमन्त्री ने ये कहते हुए स्टे (स्थगित) कर दिया कि आपको मन्त्री पद और लाल बत्ती की गाडी चाहिये या ट्रांसफर करने का अधिकार?
इसके बावजूद भी इस देश में लगातार प्रचार किया जा रहा है कि इस देश को धर्म एवं जाति से खतरा है! सोचने वाली बात ये है कि यदि कोई दल सत्ता में ही नहीं आयेगा तो वह सिद्धान्तों की पूजा करके क्या करेगा? हम सभी जानते हैं कि आज किसी भी दल के अन्दर कोई भी सिद्धान्त, कहीं भी परिलक्षित नहीं हो रहे हैं। ऐसे में किसी भी दल से यह अपेक्षा करना कि वह देशहित में अपने वोटबैंक की बलि चढा देगा, दिन में सपने देखने जैसा है।
इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि माहौल बनाने के लिये हर विषय पर स्वस्थ चर्चा-परिचर्चाएं होती रहनी चाहिये। बद्धिजीवियों को इससे खुराक मिलती रहती है, लेकिन इस देश का दुर्भाग्य है कि जिस प्रकार से यहाँ के राजनेताओं की अपनी मजबूरियाँ हैं, उसी प्रकार से लेखकों एवं पाठकों की भी मजबूरियाँ हैं। जिसके चलते जब एक पक्ष सत्य पर आधारित चर्चा की शुरूआत ही नहीं करता है, तो असहमति प्रकट करने वाले पक्ष से इस बात की अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह केवल सत्य को ही चर्चा का आधार बनायेगा। हर कोई स्वयं के विचार को सर्वश्रेष्ठ और स्वयं को सबसे अधिक जानकार तथा अपने विचारों को ही मौलिक सिद्ध करने का प्रयास करने पर उतारू हो जाता है।
इस प्रकार की चर्चा एवं बहसों से हमारी बौद्धिक संस्कृति का ह्रास हो रहा है। जिसके लिये हम सब जिम्मेदार हैं। दु:ख तो इस बात का है कि इस पर लगाम, लगना कहीं दूर-दूर तक भी नजर नहीं आ रहा है। क्योंकि कोई भी अपनी गिरेबान में देखने को तैयार नहीं है। जाति के आधार पर जनगणना का विरोध करने वाले विद्वजन एक ही बात को बार-बार दौहराते हैं कि जातियों के आधार पर गणना करने से देश में टूटन हो सकती है, देश में वैमनस्यता को बढावा मिल सकता है। जबकि दूसरे पक्ष का कहना है कि इससे देश को कुछ नहीं होगा, लेकिन कमजोर और पिछडी जातियों की वास्तविक जनसंख्या का पता चल जायेगा और इससे उनके उत्थान के लिये योजनाएँ बनाने तथा बजट आवण्टन में सहूलियत होगी।
कुछ लोग इस राग का आलाप करते रहते हैं कि यदि जातियों के आधार पर जनगणना की गयी तो देश में जातिवाद को समाप्त नहीं किया जा सकता है। मेरी यह समझ में नहीं आ रहा कि हम जातियों को समाप्त कर कैसे सकते हैं? कम से कम मुझे तो आज तक कोई सर्वमान्य एवं व्यावहारिक ऐसा फार्मूला कहीं पढने या सुनने को नहीं मिला, जिसके आधार पर इस देश में जातियों को समाप्त करने की कोई आशा नजर आती हो?
सच्चाई तो यही है कि इस देश की सत्तर प्रतिशत से अधिक आबादी को तो अपनी रोजी-रोटी जुटाने से ही फुर्सत नहीं है। उच्च वर्ग को इस बात से कोई मतलब नहीं कि देश किस दिशा में जा रहा है या नहीं जा रहा है? उनको हर पार्टी एवं दल के राजनेताओं को और नौकरशाही को खरीदना आता है। देश का मध्यम वर्ग आपसी काटछांट एवं आलोचना करने में समय गुजारता रहता है।
बुद्धिजीवी वर्ग अन्याय एवं अव्यवस्था के विरुद्ध चुप नहीं बैठ सकता। क्योंकि बुद्धिजीवी वर्ग को चुप नहीं रहने की बीमारी है। राजनेता बडे चतुर और चालाक होते हैं। अत: उन्होंने बुद्धिजीवी वर्ग को उलझाये रखने के लिये देश में जाति, धर्म, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता, भाषा, मन्दिर-मस्जिद, गुजरात, नक्सलवाद, आतंकवाद, बांग्लादेशी नागरिक, कश्मीर जैसे मुद्दे जिन्दा रखे हुए हैं। बुद्धिजीवी इन सब विषयों पर गर्मागरम बहस और चर्चा-परिचर्चा करते रहते हैं। जिसके चलते अनेकानेक पत्र-पत्रिकाएँ एवं समाचार चैनल धडल्ले से अपना व्यापार बढा रहे हैं।
उक्त विवेचन के प्रकाश में उन सभी बद्धिजीवियों से एक सवाल है, जो स्वयं को बुद्धिजीवी वर्ग का हिस्सा मानते हैं, यदि वे वास्तव में इस प्रकार से आपस में उलझकर वाद-विवाद करने में उलझे रहेंगे तो उनको बुद्धिजीवी कहलाने का क्या हक है? ऐसे बुद्धिजीवियों को अपनी उपयोगिता के बारे में विचार करना चाहिये!
यह आलेख निम्न लिंक पर भी अलग-अलग शीर्षक से पढ़ा जा सकता है :-
1. >जाति जनगणना विवाद- भारतीय बुद्धिजीवि वर्ग की बौद्धिक शुन्यता का परिचायक
http://www.vicharmimansa.com/blog/2010/08/13/जाति-जनगणना-विवाद-भारतीय/
2. बुद्धिजीवियों की उपयोगिता?
http://www.merikhabar.com/news_details.php?nid=32816
3. क्या इन्हें बुद्धिजीवी कहलाने का हक है?
http://www.pravakta.com/?p=12290
4. बुद्धिजीवियों से एक सवाल
http://www.janokti.com/author/drmeena/
5. वोटों की खातिर जाति आधारित जनगणना की मजबूरी
http://www.pressnote.in/nirkunsh_89124.html
6. जनगणना और बुद्धिजीवी
http://www.pressnote.in/nirkunsh_89124.html
7. बुद्धिजीवियों की उपयोगिता?
http://www.bharatkesari.com/cjarticles.aspx?p=Dr.PurushottamMeena
8. सभी बद्धिजीवियों से एक सवाल?
http://presspalika.mywebdunia.com/articles/
===========================================================
1. >जाति जनगणना विवाद- भारतीय बुद्धिजीवि वर्ग की बौद्धिक शुन्यता का परिचायक
http://www.vicharmimansa.com/blog/2010/08/13/जाति-जनगणना-विवाद-भारतीय/
2. बुद्धिजीवियों की उपयोगिता?
http://www.merikhabar.com/news_details.php?nid=32816
3. क्या इन्हें बुद्धिजीवी कहलाने का हक है?
http://www.pravakta.com/?p=12290
4. बुद्धिजीवियों से एक सवाल
http://www.janokti.com/author/drmeena/
5. वोटों की खातिर जाति आधारित जनगणना की मजबूरी
http://www.pressnote.in/nirkunsh_89124.html
6. जनगणना और बुद्धिजीवी
http://www.pressnote.in/nirkunsh_89124.html
7. बुद्धिजीवियों की उपयोगिता?
http://www.bharatkesari.com/cjarticles.aspx?p=Dr.PurushottamMeena
8. सभी बद्धिजीवियों से एक सवाल?
http://presspalika.mywebdunia.com/articles/
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Saturday, July 17, 2010
स्त्री को दार्शनिक बना देना!

व्यक्ति जिस समाज, धर्म या संस्कृति में पल-बढकर बढा होता है। व्यक्ति का जिस प्रकार से समाजीकरण होता है, उससे उसके मनोमस्तिष्क में और गहरे में जाकर अवचेतन मन में अनेक प्रकार की झूठ, सच, भ्रम या काल्पनिक बातें स्थापित हो जाती हैं, जिन्हें वह अपनी आस्था और विश्वास से जोड लेता है। जब किन्हीं पस्थितियों या घटनाओं या इस समाज के दुष्ट एवं स्वार्थी लोगों के कारण व्यक्ति की आस्था और विश्वास हिलने लगते हैं, तो उसे अपनी आस्था, विश्वास और संवेदनाओं के साथ-साथ स्वयं के होने या नहीं होने पर ही शंकाएँ होने लगती हैं। इन हालातों में उसके मनोमस्तिषक तथा हृदय के बीच अन्तर्द्वन्द्व चलने लगता है। फिर जो विचार मनोमस्तिषक तथा हृदय के बीच उत्पन्न होते हैं, खण्डित होते हैं और धडाम से टूटते हैं, उन्हीं मनोभावों के अनुरूप ऐसे व्यक्ति का व्यक्तित्व भी निर्मित या खण्डित होना शुरू हो जाता है। जिसके लिये वह व्यक्ति नहीं, बल्कि उसका परिवेश जिम्मेदार होता है।
स्त्री के मामले में स्थिति और भी अधिक दुःखद और विचारणीय है, क्योंकि पुरुष प्रधान समाज ने, स्वनिर्मित संस्कृति, नीति, धर्म, परम्पराओं आदि सभी के निर्वाह की सारी जिम्मेदारियाँ चालाकी और कूटनीतिक तरीक से स्त्री पर थोप दी हैं। कालान्तर में स्त्री ने भी इसे ही अपनी नियति समझ का स्वीकार लिया। ऐसे में जबकि एक स्त्री को जन्म से हमने ऐसा अवचेतन मन प्रदान किया; जहाँ स्त्री शोषित, दमित, निन्दित, हीन, नर्क का द्वार, पापिनी आदि नामों से अपमानित की गयी और उसकी भावनाएँ कुचली गयी है, वहीं दूसरी ओर सारे नियम-कानून, दिखावटी सिद्धान्त और नकाबपोस लोगों के बयान कहते हैं, कि स्त्री आजाद है, पुरुष के समकक्ष है, उसे वो सब हक-हकूक प्राप्त हैं, जो किसी भी पुरुष को प्राप्त हैं और जैसे ही कोई कोमलहृदया इन भ्रम-भ्रान्तियों में पडकर अपना वजूद ढँूढने का प्रयास करती है, तो अन्दर तक टूट का बिखर जाती है। उसके अरमानों को कुचल दिया जाता है, ऐसे में जो उसकी अवस्था (मनोशारीरिक स्थिति) निर्मित होती है, उसको भी हमने दार्शनिक कहकर अलंकारित कर दिया है। जबकि ऐसे व्यक्ति की जिस दशा को दार्शनिक कहा जाता है, असल में वह क्या होती है, इसे तो वही समझ सकता/सकती है, जो ऐसी स्थिति से मुकाबिल हो।
लेखक : -डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र) एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) (जो दिल्ली से देश के सत्रह राज्यों में संचालित है।
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हीन
Saturday, June 19, 2010
अगला भगत सिंह कभी भी पैदा होने वाला नहीं है!
युवा सोच के धनी श्री विकास भारतीय ने मुझे निम्न आलेख पढने का संकेत मेल पर किया, मैंने इसे पढ़कर नीचे अपनी प्रतिक्रिया भी उनको लिख भेजी है :-
TUESDAY, FEBRUARY 16, 2010
अगला भगत सिंह कौन?
आने वाले विगत वर्षो में भारत में जो भुखमरी आनेवाली है उसका अंदाजा न तो केंद्र सरकार को है नाही इसपर कोई क्रांतिकारी कदम आम जनता द्वारा ही उठाया जा रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रतिस्पर्धा के कारण छोटे उद्योगों का दिन प्रतिदिन विनाश होता जा रहा है। अपार्टमेंट्स और बहुमंजिली इमारतों से आम जनता को कुछ भी मिलने वाला नहीं है। आम जनता को तो रोजगार चाहिए। यहाँ मै ये बता देना चाहता हूँ की आम जनता आखिर है कौन? आम जनता वो है जिनके माँ बाप गरीबी रेखा से नीचे की जीवन श्रेणी में जीवन यापन करते है। जिनको मिलने वाला सरकारी फंड सरकारी लुटेरो की जेबों को गर्म रखता है। जो घुट घुट कर जीने को मजबूर है। जिनके पास खाने को नहीं है और सरकार कहती है अपने बच्चो को पढ़ाओ और काम न करवाओ। इसके लिए सरकार ने श्रम मंत्रालय तक का निर्माण किया है जिनका ज्यादातर समय कार्यालयों में सेब, चाय, सिगरेट और मशाले खाते हुए कटता है। जिस घर में बीमारी ने अपना ठेहा जमा रखा हो और घर में दो जून की रोटी न हो अगर उससे सरकार कहे की अपने बच्चो से काम न करवाओ तो यह कहा तक उचित है। अंग्रेजी आसान भाषा है ऐसा ज्यादातर विद्वानों से सुनने को मिलता है। अगर ऐसा है तो महात्मा गाँधी, राम मनोहर लोहिया और खुद केंद्र सरकार आज़ादी के समय से ही क्यों हिंदी लाने के लिए प्रयत्नसिल थे और है भी? प्रश्न यह उठता है की आखिर हम इंग्लिश क्यों सीखे? हमारे ब्यूरोक्रेट्स, अधिकारी और सरकारी कर्मचारी अगर अपने कर्तव्यों का सही से पालन करते और कर रहे होते तो आज जो भयावह स्थिति बनी है क्या वो बन पाती? क्योकि अगर शुरू से ही हिंदी का विकास और सत्प्रयोग किया गया होता तो शायद आज ये स्थिति नहीं बनती। महात्मा गाँधी ने तो यहाँ तक कहा था की ये राष्ट्र द्रोह है उन्होंने प्रसिद्ध स्वराज्य में लिखा था की अंग्रेजी जानने वाले ने आम जनता को ठगने में कुछ न उठा रखा है।
लेकिन वर्तमान में उन गरीबो का जो शीतलहर से पूल के निचे, किसी राजमार्ग के किनारे मर रहे है? शायद वो नहीं होता। अगर आज़ादी के पश्चात हमारे देश के करता धर्ताओ ने देश के साथ थोडा भी देशभक्ति दिखाया होता तो शायद जो स्थिति आज उत्पन्न हुई है वो न हो पाती। आज सामाचार पत्रों में ये मुद्दे प्राचीन सभ्यताओ की तरह अथवा हिंदी भाषा को ही ले लीजिये की तरह ख़तम होते जा रहा है। हमारे देश की जनसँख्या १ अरब से कही ज्यादा है और कुछ लाख लोगो के इंजिनियर, डॉक्टर बन जाने से अथवा कुछ हज़ार अच्छे बहुमंजिली इमारतों के बन जाने से उन गरीबो का क्या लेना देना है। सरकार दिखा रही की देश का विकास हो रहा है लेकिन सरकार इसपर प्रकाश नहीं डाल रही है। नरेगा हो या अन्य बहुत से मद जो गरीबो के लिए केंद्र सरकार द्वारा शुरू किये गए है पूरा देश जानता है की कितने गरीबो का उससे कल्याण हो पाता है। समाचार पत्र, और एन.जी.ओ समाज में रुआब और सरकारी फंड पाने हेतु या गरीबो के स्वार्थ हेतु खोला जा रहा है ये शायद उन्ही हो मालूम होगा। आर.एन.आई के आकड़ो को देखा जाये और मार्केट में बिक रहे समाचार पत्रों को देखा जाये तो इसका अंदाजा और बेहतरी से किया जा सकता है। सरकार के खिलाफ अब बहुत कम ही पत्रकार अपना मुंह खोलने को तैयार है लेकिन ये सब समय की माया है। जनता अब क्रांति के मायने भूल चुकी है अथवा उसको कोई भगत सिंह , चंद्रशेखर आज़ाद जैसा नहीं मिल पा रहा है। अथवा आज के भगत सिंह और चन्द्र शेखर आज़ाद को फिक्र हो गयी है की वो जमाना कुछ और था उस समय तो मात्र अंग्रेजो से भय था या उनकी जमात काम थी। लेकिन आज अगर आवाज उठाया तो कही मेरे ही खिलाफ सी.बी.आई जाँच न शुरू हो जाए, कही मुझे मार न दिया जाये या कही मुझे समूचे लोकतंत्र से तो नहीं जूझना पड़ेगा।
समय का तकाजा है देखना है अगला भगत सिंह कब सामने आएगा।
लेकिन वर्तमान में उन गरीबो का जो शीतलहर से पूल के निचे, किसी राजमार्ग के किनारे मर रहे है? शायद वो नहीं होता। अगर आज़ादी के पश्चात हमारे देश के करता धर्ताओ ने देश के साथ थोडा भी देशभक्ति दिखाया होता तो शायद जो स्थिति आज उत्पन्न हुई है वो न हो पाती। आज सामाचार पत्रों में ये मुद्दे प्राचीन सभ्यताओ की तरह अथवा हिंदी भाषा को ही ले लीजिये की तरह ख़तम होते जा रहा है। हमारे देश की जनसँख्या १ अरब से कही ज्यादा है और कुछ लाख लोगो के इंजिनियर, डॉक्टर बन जाने से अथवा कुछ हज़ार अच्छे बहुमंजिली इमारतों के बन जाने से उन गरीबो का क्या लेना देना है। सरकार दिखा रही की देश का विकास हो रहा है लेकिन सरकार इसपर प्रकाश नहीं डाल रही है। नरेगा हो या अन्य बहुत से मद जो गरीबो के लिए केंद्र सरकार द्वारा शुरू किये गए है पूरा देश जानता है की कितने गरीबो का उससे कल्याण हो पाता है। समाचार पत्र, और एन.जी.ओ समाज में रुआब और सरकारी फंड पाने हेतु या गरीबो के स्वार्थ हेतु खोला जा रहा है ये शायद उन्ही हो मालूम होगा। आर.एन.आई के आकड़ो को देखा जाये और मार्केट में बिक रहे समाचार पत्रों को देखा जाये तो इसका अंदाजा और बेहतरी से किया जा सकता है। सरकार के खिलाफ अब बहुत कम ही पत्रकार अपना मुंह खोलने को तैयार है लेकिन ये सब समय की माया है। जनता अब क्रांति के मायने भूल चुकी है अथवा उसको कोई भगत सिंह , चंद्रशेखर आज़ाद जैसा नहीं मिल पा रहा है। अथवा आज के भगत सिंह और चन्द्र शेखर आज़ाद को फिक्र हो गयी है की वो जमाना कुछ और था उस समय तो मात्र अंग्रेजो से भय था या उनकी जमात काम थी। लेकिन आज अगर आवाज उठाया तो कही मेरे ही खिलाफ सी.बी.आई जाँच न शुरू हो जाए, कही मुझे मार न दिया जाये या कही मुझे समूचे लोकतंत्र से तो नहीं जूझना पड़ेगा।
समय का तकाजा है देखना है अगला भगत सिंह कब सामने आएगा।
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अगला भगत सिंह कभी भी पैदा होने वाला नहीं है!
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
उक्त ब्लॉग पर प्रदर्शित आपका 16 फरवरी, 2010 का आलेख मेरे ई-मेल पर प्राप्त हुआ है। धन्यवाद! इसे पढा और पढकर प्रसन्नता हुई कि इस देश की दुर्दशा की आपको भी चिन्ता है। भ्रष्टाचार एवं प्रशासनिक मनमानी के विरुद्ध विचार रखने के लिये साधुवाद। आप युवा हैं और आपमें जोश भी है, लेकिन केवल नकारात्मक बातें लिखने और व्यवस्था को कटघरे में खडा करने मात्र से और किसी भगत सिंह के पैदा होने की उम्मीद करने से कुछ नहीं होने वाला है।
दूसरी एक और बात भी कहना चाहँूगा कि कोई भी व्यक्ति मोहन दास कर्मचन्द गाँधी जैसे चालाक एवं शहीद-ए-आजम भगत सिंह जैसे सर्वकालिक भारत रत्न का एक साथ अनुयाई कैसे हो सकता है?
सारा देश जानता है कि गाँधी चाहता तो भगत सिंह को फांसी नहीं लगती!
आपसे विनम्र आग्रह है कि कृपया आप सबसे पहले तो तय करें कि गाँधी का रास्ता सही है या भगत सिंह का? यदि गाँधीवाद सही है तो फिर देश में हो रही विकास की बातों पर विश्वास करो और यदि गाँधी गलत है तो भगत के विचार अपने आचरण से प्रमाणित करो। यदि दोनों के रास्ते सही हैं तो कैसे मुझे भी बतलाना।
अगला भगत सिंह कभी भी पैदा होने वाला नहीं है, क्योंकि कोई भी माँ-बाप नहीं चाहते कि उनके घर में भगत सिंह पैदा हो, लेकिन यह अवश्य चाहते हैं कि पडौसी के यहाँ अवश्य भगत सिंह पैदा हो! हाँ गाँधी जैसे ढोंगी बच्चे अवश्य सभी लोग चाहते हैं। इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि आपने जो कुछ लिखा है, वह कडवा सच है। इस बारे में, मैं आपका इतना बता देना चाहता हँू कि सरकार को देश के और गरीबों के बारे में सब-कुछ अच्छी तरह से मालूम है, लेकिन सरकार को चलाने वाले महामानव, आम लोगों की क्यों परवाह करें? विशेषकर तब जबकि आम लोगों की परवाह किये बिना ही उनको सरकार चलाने एवं देश के खजाने को मनमाफिक लुटाने तथा लूटने का हक हमने प्रदान किया हुआ है। विकासजी भविष्य में न तो कभी गाँधी पैदा होगा, न हीं भगत सिंह। इस देश में तो नाथूराम गौडसे भी दुबारा पैदा होने वाला नहीं है।
यदि कुछ कर सकते हैं या करना चाहते हैं तो हमको ही करना होगा। इस सच्चाई को स्वीकार करना होगा कि इस देश को कुछ जिन्दा लोगों की जरूरत है और जिन्दा कौमें किसी की प्रतीक्षा नहीं करती! अब सोचने वाली बात ये है कि सवा अरब की आबादी में जिन्दा लोग कितने हैं? हैं भी या नहीं?
शुभकामनाओं सहित आपका-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश', सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र) एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) (जो दिल्ली से देश के सत्रह राज्यों में संचालित है। इस संगठन ने आज तक किसी गैर-सदस्य, या सरकार या अन्य बाहरी किसी भी व्यक्ति से एक पैसा भी अनुदान ग्रहण नहीं किया है। इसमें वर्तमान में 4328 आजीवन रजिस्टर्ड कार्यकर्ता सेवारत हैं।)। इस संगठन ने आज तक किसी गैर-सदस्य, या सरकार या अन्य बाहरी किसी भी व्यक्ति से एक पैसा भी अनुदान ग्रहण नहीं किया है। फोन : 0141-2222225 (सायं : 7 से 8) मो. 098285-02666
Thursday, February 25, 2010
छोटी खबर बडा असर!
फैशन या दिखावे से अधिक महत्वपूर्ण है, आपका जीवन। परमात्मा की अमूल्य सौगात मानव जीवन की रक्षा की जिम्मेदार स्वयं मानव की है। यदि हम अपनी लापरवाही से अपने जीवन को विपदा में डालते हैं तो इसमें परमात्मा का कोई दोष नहीं है।
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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा "निरंकुश"
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राजस्थान के एक दैनिक समाचार पत्र के स्थानीय संस्करण में छोटी सी खबर प्रकाशित हुई कि राजस्थान के पूर्व में स्थित करौली जिले के एक गाँव के युवक की इस कारण से मौत हो गयी, क्योंकि उसकी आँख में चेंपा घुस गया, जिसके चलते उसने मोटर साईकल का सन्तुलन खो दिया और वह पत्थरों से जा टकराया। एक आम व्यक्ति के लिये यह खबर छोटी हो सकती है, लेकिन मरने वाले के माता-पिता से जाकर पूछें तो पता चलेगा कि एक पुत्र को खो देने का दर्द क्या होता है? उनके लिये तो दुःखों का पहाड टूट पडा। हम लोग इस प्रकार की छोटी-छोटी खबरों को पढकर कुछ ही दिनों में भुला देते हैं। इसीलिये इस खबर को यहाँ छोटी लिखा गया है, परन्तु इस छोटी बात या छोटी खबर को गहराई से समझने के लिये इसे विवेचनात्मक रूप से लिखना असल मकसद है।
विचारणीय बात यह है कि यदि उक्त युवक ने एक घटिया सा चश्मा भी पहन रक्खा होता तो उसकी आँख में चेंपा नहीं गया होता और मोटर साईकल का सन्तुलन भी नहीं बिगडता एवं माता-पिता के बुढापे का सहारा नहीं छिनता। या यदि उक्त युवक ने हेलमेट पहन रखा होता तो भी सन्तुलन बिगड जाने के बाद भी उसका सिर पत्थरों की चोटों से बच सकता था। यदि ग्लास वाला हेलमेट पहना होता तो चेंपा आँख में ही नहीं जाता। इस प्रकार छोटी सी सावधानी जीवन को बचाने के लिये बहुत बडा योगदान दे सकती है।
इस घटना के प्रकाश में हमारे लिये समझने और अपने स्वजनों को समझाने वाली बात यह है कि चेंपा के मौसम में ही नहीं, अपितु हमेशा ही बाइक या साईकल चलाते समय चश्मा पहनें या ग्लास वाला हेलमेट पहनने की आदत डालें। क्योंकि चेंपा तो मौसम के कारण फरवरी-मार्च के महिने में ही उडता है, लेकिन मच्छर और कचरे व धूल के कण तो हर क्षण हवा में तैरते रहते हैं, जो कभी भी और किसी भी क्षण किसी भी बाइक या साईकल चालक की आँख में घुसकर जान लेवा सिद्ध हो सकते हैं।
इस घटना से हमें यह भी सीखना चाहिये कि छोटी-छोटी बातों को, छोटी-छोटी चीजों को और छोटी-छोटी घटनाओं को गम्भीरता से लेना चाहिये। यदि एक छोटी सी चिडिया वेग से उडते हवाई जहाज से टकराकर दुर्घटना का कारण बन सकती है और उसमें सवार सैकडों लोगों की असमय मृत्य का कारण बन सकती है तो चेंपा, मच्छर या कचरे के छोटे से कण के कारण एक बाइक चालक की आँख को तकलीफ पहूँचना तो सुनिश्चित है। जिस प्रकार से हवा में उडती चडियाओं से आसमान को मुक्त करना सम्भव नहीं है, उसी प्रकार से धरती से कुछ फिट की उंचाई पर उडते चेंपा तथा मच्छर एवं हवा में तैरते धूल या कचरे के कणों को भी रोका नहीं जा सकता है। यह सब प्राकृतिक है।
हमें स्वयं ही इन सबसे बचाव के रास्ते खोजने होंगे। हमें अपनी आँखों पर से लापरवाही का चश्मा हटाकर, समझदारी का परिचय देते हुए, अच्छा सा चश्मा खरीद बाइक या साईकल चलाते समय हमेशा पहनना चाहिये। जिससे हमारी आँखों की ही नहीं, बल्कि हमारे जीवन की भी सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। दैनिक जीवन के अन्य अपरिहार्य कार्यों की भांति यदि हम चश्मा एवं हेलमेट पहनने को भी अपनी आदत में शामिल कर लें तो हम बाइक चलते समय अपने अपने जीवन और हम पर निर्भर हमारे परिवारजनों की आशाओं को लम्बे समय तक जिन्दा रख सकते हैं।
इसलिये सबक सीखने वाली बात यही है कि बाइक चलते समय हमेशा चश्मा लगाना और हेलमेट पहनना नहीं भूलें। फैशन या दिखावे से अधिक महत्वपूर्ण है, आपका जीवन। परमात्मा की अमूल्य सौगात मानव जीवन की रक्षा की जिम्मेदार स्वयं मानव की है। यदि हम अपनी लापरवाही से अपने जीवन को विपदा में डालते हैं तो इसमें परमात्मा का कोई दोष नहीं है। परमात्मा ने बाइक या साईकल नहीं बनाई, इसलिये परमात्मा ने चेंपा और मच्छर को खुले आसमान में उडने का हक प्रदान किया, लेकिन मानव ने तेजी से दौडती बाइक का निर्माण किया है, जिसके कारण चेंपा हमसे नहीं, बल्कि हम चेंपा से जाकर टकराते हैं। इसलिये चेंपा तथा मच्छर और कचरे एवं घूल के कणों से अपनी आँखों और अपने जीवन की रक्षा करने की जिम्मेदारी भी हमारी अपनी ही है।
Thursday, February 11, 2010
सरकारी यात्रा पर पत्नी का क्या काम?
एक दूसरा पहलु भी विचारणीय है और वह यह कि देश या विदेश में सरकारी यात्राओं पर जाने वाले मन्त्री, सांसद या उच्च अधिकारों के साथ जाने वाले पीए, सीए, पीएस आदि को सरकारी दायित्वों का निर्वाह करना होता है, लेकिन उन्हें अपने साथ अपनी पत्नी या पति को ले जाने की कोई अनुमति नहीं होती है, आखिर क्यों? क्या छोटे पदों पर आसीन लोगों को पत्नी के भावनात्मक सामीप्य की जरूरत नहीं होती है।केवल बडे लोगों का ही मानसिक स्तर कमजोर होता है, जिन्हें सहारा देने के लिये उनके साथ में उनकी पत्नी या पति को सरकारी खर्चे पर यात्रा करने की अनुमति दी जाती है? इन सवालों के जवाब देश की जनता मांग रही है और आज नहीं तो कल इन सवालों के जवाब देने ही होंगे। आखिर लोगों के खून-पसीने की गाढी कमाई को मन्त्रियों, सांसदों और अफसरों के पति या पत्नी के सैर-सपाटे के बर्बाद करते हुए कोई कैसे सहन कर सकता है। यह आम करदाता के साथ धोखा है। जिसके लिये ऐसे कानून बना कर राजस्व की बर्बादी करने वालों को जवाबदेह होना चाहिये।
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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
हमारे देश में सुख-सुविधाओं के नाम पर सरकारी धन को लूटने की होड सी चल निकली है। किसी न किसी बहाने से लोग सरकारी धन को लूटने का रास्ता खोज लेते हैं। इनमें बडे ओहदेदार ही आगे हैं। जिनके पास पहले से ही बहुत है, उन्हीं को और धन उपलब्ध करवाया जा रहा है। यही नहीं, बल्कि छोटे समझे जाने वाले लोगों के पास आर्थिक संसाधन नहीं है, उन्हें और वंचित करने के प्रयास भी साथ-साथ जारी हैं। ऐसा ही एक उदाहरण सामने आया है जो देश की सबसे बडी अदालत के सबसे बडे न्यायाधीश से जुडा हुआ है। इसलिये इस बारे में चर्चा होना तो स्वाभाविक ही है।
इस सम्बन्ध में एक सबसे बडा सवाल यह है कि सरकारी यात्रा पर जाने वाले राज नेताओं या अफसरों के साथ उनकी पत्नियों का जाना व्यक्तिगत तौर पर और कानून तौर पर तो हक है और इसे न तो कोई नकार सकता है और न हीं इसे रोका जा सकता है। लेकिन समस्या तब पैदा होती है, जबकि ऐसी सरकारी यात्रा पर जाने वाले मन्त्री, राजनेता या अफसर के साथ जाने वाली उसकी पत्नी या उसके परिवार के लोगों का किरया, रहना, खाना आदि का भुगतान राष्ट्रीय कोश से किया जाता है। क्यों आखिर क्यों सरकारी यात्रा पर किसी की भी पत्नी का क्या काम है? क्या हित होता राष्ट्र का पत्नियों से या पत्नी अधिकारियों या मन्त्राणियों के साथ में उनके पति के जाने से राष्ट्र को कोई लाभ नहीं होता। इसलिये साथ में जाने वाले पति या पत्नी का खर्चा सरकारी खजाने से उठाना देश के लोगों की गाढी कमाई की खुलेआम बर्बादी के अलावा कुछ भी नहीं है।
कुछ लोगों का तर्क होता है कि लम्बी यात्राओं के दौरान यदि पति के साथ पत्नी या पत्नी के साथ पति जाता है तो दोनों को भावनात्मक विछोह अनुभव नहीं होता है और इससे उनका मानसिक स्वास्थ्य ठीक बना रहता है। जिसके चलते जिस उद्देश्य के लिये यात्रा की जाती है, उसके सकारात्मक परिणाम की अधिक आशा की जा सकती है। इसलिये पत्नी के साथ पति और पति के साथ पत्नी का जाना कहीं न कहीं राष्ट्रीय हित में है। इस प्रकार के तर्क (जिन्हें कुतर्क कहा जाना चाहिये) के सहारे पति अपनी पत्नी को और पत्नी अपने पति को अपने साथ देश और विदेश में सैर कराने के लिये अपने साथ ले जाने और सैर का सारा खर्चा देश के राजस्व से उठाने का कानूनी अधिकार पा लेते हैं। साथ ही ऐसे तर्कों के आधार पर सिद्ध कर दिया जाता है कि यह सब जरूरी है।
इसी का परिणाम है कि पिछले दिनों देश की सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीश की पत्नी, उनके साथ विदेश यात्रा पर गयी, जिसका खर्चा सरकार ने उठाया और यात्रा से लौटने के बाद मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय की ओर से भारत सरकार को लिखा गया कि मुख्य न्यायाधीश की पत्नी के विदेश दौरे की अवधि के टीए एवं डीए का भुगतान किया जाये और इस दौरान हुए खर्च सरकार को उठाने चाहिए?यपि यह स्पष्ट नहीं है कि यह मांग मुख्य न्यायाधीश के कहने पर की है या फिर उच्चतम न्यायालय के प्रशासनिक कार्यालय द्वारा अपनी ओर से की गयी है। भारत सरकार की ओर से मुख्य न्यायाधीश के साथ में उनकी पत्नी को सरकारी खर्चे पर हवाई यात्रा की मंजूरी दी गयी थी और शेष सभी खर्चे स्वयं मुख्य न्यायाधीश को अपनी जेब से वहन करने थे, लेकिन भारत सरकार को लिखा गया है कि मुख्य न्यायाधीश की गत वर्ष 12 से 18 अक्तूबर के दौरान डबलिन और लंदन की यात्रा के दौरान जो खर्चा उनकी पत्नी पर किया गया उसकी भी भरपाई की जानी चाहिये। जिसे टीए एवं डीए के रूप में मांगा गया है। भारत सरकार की ओर से अभी तक इसकी मंजूरी नहीं दी गयी है, लेकिन मंजूरी दी भी जा सकती है। वातानुकूलित कमरों में बैठे ब्यूरोक्रेट इसे अपने अनुकूल पाकर, निर्णय ले सकते हैं कि जिन कारणों से मुख्य न्यायाधीश की पत्नी को सरकारी खर्चे पर हवाई यात्रा की मंजूरी दी गयी उन्हीं के आधार पर उन्हें टीए एवं डीए का भी भुगतान किया जा सकता है। यदि विधि मन्त्रालय इसे मंजूरी दे देता है तो भविष्य सभी पतियों के साथ जाने वाली पत्नियों के लिये भी टीए एवं डीए प्राप्त करने का कानूनी मार्ग खुल जायेगा। देखना होगा कि इस बारे में ब्यूराक्रेसी फ़ाइल पर कैसी टिप्पणी लिखती है?
जबकि एक दूसरा पहलु भी विचारणीय है और वह यह कि देश या विदेश में सरकारी यात्राओं पर जाने वाले मन्त्री, सांसद या उच्च अधिकारों के साथ जाने वाले पीए, सीए, पीएस आदि को सरकारी दायित्वों का निर्वाह करना होता है, लेकिन उन्हें अपने साथ अपनी पत्नी या पति को ले जाने की कोई अनुमति नहीं होती है, आखिर क्यों? क्या छोटे पदों पर आसीन लोगों को पत्नी के भावनात्मक सामीप्य की जरूरत नहीं होती है।केवल बडे लोगों का ही मानसिक स्तर कमजोर होता है, जिन्हें सहारा देने के लिये उनके साथ में उनकी पत्नी या पति को सरकारी खर्चे पर यात्रा करने की अनुमति दी जाती है? इन सवालों के जवाब देश की जनता मांग रही है और आज नहीं तो कल इन सवालों के जवाब देने ही होंगे। आखिर लोगों के खून-पसीने की गाढी कमाई को मन्त्रियों, सांसदों और अफसरों के पति या पत्नी के सैर-सपाटे के बर्बाद करते हुए कोई कैसे सहन कर सकता है। यह आम करदाता के साथ धोखा है। जिसके लिये ऐसे कानून बना कर राजस्व की बर्बादी करने वालों को जवाबदेह होना चाहिये।
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