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Friday, January 9, 2015

स्त्री का पुरुषोचित आचरण सबसे बड़ी मूर्खता है।--डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

स्त्री का पुरुषोचित आचरण सबसे बड़ी मूर्खता है।--डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

स्त्री और पुरुष का के बीच लैंगिक अंतर तो प्रकृति की अनुपम दैन है! इसको स्त्री की कमजोरी और पुरुष की ताकत समझना, पुरुष की सबसे बड़ी मूर्खता है और इसे अपनी कमजोरी मानकर, इसे छुपाने के लिए स्त्री द्वारा पुरुषोचित व्यवहार या आचरण करना उससे भी बड़ी मूर्खता है।
केवल भारत में ही नहीं, बल्कि सारे विश्व में हमारे पुरुष प्रधान समाज की कुछ मूलभूत समस्याएँ हैं। भारत में हजारों सालों से अमानवीय मनुवादी कुव्यवस्था के चंगुल में रही है। जिसमें स्त्री की मानवीय संवेदनाओं तक को क्रूरता से कुचला जाता रहा है। ऎसी ऐतिहासिक प्रष्ठभूमि में स्त्री और पुरुष के बीच भारत में अनेक प्रकार की वैचारिक, सामाजिक और व्यवहारगत समस्याएं विशेष रूप से देखने को मिलती हैं। जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

1-पुरुष का स्त्री के प्रति हीनता का विचार और स्त्री को परुष से कमतर मानने का अहंकारी सोच। 

2-पुरुष का स्त्री के प्रति पूर्वाग्रही और रुग्णता पर आधारित स्वनिर्मित अवधारणाएं। 

3-स्त्री द्वारा स्त्री को प्रकृति प्रदत्त अनुपम उपहार स्त्रीत्व और प्रजनन को स्त्री जाति की कमजोरी समझने का असंगत, किन्तु संस्कारगत विचार। 

4-स्त्री का पुरुष द्वारा निर्मित धारणाओं के अनुसार खुद का, खुद को कमतर आकलन करने का संकीर्ण, किन्तु संस्कारगत नजरिया। 

5-इसी के साथ-साथ स्त्री का खुद को पुरुष की बराबरी करने का अव्यावहारिक और असंगत विचार भी बड़ी समस्या है, क्योंकि न पुरुष स्त्री की बराबरी कर सकता है और न ही स्त्री पुरुष की बराबरी कर सकती है। 

6-स्त्री को पुरुष की या पुरुष को स्त्री की बराबरी करने की जरूरत भी नहीं होनी चाहिए। बराबरी करने की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि दोनों अपने आप में अनूठे हैं और दोनों एक दूसरे के बिना अ-पूर्ण हैं।

7-स्त्री और पुरुष की पूर्णता आपसी प्रतिस्पर्धा या एक दूसरे को कमतर या श्रेष्ठतर समझने में नहीं, बल्कि सम्मानजनक मिलन, सहयोग और सहजीवन में ही है। 

8-एक स्त्री का स्त्रैण और पुरुष का पौरुष दोनों में प्रकृतिदत्त अनूठा और विपरीतगामी स्वभावगत अद्वितीय गौरव है। 

9-स्त्री और पुरुष दोनों में बराबरी की बात सोचना ही बेमानी हैं। दोनों प्रकृति ने ही भिन्न बनाये हैं, लेकिन इसका अर्थ किसी का किसी से कमतर या हीनतर या उच्चतर या श्रेष्ठतर का विचार अन्याय पूर्ण है। दोनों अनुपम हैं, दोनों अनूठे हैं।

10-स्त्री और पुरुष की सोचने और समझे की मानसिक और स्वभावगत प्रक्रिया और आदतें भी भिन्न है। 

11-यद्यपि पुरुष का दिमांग स्त्री के दिनाग से दस फीसदी बड़ा होता है, लेकिन पुरुष के दिमांग का केवल एक बायाँ (आधा) हिस्सा ही काम करता है। जबकि स्त्री के दिमांग के दोनों हिस्से बराबर और लगातार काम करते रहते हैं। इसीलिए तुलनात्मक रूप से स्त्री अधिक संवेदनशील होती हैं और पुरुष कम संवेदनशील! स्त्रियों को "बात-बात पर रोने वाली" और "मर्द रोता नहीं" जैसी सोच भी इसी भिन्नता का अनुभवजन्य परिणाम है। बावजूद इसके पुरुष और खुद स्त्रियाँ भी, स्त्री को कम बुद्धिमान मानने की भ्रांत धारणा से ग्रस्त हैं।

12-यदि बिना पूर्वाग्रह के अवलोकन और शोधन किया जाये तो स्त्री और पुरुष की प्रकृतिगत वैचारिक और बौद्धिक भिन्नता उनके दैनिक जीवन के व्यवहार और आचरण में आसानी से देखी-समझी जा सकती है।
कुछ उदाहरण-
  • (1) स्त्रियों को ऐसे मर्द पसंद होते हैं, जो खुलकर सभी संवेदनशील परेशानी और बातें स्त्री से कहने में संकोच नहीं करें, जबकि इसके ठीक विपरीत पुरुष खुद तो अपनी संवेदनाओं को व्यक्त नहीं करना चाहते और साथ ही वे कतई भी नहीं चाहते कि स्त्रियाँ अपनी संवेदनाओं (जिन्हें पुरुष समस्या मानते हैं) में पुरुषों को उलझाएँ। 
  • (1) स्त्री के साथ, पुरुष की प्रथम प्राथमिकता प्यार नहीं, स्त्री को सम्पूर्णता से पाना है। स्त्री को हमेशा के लिए अपने वश में, अपने नियंत्रण में और अपने काबू में करना एवं रखना है। प्यार पुरुष के लिए द्वितीयक (बल्कि गौण) विषय है। आदिकाल से पुरुष स्त्री को अपनी निजी अर्जित संपत्ति समझता रहा है, (इस बात की पुष्टि भारतीय दंड संहिता की धारा 497 से भी होती है, जिसमें स्त्री को पुरुष की निजी संपत्ति माना गया गया है), जबकि स्त्री की पहली प्राथमिकता पुरुष पर काबू करने के बजाय, पुरुष का असीमित प्यार पाना है (जो बहुत कम को नसीब होता है) और पुरुष से निश्छल प्यार करना है। अपने पति या प्रेमी को काबू करना स्त्री भी चाहती है, लेकिन ये स्त्री की पहली नहीं, अंतिम आकांक्षा है। यह स्त्री की द्रष्टि में उसके प्यार का स्वाभाविक प्रतिफल है।  
  • (3) विश्वभर के मानव व्यवहार शास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि स्त्री प्यार में ठगी जाने के कुछ समय बाद फिर से खुद को संभालने में सक्षम हो जाती हैं, जबकि पुरुषों के लिए यह बहुत असम्भव या बहुत ही मुश्किल होता है। (इस विचार से अनेक पाठक असहमत हो सकते हैं, मगर अनेकों बार किये गए शोध, हर बार इस निष्कर्ष की पुष्टि करते रहे हैं।)
  • (4) पुरुष अनेक महत्वपूर्ण दिन और तारीखों को (जैसे पत्नी का जन्म दिन, विवाह की वर्ष गाँठ आदि) भूल जाते हैं और पुरुष इन्हें साधारण भूल मानकर इनकी अनदेखी करते रहते हैं, जबकि स्त्रियों के लिए हर छोटी बात, दिन और तारिख को याद रखना आसान होता है। साथ ही ऐसे दिन और तरीखों को पुरुष (पति या प्रेमी) द्वारा भूल जाना स्त्री (पत्नी या प्रेमिका) के लिए अत्यंत असहनीय और पीड़ादायक होता है। जो पारिवारिक कलह और विघटन के कारण भी बन जाते हैं। 
  • (5) स्त्रियाँ चाहती हैं कि उनके साथ चलने वाला उनका पति या प्रेमी, अन्य किसी भी स्त्री को नहीं देखे, जबकि राह चलता पुरुष अपनी पत्नी या प्रेमिका के आलावा सारी स्त्रियों को देखना चाहता है। यही नहीं स्त्रियाँ भी यही चाहती हैं कि राह चलते समय हर मर्द की नजर उन्हीं पर आकर टिक जाये। स्त्रियाँ खुद भी कनखियों से रास्तेभर उनकी ओर देखने वाले हर मर्द को देखती हुई चलती हैं, मगर स्त्री के साथ चलने वाले पति या प्रेमी को इसका आभास तक नहीं हो पाता। 
12-कालांतर में समाज ने स्त्री और पुरुष दोनों के समाजीकरण (लालन-पालन-व्यवहार और कार्य विभाजन) में जो प्रथक्करण किया गया, वास्तव में वही आज के समय की बड़ी मुसीबत है और इससे भी बड़ी मुसीबत है, स्त्री का आँख बंद करके पुरुष की बराबरी करने की मूर्खतापूर्ण लालसा! गहराई में जाकर समझें तो यह केवल लालसा नहीं, बल्कि पुरुष जैसी दिखने की उसकी हजारों सालों से दमित रुग्ण आकांक्षा है! क्योंकि हजारों सालों से स्त्री पुरुष पर निर्भर रही है, बल्कि पुरुष की गुलाम जैसी ही रही है। इसलिए वह पुरुष जैसी दिखकर पुरुष पर निर्भरता से मुक्ति पाने की मानसिक आकांक्षी होने का प्रदर्शन करती रहती है। 

13-एक स्त्री जब अपने आप में प्रकृति की पूर्ण कृति है तो उसे अपने नैसर्गिक स्त्रैण गुणों को दबाकर या छिपाकर या कुचलकर पुरुष जैसे बनने या दिखने या दिखाने का असफल प्रयास करके की क्या जरूरत है? इस तथ्य पर विचार किये बिना, स्त्री के लिए अपने स्त्रैणत्व के गौरव की रक्षा करना असंभव है।

14-बेशक जेनेटिक कारण भी स्त्री और पुरुष दोनों को जन्म से मानसिक रूप से भिन्न बनाते हैं। लेकिन स्त्री और पुरुष प्राकृतिक रूप से अ-समान होकर भी एक-दूसरे से कमतर या उच्चतर व्यक्तित्व नहीं, बल्कि एक दूसरे के सम्पूर्णता से पूरक हैं। स्त्रैण और पौरुष दोनों के अनूठे और मौलिक गुण हैं। 

15-हम शनै-शनै समाजीकरण की प्रक्रिया में कुछ बदलाव अवश्य ला सकते हैं। यदि इसे हम आज शुरू करते हैं तो असर दिखने में सदियाँ लगेंगी। मगर बदलाव स्त्री या पुरुष की निजी महत्वाकांक्षा या जरूरत पूरी करने के लिए नहीं, बल्कि दोनों के जीवन की जीवन्तता को जिन्दादिल बनाये रखने के लिए होने चाहिए।

16-समाज शास्त्रियों या समाज सुधारकों या स्त्री सशक्तिकरण के समर्थकों या पुरुष विरोधियों की द्रष्टि में कुछ सामाजिक सुधारों की तार्किक जरूरत सिद्ध की जा सकती है। लेकिन कानून बनाकर या सामाजिक निर्णयों को थोपकर इच्छित परिणाम नहीं मिल सकते। बदलाव तब ही स्वागत योग्य और परिणामदायी समझे जा सकते हैं, जबकि हम उन्हें स्त्री-पुरुष के मानसिक और सामाजिक द्वंद्व से निकलकर, एक इन्सान के रूप में सहजता और सरलता से आत्मसात और अंगीकार करके जीने में फक्र अनुभव करें। 

18-अंत में यही कहा जा सकता है कि स्त्री और पुरुष का के बीच लैंगिक अंतर तो प्रकृति की अनुपम दैन है! इसको स्त्री की कमजोरी और पुरुष की ताकत समझना, पुरुष की सबसे बड़ी मूर्खता है और इसे अपनी कमजोरी मानकर, इसे छुपाने के लिए स्त्री द्वारा पुरुषोचित व्यवहार या आचरण करना उससे भी बड़ी मूर्खता है।

-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'-098750-66111

Thursday, March 13, 2014

मुआवजे के बदले अपमान क्यों? जबकि है-अपमानकारी मुआवजे का स्थायी समाधान!

बलात्कारित स्त्री और मृतक की विधवा, बेटी या अन्य परिजनों को लोक सेवकों के आगे एक बार नहीं बार-बार न मात्र उपस्थित होना होता है, बल्कि गिड़गिड़ाना पड़ता है और इस दौरान कनिष्ठ लिपिक से लेकर विभागाध्यक्ष तक सबकी ओर से मुआवजा प्राप्त करने के लिये चक्कर काटने वालों से गैर-जरूरी तथा मनमाने सवाल पूछे जाते हैं। ऐसी-ऐसी बातें पूछी और कही जाती हैं, जिनका न तो मुआवजे से कोई ताल्लुकात होता है और न ही पूछने वालों को इस प्रकार के सवाल पूछने या जानकारी प्राप्त करने का कोई वैधानिक अधिकार होता है।........... जनता के इन नौकरों द्वारा बलात्कार की शिकार महिलाओं और मृतक की विधवा या बेटियों के संग कुकृत्य तक किये जाते हैं।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

किसी भी स्त्री का बलात्कार और किसी भी परिवार के सदस्य की किसी हादसे में असामयिक मौत के बाद आमतौर पर सरकारों की ओर से मुआवजा देने की घोषणाएं की जाती हैं या निर्धारित नीति के अनुसार प्रशासन की ओर से मुआवजा दिये जाने के प्रावधान होते हैं। दोनों ही स्थितियों में मुआवजा प्राप्त करने के लिये दुष्कृत्य की शिकार स्त्री और मृतक के परिजनों को मुआवजा प्राप्त करने के लिये आवेदन करना विधिक अनिवार्यता है। यहॉं तक तो सब ठीक माना जा सकता है, लेकिन आवेदन करने मात्र से मुआवजा नहीं मिलता है। मुआवजे के लिये बलात्कारित स्त्री और मृतक की विधवा, बेटी या अन्य परिजनों को लोक सेवकों के आगे एक बार नहीं बार-बार न मात्र उपस्थित होना होता है, बल्कि गिड़गिड़ाना पड़ता है और इस दौरान कनिष्ठ लिपिक से लेकर विभागाध्यक्ष तक सबकी ओर से मुआवजा प्राप्त करने के लिये चक्कर काटने वालों से गैर-जरूरी तथा मनमाने सवाल पूछे जाते हैं। ऐसी-ऐसी बातें पूछी और कही जाती हैं, जिनका न तो मुआवजे से कोई ताल्लुकात होता है और न ही पूछने वालों को इस प्रकार के सवाल पूछने या जानकारी प्राप्त करने का कोई वैधानिक अधिकार होता है। लेकिन तकदीर और ईश्‍वर के दण्ड से दंशित और हालातों के आगे विवश ऐसे लोगों को सरकारी कार्यालयों में जनता की सेवा के नाम पर नियुक्त जनता के नौकरी की हर जायज-नाजायज बात सुननी और अनेक बार माननी भी पड़ती है। जिसके तहत जहॉं रिश्‍वत की मांग करना और रिश्‍वत प्राप्त करना तो आम बात है, लेकिन जनता के इन नौकरों द्वारा बलात्कार की शिकार महिलाओं और मृतक की विधवा या बेटियों के संग कुकृत्य तक किये जाते हैं। इस प्रकार की घटनाएँ केन्द्र और राज्य सरकारों के तकरीबन सभी विभागों में आमतौर पर आये दिन घटित होती रहती हैं। जिससे हर कोई वाकिफ है, लेकिन जिस प्रकार से दलित-आदिवासियों पर सरेआम होने वाले अत्याचारों कोे देखकर हजारों सालों से लोग मौन रहते आये हैं, उसी प्रकार से आदिकाल से महादलित बना दी गयी स्त्री या हालातों से मजबूर विवश इंसान की दुर्दशा को देखकर भी ऐसे मामलों में लोग मौन साध लेते हैं।

जमीन और जनता से जुड़ा हर जन प्रतिनिधि इन सब हालातों और क्रूरताओं से बखूबी वाकिफ होता है, यदि वो चाहे तो मन्त्री बनते ही ऐसे मामलों को चुटकी बजाते ही ठीक कर सकता है, लेकिन मन्त्री की कुर्सी पर बैठते ही वह स्वयं को राजा समझने लगता है। जिसके चलते उसे जनता के दु:ख-दर्द की आह सुनाई देना बन्द हो जाती है। अन्यथा क्या कोई भी सरकार केवल 5 कानून पारित करके, इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं कर सकती?
  • 1. पीड़ित, पीड़ित के परिजनों या अन्य किसी की भी ओर से, किसी भी प्रारूप में-जैसे-फोन, मोबाइल या पत्र के जरिये दी गयी सूचना को मुआवजा प्रदान करने की पत्रावलि शुरू करने के लिये कानूनी रूप से पर्याप्त दस्तावेज और आधार माना जाने का कानून हो।
  • 2. उक्त बिन्दु 1 के अनुसार सूचना प्राप्ति के एक सप्ताह के अन्दर कोई सकारात्मक तथा संवेदनशील तरीके से कार्य करने में निपुण और प्रशिक्षित लोक सेवक पीड़ित/आहत परिवार को अग्रिम सूचना देकर, पीड़ित/आहत परिवार की सुविधानुसार उनके घर या बताये किसी भी सुगम स्थान पर उपस्थित होकर स्वयं सरकारी खर्चे पर सारी औपचारिकताएँ पूर्ण करवाने के लिये कानूनी रूप से बाध्य हो।
  • 3. उक्त बिन्दु 2 के अनुसार औपचारिकताएँ पूर्ण करवाने के बाद हर हाल में आवेदन करने की तारीख से एक माह के अन्दर-अन्दर मुआवजे की राशि का चैक पीड़िता या कानूनी रूप से पात्र व्यक्ति या व्यक्तियों के नाम सम्बन्धित तहसीलदार या उपखण्ड अधिकारी या समकक्ष अन्य प्राधिकारी द्वारा उनके निवास पर स्वयं उपस्थित होकर व्यक्तिगत रूप से प्रदान किये जाने का कानूनी प्रावधान हो।
  • 4. उपरोक्त बिन्दु 2 एवं 3 की पालना करने के लिये नामित/घोषित अधिकारियों/प्राधिकारियों के नाम और पदनाम सार्वजनिक रूप से परिपत्रित/प्रचारित किये जावें। ऐसे प्राधिकारियों की ओर से हर एक मामले की दैनिक प्रगति/कार्यवाही प्रतिदिन अपनी वैबसाइट पर डालना अनिवार्य हो और विलम्ब करने पर नामित/घोषित अधिकारी का कम से कम छ: माह का मूल वेतन काटने का कानूनी प्रावधान हो।
  • 5. ऐसे हर एक मामले की पहली और अन्तिम अपील सम्बन्धित जिला जज के समक्ष ही पेश किये जाने का प्रावधान हो, जिसका निर्णय जिला जज द्वारा हर हाल में एक माह के अन्दर-अन्दर किये जाने का कानूनी प्रावधान हो। अन्यथा जिला जज की एक वेतन वृद्धि रोकी जाने की कानूनी व्यवस्था हो।
यदि केन्द्र सरकार द्वारा या राज्य सरकार द्वारा उपरोक्त कानूनी प्रावधान पारित कर दिये जावें तो मुआवजे के कारण हो रहे पीड़ितों के अपमान और शोषण को हमेशा-हमेशा को रोका जा सकता है। केवल इतना ही नहीं यदि कोई लोकतांत्रिक सरकार केवल पांच कदम उठा सकती है तो अपने माथे से अपमानकारी मुआवजे के कलंक को हमेशा-हमेशा के लिये मिटा सकती है। जरूरत इस बात की है कि इसके लिये हम सरकार को मजबूर करें!

-लेखक : भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के राष्ट्रीय अध्यक्ष, जर्नलिस्ट्स, मीडिया एण्ड राईटर्स वैलफेयर एसोसिएशन के नेशलन चेययरमैन, प्रेसपालिका (पाक्षिक) के सम्पादक हैं। ऑल इण्डिया ट्राईबल रेलवे एम्पलाईज एशोसिएशन के संस्थापक व राष्ट्रीय अध्यक्ष और अजा एवं अजजा के अखिल भारतीय परिसंघ के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव। इसके अलावा लेखक को लेखन एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिये एकाधिक राष्ट्रीय सम्मानों से विभूूषित भी किया जा चुका है।-98750-66111 

Friday, May 10, 2013

दलित-आदिवासी और स्त्रियों का धर्म आधारित उत्पीड़न हमारी चिन्ता क्यों नहीं?


तत्काल समाधान हेतु इस देश में यदि आज सबसे बड़ी कोई समस्या है तो वो है, देश के पच्चीस फीसदी दलितों और आदिवासियों और अड़तालीस फीसदी महिला आबादी को वास्तव में सम्मान, संवैधानिक समानता, सुरक्षा और हर क्षेत्र में पारदर्शी न्याय प्रदान करना और यदि सबसे बड़ा कोई अपराध है तो वो है-दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों को धर्म के नाम पर हर दिन अपमानित, शोषित और उत्पीड़ित किया जाना। यही नहीं इस देश में आज की तारीख में यदि सबसे सबसे बड़ी सजा का हकदार कोई अपराधी हैं तो वे सभी हैं, जो दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों के साथ खुलेआम भेदभाव, अन्याय, शोषण, उत्पीड़न कर रहे हैं और जिन्हें धर्म और संस्द्भति के नाम पर जो लोग और संगठन लगातार सहयोग प्रदान करते रहते हैं।

Sunday, December 30, 2012

बलात्कार : स्थितियां कैसे बदलेंगी?

सच यह है कि हमारे देश में कानून बनाने, कानून को लागू करने और कोर्ट से निर्णय या आदेश या न्याय या सजा मिलने के बाद उनका क्रियान्वयन करवाने की जिम्मेदारी जिन लोक सेवकों या जिन जनप्रतिनिधियों के कंधों पर डाली गयी है, उनमें से किसी से भी भारत का कानून इस बात की अपेक्षा नहीं करता कि उन्हें-संविधान, न्यायशास्त्र, प्राकृतिक न्याय, मानवाधिकार, मानव व्यवहार, दण्ड विधान, साक्ष्य विधि, धर्मविधि, समाज शास्त्र, अपराध शास्त्र, मानव मनोविज्ञान आदि विषयों का ज्ञान होना

Wednesday, November 7, 2012

बिना हारे, स्त्री जीत नहीं सकती!


यह अवस्था अर्थात् तृप्ति या ऑर्गेज्म तो स्त्री की पुरुष के समक्ष हार या समर्पण का स्वाभाविक प्रतिफल होता है, जबकि ऐसी आधुनिका नारियों का अवचेतन तो इतना रुग्ण हो चुका होता है कि वे पुरुष के समक्ष अपना सबकुछ समर्पित करके हार जाने के बजाय कुछ भी समर्पित नहीं करके सब कुछ पा लेने की लालसा लिये और बिना दिल से जुड़े केवल शरीर का अपनी शर्तों के अनुसार मनचाहा मिलन (संसर्ग) करने में अपनी शान समझती हैं| जिन्हें, उनके तथाकथित प्रेमी भी एक देह से अधिक कुछ नहीं समझते हैं और जो पुरुष सिर्फ देह से जुड़ता है, वह स्त्री को वह सब कभी नहीं दे सकता जो एक स्त्री की प्रकृतिप्रदत्त आकांक्षा होती है|

Tuesday, November 1, 2011

अबूझ बहिन की भाई दूज!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
दीपावली के तीसरे दिन भारत में हिन्दुमतावलम्बियों द्वारा भाई दूज का त्यौहार मनाने की परम्परा प्रचलन में है| मुझे याद है कि 1980 तक मेरे गॉंवों में केवल उच्चजातीय परिवारों के अलावा भाई दूज के त्यौहार का अन्य छोटी जाति के लोग कोई विशेष मतलब नहीं समझते थे| जैसे ही टीवी का घरों में आगमन हुआ, टीवी ने आर्यन, ब्राह्मण, एवं शहरी संस्कृति और बाजारवादी अपसंस्कृति को हर जगह पर पहुँचा दिया|

राखी तो पहले से ही भाई के लम्बे जीवन की कामना के लिये भाई की कलाई पर बॉंधी जाती रही है| राखी बॉंधने वाली बहिन भाई के माथे पर टीका भी लगाती है और अपने भाई के लिये मंगल कामना भी करती है| भाई दूज को भी यही सब दौहराया जाता है| इसमें किसी को कोई आपत्ति भी नहीं होनी चाहिये, क्योंकि मंगल कामनाएँ तो जितनी अधिक की जायें| आशीर्वाद जितना अधिक मिल सके, उतना ही सुखद है| यदि भाईयों को राखी तथा भाई दूज जेसे त्यौहारों के बहाने अपनी बहिनों की ओर से स्नेह, आशीर्वाद और मंगलकामनाएँ मिलती हैं तो यह एक खुशी और सौभाग्य की बात है, लेकिन सवाल यह है कि आखिर केवल भाईयों को ही ऐसी मंगल कामनाएँ क्यों? क्या भाई के रूप में पुरुष आज भी इतना असुरक्षित है कि उसके जीवन के लिये बहिनों को साल में दो-दो बार औपचारिक रूप से मंगल कामनाएँ ज्ञापित करनी पड़ रही है| जो पुरुष विवाहित हैं, उनके लम्बे जीवन के लिये प्रतिदिन उनकी जीवनसंगनी भगवान से कामना करती है| पत्नियों की ओर से रखे जाने वाले अनेक व्रत अपने पतियों की रक्षा एवं लम्बी आयु के लिये निर्धारित हैं| जिनमें से करवा चौथ का व्रत तो सर्वाधिक प्रचलित है| यह व्रत भी आज से 30-40 वर्ष पूर्व गॉंवों में केवल उच्च जातीय लोगों तक ही सीमित था| आजादी के बाद और टीवी की कृपा से आज उच्च जातीय सभी संस्कार और दिखावे निचली समझी जाने वाली सभी जातियों के लिये स्वाभिमान के सूचक, लेकिन साथ ही साथ आर्थिक बोझ भी बनते जा रहे हैं|

हॉं तो सवाल भाई दूज का? आखिर भाईयों पर ऐसी कौनसी मुसीबत आन पड़ी है, जिसके चलते बहिनों को साल में दो बार उनकी मंगल कामना करनी पड़ती है? जबकि बहनें रोजाना दहेज की बेदी पर चढाई जा रही हैं| पैदा होने से पूर्व ही उन्हें नवकत्लखाने अर्थात् नर्सिंगहोम कुचल रहे हैं| पशुवृत्ति का पुरुष सदैव की भांति आज भी नारी के मान-सम्मान और उसकी जिन्दगी को खिलौना मानकर खेलता रहता है| तकरीबन देश के सभी हिस्सों में स्त्री को अभी भी दोयम दर्जे की कमजोर और बुद्धिहीन नागरिक माना जाता है|

इस सबके उपरान्त भी पति, पिता या भाई के रूप में पुरुष की रक्षा और उसकी श्रृेष्ठता, उसकी लम्बी आयु आदि के लिये अनेकानेक प्रावधान हैं, लेकिन कन्या, पुत्री, पत्नी और माता के स्वाभिमान, जीवन और उसके स्वस्थ तथा लम्बे जीवन के लिये एक भी प्रावधान नहीं? आज जबकि कन्या भ्रूण हत्या जैसा कुकृत्य परोक्ष रूप से सामाजिक मान्यता प्राप्त कर चुका है, ऐसे में गर्भवति माताओं के गर्व में पल रही कन्याओं की रक्षा के लिये क्या कोई दिन भाई दूज की भॉंति निर्धारित नहीं किया जा सकता? क्या मनुस्मृति और अन्य ब्राह्मणग्रंथों में लिखे या बाद में जोड़े गये धार्मिक अनुष्ठान, व्रत और अन्य प्रावधान ही श्रृेष्ठ और सर्वस्वीकार्य होने चाहिये? समाज को वर्तमान की जरूरतों और आने वाले भविष्य की मुसीबतों के आसन्न संकट से बचाव के लिये नये प्रावधान रचने या बनाने पर विचार नहीं करना चाहिये? हमें अपनी बहिनों को अभी भी अबूझ ही बने रहने देना चाहिये, या उनके जीवन की रक्षा के लिये भी कुछ किया जाना चाहिये? यह यक्ष प्रश्‍न आज के दौर (21वीं सदी) के भाईयों के सामने खड़ा है!

Monday, May 2, 2011

परशुराम की जयन्ति मनाने का उद्देश्य?



डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

जो लोग अहिंसा, भ्रातृत्व, मानवता, समानता और इंसाफ की व्यवस्था में आस्था एवं विश्‍वास रखते हों, उनसे भारतीय इतिहास के सबसे क्रूर (सम्भवत:) और सामूहिक नर संहार करने वाले जघन्य अपराधी परशुराम की जयन्ति मनाना तो दूर, उसका नाम तक नहीं लेना चाहेंगे, लेकिन इस देश में ऐसे क्रूर अपराधी भी जयन्ति मनाई जाती है| जिस व्यक्ति (उसे व्यक्ति कहना भी इंसान जाति का अपमान है) ने एक बार नहीं, बल्कि अनेकों बार क्षत्रियों का सम्पूर्ण पृथ्वी से सामूहिक संहार किया हो, ऐसा व्यक्ति एक अच्छे व्यक्ति के रूप में तो दूर एक इंसान के रूप में भी याद किये जाने योग्य नहीं है| बल्कि ऐसे व्यक्ति को तो जिस प्रकार से रावण का पुतला जलाया जाता है, उसी प्रकार से क्षत्रियों को और मानवता के समर्थक तथा हिंसा का विरोध करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को परशुराम के पुतले जलाये जाने चाहिये| जिससे आज के समय के उन लोगों को को सबक मिल सके, जो मानव हत्या करना अपराध नहीं मानते हैं| आम लोगों के बीच सन्देश जा सके कि इतिहास हत्यारों को कभी माफ नहीं करता है|

केवल इतना ही नहीं, बल्कि परशुराम नामक क्रूर हत्यारा जातिवाद का भी कट्टर समर्थक था| वह ब्राह्मण के अलावा अन्य किसी भी जाति के लोगों को तब तक शस्त्रविद्या दान नहीं करता था, जब तक कि वह स्वयं शिक्षा पाने वाले को शिक्षा देने के लिये सहमत नहीं हों| अर्थात् शस्त्र विद्या सिखाने में परशुराम व्यक्ति की योग्यता या क्षमता नहीं, बल्कि जाति और अपनी इच्छा को ही प्राथमिक मानते थे| इसी कारण महाभारत के प्रमुख पात्र ‘‘कर्ण’’ को परशुराम से शस्त्र विद्या सीखने के लिये विवश होकर ‘‘ब्राह्मण’’ का रूप धारण करना पड़ा था और जैसे ही एक घटना के कारण परशुराम को ज्ञात हुआ कि जिस कर्ण को वे शिक्षा दे रहे हैं, वह ‘‘ब्राह्मण’’ नहीं, बल्कि ‘‘सूतपुत्र’’ है तो परशुराम ने निम्न जातियों के प्रति कटुता, घृणा, निर्दयता और हृदयहीनता का परिचय देते हुए ‘कर्ण को शाप दे दिया’ कि ‘‘कर्ण को जब भी परशुराम से सीखी शस्त्र विद्या की सर्वाधिक जरूरत पड़ेगी, तो वह परशुराम से सीखी शस्त्र विद्या को भूल जायेगा|’’ अनेक विद्वानों का मानना है कि परशुराम के इसी क्रूर और मनमाने शाप के कारण कर्ण, अर्जुन से अधिक दक्ष और योग्य यौद्धा होते हुए भी महाभारत के युद्ध में मारा गया|

परशुराम ने अपने जीवन में चाहे कितनी भी भक्ति और शक्ति अर्जित की हो, लेकिन उक्त दो धटनाएँ मात्र ही इस बात को प्रमाणित करने के लिये पर्याप्त हैं कि परशुराम नर के रूप में पिशाच था| जिसे याद करने की नहीं, बल्कि उसे हर कदम पर तिरस्कृत करने की जरूरत है, जिससे दुबारा कोई परशुराम बनने की हिम्मत नहीं कर सके| इसके विपरीत हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी ब्राह्मणों द्वारा परशुराम की जयन्ति ही नहीं, बल्कि जयन्ति सप्ताह समारोह पूर्वक मनाये जा रहे हैं, जो अक्षय तृतीया तक चलते हैं|

निश्‍चय ही यह इस बात का द्योतक है कि परशुराम की जयन्ति मनाने वाले ब्राह्मणों की दृष्टि में परशुराम एक महामानव था और उसके कार्य भी महान थे| जिनका आज की पीढी को अनुकण करना चाहिये| महान पुरुषों की जयन्तियों पर, महान लोगों के कार्यों से शिक्षा लेने का सन्देश दिया जाता है| परशुराम भक्तों की नजर में परशुराम महान नहीं, साक्षात राम हैं, ऐसा उनके द्वारा रचित ग्रन्थों में अनेकों स्थानों पर लिखा गया है, जिसके कार्यों, आचरण और आदर्शों को आज की पीढी को अपनाने के इरादे से ही परशुराम जयन्ति धूमधाम से मनाये जाने के कार्यक्रम देशभर में आयोजित किये जा रहे हैं|

अहिंसा का सन्देश देने वाले महावीर और गॉंधी के आजाद भारत में इससे अधिक अमानवीय, शर्मनाक, अपमानजनक, गैर-कानूनी और असंवैधानिक बात कुछ भी नहीं हो सकती| यदि अनेकों बार असंख्य क्षत्रियों का सामूहिक नरसंहार करने वाला हत्यारा परशुराम पूज्यनीय है तो फिर एक निहत्थे और वृद्ध मोहनदास कर्मचन्द गॉंधी की हत्या करने वाला नाथूराम गौडसे क्यों घृणित माना जावे? सम्भवत: इसी मानसिकता के समर्थक अनेक लोग नाथूराम गौडसे को भी शहीद मानते हैं और गुपचुप ही सही, लेकिन गौडसे की भी जयन्ति और बलिदान दिवस मनाने का अवसर नहीं चूकते हैं|

यह सब उस मूल आर्य संस्कृति की क्रूरता का ही असली रंग है, जो अपने छोटे से छोटे कर्मों को तो सर्वोत्तम, उल्लेखनीय और अनुकरणीय मानती है और दूसरों के सद्प्रयासों को भी हमेशा-हमेशा को समाप्त कर देना चाहती है| तभी तो ‘‘आर्यों के भगवान मनु’’ का मनुस्मृति के अध्याय एक में निम्न मनमानी व्यवस्था लिखने और उसे लागू करने का साहस हुआ-

मनुस्मृति के अध्याय एक श्‍लोक (95 व 96)

ब्राह्मण के मुख से देवता और पितर अपना हिस्सा (हव्य) खाते हैं|

इस श्‍लोक में मनु ने ब्राह्मणों के लिये जन्म-जन्मान्तर के लिये इस बात की स्थायी व्यवस्था कर दी है कि यदि ब्राह्मणों (भू-देवों अर्थात् पृथ्वी के साक्षात देवता) को शुद्ध घी, दूध, मलाई आदि से बने उत्तम पकवान खिलाओगे तो सभी पकवान सभी देवताओं और सभी पितरों (पूर्वजों) के पेट में पहुँच जायेगें| इसका अर्थ तो यही हुआ कि ब्राह्मण का पेट लैटर-बॉक्स है, जिसमें पकवान डालो और देवताओं तथा पूर्वजों को तृप्त कर दो|

श्‍लोक (97)-
संसार के सभी पांच माहभूतों और संसार में पाये जाने वाले सभी प्राणियों में ब्राह्मण ही सर्वश्रेृष्ठ है|

श्‍लोक (99)-
धर्म की पूर्ति के लिये जन्म लेने वाले प्राणी को ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है और केवल ब्राह्मण का जन्म ही धर्म की पूर्ति के लिये हुआ है| अत: मोक्ष की प्राप्ति पर ब्राह्मण का ही जन्मसिद्ध एकाधिकार है|

श्‍लोक (100 व 101)-
चूंकि ब्राह्मण धर्म की पूर्ति के लिये ब्रह्मा के मुख से पैदा हुआ है| अत: इस पृथ्वी पर जो कुछ भी धन, धान्य और खजाना (राजा का कोश) है, उस सब पर केवल ब्राह्मणों का ही (जन्मसिद्ध) अधिकार है| जबकि दूसरे सभी व्यक्ति केवल ब्राह्मण की दया पर निर्भर हैं| ब्राह्मण की इच्छा (अनुमति) से ही अन्य लोग अन्न, वस्त्र आदि प्राप्त कर सकते हैं|

श्‍लोक (102)-
चूँकि ब्राह्मण साक्षात देवता है| अत: ब्राह्मण का सभी धन, धान्य और खजाने पर पूर्ण अधिकार है| इस प्रकार वह किसी का दिया हुआ नहीं, बल्कि सबकुछ अपना ही खाता और भोगता है, जबकि दूसरे लोग ब्राह्मण की आज्ञा से ही अन्न, वस्त्र आदि वस्तुओं को ग्रहण कर सकते हैं|

मनुस्मृति के अध्याय 9 के श्‍लोक 318 में तो ब्राह्मणों की श्रेृष्ठता सिद्ध करने के लिये यहॉं तक लिख दिया है कि-

मनुस्मृति के अध्याय 9 के श्‍लोक 318 में
 
‘‘ब्राह्मण चाहे कितने ही त्याज्य और निन्दनीय
कुकर्म करता हो, कुकर्मों में लीन ही क्यों न रहता हो,
लेकिन फिर भी ब्राह्मण पूज्यनीय ही है, क्योंकि वह
ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण
परमदेव अर्थात् सर्वोत्तम देवता है|’’
‘‘ब्राह्मण चाहे कितने ही त्याज्य और निन्दनीय कुकर्म करता हो, कुकर्मों में लीन ही क्यों न रहता हो, लेकिन फिर भी ब्राह्मण पूज्यनीय ही है, क्योंकि वह ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण परमदेव अर्थात् सर्वोत्तम देवता है|’’

इसके बाद कुछ भी कहने को शेष नहीं रह जाता है, लेकिन फिर भी ब्राह्मणों की मनमानी व्यवस्था की कभी न समाप्त होने वाली इस महागाथा को अल्पविराम देने से पूर्व यह जरूर लिखना चाहूँगा कि परशुराम की जयन्ति मनाने वाले ब्राह्मणों और मनु को भगवान मानने वाले ब्राह्मणों की दृष्टि में उनका हर कदम पर साथ देने वाली ‘‘मातृशक्ति’’ अर्थात् स्त्री का कितना सम्मान है?
‘‘स्त्रियों के साथ मैत्री नहीं हो सकती|
इनके दिल लक्कड़बग्घों से भी क्रूर होते हैं|’’
देखें-ॠगवेद मंत्र (10/95/15)

1. ‘‘स्त्री मन को शिक्षित नहीं किया जा सकता| उसकी बुद्धि तुच्छ होती है|’’ देखें-ॠगवेद मंत्र (8/33/17)

2. ‘‘स्त्रियों के साथ मैत्री नहीं हो सकती| इनके दिल लक्कड़बग्घों से भी क्रूर होते हैं|’’ देखें-ॠगवेद मंत्र (10/95/15)

3. ‘‘कृपणं ह दुहिता’’ अर्थात्-‘‘पुत्री कष्टप्रदा, दुखदायिनी होती है|’’ देखें-ब्राह्मण ग्रंथ, ऐतरेय ब्राह्मण मंत्र (7/3/1)

4. ‘‘पुरुषों को दूषित करना स्त्रियों का स्वभाव ही है| अत: बुद्धिमामनों को स्त्रियों से बचना चाहिये|’’ देखें-मनुस्मृति, अध्याय-2 (श्‍लोक-217)

5. ‘‘शास्त्र की यह मर्यादा है कि स्त्रियो के संस्कार वेदमन्त्रों से नहीं करने चाहिये, क्योंकि स्त्रियॉं मूर्ख और अशुभ होती हैं| (एक स्थान पर लिखा है कि क्योंकि निरेन्द्रिय व अमन्त्रा होने के कारण स्त्रियों की स्थिति ही असत्य रूप होती है)’’ देखें-मनुस्मृति, अध्याय-9 (श्‍लोक-18)

6. ‘‘विधवा स्त्री को दुबारा विवाह नहीं करना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से धर्म का नाश होता है|’’ देखें-मनुस्मृति, अध्याय-9 (श्‍लोक-64)

‘‘स्त्रियॉं कौनसा दुष्कर्म नहीं कर सकती|’’
देखें-चाणक्यनीतिदर्पण, अध्याय-10 (श्‍लोक-4)

7. ‘‘स्त्रियॉं कौनसा दुष्कर्म नहीं कर सकती|’’ देखें-चाणक्यनीतिदर्पण, अध्याय-10 (श्‍लोक-4)

और भी बहुत कुछ है, जो इस देश के 98 फीसदी लोगों को मूर्ख बनाकर, उनपर हजारों सालों से शासन करने वाले दो फीसदी, उन लोगों की असलीयत सामने लायेगा, जो मूल आर्य संस्कृति को फिर से इस देश पर लागू करने का षड़यंत्र रचते रहते हैं और इस षड़यंत्र में अनेक अनार्यों को भी शामिल कर लिया है| सावधान!

Thursday, August 19, 2010

डॉ. लोहिया

"भारतीय संस्कृति और डॉ. राम मनोहर लोहिया" पर मेरी टिप्पणी
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
Dr. Purushottam Meena 'Nirankush'

प्रवक्ता डॉट कॉम पर प्रदर्शित आलेख
भारतीय संस्कृति और डॉ. राम मनोहर लोहिया-लेखक डॉ. मजोज चतुर्वेदी पर मेरी टिप्पणी प्रस्तुत है-

बहुयामी लेख लिखने के लिए डॉ. चतुर्वेदी जी को धन्यवाद!

प्रस्तुत लेख के विद्वान लेखक डॉ. मनोज चतुर्वेदी जी का कहना है कि-

“डॉ. राममनोहर लोहिया भारतीय संस्कृति के व्याख्याता, भारतीय राजनीति के विराट् व्यक्तित्व, भारतीय समाजवाद के प्रचारक तथा एक महान देशभक्त थे। वे राजनीतिज्ञों तथा नौकरशाहों के लिए आतंक थे, तो दलितों के मसीहा, शोषितों के उध्दारक तथा भारतीय राजनीति के स्वप्नद्रष्टा थे।”
आगे आपने लिखा है कि-

“यह ठीक है कि महात्मा गांधी ने राम तथा कृष्ण को ऐतिहासिक व्यक्ति न मानकर (मिथकिय) काल्पनिक व्यक्ति माना है,……”

लेखक ने डॉ. लोहिया के विचारों के बारे में ये भी लिखा है कि-

“क्या शालीनता, सहनशीलता, त्याग, समर्पण तथा पतिव्रत धर्म का पालन करना मात्र स्त्री का ही धर्म है। कि वो पुरूषवादी मानसिकता को सहती रहे। पुरूष उसे संपत्ति माने। उसे जब चाहें रौदे। चाहे जो मन में आए वो करें। यह इसलिए कि वो उस पुरूष की व्याहिता है। उसकी पत्नी है। उसकी संपत्ति है। पर पुरूष के उपर ये नियम नही लागु होते क्या? अन्याय, अत्याचार तथा शोषण का प्रतिकार उसे करनी ही होगी।”

लेखक ने डॉ. लोहिया को उधृत करते हुए लिखा है कि डॉ. लोहिया ने कहा था कि-

१-”बनारस और दूसरी जगह के मंदिरों में हरिजन सवर्ण भेद खत्म हो।”

२-”भारतीय गणतंत्र के राष्ट्रपति ने पुण्य नगरी काशी में सार्वजनिक रूप से दो सौ ब्राह्मणों के पैर धोए। सार्वजनिक रूप से किसी का पैर धोना अश्लीलता है। इस अश्लील काम को ब्राह्मण जाति तक सीमित करना दंडनीय अपराध माना जाना चाहिए। इस विशेषाधिकार प्राप्त जाति में अधिकांशतः ऐसो को सम्मिलित करना, जिनमें न योग्यता हो न चरित्र, विवेक बुद्धि का पूरा त्याग है जो जाति-प्रथा और पागलपन अवश्यंभावी अंग है।”

३-"बलात्कार और वादाफरामोशी को छोड़कर औरत-मर्द के बीच सारे रिश्ते जायज है। लड़की की शादी करना मां-बाप की जिम्मेवारी नहीं, अच्छा स्वास्थ्य और अच्छी शिक्षा दे देने पर उनकी जिम्मेवारी खतम हो जाती है।”

४- "अवसर मिलने से योग्यता आती है। देश में सभी 60 प्रतिशत अवसर हिंदुस्तान की 90 प्रतिशत आबादी यानि शुद्र, हरिजन, धार्मिक अल्पसंख्यकों की पिछड़ी जातियां, औरत और आदिवासियों को मिलनी चाहिए। इस सिध्दांत को ऊंची-से-ऊंची प्रतियोगिता में लागू करना चाहिए।”

लेखक आगे लिखते है कि-

डॉ. लोहिया राष्ट्रीय एकता एवं समाजिक समरसता के लिए एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे जिसमें-

“जोशी, पांडेय, मिश्रा, उपाध्याय, त्यागी, प्रधान, सिंह, राठौर, रेड्डी, नंबुदरी, डोंगरा, मुखर्जी, यादव, हरिजन नामक जाति सूचक शब्दों का स्थान न होता तथा राज्यसत्ता पर ब्राह्मण तथा बनिया वर्चस्व समाप्त हो।”

विद्वान लेखक डॉ. मनोज चतुर्वेदी जी एवं डॉ. लोहिया के विचारों से सहमति या असहमति प्रकट किये बिना विचारणीय मुद्दा/सवाल यह है कि-

मेरे अनेक विद्वान मित्र प्रवक्ता पर डॉ. लोहिया के जैसे विचारों के प्रकटीकरण को देश, हिंदुत्व और संसकृति कि विरुद्ध मानते हैं. क्या डॉ. लोहिया जी भी देश, हिंदुत्व और संसकृति के विरोधी थे?
शायद इस बात से कोई भी सहमत नहीं होगा.

इसलिए सवाल ये नहीं है कि कौन क्या कह रहा है या कौन क्या कह गया है, बल्कि सवाल ये है कि कही हुई बातों पर कहने वालों ने कितना अमल किया? इस कसौटी पर डॉ. लोहिया जी को खरा मानने में कोई मतभेद नहीं हो सकते.

मैं केवल यही कहना चाहूँगा कि सत्य की आराधना करने वाले और सत्य को जीने वाले, सत्य को कहने में संकोच नहीं करते! बेशक महार जाती में जन्मे डॉ. आंबेडकर हों या वैश्य जाती में जन्मे डॉ. लोहिया हों.

हमें भारत के इन महान सपूतों से ईमानदारी से सच को कहने और बिना पूर्वाग्रह सच लो सुनने का सामर्थ्य सीखना होगा. तब ही हम राष्ट्र भक्त या संस्कृति के सच्चे संवर्धक या संरक्षक कहलाने के हक़दार हैं!

Saturday, August 7, 2010

औरत होना, घुटकर मरना.....और नहीं, अब और नहीं!


कृपया निम्न आलेख पर मेरी टिप्पणी पढ़ें.

औरत होना, घुटकर मरना.....और नहीं, अब और नहीं!

मनु शुक्ला

पुरुष और स्त्रियों की मानसिकता में बहुत अंतर होता है ! पुरुष अपनी भड़ास को औरतो पर चिल्ला कर निकाल लेता है! पर एक लड़की अपनी सारी भड़ास अपने अन्तःकरण में समा लेती है, और अग्नि की तरह जलती रहती है! हो सकता है सारे लोग इस विचार से इतफ़ाक रखते हो। पर यदि यह मत गलत होता तो आज के परिवेश में महिला आत्महत्या दर निरन्तर नहीं बढ़ता। आंकड़ों का सत्य कहता है महिला आत्महत्या दर पुरषों की अपेक्षा 10 गुना अधिक है।

यदि आंकड़ों पर दृष्टि डालें तो देखेंगे की बहार काम करने वाली लड़कियां जो आत्मनिर्भर हैं तथा समाज में उनका अपना मुकाम है और वो अपने जीवन के सारे फैसले स्वयं ले सकती हैं! इसके बावजूद भी उन महिलाओं की आत्महत्या दर अधिक है चाहे वो आम लड़की हो या सेलेब्रिटी जब उन्हें प्यार में धोखा मिलता है तो वो धोखे का आघात बर्दाश्त नही कर पाती है ! तब वे अपने जीवन को समाप्त करना ही एक आसान रास्ता मानती है। अभी हाल ही में प्रसिद्ध माडॅल विवेका बाबाजी ने आत्महत्या कर ली। कारण अपने प्रेमी का धोखा और तिरस्कार बर्दाश्त नही कर सकी तो उन्होंने आत्महत्या कर ली. वहीं मिस इण्डिया रही नफीसा जोसेफ ने भी अपने प्रेमी से धोखा खाकर कुछ समय पूर्व आत्महत्या कर ली थी। ऐसे ही यदि आंकड़ों पे दृष्टि डालें तो देखेंगे की रोजाना कोई न कोई लड़की प्रेम में आघात पाकर अपनी जीवन लीला समाप्त करती जा रही है!

मनोविज्ञानिको का मत है ‘आज के परिवेश में जहाँ लोगों को अपने जीवन निर्वहन के लिए अधिक परिश्रम करना पड़ रहा है घर और बाहर अत्यंत मानसिक तनाव झेलना पड़ रहा है वही प्यार में धोखा खाना उनके लिए असहनीय होता है और उनके लिए जीवन समाप्त करना एक आसान उपाय लोगों को दिखता है ’ चाहे कोई औरत पूरी तरह स्वतंत्र या आत्मनिर्भर क्यों न हो प्यार का धोखा उसके लिए असहनीय होता है क्योकि स्त्रियों में संवेदनशीलता एवं भावुकता अधिक होती है।

पुरुष मानसिकता स्त्रियों की मानसिकता से बिलकुल विपरीत होती है! पुरुष का आकर्षण स्त्रियों के शारीरिक सौन्दर्य पर केन्द्रति होता है! उसका प्रेम शरीर से शुरू होकर उसी शरीर पे समाप्त हो जाता है और वो आसानी से एक को छोड़ कर दूसरे से जुड़ जाता है! उसके लिए प्रेम प्यार की बातें आम होती है! परन्तु एक लड़की किसी भी पुरुष से आत्मा तथा मन से जुडती है और जब उसे आत्मिक आघात होता है, तो वो अघात उसके लिए असहनीय होता है और तब उसके सामने सबसे आसान विकल्प बचता है अपनी जीवन लीला को हमेशा हमेशा के लिए समाप्त कर दें !

स्त्री मानसिकता मतलब समय से पहले अपने आप को उम्र से बड़ा मान लेना! इसका बड़ा कारण ईश्वरी बेइंसाफी भी है! एक पुरुष 60 वर्ष की आयु में भी पिता बन सकता है पर एक स्त्री का 35 से 37 वर्ष की आयु के बाद उसका माँ बनना कठिन होता है! और आज जहाँ लोग अपना कैरियर बनाने के लिए 30 का आंकड़ा पार कर जाते हैं तो उस उम्र में प्यार में धोखा खाना उनके लिए असहनिय हो जाता ह। और उनका सारा आत्मविश्वास समाप्त हो जाता है! तब या तो अपनी पूरी उर्जा को इन्साफ की गुहार के लिए लगा देती हैं! तब उन पर दूसरा आघात उनके चरित्र पर होता है जो उनकी आत्मा पर असहनीय प्रहार होता है! क्या किसी ने सोचा है कभी भी महिला हो या लड़की उनमे संवीदनशीलता होती है! क्या वो ऐसे ही मरती जाएँगी? उन्हें भी जीने का हक्क है! इन नपुंसक व का-पुरुषों को किसने हक्क दिया है रोज रोज लड़कियों एवम महिलाओं को ऐसे ही मारते जा रहे हैं!

उन्हें किसने हक दिया है कि झूठे प्रेम जाल में फंसाओ और जब सच सामने आता है तो वो इंसान भाग खड़ा होता है और जब उसका सच समाज के लोगों और उसके परिजनो व प्रियजनो को बताया जाए तो वे नारी चरित्र पर प्रहार करते है जान से मारने की भी धमकी देते है ! तब लड़की के पास दो रास्ते होते हैं या तो अपने सम्मान के लिए लड़ाई लड़े और अपने चरित्र पर प्रहार करने वाले को सबके सामने लज्जित करे और अपने स्वाभिमान की रक्षा करे।

पर मै जानती हूँ की कोई भी लड़की किसी भी पुरुष का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती और वो जिस भी पुरुष से अपने इन्साफ की गुहार करेगी वो उसे इन्साफ नहीं दिला सकते क्यूंकि वो भी स्वयं पुरुष है तब लड़की मजबूर हो जाती है क्यूंकि उसका एक कदम उसके माता पिता के नाम पर सवालिया निशाँ लगा देता हैै। उसके लिए तीसरा रास्ता बचता है अपने आपको अनंत अँधेरे में झोंक दे जिसमे वो तिल तिल मरती है पर उसको मरता हुआ कोई नही देख पाता आज मेरा प्रश्न ईश्वर और समाज से है ऐसे नपुंसक पुरुष कब तक नारी जीवन और संवेदना से खेलते रहेंगे और नारी को कब तक आत्महत्या की काली गर्द में फेंकते रहेंगे?

कृपया उक्त आलेख पर मेरी टिप्पणी पढ़ें.

अब स्त्री को लेखन करना होगा और सामाजिक वर्जनाओं की चिन्ता किये बिना खुलकर लिखना होगा। जिससे स्त्री मन एवं स्त्री व्यथा के साथ-साथ उसके हृदय को समझ सकने की समझ पैदा हो सके।
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आदरणीय मनु शुक्ला जी,

आपका आलेख कडवी सच्चाई बयाँ करने में सफल रहा है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि अधिकतर पुरुष स्त्री के शरीर से ही प्यार करते हैं। स्त्री मन और हृदय के बारे में आपने जो लिखा है, वह आधिकारिक रूप ये सही ही होगा, क्योंकि स्त्री के मन और हृदय को आप कम से कम मुझ (पुरुष) से तो अधिक ही समझती हैं।

आपने प्रकृति को भी दोष दिया है। आपके अपने एक-एक वाक्य में नारीमन की पीडा और कराह की सफल अभिव्यक्ति की है। आपने इस समस्या का कोई सीधा या टेढा समाधान सुझाने या सुझाने का मार्ग दिखाने के बजाय, सीधे भगवान के समक्ष सवाल उठाया है और साथ ही साथ नारी मन को नहीं समझ सकने वाले और, या नारी के साथ लगातार धोखा करते रहने वाले पुरुषों की क्रूर, हृदयहीन, मक्कार, निष्ठुर या असंवेदनशील जैसे प्रासंकि शब्दों में आलाचना नहीं करके, उन्हें नपुंसक कहते हुए अपना सवाल उठाया है।

मुझे नहीं पता कि भगवान आपके सवाल पर क्या निर्णय लेंगे और आपके शब्दों में वर्णित नपुंसक पुरुषों की क्या प्रतिक्रिया होगी। लेकिन मुझसे इस विषय पर अपने विचार व्यक्त किये बिना रहा नहीं गया, सो यहाँ पर कुछ लिखने का साहस कर रहा हँू। अग्रिम अनुरोध है कि पुरुष मन के चलते (जिसमें मेरा कोई दोष नहीं) यदि कोई बात आपको अप्रिय लगे तो कृपया उसे सकारात्मक रूप से प्रकट करें, जिससे कि उस पर समाधानकारी मन्थन किया जा सके।

यहाँ पर बहुत जरूरी नहीं होने के बावजूद भी मैं इस बात को लिखने से स्वयं को राक नहीं पा रहा हँू कि लम्बे अनुभव से सिद्ध होता आया है कि पुरुषों को गाली देने या कोसने के लिये औरतों के पास सर्वप्रिय, सबसे कडवा और सशक्त शब्द होता है-पुरुष को नपुंसक या नामर्द कहकर कोसना या सम्बोधित करना । मुझे नहीं पता इसके पीछे स्त्री की कौनसी मानसिकता काम करती है? स्त्री के अवचेतन मन में ऐसी कौनसी सुसुप्त गाँठ है, जो पुरुष को नामर्द कहने से ठीली होती है या अधिक मजबूत हो जाती है?

इसके बावजूद भी मनु जी मैं आपके दर्द, दुःख और गुस्से को जायज ठहराने वालों में शामिल प्रथम व्यक्ति (यहाँ पर मैं अपने आपको प्रथम पुरुष नहीं, बल्कि प्रथम व्यक्ति लिख रहा हँू) हँू और इसके पीछे मेरे पास अनुभवसिद्ध अनेक कारण हैं। दाम्पत्य मामलों के सलाहकार के रूप में मैंने जो कुछ अनुभव किया है, पाया है और दम्पत्तियों के विवादों को सुलझाया है, उससे आपकी बातों को समर्थन अवश्य मिलता हैं। अतः आपको अपनी बात आक्रोशित होकर या संयमित होकर या किसी भी तरीके से कहने का पूरा-पूरा अधिकार है। आपके अपने एक-एक वाक्य में नारीमन की सच्ची-पीडा की स्पष्ट एवं जरूरी अभिव्यक्ति दी है। जिसके लिये आपको साधुवाद।

मनु जी सवाल केवल यहीं पर समाप्त नहीं हो जाना चाहिये कि कितनी औरतें या कितने पुरुष एक दूसरे या व्यवस्था के कारण आत्महत्या करके मर रहे हैं या मार दिये जाते हैं या कितनी औरतें/पुरुष पीडित हैं। मेरे अनुसार सवाल समाधान की दिशा दिखाने वाला भी उठाया जाना चाहिये।

१. वे कौनसे ऐसे कारण हैं, जिनकी वजह से ऐसे हालात उत्पन्न हो गये कि प्रकृति द्वारा एक दूसरे के पूरक के रूप में पैदा किये गये स्त्री एवं पुरुष एक दूसरे के दुश्मन बन गये हैं?

२. क्या हमारे समाजीकारण के तरीके में कमी है या हमारी पुरुष प्रधान व्यवस्था ने स्त्री को केवल देह तक ही समझा और उसके मन को और गहरे में जाकर उसके हृदय को समझने में भूल या गलती की है?

३. क्या इसके लिये केवल पुरुष ही दोषी है या वह व्यवस्था; जिसमें पुरुष और स्त्री को भिन्न-भिन्न तरीके से बडा किया जाता रहा है, वह जिम्मेदार है?

४. काम (सेक्स) विषय पर पुरुषों द्वारा अपनी मनवांच्छित कल्पनाओं के सहारे लिखे गये भारतीय साहित्य की अनर्गल बातें जिम्मेदार हैं या प्रकृति की ओर से पुरुष एवं स्त्री में किये गये अनेक प्रकार के विभेद मात्र ही जिम्मेदार हैं?

उपरोक्त और ऐसे ही अनेक विषयों पर गम्भीरता पूर्वक, बिना किसी पूर्वाग्रह के केवल चर्चा ही नहीं, बल्कि सतत चिन्तन की जरूरत है और मेरा ऐसा भी मानना है कि इसमें स्त्री की खुलकर अभिव्यक्ति की अधिक जरूरत है। क्योंकि पुरुष कैसा है, क्या चाहता है? आदि बातें तो पुरुषों की ओर से हजारों किताबों में लिखी पडी हैं, जिनका परिणाम है-विक्षिप्त और असफल दाम्पत्य! अब स्त्री को लेखन करना होगा और सामाजिक वर्जनाओं की चिन्ता किये बिना खुलकर लिखना होगा। जिससे स्त्री मन एवं स्त्री व्यथा के साथ-साथ उसके हृदय को समझ सकने की समझ पैदा हो सके। लिखने को बहुत है, लेकिन फिलहाल मैं इस विषय को यही विराम देता हँू और विद्वान पाठकों एवं लेखिका की प्रतिक्रिया के बाद यदि जरूरी हुआ तो आगे अपने विचार प्रकट करूँगा। धन्यवाद। शुभकामनाओं सहित।

Wednesday, August 4, 2010

राष्ट्रमंडल खेलों के बहाने मीडिया को नारी पूजा याद आयी?

राष्ट्रमंडल खेलों के बहाने मीडिया को नारी पूजा याद आयी?

मेरा तो ऐसा अनुभव है कि इस देश के कथित धर्मग्रन्थों और आदर्शों की दुहाई देने वाले पुरुष प्रधान समाज और धर्मशास्त्रियों ने अपने नियन्त्रण में बंधी हुई स्त्री को दो ही नाम दिये गये हैं, या तो दासी (जिसमें भोग्या और कुल्टा नाम भी समाहित हैं) जो स्त्री की हकीकत बना दी गयी है, या देवी जो हकीकत नहीं, स्त्री को बरगलाये रखने के लिये दी गयी काल्पनिक उपमा मात्र हैं।
स्त्री को देवी मानने या पूजा करने की बात बो बहुत बडी है, पुरुष द्वारा नारी को अपने बराबर, अपना दोस्त, अपना मित्र तक माना जाना भारतीय समाज में निषिद्ध माना जाता रहा है? जब भी दो विषमलिंगी समाज द्वारा निर्धारित ऐसे स्वघोषित खोखले आदर्शवादी मानदण्डों पर खरे नहीं उतर पाते हैं, जिन्हें भारत के इतिहास में हर कालखण्ड में समर्थ लोगों द्वारा हजारों बार तोडा गया है तो भी 21वीं सदी में भी केवल नारी को ही पुरुष की दासी या कुल्टा क्यों माना जाता है? पुरुष के लिये भी तो कुछ उपमाएँ गढी जानी चाहिये! भारत में नारी की पूजा की जाती है, इस झूठ को हम कब तक ढोते रहना चाहते हैं?
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

खबरें बेचने के लिये मीडिया अनेक प्रकार के तरीके ईजाद करने लगा है। यदि घटनाएँ नहीं हो तो पैदा की जाती हैं। वैसे घटनाएँ रोज घटित होती हैं, लेकिन कितने लोगों को लूटा गया, कितनी स्त्रियों के साथ बलात्कार हुआ, कितनों की दुर्घटना में मौत हुई, कितने करोड किसने डकारे आदि खबरों को मीडिया नहीं बिकने वाली खबर मानकर, इन्हें अत्यधिक महत्व की नहीं मानकर, किनारे कर देता है। ऐसे में खबरों की जरूरत तो होती ही है। ऐसे में खबरों का सृजन किया जाने लगा है। जिस प्रकार से नये और चमकदार कलेवर में कम्पनियाँ अपने उत्पाद बेचने लगी हैं, उसी प्रकार से लोगों की संवेदनाओं को छूने वाले कलेवर में खबरें भी बेची जा रही हैं। ऐसे मुद्दे सामने लाये जा रहे हैं कि लोग पढने या देखने या सुनने के लिये मजबूर हो जायें। इसमें अकेले मीडिया का ही दोष नहीं है। दोष पाठकों और दर्शकों का भी है, जो बिना नमक मिर्च की खबर को देखने, सुनने या पढने में रुचि ही नहीं लेते।

इसी पृष्ठभूमि में इन दिनों एक खबर जोरशोर से उछाली जा रही है कि राष्ट्रमण्डल खेलों के आयोजन के दौरान भारत सरकार की मंजूरी से या भारत सरकार की ओर से या सरकार की मौन सहमति से हजारों असुरक्षित सेक्स वर्कर राजधानी नयी दिल्ली में आने को तैयार हैं।

कहा जा रहा है, कि यह न मात्र हमारी स्वर्णिम और नारी की पूजा करने वाली संस्कृति को नष्ट कर देने वाली पश्चिमी जगत की चाल है, बल्कि इससे ऐड्‌स के तेजी से फैलने की भी भारी आशंका है। इससे देश का चरित्र भी नष्ट होना तय है। कुछ ने तो सीधे सीधे भारत सरकार पर आरोप जड दिया है कि स्वयं सरकार ही नारी को भोग की वस्तु बनाकर पेश करने जा रही है और नारीवादी संगठन चुपचाप सरकार का साथ दे रहे हैं।

इस प्रकार से नारीवादी संगठनों को सडकों पर उतरने के लिये भी उकसाया जा रहा है, जिससे कि यह मुद्दा बहस का मुद्दा बने और उनकी खबर बिकती रहे। माल कमाया जाता रहे। यह है मीडिया की नयी खबर उत्पाद नीति। जो स्वयं नैतिक मानदण्डों पर खरे नहीं हैं, उन्हें दूसरों से नैतिक या सांस्कृतिक मानदण्डों पर खरे नहीं उतरने पर कोसने का या आलोचना करने का कोई हक नहीं होना चाहिये, लेकिन मीडिया का कोई क्या कर सकता है? जब चाहे, जिसकी, जैसे चाहे वैसे आलोचना या प्रशंसा या चरणवन्दना करने का हक तो केवल मीडिया के ही पास है!

अब हम मीडिया द्वारा उत्पादित विषय पर आते हैं। पाठकों/दर्शकों के समक्ष सवाल दागा गया है कि गया है कि जिस भारत वर्ष में हजारों वर्षों से नारी की पूजा की जाती रही है, उसी महान भारत देश की राजधानी में स्त्री को स्वयं सरकार द्वारा भोग की वस्तु बनाकर प्रस्तुत करना देश को रसातल में ले जाने वाला कदम है! इस सवाल को उठाकर मीडिया जहाँ एक ओर तो अपने काँग्रेस विरोध को सरलता से प्रकट कर रहा है, वहीं दूसरी ओर कथित राष्ट्रवादी दलों के नेताओं की दृष्टि में उभरने का अवसर भी प्राप्त कर रहा है।

सवाल उठाया जा रहा है कि भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्यों के संरक्षण के बजाय, उन्हें नष्ट-भ्रष्ट करके तहस-नहस किया जा रहा है। सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि विदेशों में राष्ट्रमण्डल जैसे आयोजन होते हैं, तो वहाँ पर स्वयं सरकार द्वारा सुरक्षित सेक्स की उपलबधता सुनिश्चितता की जाती है। जिससे मीडिया का यह विरोधाभाषी चेहरा भी उजागर होता है कि यदि भारत में भी ऐसे आयोजनों के दौरान यदि सेक्स सुरक्षित हो तो वह ठीक है, फिर भारत की संस्कृति या पूजा की जाने वाली नारी की इज्जत को कोई क्षति नहीं पहुँचेगी?

मेरा सीधा सवाल यह है कि जब भारत के एक हिस्से नवरात्रों के दौरान युवा अविवाहित लडकियों एवं औरतों के द्वारा गर्वा नाच (डांडिया डांस) में माँ दुर्गा की भक्ति के पवित्र उद्देश्य से भाग लिया जाता है, उस दौरान स्वयं सरकार द्वारा गर्वा नाच में भाग लेने वाली अविवाहित लडकियाँ गर्भवति नहीं हों, इस उद्देश्य से गर्भनिरोधक गोलियाँ/साधन मुफ्त में बांटे जाते हैं। इस सबके बावजूद भी यदि स्थानीय मीडिया की बात पर विश्वास किया जाये तो गर्वा नाच आयोजन क्षेत्रों में गर्वा कार्यक्रम समापन के बाद गर्भपात नर्सिंग होंम में गर्भपात की दर तीन सौ से पाँच सौ प्रतिशत तक बढ जाती है। क्या इसमें भी किसी विदेशी/पश्चिमी संस्कृति का हाथ है? और क्या इसके लिये अकेली स्त्री ही जिम्मेदार होती है? पुरुष का इसमें कोई दोष नहीं है?

सेक्स वर्कर की बात पर हो हल्ला मचाने वालों से पूछना जरूरी है कि-

क्या भारत के अतीत में सेक्स वर्कर नहीं रही/रहे हैं?

क्या बिना किसी आयोजन के सेक्स वर्कर अपना व्यवसाय नहीं करती/करते हैं?

कुछ पूर्व न्यायाधीशों सहित अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं का तो स्पष्ट तौर पर यहाँ तक मानना है कि सेक्स व्यवसाय को कानूनी मान्यता मिल जाने पर ही पुरुषों के लिये सुरक्षित सेक्स की उपलब्धता को सुनिश्चित करने की दिशा में कुछ ठोस कदम उठाये जा सकते हैं। अन्यथा इस देश में सेक्स व्यवसाय फलता-फूलता तो रहेगा, लेकिन सुरक्षित कभी नहीं हो सकता।

जहाँ तक मीडिया की ओर से पश्चिमी देशों के अन्धानुकरण का सवाल है, तो इसमें यह भी विचारणीय है कि हमें पश्चिम की वो सब बातें तो उचित और सहज-स्वीकार्य लगती हैं, जिनसे हमें सुख-सुविधाएँ, आराम और धन प्राप्त होता है, लेकिन पश्चिम की जिन बातों से हमारी कथित पवित्र संस्कृति को खतरा नजर आता है। या ये कहो कि संस्कृति के नाम पर दुकान चलाने वालों के स्वार्थों को खतरा नजर आने लगता है तो वे सब बातें बुरी, बल्कि बहुत बुरी लगने लगती हैं।

इसी प्रकार से जब भी पश्चिम की ओर से कोई मानवकल्याणकारी खोज की जाती है तो हम कहाँ-कहाँ से आडे-टेडे तर्क/कुतर्क ढँूढ लाते हैं और सिद्ध करने में जुट जाते हैं कि पश्चिम की ओर से जो कुछ आज खोजा गया रहा है, वह तो हमारे वेद-पुराणों के अनुसार हजारों वर्षों पहले ही हमारे पास मौजूद था। क्या यह हमारा दौहरा और नाटकीय चरित्र नहीं है?

मुद्दा ये है कि इस प्रकार के (राष्ट्रमण्डल खलों के) आयोजनों के समय को छोड कर सामान्य आम दिनों में भारत में सेक्स वर्कर्स का धन्धा क्या बन्द रहता है? मन्दा अवश्य रहता होगा, लेकिन धन्धा तो 365 दिन चलता ही रहता है। जब राष्ट्रमण्डल खेलों के आयोजन से पूर्व किये जा रहे हर प्रकार के निर्माण कार्यों में भ्रष्टाचार का धन्धा जोरों पर है, सैलानियों के लिये हर प्रकार की उपभोग की वस्तुओं का धन्धा जोरों पर चलने वाला है तो सेक्स वर्कर्स बेचारी/बेचारे क्यों इतने बडे अवसर से वंचित रहें? उनका धन्धा क्यों मन्दा रहे?

सच्चाई यह है कि हममें से अधिकतर आदर्शवादी होने या दिखने का केवल नाटकभर करते हैं। इसी नाटक को अंजाम देने के लिये हममें से अनेक लोग, अनेक प्रकार के विवाद तक खडे कर देते हैं। जबकि सच्चाई से हम सभी वाकिफ हैं। हम यदि किसी छोटे से शहर में भी रहते हैं तो भी पश्चिमी सभ्यता की खोजों के बिना 24 घण्टे सामान्य जीवन जीना असम्भव हो जायेगा? इसलिये क्या तो पश्चिमी और क्या पूर्वी, अब तो सारा संसार एक गाँव बन चुका है। ऐसे में कोई भी किसी भी देश की संस्कृति को फैलने या लुप्त होने से रोक नहीं सकता! क्या इण्टरनैट, हवाई जहाज, कम्प्यूटर, पैक्ट फूट, पैण्ट-शर्ट, फटी-जींस, स्कर्ट आदि इस देश की संस्कृति है? जब हम सब कुछ, बल्कि 50 प्रतिशत से अधिक पश्चिमी तरीके से जीवन जी रहे हैं, तो अकारण पूर्वाग्रहों को लेकर ढोंगी बनने से क्या लाभ है, बल्कि हमें पश्चिमी और पूर्वी की सीमा को पाटकर वैश्विक सोच को ही विकसित करना चाहिये? जिससे न तो किसी हो हीन भावना का शिकार होना पडे और न हीं किसी को अहंकार पैदा हो। न ही मीडिया या समाज की भावनाओं को भडकाकर रोटी सेंकने वालों को ऐसे अवसर मिलें।

अब मीडिया द्वारा उठाये जा रहे मुद्दे की बात पर आते हैं कि जहाँ (भारत में) नारी की पूजा की जाती है, उस महान राष्ट्र भारत में स्त्री को स्वयं सरकार द्वारा भोग की वस्तु बनाकर पेश किया जाना कहाँ तक उचित है? या कहाँ तक नैतिक है?

पहली बात तो सरकार द्वारा यह सब किया जा रहा है, यह विश्वसनीय ही नहीं लगता, दूसरे ऐसी खबरें फैलाने वालों का कर्त्तव्य है कि वे अपने विचारों को या पूर्वाग्रहों को दूसरों के मुःह में डालकर पुख्ता बनाने का घिनौना कृत्य करने से पूर्व पाठकों/दर्शकों की भावनाओं के बारे में भी सोचें।

जहाँ तक नारी या स्त्री की पूजा की जाने की बात है तो पहली बात तो ये कि नारी की इस देश में कहीं भी न तो पूजा की जाती है, न की जाती थी। केवल नारी प्रतिमा दुर्गा देवी, कालिका देवी आदि अनेकों नामों से देवियों के रूप में पूजा अवश्य की जाती रही है।

मनु महाराज के जिस एक श्लोक (यत्र नार्यस्त पूज्यंते रमन्ते तत्र देवताः) के आधार पर नारी की पूजा की बात की जाती रहती है, लेकिन उन्हीं मनुमहाराज की एवं अन्य अनेक धर्मशास्त्रियों/धर्मग्रन्थ लेखकों की बातों को हम क्यों भुला देते हैं? इनको भी जान लेना चाहिये :-

मनुस्मृति : ९/३-
स्त्री सदा किसी न किसी के अधीन रहती है, क्योंकि वह स्वतन्त्रता के योग्य नहीं है।

मनुस्मृति : ९/११-
स्त्री को घर के सारे कार्य सुपुर्द कर देने चाहिये, जिससे कि वह घर से बाहर ही नहीं निकल सके।

मनुस्मृति : ९/१५-
स्त्रियाँ स्वभाव से ही पर पुरुषों पर रीझने वाली, चंचल और अस्थिर अनुराग वाली होती हैं।

मनुस्मृति : ९/४५-
पति चाहे स्त्री को बेच दे या उसका परित्याग कर दे, किन्तु वह उसकी पत्नी ही कहलायेगी। प्रजापति द्वारा स्थापित यही सनातन धर्म है।

मनुस्मृति : ९/७७-
जो स्त्री अपने आलसी, नशा करने वाले अथवा रोगग्रस्त पति की आज्ञा का पालन नहीं करे, उसे वस्त्राभूषण उतार कर (अर्थात्‌ निर्वस्त्र करके) तीन माह के लिये अलग कर देना चाहिये।

आठवीं सदी के कथित महान हिन्दू दार्शनिक शंकराचार्य के विचार भी स्त्रियों के बारे में जान लें :-

"नारी नरक का द्वार है।"

तुलसी ने तो नारी की जमकर आलोचना की है, कबीर जैसे सन्त भी नारी का विरोध करने से नहीं चूके :-

नारी की झाईं परत, अंधा होत भुजंग।
कबिरा तिन की क्या गति, नित नारी के संग॥

अब आप अर्थशास्त्र के जन्मदाता कहे जाने वाले कौटिल्य (चाणक्य) के स्त्री के बारे में प्रकट विचारों का अवलोकन करें, जो उन्होंने चाणक्यनीतिदर्पण में प्रकट किये हैं :-

चाणक्यनीतिदर्पण : १०/४-
स्त्रियाँ कौन सा दुष्कर्म नहीं कर सकती?

चाणक्यनीतिदर्पण : २/१-
झूठ, दुस्साहस, कपट, मूर्खता, लालच, अपवित्रता और निर्दयता स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं।

चाणक्यनीतिदर्पण : १६/२-
स्त्रियाँ एक (पुरुष) के साथ बात करती हुई, दूसरे (पुरुष) की ओर देख रही होती हैं और दिल में किसी तीसरे (पुरुष) का चिन्तन हो रहा होता है। इन्हें (स्त्रियों को) किसी एक से प्यार नहीं होता।

पंचतन्त्र की प्रसिद्ध कथाओं में शामिल श्रृंगारशतक के ७६ वें प में स्त्री के बारे में लिखा है कि-

"स्त्री संशयों का भंवर, उद्दण्डता का घर, उचित अनुचित काम (सम्भोग) की शौकीन, बुराईयों की जड, कपटों का भण्डार और अविश्वास की पात्र होती है। महापुरुषों को सब बुराईयों से भरपूर स्त्री से दूर रहना चाहिये। न जाने धर्म का संहार करने के लिये स्त्री की रचना किसने कर दी!"

मेरा तो ऐसा अनुभव है कि इस देश के कथित धर्मग्रन्थों और आदर्शों की दुहाई देने वाले पुरुष प्रधान समाज और धर्मशास्त्रियों ने अपने नियन्त्रण में बंधी हुई स्त्री को दो ही नाम दिये हैं, या तो दासी (जिसमें भोग्या और कुल्टा नाम भी समाहित हैं) जो स्त्री की हकीकत बना दी गयी है, या देवी जो हकीकत नहीं, स्त्री को बरगलाये रखने के लिये दी गयी काल्पनिक उपमा मात्र हैं।

स्त्री को देवी मानने या पूजा करने की बात बो बहुत बडी है, पुरुष द्वारा नारी को अपने बराबर, अपना दोस्त, अपना मित्र तक माना जाना भारतीय समाज में निषिद्ध माना जाता रहा है? जब भी दो विषमलिंगी समाज द्वारा निर्धारित ऐसे स्वघोषित खोखले आदर्शवादी मानदण्डों पर खरे नहीं उतर पाते हैं, जिन्हें भारत के इतिहास में हर कालखण्ड में समर्थ लोगों द्वारा हजारों बार तोडा गया है तो भी 21वीं सदी में भी केवल नारी को ही पुरुष की दासी या कुल्टा क्यों माना जाता है? पुरुष के लिये भी तो कुछ उपमाएँ गढी जानी चाहिये! भारत में नारी की पूजा की जाती है, इस झूठ को हम कब तक ढोते रहना चाहते हैं?

जहाँ तक वर्तमान सरकार द्वारा राष्ट्रमण्डल खेलों के आयोजन के दौरान सेक्स परोसे जाने की बात पर किसी को आपत्ति है तो कथित हिन्दू धर्म की रक्षक पार्टी की सरकार के समय गर्वा नाच (डांडिया डांस) में शामिल लडकियों को गर्भनिरोधक मुफ्त में बांटे जाने पर तो इस देश के हिन्दू धर्म के कथित ठेकेदारों को तो मुःह दिखाने का जगह ही नहीं मिलनी चाहिये, लेकिन किसी ने एक शब्द तक नहीं बोला। आखिर क्यों हम बेफालतू की बातों में सामयिक मुद्दों को शामिल करके अपनी आलोचना का केन्द्र केवल सरकारों को या विदेशी संस्कृतियों को ही बनाना चाहते हैं?

हम स्वयं की ओलाचना क्यों नहीं कर सकते?

आत्मालोचना के बिना कुछ नहीं हो सकता।
जो अपेक्षा हम दूसरों से करते हैं, क्या उसी प्रकार की अपेक्षाएँ अन्य लोग हमसे नहीं करते हैं?

कितना अच्छा हो कि हम हर सुधार या परिवर्तन की शुरुआत अपने आप से करें?

कितना अच्छा हो कि हम जो कुछ भी कहें, उससे पूर्व अपने आप से पूछें कि क्या इस बात को मैं अपने आचरण से प्रमाणित करने में सफल हो सकता हँू?

शायद नहीं और यहीं से हमारा दोगलेपन का दौहरा चरित्र प्रकट होने लगता है।

मुखौटे लगाकर जीने की हमारी कथित आदर्शवादी सोच को हम अपने खोखले संस्कारों से ऐसे ही सींचने की शुरूआत करने लगते हैं।
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लेखक जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र प्रेसपालिका के सम्पादक, होम्योपैथ चिकित्सक, मानव व्यवहारशास्त्री, दाम्पत्य विवादों के सलाहकार, विविन्न विषयों के लेखक, टिप्पणीकार, कवि, शायर, चिन्तक, शोधार्थी, तनाव मुक्त जीवन, लोगों से काम लेने की कला, सकारात्मक जीवन पद्धति आदि विषयों के व्याख्याता तथा समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर संचालित संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। जिसमें तक 4399 रजिस्टर्ड आजीवन कार्यकर्ता देश के 17 राज्यों में सेवारत हैं। फोन नं. 0141-2222225 (सायं 7 से 8 बजे)। Email : dr.purushottammeena@yahoo.in

Saturday, July 17, 2010

स्त्री को दार्शनिक बना देना!


व्यक्ति जिस समाज, धर्म या संस्कृति में पल-बढकर बढा होता है। व्यक्ति का जिस प्रकार से समाजीकरण होता है, उससे उसके मनोमस्तिष्क में और गहरे में जाकर अवचेतन मन में अनेक प्रकार की झूठ, सच, भ्रम या काल्पनिक बातें स्थापित हो जाती हैं, जिन्हें वह अपनी आस्था और विश्वास से जोड लेता है। जब किन्हीं पस्थितियों या घटनाओं या इस समाज के दुष्ट एवं स्वार्थी लोगों के कारण व्यक्ति की आस्था और विश्वास हिलने लगते हैं, तो उसे अपनी आस्था, विश्वास और संवेदनाओं के साथ-साथ स्वयं के होने या नहीं होने पर ही शंकाएँ होने लगती हैं। इन हालातों में उसके मनोमस्तिषक तथा हृदय के बीच अन्तर्द्वन्द्व चलने लगता है। फिर जो विचार मनोमस्तिषक तथा हृदय के बीच उत्पन्न होते हैं, खण्डित होते हैं और धडाम से टूटते हैं, उन्हीं मनोभावों के अनुरूप ऐसे व्यक्ति का व्यक्तित्व भी निर्मित या खण्डित होना शुरू हो जाता है। जिसके लिये वह व्यक्ति नहीं, बल्कि उसका परिवेश जिम्मेदार होता है।

स्त्री के मामले में स्थिति और भी अधिक दुःखद और विचारणीय है, क्योंकि पुरुष प्रधान समाज ने, स्वनिर्मित संस्कृति, नीति, धर्म, परम्पराओं आदि सभी के निर्वाह की सारी जिम्मेदारियाँ चालाकी और कूटनीतिक तरीक से स्त्री पर थोप दी हैं। कालान्तर में स्त्री ने भी इसे ही अपनी नियति समझ का स्वीकार लिया। ऐसे में जबकि एक स्त्री को जन्म से हमने ऐसा अवचेतन मन प्रदान किया; जहाँ स्त्री शोषित, दमित, निन्दित, हीन, नर्क का द्वार, पापिनी आदि नामों से अपमानित की गयी और उसकी भावनाएँ कुचली गयी है, वहीं दूसरी ओर सारे नियम-कानून, दिखावटी सिद्धान्त और नकाबपोस लोगों के बयान कहते हैं, कि स्त्री आजाद है, पुरुष के समकक्ष है, उसे वो सब हक-हकूक प्राप्त हैं, जो किसी भी पुरुष को प्राप्त हैं और जैसे ही कोई कोमलहृदया इन भ्रम-भ्रान्तियों में पडकर अपना वजूद ढँूढने का प्रयास करती है, तो अन्दर तक टूट का बिखर जाती है। उसके अरमानों को कुचल दिया जाता है, ऐसे में जो उसकी अवस्था (मनोशारीरिक स्थिति) निर्मित होती है, उसको भी हमने दार्शनिक कहकर अलंकारित कर दिया है। जबकि ऐसे व्यक्ति की जिस दशा को दार्शनिक कहा जाता है, असल में वह क्या होती है, इसे तो वही समझ सकता/सकती है, जो ऐसी स्थिति से मुकाबिल हो।

लेखक : -डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र) एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) (जो दिल्ली से देश के सत्रह राज्यों में संचालित है।

Monday, March 15, 2010

प्रधान न्यायाधीश का बयान अस्वीकार्य : डॉ. मीणा



जयपुर। भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ने एक बयान जारी करके कहा है कि देश की सबसे बडी अदालत के प्रधान न्यायाधीश का बलात्कारी से विवाह करने की अनुमति दिये जाने सम्बन्धी बयान निन्दनीय तो है ही साथ ही साथ प्रधान न्यायाधीश की गरिमा के अनुरूप भी नहीं है।



डॉ. मीणा का कहना है कि देश के प्रधान न्यायाधीश जैसे गरिमामयी और संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति से ऐसे अमानवीय और अव्यावहारिक बयानों की अपेक्षा नहीं की जा सकती। यदि इस प्रकार से बलात्कारी से विवाह करने को परोक्ष रूप से बढावा दिया गया तो आगे चलकर सम्पूर्ण समाज को इसके अनेक प्रकार के अकल्पनीय, गम्भीर और घातक परिणामों का सामना करना पडेगा।

बास के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. पुरुषोत्तम मीणा का कहना है कि यदि एक क्षण को हम प्रधान न्यायाधीश के सुझाव को मान लेते हैं तो ऐसे रुग्ण लोग जो किसी लडकी से विवाह करने में सफल नहीं हो पाते हैं, वे पहले तो उससे बलात्कार करेंगे और बाद में पीडित लडकी को विवश करके विवाह करने को राजी कर लिया जायेगा। इससे जहाँ एक ओर तो महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में वृद्धि होगी, वहीं दूसरी ओर इससे बलात्कार जैसे गम्भीर अपराध की सजा से अपराधी बच निकलेगा।

डॉ. मीणा का कहना है कि अब समय आ गया है, जबकि संवैधानिक एवं जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों द्वारा स्त्री के प्रति अधिक संवेदनशीलता का परिचय दिया जाये और उसे भी इंसान समझा जाये। जब किसी बलात्कारी से विवाह करने की बात कहीं जाती है तो किसी भी पीडिता स्त्री के लिये इससे बडी अपमानजनक कोई बात नहीं हो सकती।

डॉ. मीणा कहते हैं कि इस प्रकार के बयान देने वाला चाहे देश का प्रधान न्यायाधीश हो या अन्य कोई भी हो, हर एक इंसाफ पसन्द व्यक्ति द्वारा उसकी आलोचना और भर्त्सना की ही जानी चाहिये। डॉ. मीणा ने कहा है कि इस प्रकार के अमानवीय और असंवेदनशील बयान की कुछ महिला संगठनों के अलावा अन्य किसी के द्वारा आलोचना नहीं किया जाना भी बेहद चिन्ता का विषय है।

बास के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. पुरुषोत्तम मीणा का कहना है कि जब भी स्त्री के सवाल पर निर्णय लेना हो पुरुष को केवल पति या प्रेमी बनकर ही नहीं, बल्कि पिता और भाई बनकर भी सोचने की आदत डालनी चाहिये। तब ही पुरुष, स्त्री से जुडे मामलों में पूर्ण न्याय कर सकेगा।
-प्रेस विज्ञप्ति जारी करंता : पंकज सत्तावत, सहायक कार्यालय सचिव, राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यालय, भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास), जयपुर।