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Thursday, September 9, 2010

भाजपा को नहीं, भारत को बचाना है!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
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इस समय भाजपा अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष कर रही है। इसलिये अब हम भारतीयों को चाहिये कि धर्म का मुखौटा पहनकर देश को तोडने वाली भाजपा, संघ, विश्व हिन्दू परिषद आदि के नाटकीय बहकावे में नहीं आना है और मुसलमानों को इनके उकसावे में आकर अपना धैर्य नहीं खोना है। अन्यथा ये धर्मविरोधी संगठन 24 सितम्बर को इस देश के सौहार्द को बिगाडने में कोई कोर कसर नहीं छोडेंगे। विश्वास करें, इनके साथ केवल देश के 1 प्रतिशत लोग भी नहीं हैं। शेष लोगों को तो ये मूर्ख बनाकर साम्प्रदायिकता की आग में झोंकरकर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं! अत: हमें भाजपा को नहीं, बल्कि हर हाल में भारत को और भारतीयों को बचाना है।
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जब-जब भी और जहाँ-जहाँ पर भी भारतीय जनता पार्टी की सरकार सत्ता में रही हैं। उसके नेतृत्व ने देश और समाज को मूर्ख बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोडी है। केवल इतना ही नहीं, इनके गुर्गे (मन्त्री भी) जो संघ एवं विश्वहिन्दू परिषद से आदेश प्राप्त करते हैं, हिन्दुत्व के नाम पर हिन्दू समाज की पिछडी और छोटी जाति के लोगों को मुसमानों के सामने करके अपनी लडाई लडते रहते हैं, जबकि मोदी, तोगड़िया और आडवाणी जैसे तो वातानुकूलित कमरों में आराम फरमाते रहते हैं।

इस बात को तो देश-विदेश के सभी लोग जानते हैं कि गुजरात में हिन्दुओं के हाथों मुसलमानों का कत्लेआम करवाया गया, लेकिन इस बात को बहुत कम लोग जानते हैं कि जिन हिन्दुओं के हाथों मुसलमानों का कत्लेआम करवाया गया, वे कौन थे और उनकी वर्तमान दशा क्या है? गुजरात के दूर-दराज के क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी एवं पिछडी जाति के लोगों के घरों में स्वयं भगवा ब्रिगेड के लोगों द्वारा आग लगाई गयी थी। अनेकों हिन्दुओं को इस आग के हवाले कर दिया गया और बतलाया गया कि मुसलमानों ने हिन्दुओं को जला दिया है। जिससे आक्रोशित होकर इन भोले-भाले अशिक्षित हिन्दुओं ने अनेक निर्दोष मुसलमानों के घरों में आग लगा दी। अनेकों को मौत के घाट उतार दिया।

आज ये गरीब और बहकावे में आने वाले आदिवासी हिन्दू या तो जेल में बन्द हैं या जमानत मिलने के बाद कोर्ट में पेशियाँ दर पेशियाँ भुगतते फिर रहे हैं। इन्हें हिन्दुत्व के नाम पर मुसलमानों के विरुद्ध भडकाने वाले कहीं दूर-दूर तक नजर नहीं आते हैं।

हिन्दुत्व के नाम पर संघ शाखाओं में हाथियारों के संचालन का प्रशिक्षण प्रदान करके सरेआम आतंकवाद को बढावा दिया जा रहा है। तोगड़िया त्रिशूल और भाला बांट रहे हैं। संघ से जुडे अनेक लोग अनेक आतंकवादी घटनाओं में पकडे जा चुके हैं। जिन्हें बचाने के लिये संघ एवं भाजवा वाले इसे सोनिया सरकार की चाल बतला रहे हैं।

बस यात्रा के बहाने पाकिस्तान से दोस्ती का नाटक खेलने वाले पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की अदूरदर्शिता एवं देश विरोधी नीति के चलते हजारों सैनिकों को कारगिल में मरवा दिया। हजारों सैनिकों को हमारी ही धरती पर मारगिराने वाले पाकिस्तानियों को वापस पाकिस्तान में सुरक्षित चले जाने की लिये वाजपेयी सरकार ने वाकायदा सेना को चुप रहने एवं पाकिस्तानियों पर आक्रमण नहीं करने का आदेश दिया था। इसके बाद लम्बे समय तक आर-पास की लडाई की बात का नाटक करके हिमालय की ऊँची बर्फीली की चोटियो पर हमारे सैनिकों को तैनात करके अनेक सैनिकों को बेमौत गल-गल कर मर जाने को विवश कर दिया।

इसके बाद भी भाजपा, संघ और विहिप द्वारा बेशर्मी से प्रचारित किया गया कि वाजपेयी के नेतृत्व में भारत ने कारगिल में पाकिस्तान पर विजय प्राप्त की। इसी प्रकार से हजारों करोड डालरों से भरे बक्सों के साथ कन्धार में दुर्दान्त आतंकियों को छोडकर आने वाले वाजपेयी सरकार के विदेश मन्त्री जसवन्त सिंह को जिन्ना का गुणगान करने पर पहले तो बाहर का रास्ता दिखा दिया, लेकिन जैसे ही पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शैखावत का निधन हुआ तो राजपूत वोटों को लुभाने के लिये बिना शर्त वापस बुला लिया गया।

मध्य प्रदेश के मुख्यमन्त्री हर साल पांच सितम्बर को शिक्षकों के पैर पखारते (धोते) हैं और इस बात का नाटक करते हैं कि भाजपा के राज में गुरुओं का सर्वाधिक सम्मान होता है। जबकि सच्चाई को जानना है तो गत शिक्षक दिवस से ठीक पूर्व वेतन नहीं मिलने के चलते शिक्षक की मौत के लिये जिम्मेदार मध्य प्रदेश के मुख्यमन्त्री की असली तस्वीर को ब्लॉग लेखक श्री अजीत ठाकुर के निम्न समाचार से समझा जा सकता है।

"होशंगाबाद जिले की पिपरिया तहसील के ग्राम मटकुली में एक व्यक्ति की मौत हो गई। ये कोई साधारण मौत नहीं है, ये मौत करारा तमाचा है, हमारे शिक्षातंत्र पर और हमारी व्यवस्था की भयानकतम असंवेदनशीलता का नमूना, ये एक शिक्षक की मौत है। चार महीने से वेतन नहीं मिल पाने की वजह से बीमार सहायक अध्यापक हरिकिशन ठाकुर ने बेहतर इलाज के अभाव में दम तोड दिया। इनकी मौत के 6 दिन बाद ही इनका परिवार भूखे मरने की नौबत में है। ये उस देश में हुआ है, जहाँ गुरु को गोविन्द से बडा बताया गया है, जहाँ पर एक दिन अर्थात् 5 सितम्बर शिक्षक दिवस शिक्षको को समर्पित है। ये उस प्रदेश में हुआ जहाँ के माननीय मुख्यमंत्री जी (शिवराज सिंह चौहान) शिक्षक दिवस पर शिक्षको के पैर धोकर उनका सम्मान करते हैं। इस असंवेदनहीन व्यवस्था में हम कैसे किसी द्रोण या चाणक्य (के पैदा होने) की उम्मीद कर सकते हैं और जब द्रोण और चाणक्य नहीं होंगे तो अर्जुन और चन्द्रगुप्त की उम्मीद तो बेमानी है।"

केवल इतना ही नहीं देश के लोगों को इस बात को भी ठीक से समझ लेना चाहिये कि-

कश्मीर की वर्तमान दु:खद स्थिति के लिये भी प्राथमिक तौर पर ये ही कथित हिन्दुत्ववादी आतंकी ताकतें ही हर प्रकार से जिम्मेदार हैं।

तत्कालीन कश्मीर पर पाकिस्तानी हमले के लिये भी इन्हीं के विचार जिम्मेदार थे।

इन ताकतों को इस बात से बखूबी पहचाना जा सकता है कि पहले तो इन्होने भारत में कश्मीर के विलय का ही विरोध किया था और तत्कालीन कश्मीर सरकार पर नेहरू के कूटनीतिक दबाव कारण विलय सम्भव हो भी गया तो इनको विलय का तरीका ही नहीं सुहाया और कश्मीर में साम्प्रदायिकता की नफरत का बीज बोने के लिये इनके नेताओं ने तरह-तरह के नाटक किये गये। जिनके कारण कश्मीर से हजारों पण्डित बेघर हो गये और इस पर भी तुर्रा ये कि ये अपने आपको राष्ट्रवादी कहते हैं। अखण्ड भारत की बात करते हैं।

देश को तोडने के लिये कुटिल चालें चलने में माहिर ये अनीश्वरवादी हिन्दुत्व के ठेकेदार, ईश्वर के नाम पर 1947 से भारत के भोले-भाले हिन्दुओं को लगातार बहकाने और उकसाने के अपराध में संलिप्त हैं।

भाजपा की पूर्व मुख्यमन्त्री वसुन्धरा राजे ने राजस्थान में शराब, शबाब और जमीन बेचकर भ्रष्टाचार को बढावा देने में कोई कोर-कसर नहीं छोडी थी और राजस्थान को कई दशक पीछे धकेल दिया। हर राज्य में इनकी करनी और कथनी में धरती आसमान का अन्तर स्पष्ट नजर आता है। इनका एक मात्र कार्य है किसी भी प्रकार से समाज में अमन-शान्ति और भाईचारा बिगडा रहे, जिससे ये अपनी राजनीति की रोटियाँ सेकते रहें।

यह है असली चेहरा-भाजपा और संघ के संस्कृति और राष्ट्रवादी चरित्र का।

अब जबकि 24 सितम्बर को अयोध्या-बाबरी भूमि विवाद पर मालिकाना हक का निर्णय सुनाये जाने की तारीख घोषित हो चुकी है तो भाजपा, आरएसएस एवं विश्व हिन्दू परिषद तथा इनके अनुसांगिक संगठनों की ओर से हिन्दुत्व के नाम पर समाज को साम्प्रदायिकता की आग में धकेलने की पूरी तैयारी शुरू की जा चुकी है। मोबाईल पर मैसेज के जरिये लोगों को उद्वेलित करके भडाया जा रहा है और जैसे ही मौका मिलेगा, ये देश के माहौल को बिगाडने के लिये कुछ भी करने को तैयार बैठे हैं।

जबकि आम लोगों को इस बात का ज्ञान ही नहीं है कि भाजपा एवं इसके समर्थक जिस हिन्दुत्व को मानते हैं, उसमें ईश्वर को ही नकारा गया है। इनके आदर्श हैं सावरकर जो ईश्वर की सत्ता में कतई भी विश्वास नहीं करते, तब ही तो इनके लिये निरीह गाँधी का वध गर्व की बात है।

इस समय भाजपा अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष कर रही है। इसलिये अब हम भारतीयों को चाहिये कि धर्म का मुखौटा पहनकर देश को तोडने वाली भाजपा, संघ, विश्व हिन्दू परिषद आदि के नाटकीय बहकावे में नहीं आना है और मुसलमानों को इनके उकसावे में आकर अपना धैर्य नहीं खोना है। अन्यथा ये धर्मविरोधी संगठन 24 सितम्बर को इस देश के सौहार्द को बिगाडने में कोई कोर कसर नहीं छोडेंगे। विश्वास करें, इनके साथ केवल देश के 1 प्रतिशत लोग भी नहीं हैं। शेष लोगों को तो ये मूर्ख बनाकर साम्प्रदायिकता की आग में झोंकरकर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं! अत: हमें भाजपा को नहीं, बल्कि हर हाल में भारत को और भारतीयों को बचाना है।

Thursday, August 12, 2010

बुद्धिजीवियों की उपयोगिता?

(मैंने इस आलेख पर जो शीर्षक लिखा है, सर्वोत्तम नहीं जान पड़ता है,
अत: निवेदन है कि आप इसका सही शीर्षक निर्धारित करने का कष्ट करें!)

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
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इस देश में जाति के आधार पर जनगणना करने और नहीं करने पर काफी समय से बहस चल रही है। अनेक विद्वान लेखकों ने जाति के आधार पर जनगणना करवाने के अनेक फायदे गिनाये हैं। उनकी ओर से और भी फायदे गिनाये जा सकते हैं। दूसरी और ढेर सारे नुकसान भी गिनाने वाले विद्वान लेखकों की कमी नहीं है। जो जाति के आधार पर जनगणना चाहते हैं, उनके अपने तर्क हैं और जो नहीं चाहते हैं, उनके भी अपने तर्क हैं। कोई पूर्वाग्रह से सोचता है, तो कोई बिना पूवाग्रह के, लेकिन सभी अपने-अपने तरीके से सोचते हैं। लेकिन लोकतन्त्र में कोई भी व्यक्ति किसी पर भी दबाव के जरिये अपने विचारों को थोप नहीं सकता है।

इस सबके उपरान्त भी यदि भारत सरकार जाति आधारित जनगणना करवाने को राजी हो जाती है, तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जाना चाहिये कि केवल जाति आधारित जनगणना की मांग करने वालों के तर्क ही अधिक मजबूत और न्याससंगत हैं और इसके विपरीत यदि सरकार जाति आधारित जनगणना करवाने को राजी नहीं होती है, तो भी इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जाना चाहिये कि जाति आधारित जनगणना की मांग का विरोध करने वालों के तर्क गलत या निरर्थक हैं!

हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में अपनाये गये, दलगत राजनीति पर अधारित संसदीय जनतन्त्र में सबसे पहले राजनैतिक दलों को किसी भी कीमत पर मतदाता को रिझाना जरूरी होता है। जिसके लिये 1984 में सिक्खों के इकतरफा कत्लेआम और गुजरात में हुए नरसंहार को दंगों का नाम दे दिया जाता है। वोटों की खातिर बाबरी मस्जिद को शहीद करके देश के धर्मनिरपेक्ष मस्तक पर सारे विश्व के सामने झुका दिया जाता है। मुसलमानों के वोटों की खातिर, मुसलमानों की औरतों के हित में शाहबानों प्रकरण के न्यायसंगत निर्णय को संसद की ताकत के बल पर बदल दिया जाता है और दूसरी ओर धर्मनिरपेक्षता की संरक्षक कहलाने वाली काँग्रेस की नेतृत्व वाली केन्द्रीय सरकार बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा को मौलवियों के विरोध के चलते भारत में वीजा देने में लगातार इनकार करती रही है?

हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना को लेकर जन्मी जनसंघ के वर्तमान स्वरूप भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान संरक्षक लालकृष्ण आडवाणी, धर्म के आधार पर भारत विभाजन के खलनायक माने जाने वाले मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर सजदा करके, पाकिस्तान की सरजमीं पर ही जिन्ना को धर्मनिरेपक्षता का प्रमाण-पत्र दे आते हैं। फिर भी भाजपा की असली कमान उन्हीं के हाथ में है।

इसके विपरीत भाजपा के वरिष्ठ नेता जसवन्त सिंह को जिन्ना का समर्थन करने एवं सरदार वल्लभ भाई पटेल का विरोधी ठहराकर, सफाई का अवसर दिये बिना ही पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है, लेकिन राजपूत वोटों में सेंध लगाने में सक्षम पूर्व राष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत के इन्तकाल के कुछ ही माह बाद, राजपूतों को अपनी ओर लुभाने की खातिर बिना शर्त जसवन्त सिंह की ससम्मान भाजपा में वापसी किस बात का प्रमाण है। नि:सन्देह जातिवादी राजनीति का ही पोषण है!

उपरोक्त के अलावा भी ढेरों उदाहरण गिनाये जा सकते हैं। असल समझने वाली बात यह है कि इस देश की राजनीति की वास्तविकता क्या है? 5-6 वर्ष पूर्व मैं राजस्थान के एक पूर्व मुख्यमन्त्री के साथ कुछ विषयों पर अनौपचारिक चर्चा कर रहा था, कि इसी बीच राजनैतिक दलों के सिद्धान्तों का सवाल सामने आ गया तो उन्होनें बडे ही बेवाकी से टिप्पणी की, कि-"मुझे तो नहीं लगता कि इस देश में किसी पार्टी का कोई सिद्धान्त हैं? हाँ पहले साम्यवादियों के कुछ सिद्धान्त हुआ करते थे, लेकिन अब तो वे भी अवसरवादी हो गये हैं।" कुछ वर्षों के सत्ता से सन्यास के बाद जब इन्हीं महाशय को राज्यपाल बना दिया गया तो मैंने एक कार्यक्रम में उन्हें यह कहते हुए सुना कि-"इस देश में काँग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है, जो सिद्धान्तों की राजनीति करती है।"

भारतीय जनता पार्टी की एक प्रान्तीय सरकार में काबीना मन्त्री रहे एक मुसलमान नेता से चुनाव पूर्व जब यह सवाल किया गया कि आपने भाजपा, भाजपा की नीतियों से प्रभावित होकर जोइन की है या और कोई कारण है? इस पर उनका जवाब भी काबिले गौर है? "मेरे क्षेत्र में मसुलामनों का वोट बैंक है और कांग्रेस ने मुझे टिकिट नहीं देकर जाट जाति के व्यक्ति को अपना उम्मीदवार बनाया है। चूँकि मुसलमान किसी को भी वोट दे सकता है, लेकिन जाट को नहीं देगा, ऐसे में मौके का लाभ उठाने में क्या बुराई है! जीत गये तो मुस्लिम कोटे में मन्त्री बनने के भी अवसर हैं।" आश्चर्यजनक रूप से ये महाशय चुनाव जीत गये और काबीना मन्त्री भी रहे, लेकिन एक बार इन्होंने अपने किसी परिचत के दबाव में अपने विभाग के एक तृतीय श्रेणी के कर्मचारी का स्थानान्तरण कर दिया, जिसे मुख्यमन्त्री ने ये कहते हुए स्टे (स्थगित) कर दिया कि आपको मन्त्री पद और लाल बत्ती की गाडी चाहिये या ट्रांसफर करने का अधिकार?

इसके बावजूद भी इस देश में लगातार प्रचार किया जा रहा है कि इस देश को धर्म एवं जाति से खतरा है! सोचने वाली बात ये है कि यदि कोई दल सत्ता में ही नहीं आयेगा तो वह सिद्धान्तों की पूजा करके क्या करेगा? हम सभी जानते हैं कि आज किसी भी दल के अन्दर कोई भी सिद्धान्त, कहीं भी परिलक्षित नहीं हो रहे हैं। ऐसे में किसी भी दल से यह अपेक्षा करना कि वह देशहित में अपने वोटबैंक की बलि चढा देगा, दिन में सपने देखने जैसा है।

इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि माहौल बनाने के लिये हर विषय पर स्वस्थ चर्चा-परिचर्चाएं होती रहनी चाहिये। बद्धिजीवियों को इससे खुराक मिलती रहती है, लेकिन इस देश का दुर्भाग्य है कि जिस प्रकार से यहाँ के राजनेताओं की अपनी मजबूरियाँ हैं, उसी प्रकार से लेखकों एवं पाठकों की भी मजबूरियाँ हैं। जिसके चलते जब एक पक्ष सत्य पर आधारित चर्चा की शुरूआत ही नहीं करता है, तो असहमति प्रकट करने वाले पक्ष से इस बात की अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह केवल सत्य को ही चर्चा का आधार बनायेगा। हर कोई स्वयं के विचार को सर्वश्रेष्ठ और स्वयं को सबसे अधिक जानकार तथा अपने विचारों को ही मौलिक सिद्ध करने का प्रयास करने पर उतारू हो जाता है।

इस प्रकार की चर्चा एवं बहसों से हमारी बौद्धिक संस्कृति का ह्रास हो रहा है। जिसके लिये हम सब जिम्मेदार हैं। दु:ख तो इस बात का है कि इस पर लगाम, लगना कहीं दूर-दूर तक भी नजर नहीं आ रहा है। क्योंकि कोई भी अपनी गिरेबान में देखने को तैयार नहीं है। जाति के आधार पर जनगणना का विरोध करने वाले विद्वजन एक ही बात को बार-बार दौहराते हैं कि जातियों के आधार पर गणना करने से देश में टूटन हो सकती है, देश में वैमनस्यता को बढावा मिल सकता है। जबकि दूसरे पक्ष का कहना है कि इससे देश को कुछ नहीं होगा, लेकिन कमजोर और पिछडी जातियों की वास्तविक जनसंख्या का पता चल जायेगा और इससे उनके उत्थान के लिये योजनाएँ बनाने तथा बजट आवण्टन में सहूलियत होगी।

कुछ लोग इस राग का आलाप करते रहते हैं कि यदि जातियों के आधार पर जनगणना की गयी तो देश में जातिवाद को समाप्त नहीं किया जा सकता है। मेरी यह समझ में नहीं आ रहा कि हम जातियों को समाप्त कर कैसे सकते हैं? कम से कम मुझे तो आज तक कोई सर्वमान्य एवं व्यावहारिक ऐसा फार्मूला कहीं पढने या सुनने को नहीं मिला, जिसके आधार पर इस देश में जातियों को समाप्त करने की कोई आशा नजर आती हो?

सच्चाई तो यही है कि इस देश की सत्तर प्रतिशत से अधिक आबादी को तो अपनी रोजी-रोटी जुटाने से ही फुर्सत नहीं है। उच्च वर्ग को इस बात से कोई मतलब नहीं कि देश किस दिशा में जा रहा है या नहीं जा रहा है? उनको हर पार्टी एवं दल के राजनेताओं को और नौकरशाही को खरीदना आता है। देश का मध्यम वर्ग आपसी काटछांट एवं आलोचना करने में समय गुजारता रहता है।

बुद्धिजीवी वर्ग अन्याय एवं अव्यवस्था के विरुद्ध चुप नहीं बैठ सकता। क्योंकि बुद्धिजीवी वर्ग को चुप नहीं रहने की बीमारी है। राजनेता बडे चतुर और चालाक होते हैं। अत: उन्होंने बुद्धिजीवी वर्ग को उलझाये रखने के लिये देश में जाति, धर्म, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता, भाषा, मन्दिर-मस्जिद, गुजरात, नक्सलवाद, आतंकवाद, बांग्लादेशी नागरिक, कश्मीर जैसे मुद्दे जिन्दा रखे हुए हैं। बुद्धिजीवी इन सब विषयों पर गर्मागरम बहस और चर्चा-परिचर्चा करते रहते हैं। जिसके चलते अनेकानेक पत्र-पत्रिकाएँ एवं समाचार चैनल धडल्ले से अपना व्यापार बढा रहे हैं।
उक्त विवेचन के प्रकाश में उन सभी बद्धिजीवियों से एक सवाल है, जो स्वयं को बुद्धिजीवी वर्ग का हिस्सा मानते हैं, यदि वे वास्तव में इस प्रकार से आपस में उलझकर वाद-विवाद करने में उलझे रहेंगे तो उनको बुद्धिजीवी कहलाने का क्या हक है? ऐसे बुद्धिजीवियों को अपनी उपयोगिता के बारे में विचार करना चाहिये!

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यह आलेख निम्न लिंक पर भी अलग-अलग शीर्षक से पढ़ा जा सकता है :-
1. >जाति जनगणना विवाद- भारतीय बुद्धिजीवि वर्ग की बौद्धिक शुन्यता का परिचायक
http://www.vicharmimansa.com/blog/2010/08/13/जाति-जनगणना-विवाद-भारतीय/
2. बुद्धिजीवियों की उपयोगिता?
http://www.merikhabar.com/news_details.php?nid=32816
3. क्‍या इन्‍हें बुद्धिजीवी कहलाने का हक है?
http://www.pravakta.com/?p=12290
4. बुद्धिजीवियों से एक सवाल
http://www.janokti.com/author/drmeena/
5. वोटों की खातिर जाति आधारित जनगणना की मजबूरी
http://www.pressnote.in/nirkunsh_89124.html
6. जनगणना और बुद्धिजीवी
http://www.pressnote.in/nirkunsh_89124.html
7. बुद्धिजीवियों की उपयोगिता?
http://www.bharatkesari.com/cjarticles.aspx?p=Dr.PurushottamMeena
8. सभी बद्धिजीवियों से एक सवाल?
http://presspalika.mywebdunia.com/articles/

Wednesday, July 28, 2010

ब्लॉगरों की तालिबानी संसद!

इस कथित संसद में सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और संविधान में कमजोर वर्गों तथा अल्पसंख्यकों के संरक्षण के लिये निर्धारित पवित्र सिद्धान्तों के विध्वंसक अधिक हैं। एक प्रकार से ये लोग संविधान, राष्ट्र, समाज, धर्मनिरपेक्षता एवं समाज की समरसता के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं। ऐसे तालिबानी एवं मनमानी सोच को बढावा देने वाले लोगों के कारण ही नक्सलवाद जैसी समस्याओं से इस देश को जूझना पड रहा है।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

हम सभी जानते हैं कि आजकल प्रिण्ट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया धनकुबेरों के इशारों पर कथ्थक करता रहता है। मीडिया द्वारा केवल उन्हीं मुद्दों को उठाया जाता है, जिससे उनकी पाठक/दर्शक संख्या में इजाफा हो। मीडिया को सामाजिक सरोकार को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिये, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पा रहा है। अफसरशाही की ही भांति मीडिया में भी मनमानी होने लगी है। मीडिया पर अनेक तरह के आरोप लगने लगे हैं कि कुछ संवाददाता तो लोगों को ब्लैक मेल भी करने लगे हैं। ऐसे में सच्चे लोगों के आलेख एवं सही मुद्दों को मीडिया में आसानी से समुचित स्थान मिलने की आशा करना निरा मूर्खता के सिवा कुछ भी नहीं है।

इन हालातों में सच्चे लेखकों, नौसिखियों, खोजी पत्रकारों और अपनी भडास निकालने वालों को इण्टरनेट (अन्तरजाल) ने ब्लॉग नामक मंच मुफ्त में उपलब्ध करवाकर पर बहुत बडा काम किया है। जहाँ पर आप कुछ भी, कैसे भी लिख सकते हैं। अनेक व्यक्ति तो इस पर जो कुछ लिखते हैं, उससे लगता है कि देशभक्ति का जज्बा अभी समाप्त नहीं हुआ है, जबकि इसके ठीक विपरीत कुछ लोग दूसरों को आहत करने और अपने बीमार मन के विचारों को कहीं भी और कैसे भी उंडेल देने के लिये भी ब्लॉग लिखते हैं। सौभाग्य से ऐसे लोगों की संख्या अभी तक बहुत अधिक नहीं है। ईश्वर से प्रार्थना है कि इनकी संख्या सीमित ही रहे।

सबसे दुःखद पहलु ये है कि ब्लॉग-जगत में ऐसे लोगों की जमान एकत्रित हो रही है, जो तालिबानी सोच को प्रतिनिधित्व करती है। जिन्हें न तो विषयों का ज्ञान है और न हीं जिन्हें ये पता है कि वे कर क्या रहे हैं? कह क्या रहे हैं? लिख क्या रहे हैं? केवल सफेदपोश अपराधियों एवं कट्टर राजनैतिक दलों या साम्प्रदायिक संगठनों के प्रभाव में आकर ऊलजुलूल बातें लिखकर स्वयं को बडा लेखक मानने लगे हैं। इनमें अनेक को हिन्दी भाषा में अभिव्यक्ति करने की महारत तो हासिल है, लेकिन जो कुछ भी लिखते हैं, उसमें पूर्वाग्रह कूट-कूट कर भरा पडा है। ये दूसरों के विचारों को सम्मान देने के बजाय कुतर्क या संख्याबल के जरिये अपनी बात को सही सिद्ध करने का प्रयास करके गौरवान्वित अनुभव करते हैं और दुःखद आश्चर्य तो ये है कि ऐसे लोगों का कहना है कि वे देशहित में काम कर रहे हैं। ये अपने आपको राष्ट्रवादी कहते हैं।

ऐसे ही लोगों की इण्टरनेट पर एक ब्लॉग संसद संचालित होती है, जिसमें मनमाने तरीके से मुद्दे पेश किये जाते हैं। अपने जैसे लोगों को इसमें आमन्त्रित किया जाता है और मतदान करके अपनी बात को पारित करके खुशियाँ मनाते हैं। यदि गलती से इस संसद में कोई निष्पक्ष व्यक्ति विचार रखने का प्रयास करता है तो सबसे पहले उसकी वैधानिक बातों को कुतर्कों के आधार दबाने के प्रयास किये जाते हैं और यदि सवाल ऐसे उठा दिये जावें, जिससे यह कथित संसद और संचालन की निष्पक्षता ही सवालों के घेरे में आ जाये तो मतदान रोककर ध्वनिमत से निर्णय लेकर अपने अवैधानिक एवं मनमाने विचारों को पारित करके खुशी मनाते हैं।

अन्त में बतलाना चाहूँगा कि इस कथित संसद में सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और संविधान में कमजोर वर्गों तथा अल्पसंख्यकों के संरक्षण के लिये निर्धारित पवित्र सिद्धान्तों के विध्वंसक अधिक हैं। एक प्रकार से ये लोग संविधान, राष्ट्र, समाज, धर्मनिरपेक्षता एवं समाज की समरसता के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं। ऐसे तालिबानी एवं मनमानी सोच को बढावा देने वाले लोगों के कारण ही नक्सलवाद जैसी समस्याओं से इस देश को जूझना पड रहा है।

अतः अब समाज के निष्पक्ष बुद्धिजीवियों को इस प्रकार के लोगों के कुप्रचार का जवाब देना चाहिये और समाज को इनसे सावधान रहने के लिये कार्य करना होगा। सरकार को भी देश व समाज को कमजोर करने वाली ताकतों के विरुद्ध शक्ति से पेश आना चाहिये। अन्यथा एक ऐसा वर्ग पैदा हो रहा है, जो अन्तरजाल पर जहर फैलाने में कामयाब हो गया तो नयी पीढी को भ्रमित होने से रोक पाना आसान नहीं होगा। इसके साथ-साथ सरकार को यह भी चाहिये कि वह संविधान की मर्यादा का पालन करे, जिससे ऐसे लोगों को अवसर ही नहीं मिले।