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Sunday, April 6, 2014

वैवाहिक बलात्कार का कानून बनाने की मांग कितनी जायज!

नोट : यह आलेख "‘वैवाहिक बलात्कार’ का कानून कितना प्रासंगिक?" आलेख का संशोधित संस्करण है!

  इस आलेख को लिखना या पढ़ना क्यों जरूरी है जानने के लिए पहले निम्न बिंदुओं को पढ़ें:
  1. स्त्रियों के एक वर्ग में ऐसी विचारधारा बलवती होती जा रही है, जो विवाह को अप्रिय बन्धन, परिवार को कैदखाना और एक ही पुरुष क साथ जिन्दगी बिताने को स्त्री की आजादी पर जबरिया पाबन्दी करार देने के लिये तरह-तरह के तर्क गढ रही हैं।
  2. जिसमें उनकी ओर से मांग की जाती है कि पति द्वारा अपनी बालिग पत्नी की इच्छा या सहमति के बिना किये गये या किये जाने वाले सेक्स को न मात्र बलात्कार का गम्भीर अपराध घोषित किया जाये, बल्कि ऐसे बलात्कारी पतियों को कठोरतम सजा दिये जाने का का प्रावधान भी भारतीय दण्ड संहिता में किया जाये।
  3. ऐसी स्त्रियों का कहना है कि पुरुषों द्वारा आदिकाल से सुनियोजित रूप से स्त्रियों की आजादी को छीनने और स्त्री को उम्रभर के लिये गुलाम बनाये रखने के लिये विवाह रूपी सामाजिक संस्था को जन्म दिया गया और.....जीवनभर पति द्वारा बलात्कार किया जाता है, जो ..इतना भयंकर, दर्दनाक और वीभत्स हादसा बन जाता है, जिसके चलते पत्नियां जीवनभर घुट-घुट कर नर्कमय जीवन जीने को विवश हो जाती हैं। ....अनेक पत्नियां आत्महत्या तक कर लेती हैं।
  4. ऐसी स्त्रियों का कहना है कि पत्नियों के साथ पतियों द्वारा विवाह की आड़ में किया जाने वाला बलात्कार, किसी गैर मर्द द्वारा किये जाने वाले बलात्कार से भी कई गुना भयंकर, दर्दनाक और असहनीय होता है, क्योंकि किसी गैर-मर्द द्वारा किया जाने वाला बलात्कार तो एक बार ही किया जाता है और उस बलात्कारी को सजा दिलाने के लिये कानून की शरण भी ली जा सकती है, लेकिन पतियों द्वारा तो हर दिन अपनी ही पत्नियों के साथ बलात्कार किया जाता है। जिसके खिलाफ किसी भी प्रकार का कोई वैधानिक उपचार उपलब्ध नहीं है।....ऐसे में निर्दोष पत्नियां जीवनभर अपने पतियों की गुलामों की भांति जीवन जीने को विवश हो जाती हैं।
  5. क्या परिवार और सामाजिक मूल्यों के बचाने या संरक्षित रखने के नाम पर ऐसी बलात्कारित पत्नियों के साथ यह घोर अन्याय नहीं किया जा रहा है? और ऐसे पारिवारिक या सामाजिक मूल्यों को जिन्दा रखने से क्या लाभ हो रहा है, जो किसी पुरुष की पत्नी बनने के बाद एक स्त्री के दैहिक अधिकारों को इंसान के रूप में ही मान्यता नहीं देते हैं?
  6. पत्नियों की इस मांग पर हम में से हर एक नागरिक को बिना पूर्वाग्रह के गम्भीरता पूर्वक विचार करना होगा और इस बात को जानना होगा कि जो सदियों से पति-पत्नी एक दूसरे पर जान छिड़कते रहे हैं। एक दूसरे को रक्त सम्बन्धियों से भी अधिक महत्व और सम्मान देते रहे हैं, उस रिश्ते के बारे में कुछ पत्नियों की ओर से इस प्रकार के तर्क पेश करने की वजह क्या है? हमें देखना होगा कि पत्नियों की ओर से जो तर्क पेश किये जा रहे हैं, वे कितने व्यावहारिक हैं और कितने फीसदी मामलों में इस प्रकार के हालात हैं, जहां एक पत्नी वास्तव में अपने पति के साथ, इच्छा न होते हुए भी शारीरिक सम्बन्ध बनाने को बलात्कार से भी घृणित मानती है?...इसके पीछे के कारणों पर बिना पूर्वाग्रह के विचार करने और उनका विश्‍लेषण करने की जरूरत है। जिससे हमें सही और दूरगामी प्रभाव वाले निर्णय लेने में सुगमता रहे।

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’


पिछले वर्ष देश की राजधानी में हुई सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद, और नयी दिल्ली में सड़कों पर जनता के आक्रोश को दृष्टिगत रखते हुए बलात्कार कानून में बदलाव करने के लिये भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जज जे. एस. वर्मा के नेतृत्व में एक कमेटी बनायी, जिसने सिफारिश की, कि वैवाहिक बलात्कार को भी भारतीय दण्ड संहिता में यौन-अपराध (जिसे बलात्कार की श्रेणी में माना जाये) के रूप में शामिल किया जाना चाहिये और ऐसे अपराधी पतियों को कठोर सजा देने का प्रावधान भारतीय दण्ड संहता में किया जाये।

हम सभी जानते हैं कि कानून बनाने का कार्य विधायिका का है, फिर भी किसी भी मसले पर आयोग और समितियां सरकार को किसी भी विषय पर निर्णय लेने या नहीं लेने में सहायक हो सकने के अलावा और कुछ नहीं कर सकती। इस समिति की सिफारिशों पर भी सरकार और संसद ने विचार किया और उपरोक्त सिफारिश के अलावा करीब-करीब शेष सभी सिफारिशों को स्वीकार करके जल्दबाजी में बलात्कार के खिलाफ एक कड़ा कानून बना दिया। जिसके दुष्परिणाम अर्थात् साइड इफेक्ट्स भी सामने आने लगे हैं। यद्यपि साइड इफेक्ट्स के चलते इस कानून को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि इस देश में और शेष दुनिया में भी कमोबेश हर कानून और हर प्रावधान या परिस्थिति का मनमाफिक उपयोग या दुरुपयोग करने की आदिकाल से परम्परा रही है। जिसके हाथ में ताकत या अवसर है, उसने हमेशा से उसका अपने हितानुसार उपभोग, उपयोग और दुरुपयोग किया है। अब यदि स्त्रियॉं ऐसा कर रही हैं तो कौनसा पहाड़ टूट पड़ा है।


बात यहीं तक होती तो भी कोई बात नहीं थी, लेकिन इस कानून के पारित हो जाने के बाद से लगातार स्त्रियों के एक वर्ग में ऐसी विचारधारा बलवती होती जा रही है, जो विवाह को अप्रिय बन्धन, परिवार को कैदखाना और एक ही पुरुष क साथ जिन्दगी बिताने को स्त्री की आजादी पर जबरिया पाबन्दी करार देने के लिये तरह-तरह के तर्क गढ रही हैं। इस विचारधारा की वाहक स्त्रियों की ओर से अब पूर्व चीफ जज जे. एस. वर्मा की संसद द्वारा अस्वीकार कर दी गयी उस अनुशंसा को लागू करवाने के लिये हर उपलब्ध अवसर और मंचों पर गर्मागरम चर्चा और बहस की जा रही हैं। जिसमें उनकी ओर से मांग की जाती है कि पति द्वारा अपनी बालिग पत्नी की इच्छा या सहमति के बिना किये गये या किये जाने वाले सेक्स को न मात्र बलात्कार का गम्भीर अपराध घोषित किया जाये, बल्कि ऐसे बलात्कारी पतियों को कठोरतम सजा दिये जाने का का प्रावधान भी भारतीय दण्ड संहिता में किया जाये।

ऐसी मांग करने वाली स्त्रियों का कहना है कि पुरुषों द्वारा आदिकाल से सुनियोजित रूप से स्त्रियों की आजादी को छीनने और स्त्री को उम्रभर के लिये गुलाम बनाये रखने के लिये विवाह रूपी सामाजिक संस्था को जन्म दिया गया और विवाह के बन्धन में बंधी स्त्री के साथ हर रोज, बल्कि जीवनभर पति द्वारा बलात्कार किया जाता है, जो पत्नियों के लिये इतना भयंकर, दर्दनाक और वीभत्स हादसा बन जाता है, जिसके चलते पत्नियां जीवनभर घुट-घुट कर नर्कमय जीवन जीने को विवश हो जाती हैं। उनका मानना है कि इसी के चलते अनेक पत्नियां आत्महत्या तक कर लेती हैं।


ऐसी विचारधारा की पोषक स्त्रियों का कहना है कि पत्नियों के साथ पतियों द्वारा विवाह की आड़ में किया जाने वाला बलात्कार, किसी गैर मर्द द्वारा किये जाने वाले बलात्कार से भी कई गुना भयंकर, दर्दनाक और असहनीय होता है, क्योंकि किसी गैर-मर्द द्वारा किया जाने वाला बलात्कार तो एक बार ही किया जाता है और उस बलात्कारी को सजा दिलाने के लिये कानून की शरण भी ली जा सकती है, लेकिन पतियों द्वारा तो हर दिन अपनी ही पत्नियों के साथ बलात्कार किया जाता है। जिसके खिलाफ किसी भी प्रकार का कोई वैधानिक उपचार उपलब्ध नहीं है। ऐसी महिलाओं का कहना है कि केवल यही नहीं ऐसे बलात्कारी पति, विवाह का लाईसेंस मिलने के बाद अपनी पत्नियों को शारीरिक रूप से भी उत्पीड़ित करते रहते हैं। ऐसे में निर्दोष पत्नियां जीवनभर अपने पतियों की गुलामों की भांति जीवन जीने को विवश हो जाती हैं।

इन हालातों में स्त्रियों के अधिकारों तथा स्त्री सशक्तिकरण की बात करने वाली स्त्रियों का तर्क है कि ऐसे बलात्कारी पतियों पर केवल इस कारण से रहम करना कि यदि पतियों को बलात्कार का दोषी ठहराया जाने वाला कानून बना दिया गया तो इससे परिवार नामक सामाजिक संस्था के अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो जायेगा और हमारे परम्परागत सामाजिक मूल्य नष्ट हो जायेंगे, यह कहां का न्याय है? क्या परिवार और सामाजिक मूल्यों के बचाने या संरक्षित रखने के नाम पर ऐसी बलात्कारित पत्नियों के साथ यह घोर अन्याय नहीं किया जा रहा है? और ऐसे पारिवारिक या सामाजिक मूल्यों को जिन्दा रखने से क्या लाभ हो रहा है, जो किसी पुरुष की पत्नी बनने के बाद एक स्त्री के दैहिक अधिकारों को इंसान के रूप में ही मान्यता नहीं देते हैं?


ऐसी शारीरिक यंत्रणा झेल रही स्त्रियों का कहना है कि एक पत्नी भी इंसान होती है और वह अपने पति के साथ सेक्स करना चाहती है या नहीं, इस बात का निर्णय करने का उसको अधिकार है। क्योंकि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 हर एक इंसान को अपने जीवन को अपनी इच्छानुसार जीने की इजाजत देता है। जिसमें दैहिक स्वतन्त्रता की आजादी दी गयी है। जबकि वर्तमान पारिवारिक संस्था में पत्नी बनते ही उसकी दैह पर पति का स्थायी और अबाध अधिकार है। जिसके चलते एक पत्नी की सहमति, इच्छा और अनुमति के बिना उसके पति द्वारा उसके साथ जीवनभर बलात्कार किया जाता है। जबकि ऐसा किया जाना न मात्र संविधान के उक्त प्रावधान का उल्लंघन है, बल्कि ऐसा किया जाना अमानवीय और हिंसक भी है। पिछले काफी समय से स्त्रियों के ऐसे विचारों पर, तर्क-वितर्क चलते रहते हैं।

मेरा मानना है कि किसी को भी ऐसी पत्नियों के विचारों से सहमत या असहमत होने का उतना ही अधिकार है, जितना कि इन पत्नियों को अपनी बात कहने का हक है। लेकिन पत्नियों के तर्कों के समर्थन या विरोध में केवल हॉं या ना कह देने मात्र से इस समस्या का समाधान या निराकरण नहीं होगा। सरकार द्वारा इस मांग को नहीं माने जाने के बाद भी पत्नियों की ओर से लगातार यह मांग उठायी जाती रही है, बेशक ऐसी पत्नियों की संख्या बहुत ही कम हो। इसलिये पत्नियों की इस मांग पर हम में से हर एक नागरिक को बिना पूर्वाग्रह के गम्भीरता पूर्वक विचार करना होगा और इस बात को जानना होगा कि जो सदियों से पति-पत्नी एक दूसरे पर जान छिड़कते रहे हैं। एक दूसरे को रक्त सम्बन्धियों से भी अधिक महत्व और सम्मान देते रहे हैं, उस रिश्ते के बारे में कुछ पत्नियों की ओर से इस प्रकार के तर्क पेश करने की वजह क्या है? हमें देखना होगा कि पत्नियों की ओर से जो तर्क पेश किये जा रहे हैं, वे कितने व्यावहारिक हैं और कितने फीसदी मामलों में इस प्रकार के हालात हैं, जहां एक पत्नी वास्तव में अपने पति के साथ, इच्छा न होते हुए भी शारीरिक सम्बन्ध बनाने को बलात्कार से भी घृणित मानती है? मेरा स्पष्ट मानना है कि इसके पीछे के कारणों पर बिना पूर्वाग्रह के विचार करने और उनका विश्‍लेषण करने की जरूरत है। जिससे हमें सही और दूरगामी प्रभाव वाले निर्णय लेने में सुगमता रहे।

उपरोक्त के साथ-साथ पत्नियों के तर्क-वितर्कों को जब तक स्वीकार नहीं कर लिया जाता है या समुचित तरीके से निरस्त नहीं कर दिया जाता है, तब तक हम सभी पुरुषों को इस मुद्दे पर न मात्र बिना पूर्वाग्रह के गम्भीरता से विचार करते रहना चाहिये, बल्कि इस बारे में समाज में एक स्वस्थ चर्चा को भी प्रेरित करना होगा। क्योंकि यदि आज कुछेक या बहुत कम संख्या में पत्नियाँ इस प्रकार से सोचने लगी हैं, तो कल को इनकी संख्या में बढोतरी होना लाजिमी है। जिसे अधिक समय तक बिना विमर्श के दबाया या अनदेखा नहीं किया जा सकेगा। मगर इस विमर्श के साथ कुछ और भी प्रासंगिक सवाल हैं, जिन पर भी विमर्श और चिन्तन किया जाना समीचीन होगा। जैसे-

1-आज पत्नियों की सुरक्षा के लिये जो कानून बनाया गया है, उसमें पत्नियों के साथ घरेलु हिंसा कानूनन अपराध है। इसके बावजूद भी-
(1) घरेलु हिंसा की शिकार कितनी पत्नियां अपने पतियों के खिलाफ मुकदमे दर्ज करवा पाती हैं?
(2) कितनी पत्नियां घरेलु हिंसा के प्रकरणों को पुलिस या कोर्ट में ले जाने के तत्काल बाद वापस लेने को विवश हो जाती हैं?
(3) घरेलु हिंसा की शिकार होने पर मुकदमा दर्ज कराने वाली पत्नियों में से कितनी वास्तव में घरेलु हिंसा को कानून के समक्ष कोर्ट में साबित करके अपने पतियों को सजा दिलवा पाती हैं?
(4) घरेलु हिंसा प्रकरणों को पुलिस और कोर्ट में ले जाने के बाद कितनी फीसदी पत्नियाँ कोर्ट के निर्णय के बाद अपने परिवार, विवाह और दाम्पत्य जीवन को बचा पाती हैं और, या कितनी पत्नियॉं विवाह या दाम्पत्य को बचा पाने की स्थिति में होती हैं? 
2-वर्तमान में एक पत्नी के रहते दूसरा विवाह करना कानूनी तौर पर अपराध है, मगर विवाहित होते हुए दूसरा विवाह रचाने वाले पतियों पर मुकदमा तब ही दर्ज हो सकता है या तब ही चल सकता है, जबकि ऐसे पति की पहली वैध पत्नी खुद ही मुकदमा दायर करे! पत्नियों के हाथ में इस अधिकर के होते हुए कितनी ऐसी पत्नियां हैं जो-
(1) दूसरा विवाह रचा लेने पर अपने पतियों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज करवा पाती हैं? क्या बॉलीवुड अभिनेता धर्मेन्द्र द्वारा हेमा मालिनी से कानून के विरुद्ध दूसरा विवाह रचाने के बाद उनकी पहली पत्नी ने धर्मेन्द के खिलाफ मुकदमा दायर किया? नहीं। इसी कारण धर्मेन्द्र आज दूसरा विवाह रचाने का अपराधी होते हुए भी संसद तक की शोभा बढा चुका है!संसद और  समाज में ऐसे और भी अनेकानेक उदाहरण मौजूद हैं।
(2) यदि पत्नियां अपने पतियों के विरुद्ध दूसरा विवाह रचाने का मुकदमा दर्ज नहीं करवा पाती हैं तो इसके पीछे कोई तो कारण रहे होंगे? इसके साथ-साथ स्त्री आजादी और स्त्री मुक्ति का अभियान चलाने वाली स्त्रियों की ओर से इस कानून में संशोधन करवाने के लिये अभी तक कोई सक्रिय आन्दोलन क्यों नहीं चलाया गया? जिससे कि कानून में बदलाव लाया जा सके। जिससे पूर्व से विवाहित होते हुए, कानून को ठेंगा बताकर दूसरा विवाह रचाने वाले पुरुष या स्त्रियों के विरुद्ध देश का कोई भी व्यक्ति मुकदमा दायर करने को या पुलिस स्वयं या न्यायालय स्वयं ही संज्ञान लेने को सक्षम हो सकें!
3. जारकर्म के अपराध के लिये केवल पुरुष को ही दोषी माना जाता है, बेशक कोई विवाहिता स्त्री अपनी इच्छा से और खुद किसी पुरुष को उकसाकर उस पुरुष से यौन-सम्बन्ध स्थापित करे, फिर भी ऐसी पत्नी के पति को कानून में ये अधिकार मिला हुआ है कि वह अपनी पत्नी की सहमति होते हुए, उसके साथ यौन-सम्बन्ध स्थापित करने वाले पुरुष के खिलाफ कानूनी कार्यवाही कर उसे सजा दिला सकता है। ऐसे मामले में स्वेच्छा यौन-सम्बन्ध बनाने वाली ऐसी विवाहिता स्त्री के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती है! आखिर क्यों?

4. ऐसे अनेक मामले हैं, जहां पर स्त्रियां भी कम उम्र के लड़कों को या सहकर्मी पुरुषों को शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिये उत्प्रेरित करती या उकसाती देखी जा सकती हैं, लेकिन उनके खिलाफ इस कृत्य के लिये बलात्कार करने का मामला दर्ज नहीं हो सकता! आखिर क्यों?

5. महिला के साथ बलात्कार की घटना घटित होने पर, महिला अपनी इज्जत लूटने का आरोप लगाते हुए पुरुष के खिलाफ मुकदमा दायर करती है, लेकिन जब लगाया गया बलात्कार का आरोप साबित नहीं हो पाता है तो पुरुष की इज्जत लुटने का मामला ऐसी स्त्री के विरुद्ध दायर करने का कोई कानून नहीं है! इसका मतलब क्या ये माना जाये कि इज्जत सिर्फ स्त्रियों के पास होती है, जिसे लूटा या नष्ट किया जा सकता है? पुरुषों की कोई इज्जत होती ही नहीं है? इसलिये उनकी इज्जत को लूटना अपराध नहीं है!

6. यदि मान लिया जाये कि स्त्रियॉं ये कानून बनवाने में सफल हो जाती हैं कि विवाहिता स्त्री की रजामन्दी के बिना उसके साथ, उसके पति द्वारा बनाया गया प्रत्येक सेक्स सम्बन्ध बलात्कार होगा, तो ऐसे में सबसे बड़ा कानूनी सवाल तो यही होगा कि इस अपराध को साबित कैसे किया जायेगा? क्या पत्नी के कहने मात्र से इसे अपराध और पति को अपराधी मान लिया जायेगा? क्योंकि पति-पत्नी के शयनकक्ष में किसी प्रत्यक्षदर्शी साक्षी के उपलब्ध होने की तो कानून में अपेक्षा नहीं की जा सकती? और यदि केवल पत्नी के कथन को ही अन्तिम सत्य मान लिया जायेगा तो भविष्य में क्या कोई पुरुष खुशीखुशी किसी स्त्री से विवाह रचाने की हिम्मत जुटा पायेगा?

7. आजकल तलाक के ऐसे अनेक मामले कोर्ट के सामने आ रहे हैं, जिनमें पत्नि की ओर से आरोप लगाया जाता है कि उसका पति अपनी पत्नी के साथ, पत्नी की इच्छा होने पर सेक्स सम्बन्ध नहीं बनाता है या सेक्स में पत्नी को सन्तुष्ट नहीं कर पाता है तो ऐसी पत्नियां इसे वैवाहिक सम्बन्धों में पति द्वारा अपनी पत्नी के साथ किया गया क्रूरतापूर्ण व्यवहार का दर्जा देती हैं और इसी के आधार पर तलाक की मांग कर रही हैं। जिसे देश के अनेक उच्च न्यायालयों द्वारा स्वीकार करके पति द्वारा की गयी क्रूरता के रूप में मान्यता भी दी जा चुकी है! वैवाहिक बलात्कार कानून बनवाने की मांग करने वाली स्त्रियां इस स्थिति को किस प्रकार से परिभाषित करना चाहेंगी?

उपरोक्त विचारों के अलावा और भी बहुत सारी ऐसी बातें हैं, जिन पर वैवाहिक बलात्कार का कानून बनवाने की मांग पर विचार करने से पहले सभी को जानने और समझने की जरूरत है। अत: इस आलेख को विराम देने से पूर्व निम्न कुछ सुप्रसिद्ध विभूतियों के कथनों और विचारों को अवश्य प्रस्तुत करना चाहूंगा :-
  1. प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक वाटसन का कहना था कि ‘‘पश्‍चिम में दस में नौ तलाक यौन सम्बन्धों में गड़बड़ी के कारण होते हैं, जिसमें स्त्रियों का सेक्स में रुचि नहीं लेना भी बड़ा कारण होता है।’’
  2. एक अन्य स्थान पर वाटसन कहते हैं कि ‘‘स्त्रियॉं विवाह के कुछ समय बाद सेक्स में रुचि लेना बन्द कर देती हैं और अपने पति के आग्रह पर सेक्स को घरेलु कार्यों की भांति फटाफट निपटाने को उतावली रहती हैं।’’
  3. सेक्स मामलों की ख्याति प्राप्त विशेषज्ञ और लेखिका डॉ. मेरी स्टोप्स लिखती हैं कि ‘‘स्त्री और पुरुष की कामवासना का वेग एक समान हो ही नहीं सकता।क्योंकि पुरुष कितना ही प्रयास क्यों न कर ले, अपनी पत्नी या प्रेमिका के समीप होने पर वह अपनी वासना पर नियन्त्रण नहीं रख सकता। वह क्षण मात्र में सेक्स करने को आतुर होकर रतिक्रिया करने लगता है, जबकि स्त्रियों को समय लगता है, लेकिन स्त्रियों को इसे पुरुषों की, स्त्रियों के प्रति अनदेखी नहीं समझकर, इसे पुरुष का प्रकृतिदत्त स्वभाव मानकर सामंजस्य बिठाना सीखना होगा, तब ही दाम्पत्य जीवन सफलता पूर्वक चल सकता है।’’
  4. डॉ. मेरी स्टोप्स आगे लिखती हैं कि ‘‘आमतौर पर अधिकतर स्त्रियॉं सेक्स के दौरान ज्यादातर बार अतृप्त ही रह जाती हैं, सदा से रहती रही हैं। जिसके लिये वे पुरुषों को जिम्मेदार मानती हैं और कुछेक तो अगली बार पुरुष को सेक्स नहीं करने देने की धमकी भी देती हैं। जबकि स्त्रियों को ऐसा करने से पूर्व स्त्री एवं पुरुष की कामवासना के आवेग के ज्वार-भाटे को समझना चाहिये।’’
  5. सुप्रसिद्ध लेखिका महादेवी वर्मा  का कथन है कि ‘‘काव्य और प्रेमी दोनों नारी हृदय की सम्पत्ति हैं। पुरुष नारी पर विजय का भूखा होता है, जबकि नारी पुरुष के समक्ष समर्पण की। पुरुष लूटना चाहता है, जबकि नारी लुट जाना चाहती है।’’
  6. द मैस्तेरी का कहना है कि ‘‘नारी की सबसे बड़ी त्रुटी है, पुरुष के अनुरूप बनने की लालसा।’’
  7. शेक्सपियर-‘‘कुमारियां पति के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहती और जब उन्हें पति मिल जाता है तो सब कुछ चाहने लगती हैं। यही प्रवृत्ति उनके जीवन की सबसे भयंकर त्रासदी सिद्ध होती है।’’
  8. बुलबर-‘‘विवाह एक ऐसी प्रणय कथा है, जिसमें नायक प्रथम अंक में ही मर जाता है। लेकिन उसे अपनी पत्नी की खुशी के लिये ताउम्र जिन्दा रहने का नाटक करते रहना पड़ता है।"
  9. अरबी लोकोक्ति-‘‘सफल विवाह के लिये एक स्त्री के लिये यह श्रेयस्कर है कि वह उस पुरुष से विवाह करे, जो उसे प्रेम करता हो, बजाय इसके कि वह उस पुरुष से विवाह करे, जिसे वह खुद प्रेम करती हो।’’
उपरोक्त पंक्तियों, उक्तियों और विचारों पर तो पाठक अपने-अपने विचारानुसार चिन्तन करेंगे ही, लेकिन अन्त में, मैं दाम्पत्य सलाहकार के रूप में अर्जित अपने अनुभव के आधार पर लिखना चाहता हूँ कि-
यदि स्त्रियॉं विवाह के बाद अपने पतियों के प्रति भी वैसा ही शालीन व्यवहार करें, जैसा कि वे अपरचित पुरुषों के प्रति करती हैं तो सौ में से निन्यानवें युगलों का दाम्पत्य जीवन सुगन्धित फूलों की बगिया की तरह महकने लगेगा। साथ ही स्त्रियों को हमेशा याद रखना चाहिये कि पुरुष प्रधान सामाजिक ढांचे में कोई भी पुरुष चिड़चिड़ी तथा कर्कशा पत्नी के समीप आने के बजाय उससे दूर भागने में ही भलाई समझता है। जिसके परिणाम कभी भी सुखद नहीं हो सकते।
-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’ मोबाइल : 09875066111

Thursday, April 3, 2014

‘वैवाहिक बलात्कार’ का कानून कितना प्रासंगिक?

स्त्रियों का कहना है कि पत्नियों के साथ पतियों द्वारा किया जाने वाला बलात्कार, किसी गैर मर्द द्वारा किये जाने वाले बलात्कार से भी कई गुना भयंकर दर्दनाक और असहनीय होता है, क्योंकि किसी गैर-मर्द द्वारा किया जाने वाला बलात्कार तो एक बार किया जाता है और उसके विरुद्ध कानून की शरण भी ली जा सकती है, लेकिन पतियों द्वारा तो हर दिन पत्नियों के साथ बलात्कार किया जाता है, जिसके खिलाफ किसी प्रकार का कोई वैधानिक उपचार भी उपलब्ध नहीं है। यही नहीं ऐसे बलात्कारी पति, अपनी पत्नियों को शारीरिक रूप से भी उत्पीड़ित भी करते रहते हैं। ऐसे में पत्नियां जीवनभर अपने पतियों की गुलामों की भांति जीवन जीने को विवश हो जाती हैं।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

देश की राजधानी में हुई सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद बलात्कार कानून में बदलाव के लिये सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जे. एस. वर्मा के नेतृत्व में एक कमेटी बनायी गयी, जिसने सिफारिश की, कि वैवाहिक बलात्कार को भारतीय दण्ड संहिता में यौन-अपराध (जिसे बलात्कार की श्रेणी में माना जाये) के रूप में शामिल किया जाए और ऐसे अपराधी पतियों को कड़ी सजा देने का प्रावधान भी किया जाये।


हम सभी जानते हैं कि आयोग और समितियां सरकार को निर्णय लेने में सहायक हो सकने के अलावा और कुछ नहीं कर सकती। इस समिति की सिफारिशों पर भी सरकार और संसद ने विचार किया और उपरोक्त सिफारिश के अलावा करीब-करीब शेष सभी सिफारिशों को स्वीकार करके जल्दबाजी में बलात्कार के खिलाफ एक कड़ा कानून बना दिया। जिसके दुष्परिणाम अर्थात् साइड इफेक्ट भी सामने आने लगे हैं। यद्यपि साइड इफेक्ट के चलते इस कानून को पूरी तरह से नकारा भी नहीं जा सकता, क्योंकि इस देश में और शेष दुनिया में भी कमोबेश हर कानून और हर प्रावधान या परिस्थिति का मनमाफिक उपयोग या दुरुपयोग करने की आदिकाल से परम्परा रही है। जिसके हाथ में ताकत या अवसर है, उसने हमेशा से उसका अपने हितानुसार उपभोग, उपयोग और दुरुपयोग किया है। अब यदि स्त्रियॉं ऐसा कर रही हैं तो कौनसा पहाड़ टूट पड़ा है। 

बात यहीं तक होती तो भी कोई बात नहीं थी, लेकिन इन दिनों स्त्रियों में एक ऐसी विचारधारा बलवती होती जा रही है, जो विवाह को अप्रिय बन्धन, परिवार को कैदखाना और एक ही पुरुष क साथ जिन्दगी बिताने को स्त्री की आजादी पर जबरिया पाबन्दी करार देने के लिये तरह-तरह के तर्क गढ रही हैं। ऐसी विचारधारा की वाहक स्त्रियों की ओर से अब पूर्व न्यायाधीश जे. एस. वर्मा की संसद द्वारा अस्वीकार कर दी गयी उस अनुशंसा को लागू करवाने के लिये हर अवसर पर चर्चा और बहस की जा रही हैं। जिसमें उनकी ओर से मांग की जाती है कि पति द्वारा अपनी बालिग पत्नी की इच्छा या सहमति के बिना किये गये या किये जाने वाले सेक्स को न मात्र बलात्कार का अपराध घोषित किया जाये, बल्कि ऐसे बलात्कारी पति को कठोरतम सजा का प्रावधान भी भारतीय दण्ड संहिता में किया जाये।

ऐसी मांग करने वाली स्त्रियों की मांग है कि पुरुष द्वारा सुनियोजित रूप से स्त्रियों की आजादी को छीनने और स्त्री को उम्रभर के लिये गुलाम बनाये रखने के लिये विवाह रूपी सामाजिक संस्था के बन्धन में बंधी स्त्री के साथ हर रोज, बल्कि जीवनभर पति द्वारा बलात्कार किया जाता है, जो पत्नियों के लिये इतना भयंकर, दर्दनाक और वीभत्स हादसा बन जाता है, जिसके चलते पत्नियां जीवनभर घुट-घुट कर नर्कमय जीवन जीने को विवश हो जाती हैं। उनका मानना है कि अनेक पत्नियां आत्महत्या तक कर लेती हैं। ऐसी विचारधारा की पोषक स्त्रियों का कहना है कि पत्नियों के साथ पतियों द्वारा किया जाने वाला बलात्कार, किसी गैर मर्द द्वारा किये जाने वाले बलात्कार से भी कई गुना भयंकर दर्दनाक और असहनीय होता है, क्योंकि किसी गैर-मर्द द्वारा किया जाने वाला बलात्कार तो एक बार किया जाता है और उसके विरुद्ध कानून की शरण भी ली जा सकती है, लेकिन पतियों द्वारा तो हर दिन पत्नियों के साथ बलात्कार किया जाता है, जिसके खिलाफ किसी प्रकार का कोई वैधानिक उपचार भी उपलब्ध नहीं है। यही नहीं ऐसे बलात्कारी पति, अपनी पत्नियों को शारीरिक रूप से भी उत्पीड़ित भी करते रहते हैं। ऐसे में पत्नियां जीवनभर अपने पतियों की गुलामों की भांति जीवन जीने को विवश हो जाती हैं।


अत: स्त्रियों के अधिकारों तथा स्त्री सशक्तिकरण की बात करने वाली स्त्रियों का तर्क है कि ऐसे बलात्कारी पतियों पर केवल इस कारण से रहम करना कि यदि पतियों को बलात्कार का दोषी ठहराया जाने वाला कानून बना दिया गया तो इससे परिवार नामक सामाजिक संस्था के अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो जायेगा और हमारे परम्परागत सामाजिक मूल्य नष्ट हो जायेंगे, कहां का न्याय है? क्या परिवार और सामाजिक मूल्यों के बचाने के नाम पर ऐसी बलात्कारित पत्नियों के साथ यह घोर अन्याय नहीं किया जा रहा है? और ऐसे पारिवारिक या सामाजिक मूल्यों को जिन्दा रखने से क्या लाभ जो स्त्री को किसी की पत्नी बनने के बाद इंसान के रूप में ही मान्यता नहीं देते हैं?


ऐसी स्त्रियों का कहना है कि एक पत्नी भी इंसान होती है और वह अपने पति के साथ भी कब सेक्स करना चाहती है या सेक्स नहीं करना चाहती, यह निर्णय करना उसका खुद का ही अधिकार है। क्योंकि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 उसे अपनी देह को अपनी इच्छानुसार जीने की इजाजत देता है। जबकि वर्तमान पारिवारिक संस्था में स्त्री की देह पर पुरुष का स्थायी और अबाध अधिकार है। जिसके चलते एक पत्नी की सहमति, इच्छा और अनुमति के बिना उसके पति द्वारा उसके साथ जीवनभर सेक्स किया जाता है। जबकि ऐसा किया जाना न मात्र संविधान के उक्त प्रावधान का उल्लंघन है, बल्कि ऐसा किया जाना अमानवीय और हिंसक भी है।

ऐसे विचारों पर तर्क-वितर्क चलते रहते हैं। किसी को भी ऐसी स्त्रियों के विचारों से सहमत या असहमत होने का पूर्ण अधिकार है। केवल इस बारे में हॉं या ना कह देने मात्र से समस्या का समाधान या निराकरण नहीं होने वाला। हमें बिना पूर्वाग्रह के इस बारे में विचार करना होगा और जानना होगा कि पति-पत्नी जो एक दूसरे पर जान छिड़कते रहे हैं। एक दूसरे को रक्त सम्बन्धियों से भी अधिक महत्व और सम्मान देते रहे हैं, उस रिश्ते के बारे में कुछ स्त्रियों की ओर से इस प्रकार के तर्क पेश करने की वजह क्या है? जो तर्क पेश किये जा रहे हैं, वे कितने व्यावहारिक हैं और कितने फीसदी मामलों में इस प्रकार के हालात हैं, जहां एक स्त्री अपनी पति के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने को बलात्कार से भी घृणित मानने को विवश है? मेरा मानना है कि इसके पीछे के कारणों पर बिना पूर्वाग्रह के विचार करने और उनका विश्‍लेषण करने की जरूरत है। जिससे हमें सही और दूरगामी प्रभाव वाले निर्णय लेने में सुगमता रहे।

उपरोक्त के साथ-साथ स्त्रियों के तर्क-वितर्कों को निरस्त करने से पूर्व हम पुरुषों को इस मुद्दे पर न मात्र बिना पूर्वाग्रह के गम्भीरता से विचार करना चाहिये, बल्कि इस बारे में एक स्वस्थ चर्चा को भी प्रेरित करना होगा। क्योंकि यदि आज कुछेक या बहुत कम संख्या में स्त्रियां इस प्रकार से सोचने लगी हैं, तो कल को इनकी संख्या में बढोतरी होना लाजिमी है। जिसे अधिक समय तक बिना विमर्श के दबाया या अनदेखा नहीं किया जा सकेगा। मगर इस विमर्श के साथ कुछ और भी प्रासंगिक सवाल हैं, जिन पर भी विमर्श और चिन्तन किया जाना समीचीन होगा। जैसे-

1-आज घरेलु हिंसा कानूनन अपराध है। इसके बावजूद भी-
(1) घरेलु हिंसा की शिकार कितनी पत्नियां अपने पतियों के खिलाफ मुकदमे दर्ज कराती हैं?
(2) कितनी पत्नियां घरेलु हिंसा के प्रकरणों को पुलिस या कोर्ट में ले जाने के तत्काल बाद वापस लेने को विवश हो जाती हैं?
(3) घरेलु हिंसा की शिकार होने पर मुकदमा दर्ज कराने वाली स्त्रियों में से कितनी घरेलु हिंसा को कानून के समक्ष कोर्ट में साबित करके पतियों को सजा दिला पाती हैं?
(4) घरेलु हिंसा प्रकरणों को पुलिस और कोर्ट में ले जाने के बाद कितनी फीसदी स्त्रियॉं कोर्ट के निर्णय के बाद अपने परिवार या विवाह को बचा पाती हैं या कितनी स्त्रियां विवाह को बचा पाने की स्थिति में होती हैं? 
2-आज की तारीख में एक पत्नी के रहते दूसरा विवाह करना अपराध है, मगर विवाहित होते हुए दूसरा विवाह रचाने वाले पति पर मुकदमा तब ही दर्ज हो सकता है या चल सकता है, जबकि उसकी पहली वैध पत्नी खुद ही मुकदमा दायर करे! इस प्रावधान के होते हुए कितनी ऐसी पत्नियां हैं जो-
(1) दूसरा विवाह रचा लेने पर अपने पतियों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज करवाती हैं? क्या बॉलीवुड अभिनेता धर्मेन्द्र द्वारा हेमा मालिनी से दूसरा विवाह रचाने के बाद उनकी पहली पत्नी ने धर्मेन्द के खिलाफ मुकदमा दायर किया? नहीं। इसी कारण धर्मेन्द्र आज दूसरा विवाह रचाने का अपराधी होते हुए संसद तक की शोभा बढा चुका है! ऐसे और भी अनेकानेक उदाहरण मौजूद हैं
(2) यदि पत्नियां अपने पति के विरुद्ध दूसरा विवाह रचाने का मुकदमा दर्ज नहीं करवाती हैं तो इसके पीछे कोई तो कारण रहे होंगे? इसके साथ-साथ स्त्री आजादी और स्त्री मुक्ति का अभियान चलाने वाली स्त्रियों की ओर से इस कानून में संशोधन करवाने के लिये कोई सक्रिय आन्दोलन क्यों नहीं चलाया गया? जिससे कि कानून में बदलाव लाया जा सके। जिससे पूर्व से विवाहित होते हुए दूसरा विवाह रचाने वाले पुरुष या स्त्रियों के विरुद्ध देश का कोई भी व्यक्ति मुकदमा दायर करने को सक्षम हो!
3. जारकर्म में केवल पुरुष को ही दोषी माना जाता है, बेशक कोई विवाहिता स्त्री अपने इच्छा से और खुद किसी पुरुष को उकसाकर उस पुरुष से यौन-सम्बन्ध स्थापित करे, फिर भी ऐसी पत्नी के पति को ये अधिकार है कि वह अपनी पत्नी की सहमति होते हुए, उसके साथ यौन-सम्बन्ध स्थापित करने वाले पुरुष के खिलाफ कानूनी कार्यवाही कर सकता है। ऐसे मामले में ऐसी विवाहिता स्त्री के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती है! आखिर क्यों?

4. ऐसे अनेक मामले हैं, जहां पर स्त्रियां भी कम उम्र के लड़कों को या सहकर्मी पुरुषों को शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिये उत्प्रेरित करती या उकसाती देखी जा सकती हैं, लेकिन उनके खिलाफ इस द्भत्य के लिये बलात्कार करने का मामला दर्ज नहीं हो सकता! आखिर क्यों?

5. महिला के साथ बलात्कार की घटना घटित होने पर, महिला अपनी इज्जत लूटने का आरोप लगाते हुए पुरुष के खिलाफ मुकदमा दायर करती है, लेकिन जब लगाया गया आरोप साबित नहीं हो पाता है तो पुरुष की इज्जत लुटने का मामला ऐसी स्त्री के विरुद्ध दायर करने का कोई कानून नहीं है! इसका मतलब क्या ये माना जाये कि इज्जत सिर्फ स्त्रियों के पास होती है, जिसे लूटा या नष्ट किया जा सकता है? पुरुषों की कोई इज्जत होती ही नहीं है? इसलिये उनकी इज्जत को लूटना अपराध नहीं है!

6. यदि मान लिया जाये कि स्त्रियॉं ये कानून बनवाने में सफल हो जाती हैं कि विवाहिता स्त्री की रजामन्दी के बिना उसके साथ, उसके पति द्वारा बनाया गया प्रत्येक सेक्स सम्बन्ध बलात्कार होगा, तो सबसे बड़ा सवाल तो यही होगा कि इस अपराध को साबित कैसे किया जायेगा? क्या पत्नी के कहने मात्र से इसे अपराध मान लिया जायेगा? क्योंकि पति-पत्नी के शयनकक्ष में किसी प्रत्यक्षदर्शी साक्षी के उपलब्ध होने की तो कानून में अपेक्षा नहीं की जा सकती? और यदि केवल पत्नी के कथन को ही अन्तिम सत्य मान लिया जायेगा तो क्या कोई पुरुष किसी स्त्री से विवाह करने की हिम्मत जुटा पायेगा?

7. आजकल ऐसे अनेक मामले कोर्ट के सामने आ रहे हैं, जिनमें आरोप लगाया जाता है कि पति अपनी पत्नी के साथ, पत्नी की इच्छा होने पर सेक्स सम्बन्ध नहीं बनाता है या सेक्स में पत्नी को सन्तुष्ट नहीं कर पाता है तो ऐसी पत्नियां इसे वैवाहिक सम्बन्धों में पति द्वारा अपनी पत्नी के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार का दर्जा देती हैं और इसी के आधार पर तलाक मांग रही हैं। जिसे देश के अनेक उच्च न्यायालयों द्वारा मान्यता भी दी जा चुकी है! वैवाहिक बलात्कार कानून बनवाने की मांग करने वाली स्त्रियां इस स्थिति को किस प्रकार से परिभाषित करना चाहेंगी?

उपरोक्त के अलावा भी बहुत सारी ऐसी बातें हैं, जिन पर वैवाहिक बलात्कार का कानून बनवाने की मांग पर विचार करने से पहले जानने और समझने की जरूरत है। इस आलेख को विराम देने से पूर्व निम्न कुछ प्रसिद्ध उक्तिओं को पाठकों के समक्ष अवश्य प्रस्तुत करना चाहूंगा :-
  1. प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक वाटसन का कहना था कि पश्‍चिम में दस में नौ तलाक मैथुन सम्बन्धी गड़बड़ी के कारण होते हैं, जिसमें स्त्रियों का सेक्स में रुचि नहीं लेना भी बड़ा कारण होता है।
  2. एक अन्य स्थान पर वाटसन कहते हैं कि स्त्रियॉं विवाह के कुछ समय बाद सेक्स में रुचि लेना बन्द कर देती हैं और अपने पति के आग्रह पर सेक्स को घरेलु कार्यों की भांति फटाफट निपटाने को उतावली रहती हैं।
  3. सेक्स मामलों की विशेषज्ञ लेखिका डॉ. मेरी स्टोप्स लिखती हैं कि स्त्री और पुरुष की काम वासना का वेग एक समान हो ही नहीं सकता। पुरुष कितना ही प्रयास क्यों न कर ले, अपनी पत्नी या प्रेमिका के समीप होने पर वह अपनी वासना पर नियन्त्रण नहीं कर सकता। वह क्षण मात्र में सेक्स करने को आतुर होकर रतिक्रिया करने लगता है, जबकि स्त्रियों को समय लगता है, लेकिन स्त्रियों को इसे पुरुषों की, स्त्रियों के प्रति अनदेखी नहीं समझकर, इसे पुरुष का प्रद्भतिदत्त स्वभाव मानकर सामंजस्य बिठाना सीखना होगा, तब ही दाम्पत्य जीवन सफलता पूर्वक चल सकता है।
  4. डॉ. मेरी स्टोप्स आगे लिखती हैं आमतौर पर स्त्रियॉं सेक्स में अतृप्त रह जाती हैं, सदा से रहती रही हैं। जिसके लिये वे पुरुषों को जिम्मेदार मानती हैं और कुछेक तो अगली बार पुरुष को सेक्स नहीं करने देने की धमकी भी देती हैं। जबकि स्त्रियों को ऐसा करने से पूर्व स्त्री एवं पुरुष की कामवासना के आवेग के ज्वार-भाटे को समझना चाहिये।
  5. महादेवी वर्मा का कथन है कि काव्य और प्रेमी दोनों नारी हृदय की सम्पत्ति हैं। पुरुष नारी पर विजय का भूखा होता है, जबकि नारी पुरुष के समक्ष समर्पण की। पुरुष लूटना चाहता है, जबकि नारी लुट जाना चाहती है।
  6. द मैस्तेरी का कहना है कि नारी की सबसे बड़ी त्रुटी है, पुरुष के अनुरूप बनने की लालसा।
  7. शेक्सपियर-कुमारियां पति के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहती और जब उन्हें पति मिल जाता है तो सब कुछ चाहने लगती हैं। यही प्रवृत्ति उनके जीवन की सबसे भयंकर त्रासदी सिद्ध होती है।
  8. बुलबर-विवाह एक ऐसी प्रणय कथा है, जिसमें नायक प्रथम अंक में ही मर जाता है। लेकिन उसे अपनी पत्नी के लिये जिन्दा रहने का नाटक करते रहना पड़ता है। 
  9. अरबी लोकोक्ति-सफल विवाह के लिये एक स्त्री के लिये यह श्रेयस्कर है कि वह उस पुरुष से विवाह करे, जो उसे प्रेम करता हो, बजाय इसके कि वह उस पुरुष से विवाह करे, जिसे वह खुद प्रेम करती हो।
उपरोक्त पंक्तियों पर तो पाठक अपने-अपने विचारानुसार चिन्तन करेंगे ही, लेकिन अन्त में, मैं अपने अनुभव के आधार पर लिखना चाहता हूँ कि-
यदि स्त्रियॉं विवाह के बाद अपने पतियों के प्रति भी वैसा ही शालीन व्यवहार करें, जैसा कि वे अपरचित पुरुषों से करती हैं तो सौ में से निन्यानवें युगलों का दाम्पत्य जीवन सुगन्धित फूलों की बगिया की तरह महकने लगेगा। साथ ही स्त्रियों को हमेशा याद रखना चाहिये कि पुरुष प्रधान सामाजिक ढांचे में कोई भी पुरुष चिड़चिड़ी तथा कर्कशा पत्नी के समीप आने के बजाय उससे दूर भागने में ही भलाई समझता है। जिसके परिणाम कभी भी सुखद नहीं हो सकते। मोबाइल : 09875066111

Thursday, November 12, 2009

भा.द.सं. में पत्नी, पति की सम्पत्ती, लेकिन पति, पत्नी की सम्पत्ती नहीं!

उक्त शीर्षक को पढ़कर आपको निश्चय ही आश्चर्य हो रहा होगा, कि जिस देश के संविधान में लिंग के आधार पर विभेद करने को प्रतिबन्धित किया गया है। देश के सभी लोगों को समानता का अधिकार दिया गया है। शोषण को निषिद्ध किया गया है, वहाँ पर कोई पति, अपनी पत्नी को सम्पत्ति कैसे मान सकता है? लेकिन इतना सब कुछ होते हुए भी यह बात शतप्रतिशत सही है कि भारतीय दण्ड संहिता के एक प्रावधान के तहत बाकायता लिखित में पत्नी को, अपने पति की सम्पत्ति के समान ही माना गया है।

आगे लिखने से पूर्व मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं न तो स्त्री को, पुरुष से कम मानता हँू और न हीं पुरुष को, स्त्री से अधिक या कम मानता हँू, और न हीं दोनों को एक समान ही मानता हँू। क्योंकि प्रकृति ने ही दोनों समान नहीं बनाया है, बल्कि दोनों को अपनी-अपनी जगह पर पूर्ण हैं। दोनों में न कोई निम्नतर है, न कोई उच्चतर है। इसलिये मेरा मानना है कि एक स्त्री को पुरुष बनने का निरर्थक एवं बेहूदा प्रयास करके अपने स्त्रेणत्व को नहीं खोना चाहिये और उसे सम्पूर्ण रूप से केवल एक स्त्री ही बने रहना चाहिये और समान रूप से यही बात पुरुष पर भी लागू होती है। ऐसा मानते हुए, उक्त विधिक प्रावधान का विवेचन प्रस्तुत करना इस लेख को लिखने के पीछे मेरा एक मात्र ध्येय है। कृपया इसे शान्तचित्त होकर और बिना किसी पूर्वाग्रह के पढ़ें और हो सके तो इसे पढ़कर अपनी राय से अवश्य अवगत करावें।
इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि अनेक पुरुषों द्वारा अनेक बार महिला मित्रों को सेक्स के लिये उकसाया जाता है। लेकिन भारतीय सामाजिक एवं पारिवारिक व्यवस्था में दाम्पत्य जीवन को लेकर जितने भी ग्रंथ लिखे गये हैं, कुछेक अपवादों को छोड़कर सबमें पुरुष का ही यह दायित्व निर्धारित किया गया है कि वही अपनी पत्नी या प्रेयसी से प्रणय निवेदन करे। ऐसी संस्कृति तथा सामाजिक परिस्थितियों में में पल-पढकर संस्कारित होने वाले द्वारा पुरुष किसी भी स्त्री के समक्ष प्रणय निवेदन या प्रस्ताव करना स्वभाविक है और पुरुष पर अधिरोपित, पुरुष का एक अलिखित और आध्यकारी कर्त्तव्य है।
लेकिन किसी कारण से आपसी सम्बन्धों में खटास उत्पन्न हो जाने पर या स्त्री के परिवार के दबाव में या सामाजिक तिरस्कार से बचने के लिये स्त्रियों की ओर से अकसर कह दिया जाता है कि वह तो पूरी तरह से निर्दोष है, उसने कुछ नहीं किया। उसे तो (आरोपी) पुरुष द्वारा सेक्स के लिये उकसाया और फुसलाया गया और विवाह करने के वायदे किये गये। इसलिये मैंने अपने आपको, पुरुष के बहकावे में आकर यौन-सम्बन्धों के लिये स्वयं को पुरुष के समक्ष समर्पित कर दिया! और स्त्री बयान में इतने से बदलाव के बाद, कानून द्वारा पुरुष को कारागृह में डाल दिया जाता है। एक विवाहित स्त्री भी बड़ी मासूमियत से उक्त तर्क देकर किसी भी पुरुष को जेल की हवा खिला सकती है। अनेक बार न्याय प्रक्रिया से जुड़े सभी लोग, सभी बातों की सच्चाई से वाकिफ होते हुए भी कुछ नहीं कर पाते हैं। जिसके चलते अनेक पुरुष कारागृहों में सजा भुगतने को विवश हैं।
इन सब बातों को गहराई से जानने के लिये हमें समझना होगा कि आदिकाल से ही स्त्री को पुरुष के बिना अधूरी माना जाता रहा है, जबकि वास्तव में पुरुष भी स्त्री के बिना उतना ही अधूरा है, जितना कि स्त्री पुरुष के बिना। लेकिन, चूंकि पुरुष प्रधान सामाजिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था के चलते, पितृसत्तात्मक समाजों में पुरुष को किसी भी स्थिति में स्त्री से कमजोर नहीं दिखाने के लिये स्त्री के बिना पुरुष को अधूरा नहीं दर्शाया गया है। इस तथ्य के सम्बन्ध में संसार के तकरीबन सभी धर्मग्रंथों में आश्चर्यजनक समानता है। निश्चय ही इसका कारण है, इन धर्मग्रंथों का पुरुष लेखकों द्वारा लिखा जाना और लगातार इन ग्रंथों को पुरुष एवं स्त्री राजसत्ता द्वारा समान रूप से मान्यता प्रदान देते जाना।

कालान्तर में इसका इसका परिणाम यह हुआ कि स्त्री को इस प्रकार से संस्कारित किया गया कि उसने अन्तरमन से अपने आपको पुरुष की छाया मान लिखा, परिणामस्वरूप पुरुष स्त्री का स्वामी बन बैठा। भारतीय दण्ड संहिता में भी इसी धारणा को कानूनी मान्यता प्रदान कर दी गयी है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा ४९७ में जो प्रावधान किये गये हैं, उनका साफ तौर पर यही अभिप्राय है कि एक विवाहिता स्त्री, अपने पुरुष पति की मालकियत है, जिसके साथ अन्य पुरुष (गैर पति) को सम्भोग करने का कोई हक नहीं है। यद्यपि ऐसी विवाहिता स्त्री के विरुद्ध इस प्रकार के आचरण के किसी भी प्रकार की कानूनी या दण्डात्मक कार्यवाही करने का भारतीय दण्ड संहिता में कोई प्रावधान नहीं किया गया है। बेशक विवाहिता स्त्री अपने इच्छित पुरुष मित्र के साथ स्वेच्छा से सम्भोग करती पायी गयी हो या वह स्वैच्छा से ऐसा करना चाहती हो। जबकि इसके विपरीत एक विवाहित पुरुष के लिये यह नियम लागू नहीं होता है। अर्थात्‌ एक विवाहित पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के रहते किसी स्त्री से सम्भोग करना भारतीय दण्ड संहिता में अपराध नहीं माना गया है।
यही नहीं उक्त धारा में लिखा गया यह वाक्य स्त्री को पति की सम्पर्ण रूप से सम्पत्ति बना देता है कि यदि पत्नी अपने पति की सहमति या मौन सहमति से किसी अन्य पुरुष के साथ स्वैच्छा सम्भोग करती है तो यह कृत्य अपराध नहीं है, लेकिन यदि वह अपने पति की सहमति या मौन सहमति के बिना किसी अन्य पुरुष से स्वेच्छा सम्भोग करती है तो ऐसा कृत्य उसके पति के विरुद्ध अपराध माना गया है।जिसके लिये अन्य पुरुष को इस कृत्य के लिये भारतीय दण्ड संहिता की धारा ४९७ के तहत जारकर्म के अपराध के लिये पांच वर्ष तक के कारावास की सजा या जुर्माने या दोनों से दण्डित किया जा सकता है। यद्यपि इसके लिये ऐसी स्त्री के पति को ही मुकदमा दायर करना होगा। अन्य किसी भी व्यक्ति को इस अपराध के लिये मुकदमा दायर करने का अधिकार नहीं दिया गया है। उक्त धारा में या उक्त दण्ड संहिता में कहीं भी यह प्रावधान नहीं किया गया है कि कोई पुरुष अपनी पत्नी की सहमति के बिना किसी अन्य स्त्री से स्वैच्छा सम्भोग करता है तो उसके विरुद्ध भी, उसकी पत्नी को, अन्य स्त्री के विरुद्ध या अपने पति के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करने का पत्नी को हक दिया गया हो!

इस प्रकार के प्रावधान करने के पीछे विधि-निर्माताओं की सोच रही है कि पत्नी पर, पति का सम्पूर्ण अधिकार है, जिसे छीनने वाले किसी अन्य पुरुष के विरुद्ध दण्डात्मक कार्यवाही करने का हक उसके पति को होना ही चाहिये। यद्यपि यही हक एक पत्नी को क्यों नहीं दिया गया, इस विषय पर आश्चर्यजनक रूप से सभी विधिवेत्ता मौन हैं।
एक और भी तथ्य विचारणीय है कि तकरीबन सभी भारतीय विधिवेत्ता ऐसे कृत्य के लिये पत्नी को किसी भी प्रकार की सजा दिये जाने के पक्ष में नहीं हैं। जबकि सबके सब ही पुरुष को जारकर्म के अपराध के लिये दोषी ठहराये जाने एवं दण्डित करने के पक्ष में हैं। हाँ भारत के हिन्दू धार्मिक कानूनों के जनक मनु ने अवश्य विवाहिता महिला को ही जारकर्म के लिये दोषी माना है। पुरुष को इसके लिये किसी प्रकार की सजा देने की व्यवस्था नहीं की है।
उक्त विवेचन से निम्न निष्कर्ष निकलते है कि-
1-एक विवाहिता स्त्री अपने पति की सहमति के बिना किसी अन्य पुरुष ये स्वेच्छा सम्भोग नहीं कर सकती।

2-किसी विवाहिता स्त्री से उसके पति की सहमति के बिना या पति की मौन सहमति के बिना कोई पुरुष यह जानते हुए सम्भोग करता है कि वह स्त्री किसी पुरुष की पत्नी है तो ऐसे सम्भोग करने वाले पुरुष के विरुद्ध, ऐसी विवाहिता स्त्री का पति जारकर्म का मुकदमा दायर कर सकता है।
3-यद्यपि यह माना गया है कि जारकर्म घटित होने में स्त्री भी समान रूप से भागीदार होती है, फिर भी भारतीय दण्ड संहिता के तहत स्त्री को जारकर्म के लिये कोई सजा नहीं दी जा सकती, जबकि पुरुष को जारकर्म के लिये दोषी ठहराया जाकर 5 वर्ष तक की सजा दी जा सकती है।
4-जारकर्म का अपराध तब ही घटित होता है, जबकि कोई पुरुष किसी ऐसी महिला की सहमति से सम्भोग करे, जिसके बारे में वह जानता हो कि वह किसी की पत्नी है।
5-किसी विधवा, तलाक प्राप्त या अविवाहित वयस्क स्त्री की सहमति से किसी विवाहित या अविवाहित पुरुष द्वारा किया गया स्वैच्छा सम्भोग जारकर्म का अपराध नहीं है।

6-विवाहित पुरुष द्वारा अपनी पत्नी की सहमति के बिना, यदि किसी अन्य स्त्री के साथ, ऐसी स्त्री की सहमति से सम्भोग किया जाता है तो ऐसे पुरुष की विवाहिता पत्नी को, अपने पति के विरुद्ध या उसके पति के साथ सम्भोग करने वाली स्त्री के विरुद्ध किसी भी प्रकार की दण्डात्मक कानूनी कार्यवाही करने का भारतीय दण्ड संहिता में कहीं कोई प्रावधान नहीं है।
क्या उक्त विवेचन से यह तथ्य स्वतः प्रमाणित नहीं होता कि एक पत्नी की स्वेच्छा सहमति का कोई महत्व या अर्थ नहीं है। क्योंकि विवाहिता स्त्री, अपने पति की यहमति के बिना किसी को सहमति देने के लिये अधिकृत नहीं है। अर्थात्‌ वह अपने पति के अधीन है, उसका पति ही उसकी इच्छाओं का मालिक या स्वामी है और इन अर्थों में वह अपने पति की ऐसी सम्पत्ति या मालकीयत है, जिसके साथ उसके पति की सहमति के बिना कोई पुरुष सम्भोग नहीं कर सकता, बेशक उसकी पत्नी ऐसा करना चाहती हो। और यदि कोई पति अपनी पत्नी को किसी अन्य पुरुष के साथ सम्भोग करने की सहमति देता है तो पत्नी स्वैच्छा ऐसा करना चाहे तो कर सकती है। जबकि पुरुष को अपनी पत्नी से ऐसी किसी सहमति की जरूरत नहीं है और विवाहिता पत्नी की सहमति के बिना किसी अन्य स्त्री के साथ सम्भोग करने पर भी, पत्नी को किसी भी प्रकार की कानूनी कार्यवाही करने का कोई हक नहीं है। अर्थात्‌ पत्नी के लिये पति की सहमति जरूरी है।
मैं समझता हँू कि अब यह समझाने की जरूरत नहीं होनी चाहिये कि सहमति देने वाला स्वामी या मालिक हुआ और सहमति प्राप्त करने की अपेक्षा करने वाली पत्नी स्वामी की सम्पत्ति या मालकीयत या उसे आप जो भी कहें, लेकिन संविधान में प्रदान किये समानता के मूल अधिकार की भावना के अनुसार ऐसी स्त्री को देश की आजाद नागरिक तो नहीं कहा जा सकता!-लेखक होम्योपैथ चिकित्सक, मानव व्यवहारशास्त्री, दाम्पत्य विवादों के सलाहकार, विविध विषयों के लेखक, कवि, शायर, चिन्तक तथा समाज में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव और गैर-बराबरी के विरुद्ध देश के १७ राज्यों में सेवारत राष्ट्रीय संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)-के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।