मेरे शुभचिंतक और समालोचक जिनके विश्वास एवं संबल पर मैं यहाँ लिख पा रहा हूँ!

यदि आपका कोई अपना या परिचित पीलिया रोग से पीड़ित है तो इसे हलके से नहीं लें, क्योंकि पीलिया इतना घातक है कि रोगी की मौत भी हो सकती है! इसमें आयुर्वेद और होम्योपैथी का उपचार अधिक कारगर है! हम पीलिया की दवाई मुफ्त में देते हैं! सम्पर्क करें : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, 098750-66111
Showing posts with label आदिवासी. Show all posts
Showing posts with label आदिवासी. Show all posts

Saturday, September 20, 2014

आर्य-वैदिक साहित्य में आदिवासियों के पूर्वजों का राक्षस, असुर, दानव, दैत्य आदि के रूप में उल्लेख

लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

रामायण में असुर की उत्पत्ति का उल्लेख :-

सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:।
अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥

उक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है। चूंकि आर्य लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे। इस कारण आर्यों के कथित देव (देवता) सुर कहलाये और सुरा का पान नहीं करने वाले मूल-भारतवासी असुर (जिन्हें आर्यों द्वारा अदेव कहा गया) कहलाये। जबकि इसके उलट यदि आर्यों द्वारा रचित वेदों में उल्लिखित सन्दर्भों पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि आर्यों के आगमन से पूर्व तक यहॉं के मूल निवासियों द्वारा ‘असुर’ शब्द को विशिष्ठ सम्मान सूचक अर्थ में विशेषण के रूप में उपयोग किया जाता था। क्योंकि संस्कृत में असुर को संधि विच्छेद करके ‘असु+र’ दो हिस्सों में विभाजित किया है और ‘असु’ का अर्थ ‘प्राण’ तथा ‘र’ का अर्थ ‘वाला’-‘प्राणवाला’ दर्शाया गया है।

एक अन्य स्थान पर असुनीति का अर्थ प्राणनीति बताया गया है। ॠग्वेद (10.59.56) में भी इसकी पुष्टि की गयी है। इस प्रकार प्रारम्भिक काल में ‘असुर’ का भावार्थ ‘प्राणवान’ और ‘शक्तिशाली’ के रूप में दर्शाया गया है। केवल इतना ही नहीं, बल्कि अनार्यों में असुर विशेषण से सम्मानित व्यक्ति को इतना अधिक सम्मान व महत्व प्राप्त था कि उससे प्रभावित होकर शुरू-शुरू में आर्यों द्वारा रचित वेदों में (ॠगवेद में) आर्य-वरुण तथा आर्यों के अन्य कथित देवों के लिये भी ‘असुर’ शब्द का विशेषण के रूप में उपयोग किये जाने का उल्लेख मिलता है। ॠग्वेद के अनुसार असुर विशेषण से सम्मानित व्यक्ति के बारे में यह माना जाता जात था कि वह रहस्यमयी गुणों से युक्त व्यक्ति है।

महाभारत सहित अन्य प्रचलित कथाओं में भी असुरों के विशिष्ट गुणों पर प्रकाश डालते हुए उन्हें मानवों में श्रेृष्ठ कोटि के विद्याधरों में शामिल किया गया है।

मगर कालान्तर में आर्यों और अनार्यों के मध्य चले संघर्ष में आर्यों की लगातार हार होती गयी और अनार्य जीतते गये। आर्य लगातार अनार्यों के समक्ष अपमानित और पराजित होते गये। इस कुण्ठा के चलते आर्य-सुरों अर्थात सुरा का पान करने वाले आर्यों के दुश्मन के रूप में सुरों के दुश्मनों को ‘असुर’ कहकर सम्बोधित किया गया। आर्यों के कथित देवताओं को ‘सुर’ लिखा गया है और उनकी हॉं में हॉं नहीं मिलाने वाले या उनके दुश्मनों को ‘असुर’ कहा गया। इस प्रकार यहॉं पर आर्यों ने असुर का दूसरा अर्थ यह दिया कि जो सुर (देवता) नहीं है, या जो सुरा (शराब) का सेवन नहीं करता है-वो असुर है।

लेकिन इसके बाद में ब्राह्मणों द्वारा रचित कथित संस्कृत धर्म ग्रंथों में असुर, दैत्य एवं दानव को समानार्थी के रूप में उपयोग किया गया है। जबकि ऐसा उल्लेख मिलता है कि प्रारम्भ में ‘दैत्य’ और ‘दानव’ असुर जाति के दो विभाग थे। क्योंकि असुर जाति के दिति के पुत्र ‘दैत्य’ और दनु के पुत्र ‘दानव’ कहलाये। जो आगे चलकर दैत्य, दैतेय, दनुज, इन्द्रारि, दानव, शुक्रशिष्य, दितिसुत, दूर्वदेव, सुरद्विट्, देवरिपु, देवारि आदि नामों से जाने गये।

जहॉं तक राक्षस शब्द की उत्पत्ति का सवाल है तो आचार्य चुतरसेन द्वारा लिखित महानतम ऐतिहासिक औपन्यासिक कृति ‘वयं रक्षाम:’ और उसके खण्ड दो में प्रस्तुत किये गये साक्ष्यों पर गौर करें तो आर्यों के आक्रमणों से अपने कबीलों की सुरक्षा के लिये भारत के मूल निवासियों द्वारा हर एक कबीले में बलिष्ठ यौद्धाओं को वहॉं के निवासियों को ‘रक्षकों’ के रूप में नियुक्ति किया गया। ‘रक्षक समूह’ को ‘रक्षक दल’ कहा गया और रक्षकों पर निर्भर अनार्यों की संस्कृति को ‘रक्ष संस्कृति’ का नाम दिया गया। यही रक्ष संस्कृति कालान्तर में आर्यों द्वारा ‘रक्ष संस्कृति’ से ‘राक्षस प्रजाति’ बना दी गयी।

निष्कर्ष : इस प्रकार स्पष्ट है कि आर्यों के आगमन से पूर्व यहॉं के मूल निवासी अनार्यों का भारत के जनपदों (राज्यों) (नीचे टिप्पणी भी पढें) पर सम्पूर्ण स्वामित्व और अधिपत्य था। जिन्होंने व्यापारी बनकर आये और यहीं पर बस गये आर्यों को अनेकों बार युद्धभूमि में धूल चटायी। जिन्हें अपने दुश्मन मानने वाले आर्यों ने बाद में घृणासूचक रूप में दैत्य, दानव, असुर, राक्षस आदि नामों से अपने कथित धर्म ग्रंथों उल्लेखित किया है। जबकि असुर भारत के मूल निवासी थे और वर्तमान में उन्हीं मूलनिवासियों के वंशजों को आदिवासी कहा जाता है।

टिप्पणी : अनार्य जनपदों में मछली के भौगोलिक आकार का एक मतस्य नामक जनपद भी था, जिसके ध्वज में मतस्य अर्थात् मछली अंकित होती थी-मीणा उसी जनपद के वंशज हैं। चालाक आर्यों द्वारा मीणाओं को विष्णू के मतस्य अवतार का वंशज घोषित करके आर्यों में शामिल करने का षड़यंत्र रचा गया और पिछले चार दशकों में जगह-जगह मीन भगवान के मन्दिरों की स्थापना करवा दी। जिससे कि मीणाओं का आदिवासी दर्जा समाप्त करवाया जा सके।
स्रोत : ‘हिन्दू धर्मकोश’, वयं रक्षाम: और अन्य सन्दर्भ।
लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’ प्रमुख-हक रक्षक दल
(‘हक रक्षक दल’-अनार्यों के हक की आवाज)

Thursday, February 13, 2014

जर्नादन द्विवेदी कांग्रेस में संघ के प्रतिनिधि

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
 
कॉंग्रेस के चोटी के नीति-निर्धारकों में जर्नादन द्विवेदी शामिल हैं। वे प्रभावशाली राष्ट्रीय महासचिव हैं। ऐसी ताकवर हैसियत रखने वाले जर्नादन द्विवेदी का सार्वजनिक रूप से यह कहना कि दलित-आदिवासियों को प्रदत्त जाति आधारित आरक्षण समाप्त करके, आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू किया जाना चाहिये, अनेक लोगों को आश्‍चर्य में डाल सकता है। जिसके चलते अनेक लोगों ने इसके पक्ष-विपक्ष में अपने-अपने तर्कों के आधार पर अनेक आलेख और सम्पादकीय भी लिखे हैं। किन्तु दु:खद आश्‍चर्य तो यह है कि इस बारे में सच को कहने की कोई भी हिम्मत क्यों नहीं जुटाता?
 
आरक्षण विरोधियों का पहला तर्क होता है कि आरक्षण का जिन लोगों को लाभ मिल रहा है, वे लोग इसके सच्चे हकदार नहीं है, वास्तविक हकदारों को आरक्षण का लाभ ही नहीं मिल रहा है। इसमें ‘‘लाभ’’ शब्द गौर करने लायक है, क्योंकि यह ‘‘लाभ’’ शब्द ही भ्रान्तियों का असली कारण है। संविधान को जिन लोगों ने पढा है, वे जानते हैं कि दलित-आदिवासियों को दिया जा रहा आरक्षण उन्हें किसी भी प्रकार का ‘‘लाभ’’ पहुँचाने के लिये दिया ही नहीं गया है। ऐसे में किसे ‘‘लाभ’’ मिला है या किसे ‘‘लाभ’’ मिलना चाहिये, ये सवाल ही अपने आप में बेमानी और असंवैधानिक है, जबकि इसी पर मीडिया में सर्वाधिक चर्चा होती है। जिसका मूल कारण है-चर्चा करने वाले दुराग्रहों और पूर्वाग्रहों से ग्रसित हैं ही साथ उन्हें संवैधानिक आरक्षण अवधारणा का ज्ञान भी नहीं है। ऐसे लोग दलित-आदिवासियों के विरुद्ध लगातार विष वमन करते रहते हैं। जिन्हें ऊर्जा मिलती है-मनुवादी, संघवादी लोगों से; जिनका एकमेव लक्ष्य इस देश में फिर से मनुवाद लागू करना है।

समझने वाली बात ये है कि आरक्षण का संवैधानिक मकसद दलित और आदिवासी वर्गों को प्रत्येक सरकारी क्षेत्र में सशक्त प्रतिनिधित्व प्रदान करना है। जो तब ही सम्भव है, जबकि पीढी दर पीढी आरक्षित वर्ग के सशक्त लोग नीति-नियन्ता पदों पर पदस्थ हों। इसीलिये इन वर्गों को पदोन्नतियों में प्रदान किया जा रहा आरक्षण न मात्र संवैधानिक है, बल्कि न्यायसंगत भी है।

जहॉं तक जनार्दन द्विवेदी के बयान की बात है तो मैं बहुत पहले से इस बात को कहता और लिखता आया हूँ कि कांग्रेस पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ परोक्ष रूप से अपना कब्जा जमा चुका है। इसी कड़ी में जनार्दन द्विवेदी एक बड़ा नाम है जो कांग्रेस में रहकर संघ-प्रतिनिधि के रूप में काम कर रहे हैं। कांग्रेस को शीघ्रता से ऐसे छद्म संघियों को ढूंढकर बाहर करना होगा, अन्यथा कांग्रेस इस देश से बाहर हो जायेगी। हालांकि अब बहुत देर हो चुकी है।

हम पिछले एक दशक से कांग्रेस को आगाह करते रहे हैं कि कांग्रेस में संघियों का प्रवेश हो चुका है, जिनके मार्फत सत्ता के तीनों स्तम्भों पर संघ का लगातार दबदबा बढ रहा है। एक बार नहीं, बल्कि अनेकों बार सुप्रीम कोर्ट द्वारा दलित-आदिवासी उत्थान विरोधी और संघ की विचारधारा के पोषक असंवैधानिक निर्णय सुनाये गये हैं। जिन्हें संविधान संशोधन के जरिये बार-बार निरस्त करना पड़ता रहा है। इसके उपरान्त भी यदि कांग्रेस हाई कमान की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा है और जनार्दन द्विवेदी जैसे लोगों के सहारे कांग्रेस सत्ता पर कायम रहना चाहती है, तो ये असम्भव है!

जहॉं तक आर्थिक आधार पर आरक्षण प्रदान करने की बात है तो दलित-आदिवासियों के सन्दर्भ में तो यह अवधारणा प्रारम्भ से ही गैर कानूनी, असंवैधानिक और अन्यायपूर्ण है, क्योंकि जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया गया है कि दलितों और आदिवासियों को प्रदत्त आरक्षण का संवैधानिक मकसद उन्हें किसी प्रकार ‘‘लाभ’’ पहुंचाना या उनकी उन्नति करना या उन्हें नौकरी देना मात्र नहीं है, बल्कि हर एक क्षेत्र में उनका सशक्त प्रतिनिधित्व कायम करना है। जिससे कि वे अपने वर्गों के साथ हजारों सालों से किये जाते रहे भेदभाव और अन्याय को कम से कम रोकने में तो सक्षम हो सकें।

इसके विपरीत आर्थिक रूप से विपन्न वर्ग के लोगों में कोई भावनात्मक लगाव नहीं होता है। उदाहरण के लिये गरीबी के आधार पर आरक्षरण प्राप्त करने वाले परिवार का व्यक्ति जैसे कि आईएएस बनेगा वह गरीब नहीं रहेगा और ऐसे में क्रीमी लेयर के आधार पर उसे गरीब वर्ग से बाहर कर दिया जायेगा, फिर वह अनारक्षित वर्ग में शामिल हो जायेगा। जो सेवा के दौरान गरीबों के प्रति सवर्ण अनारक्षितों की ही भांति व्यवहार करेगा। जिससे पिछड़े व दमित लोगों का कभी भी उत्थान नहीं होगा। अत: सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े दलित-आदिवासी वर्गों को हर हाल में जाति आधारित आरक्षण प्रदान किया जाना संविधान सम्मत है, जो तब तक कायम रहना चाहिये, जब तक कि इन वर्गों का आनुपातिक और सशक्त प्रतिनिधित्व प्रत्येक स्तर पर कायम नहीं हो जाता है। लगता नहीं इस सदी में ऐसा होने दिया जायेगा। क्योंकि न्यायपालिका के सहयोग से मनुवादी संघियों द्वारा लगातार दलित-आदिवासी प्रतिनिधित्व को हर एक क्षेत्र में हर दिन और लगातार कुचला जा रहा है।

ऐसे में जनार्दन द्विवेदी के असंवैधानिक बयान का अर्थ और तो कुछ भी नहीं है, लेकिन यह कांग्रेस को आगाह जरूर करता है कि वह अपने संगठन में घुस आये संघियों को तत्परता से बाहर करे, अन्यथा कांग्रेस को विनिष्ट होने से बचाना सम्भव नहीं होगा।

Thursday, January 23, 2014

बीमार को मारने से बीमारी नहीं मिटेगी!

परिवार के लोगों की आँखों के सामने उनकी 13 से 16 वर्ष की बेटी या बहिन का सामूहिक बलात्कार किया जाता है और स्थानीय पुलिस उनकी रिपोर्ट तक दर्ज नहीं करती! डॉक्टरी रिपोर्ट बनाकर देना तो दूर, सरकारी डॉक्टर पीड़िता का प्राथमिक उपचार तक नहीं करते। स्थानीय जन-प्रतिनिधि पीड़िता और आहत परिवार को संरक्षण तथा सुरक्षा देने के बजाय बलात्कारियों और अपराधियों को ही पनाह देते हैं! तहसीलदार से लेकर राष्ट्रपति तक गुहार करने के बाद भी पीड़िता की कोई सुनवाई नहीं होती। ऐसे हालात में पीड़िता के परिवार के लोग या बलात्कारित बेटियों के पिता या ऐसी बहनों के भाईयों को क्या सन्त बने रहना चाहिये? इस सवाल का जवाब इस देश के संवेदनशील और इंसाफ में आस्था एवं विश्‍वास रखने वालों से अपेक्षित है।

Friday, May 10, 2013

दलित-आदिवासी और स्त्रियों का धर्म आधारित उत्पीड़न हमारी चिन्ता क्यों नहीं?


तत्काल समाधान हेतु इस देश में यदि आज सबसे बड़ी कोई समस्या है तो वो है, देश के पच्चीस फीसदी दलितों और आदिवासियों और अड़तालीस फीसदी महिला आबादी को वास्तव में सम्मान, संवैधानिक समानता, सुरक्षा और हर क्षेत्र में पारदर्शी न्याय प्रदान करना और यदि सबसे बड़ा कोई अपराध है तो वो है-दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों को धर्म के नाम पर हर दिन अपमानित, शोषित और उत्पीड़ित किया जाना। यही नहीं इस देश में आज की तारीख में यदि सबसे सबसे बड़ी सजा का हकदार कोई अपराधी हैं तो वे सभी हैं, जो दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों के साथ खुलेआम भेदभाव, अन्याय, शोषण, उत्पीड़न कर रहे हैं और जिन्हें धर्म और संस्द्भति के नाम पर जो लोग और संगठन लगातार सहयोग प्रदान करते रहते हैं।

Friday, December 21, 2012

बलात्कार से निजात कैसे?

एक पुलिस का जवान कानून व्यवस्था का हिस्सा बनने के लिये पुलिस में भर्ती होता है, लेकिन पुलिस अधीक्षक उसे अपने घर पर अपनी और अपने परिवार की चाकरी में तैनात कर देता है। (जो अपने आप में आपराधिक न्यासभंग  का अपराध है और इसकी सजा उम्र कैद है) जहॉं उसे केवल घरेलु कार्य करने होते हैं-ऐसा नहीं है, बल्कि उसे अफसर की बीवी-बच्चियों के गन्दे कपड़े भी साफ करने होते हैं। क्या यह उस पुलिस कॉंस्टेबल के सम्मान का बलात्कार नहीं है?


Saturday, October 1, 2011

आदिवासी : ग्यारह अवरोधक

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

आजादी के तत्काल बाद संविधान में सामाजिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक रूप से सर्वाधिक कमजोर जिन दो वर्गों या समूहों को चिह्नत किया गया था, उनमें एक आदिवासी वर्ग है, जिसे संविधान में ‘अनुसूचित जनजाति’ कहा गया था, संविधान में उसे दलित के समकक्ष खड़ा कर दिया था| इसके चलते वर्तमान में आदिवासी वर्ग देश का सर्वाधिक शोषित, वंचित और फिसड्डी वर्ग/समूह बना दिया गया है|

Thursday, September 9, 2010

भाजपा को नहीं, भारत को बचाना है!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
=================
इस समय भाजपा अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष कर रही है। इसलिये अब हम भारतीयों को चाहिये कि धर्म का मुखौटा पहनकर देश को तोडने वाली भाजपा, संघ, विश्व हिन्दू परिषद आदि के नाटकीय बहकावे में नहीं आना है और मुसलमानों को इनके उकसावे में आकर अपना धैर्य नहीं खोना है। अन्यथा ये धर्मविरोधी संगठन 24 सितम्बर को इस देश के सौहार्द को बिगाडने में कोई कोर कसर नहीं छोडेंगे। विश्वास करें, इनके साथ केवल देश के 1 प्रतिशत लोग भी नहीं हैं। शेष लोगों को तो ये मूर्ख बनाकर साम्प्रदायिकता की आग में झोंकरकर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं! अत: हमें भाजपा को नहीं, बल्कि हर हाल में भारत को और भारतीयों को बचाना है।
================================


जब-जब भी और जहाँ-जहाँ पर भी भारतीय जनता पार्टी की सरकार सत्ता में रही हैं। उसके नेतृत्व ने देश और समाज को मूर्ख बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोडी है। केवल इतना ही नहीं, इनके गुर्गे (मन्त्री भी) जो संघ एवं विश्वहिन्दू परिषद से आदेश प्राप्त करते हैं, हिन्दुत्व के नाम पर हिन्दू समाज की पिछडी और छोटी जाति के लोगों को मुसमानों के सामने करके अपनी लडाई लडते रहते हैं, जबकि मोदी, तोगड़िया और आडवाणी जैसे तो वातानुकूलित कमरों में आराम फरमाते रहते हैं।

इस बात को तो देश-विदेश के सभी लोग जानते हैं कि गुजरात में हिन्दुओं के हाथों मुसलमानों का कत्लेआम करवाया गया, लेकिन इस बात को बहुत कम लोग जानते हैं कि जिन हिन्दुओं के हाथों मुसलमानों का कत्लेआम करवाया गया, वे कौन थे और उनकी वर्तमान दशा क्या है? गुजरात के दूर-दराज के क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी एवं पिछडी जाति के लोगों के घरों में स्वयं भगवा ब्रिगेड के लोगों द्वारा आग लगाई गयी थी। अनेकों हिन्दुओं को इस आग के हवाले कर दिया गया और बतलाया गया कि मुसलमानों ने हिन्दुओं को जला दिया है। जिससे आक्रोशित होकर इन भोले-भाले अशिक्षित हिन्दुओं ने अनेक निर्दोष मुसलमानों के घरों में आग लगा दी। अनेकों को मौत के घाट उतार दिया।

आज ये गरीब और बहकावे में आने वाले आदिवासी हिन्दू या तो जेल में बन्द हैं या जमानत मिलने के बाद कोर्ट में पेशियाँ दर पेशियाँ भुगतते फिर रहे हैं। इन्हें हिन्दुत्व के नाम पर मुसलमानों के विरुद्ध भडकाने वाले कहीं दूर-दूर तक नजर नहीं आते हैं।

हिन्दुत्व के नाम पर संघ शाखाओं में हाथियारों के संचालन का प्रशिक्षण प्रदान करके सरेआम आतंकवाद को बढावा दिया जा रहा है। तोगड़िया त्रिशूल और भाला बांट रहे हैं। संघ से जुडे अनेक लोग अनेक आतंकवादी घटनाओं में पकडे जा चुके हैं। जिन्हें बचाने के लिये संघ एवं भाजवा वाले इसे सोनिया सरकार की चाल बतला रहे हैं।

बस यात्रा के बहाने पाकिस्तान से दोस्ती का नाटक खेलने वाले पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की अदूरदर्शिता एवं देश विरोधी नीति के चलते हजारों सैनिकों को कारगिल में मरवा दिया। हजारों सैनिकों को हमारी ही धरती पर मारगिराने वाले पाकिस्तानियों को वापस पाकिस्तान में सुरक्षित चले जाने की लिये वाजपेयी सरकार ने वाकायदा सेना को चुप रहने एवं पाकिस्तानियों पर आक्रमण नहीं करने का आदेश दिया था। इसके बाद लम्बे समय तक आर-पास की लडाई की बात का नाटक करके हिमालय की ऊँची बर्फीली की चोटियो पर हमारे सैनिकों को तैनात करके अनेक सैनिकों को बेमौत गल-गल कर मर जाने को विवश कर दिया।

इसके बाद भी भाजपा, संघ और विहिप द्वारा बेशर्मी से प्रचारित किया गया कि वाजपेयी के नेतृत्व में भारत ने कारगिल में पाकिस्तान पर विजय प्राप्त की। इसी प्रकार से हजारों करोड डालरों से भरे बक्सों के साथ कन्धार में दुर्दान्त आतंकियों को छोडकर आने वाले वाजपेयी सरकार के विदेश मन्त्री जसवन्त सिंह को जिन्ना का गुणगान करने पर पहले तो बाहर का रास्ता दिखा दिया, लेकिन जैसे ही पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शैखावत का निधन हुआ तो राजपूत वोटों को लुभाने के लिये बिना शर्त वापस बुला लिया गया।

मध्य प्रदेश के मुख्यमन्त्री हर साल पांच सितम्बर को शिक्षकों के पैर पखारते (धोते) हैं और इस बात का नाटक करते हैं कि भाजपा के राज में गुरुओं का सर्वाधिक सम्मान होता है। जबकि सच्चाई को जानना है तो गत शिक्षक दिवस से ठीक पूर्व वेतन नहीं मिलने के चलते शिक्षक की मौत के लिये जिम्मेदार मध्य प्रदेश के मुख्यमन्त्री की असली तस्वीर को ब्लॉग लेखक श्री अजीत ठाकुर के निम्न समाचार से समझा जा सकता है।

"होशंगाबाद जिले की पिपरिया तहसील के ग्राम मटकुली में एक व्यक्ति की मौत हो गई। ये कोई साधारण मौत नहीं है, ये मौत करारा तमाचा है, हमारे शिक्षातंत्र पर और हमारी व्यवस्था की भयानकतम असंवेदनशीलता का नमूना, ये एक शिक्षक की मौत है। चार महीने से वेतन नहीं मिल पाने की वजह से बीमार सहायक अध्यापक हरिकिशन ठाकुर ने बेहतर इलाज के अभाव में दम तोड दिया। इनकी मौत के 6 दिन बाद ही इनका परिवार भूखे मरने की नौबत में है। ये उस देश में हुआ है, जहाँ गुरु को गोविन्द से बडा बताया गया है, जहाँ पर एक दिन अर्थात् 5 सितम्बर शिक्षक दिवस शिक्षको को समर्पित है। ये उस प्रदेश में हुआ जहाँ के माननीय मुख्यमंत्री जी (शिवराज सिंह चौहान) शिक्षक दिवस पर शिक्षको के पैर धोकर उनका सम्मान करते हैं। इस असंवेदनहीन व्यवस्था में हम कैसे किसी द्रोण या चाणक्य (के पैदा होने) की उम्मीद कर सकते हैं और जब द्रोण और चाणक्य नहीं होंगे तो अर्जुन और चन्द्रगुप्त की उम्मीद तो बेमानी है।"

केवल इतना ही नहीं देश के लोगों को इस बात को भी ठीक से समझ लेना चाहिये कि-

कश्मीर की वर्तमान दु:खद स्थिति के लिये भी प्राथमिक तौर पर ये ही कथित हिन्दुत्ववादी आतंकी ताकतें ही हर प्रकार से जिम्मेदार हैं।

तत्कालीन कश्मीर पर पाकिस्तानी हमले के लिये भी इन्हीं के विचार जिम्मेदार थे।

इन ताकतों को इस बात से बखूबी पहचाना जा सकता है कि पहले तो इन्होने भारत में कश्मीर के विलय का ही विरोध किया था और तत्कालीन कश्मीर सरकार पर नेहरू के कूटनीतिक दबाव कारण विलय सम्भव हो भी गया तो इनको विलय का तरीका ही नहीं सुहाया और कश्मीर में साम्प्रदायिकता की नफरत का बीज बोने के लिये इनके नेताओं ने तरह-तरह के नाटक किये गये। जिनके कारण कश्मीर से हजारों पण्डित बेघर हो गये और इस पर भी तुर्रा ये कि ये अपने आपको राष्ट्रवादी कहते हैं। अखण्ड भारत की बात करते हैं।

देश को तोडने के लिये कुटिल चालें चलने में माहिर ये अनीश्वरवादी हिन्दुत्व के ठेकेदार, ईश्वर के नाम पर 1947 से भारत के भोले-भाले हिन्दुओं को लगातार बहकाने और उकसाने के अपराध में संलिप्त हैं।

भाजपा की पूर्व मुख्यमन्त्री वसुन्धरा राजे ने राजस्थान में शराब, शबाब और जमीन बेचकर भ्रष्टाचार को बढावा देने में कोई कोर-कसर नहीं छोडी थी और राजस्थान को कई दशक पीछे धकेल दिया। हर राज्य में इनकी करनी और कथनी में धरती आसमान का अन्तर स्पष्ट नजर आता है। इनका एक मात्र कार्य है किसी भी प्रकार से समाज में अमन-शान्ति और भाईचारा बिगडा रहे, जिससे ये अपनी राजनीति की रोटियाँ सेकते रहें।

यह है असली चेहरा-भाजपा और संघ के संस्कृति और राष्ट्रवादी चरित्र का।

अब जबकि 24 सितम्बर को अयोध्या-बाबरी भूमि विवाद पर मालिकाना हक का निर्णय सुनाये जाने की तारीख घोषित हो चुकी है तो भाजपा, आरएसएस एवं विश्व हिन्दू परिषद तथा इनके अनुसांगिक संगठनों की ओर से हिन्दुत्व के नाम पर समाज को साम्प्रदायिकता की आग में धकेलने की पूरी तैयारी शुरू की जा चुकी है। मोबाईल पर मैसेज के जरिये लोगों को उद्वेलित करके भडाया जा रहा है और जैसे ही मौका मिलेगा, ये देश के माहौल को बिगाडने के लिये कुछ भी करने को तैयार बैठे हैं।

जबकि आम लोगों को इस बात का ज्ञान ही नहीं है कि भाजपा एवं इसके समर्थक जिस हिन्दुत्व को मानते हैं, उसमें ईश्वर को ही नकारा गया है। इनके आदर्श हैं सावरकर जो ईश्वर की सत्ता में कतई भी विश्वास नहीं करते, तब ही तो इनके लिये निरीह गाँधी का वध गर्व की बात है।

इस समय भाजपा अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष कर रही है। इसलिये अब हम भारतीयों को चाहिये कि धर्म का मुखौटा पहनकर देश को तोडने वाली भाजपा, संघ, विश्व हिन्दू परिषद आदि के नाटकीय बहकावे में नहीं आना है और मुसलमानों को इनके उकसावे में आकर अपना धैर्य नहीं खोना है। अन्यथा ये धर्मविरोधी संगठन 24 सितम्बर को इस देश के सौहार्द को बिगाडने में कोई कोर कसर नहीं छोडेंगे। विश्वास करें, इनके साथ केवल देश के 1 प्रतिशत लोग भी नहीं हैं। शेष लोगों को तो ये मूर्ख बनाकर साम्प्रदायिकता की आग में झोंकरकर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं! अत: हमें भाजपा को नहीं, बल्कि हर हाल में भारत को और भारतीयों को बचाना है।

Friday, August 20, 2010

हिन्दू क्यों नहीं चाहते, हिन्दूवादी सरकार!

हिन्दू क्यों नहीं चाहते, हिन्दूवादी सरकार!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

(ऐसे 21 सुधार जो भारत को फिर से सोने की चिडया बना सकते हैं।)

========
यदि हिन्दूवादी या राष्ट्रवादी इन कुछेक सुधारों को करने को सहमत हों तो न मात्र इस देश में हिन्दुत्व कायम होगा, अपितु भारत फिर से सोने की चिड़िया का सम्मान हासिल कर सकेगा और भारत को दांत दिखाने से पूर्व कोई भी दस बार सोचेगा। हाँ यदि हिन्दूवादी केवल 15 प्रतिशत उच्च जातीय आबादी के हितों को ही राष्ट्रीय हित मानते हैं तो फिर इस देश में कभी भी वो नहीं हो सकता, जो हिन्दूवादी चाहते हैं।
-----------------------------------
मेरी छोटी सी पृष्ठभूमि : मैं मीणा जाति और आदिवासी वर्ग का राजस्थान निवासी हूँ। मेरे माता-पिता भारत के मूल निवासी हैं। मेरे पिताजी स्कूल नहीं गये, लेकिन अच्छी तरह से हिन्दी पढना-लिखना जानते हैं। मैं हिन्दुस्तान में जन्मा हूँ। मेरा नामकरण हिन्दू ब्राह्मण द्वारा किया गया। मेरा विवाह हिन्दूरीति से (सप्तपदि) से हिन्दू ब्राह्मण ने करवाया। मैं हिन्दुस्तान में रहता हूँ।

मेरे पिताजी चाय, बीडी, सिगरेट, तम्बाखू, मांस-मदिरा आदि किसी भी नशीले द्रव्य का सेवन नहीं करते और ये सभी बातें मुझे मेरे पिताजी से विरासत में मिली हैं। मेरे पिताजी पर स्वामी दयानन्द सरस्वती का गहरा प्रभाव है। वे जिला स्तर पर आर्यसमाज के कार्यकर्ता/पदाधिकारी रहे हैं, लेकिन सत्यार्थ प्रकाश में वर्णित पाखण्ड को उजागर करने वाली बातों को सैद्धान्तिक रूप से सही मानते हुए भी, वे व्यावहारिक जीवन में उनका अनुसरण नहीं कर सके हैं और वे आज भी परम्परागत हिन्दू हैं। उन्हें हिन्दू होने पर गर्व है, मुझे भी है। हालाँकि मुझे आज तक नहीं पता कि हिन्दू किसे कहते हैं, लेकिन मेरे पूर्वज स्वयं को हिन्दू मानते है, सो मैं भी हिन्दू हूँ।

मेरे पिजाती शुरू से जनसंघ एवं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के समर्थक रहे हैं। जनसंघ के पक्ष में मतदान करने के लिये लोगों को उत्साहित करने में उन्हें अच्छा लगा करता था, लेकिन पिछले दो-तीन दशक से वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एवं भारतीय जनता पार्टी के उतने ही सख्त विरोधी है, जितने सख्त जनसंघ के समर्थक हुआ करते थे। उन्हें इस बात का अत्यन्त दु:ख है कि एक मात्र राजनैतिक दल जनसंघ हिन्दू हित की बात करता था, उसका वर्तमान स्वरूप भाजपा हिन्दू हित के पथ से विचलित हो गया है और इसी प्रकार से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी अपनी मूल विचारधारा को कागजों से आगे नहीं उतार पाया है। इस कारण अनेक बार मेरे पिताजी किसी अन्य दल को वोट तक नहीं देते हैं।

मैंने हिन्दी माध्यम से शिक्षा ग्रहण की है। मैं अंग्रेजी का कतई भी समर्थक नहीं ही हूँ, लेकिन काले अंग्रेजों द्वारा भारत में थोपी गयी अंग्रेजी व्यवस्था में संघर्ष करके अपने आपके अस्तित्व को बचाये रखने के लिये मैं अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में बढा रहा हँ, लेकिन ईसाई मिशनरीज द्वारा संचालित अंग्रेजी स्कूलों से मुझे नफरत है। इसलिये मेरे बच्चे राष्ट्रीय स्वयं सेवक के कार्यकर्ता द्वारा संचालित एक अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में, पढ रहे हैं। यद्यपि इस कारण से वे न तो अंग्रेजी ही ठीक से सीख पाये हैं और न हीं हिन्दी ही सीख सके हैं। यह अलग बात है कि मैं स्वयं उन्हें हिन्दी भाषा का व्यवहारिक महत्व समझाता रहता हूँ। यदि वे मिशनरीज के स्कूल में पढे होते तो कम से कम उनकी अंग्रेजी तो अच्छी होती, लेकिन उनके सच्चे भारतीय बने रहने की सम्भावना कम ही रह पाती। यह मेरी छोटी सी पृष्ठभूमि है।

आगे बढने से पूर्व मैं यह भी साफ कर दूँ कि सैद्धान्तिक रूप से मुझे आज तक नहीं पता कि हिन्दू किसे कहते हैं, लेकिन मेरे पूर्वज स्वयं को हिन्दू मानते है, सो मैं भी हिन्दू हूँ। जिन रीति-रिवाजों को जन्म से माना है, जिन संस्कारों को जिया है, उनसे लगाव है। अपनत्व है। भारत हिन्दू बहुल राष्ट्र है, सो हिन्दू होने में अच्छाई ही अच्छाई दिखती है।

भारत में मेरे जैसे करोडों लोग हैं, जिन्हें हिन्दू होने पर गर्व है और वे हिन्दू ही बने रहना चाहते हैं, लेकिन फिर भी वे हिन्दूवादी संगठनों या राजनैतिक दलों का समर्थन नहीं करते हैं। ऐसे लोग प्रतिदिन लाखों लोगों को अपने जैसे बनाने के प्रयासों में जुटे हुए हैं। काफी सीमा तक सफल भी हो रहे हैं। हम जैसे लोग भारत में हिन्दूवादी भारतीय जनता पार्टी को जिताकर सत्ता में लाने के लिये निरुत्साहित रहते हैं। जिसकी वजह से भाजपा भारत की सत्ता से दूर ही नहीं बहुत दूर होती जा रही है। इसी कारण से बाबा राम देव भी भारत की सत्ता पर काबिज होने में सफल होते नहीं दिख रहे हैं।

मैं यह भी मानता हूँ कि हम जैसे लोगों की वजह से हिन्दुत्व की बात करने वाले अपने मकसद में सफल नहीं हो पा रहे हैं। ऐसे ही लोगों की वजह से भाजपा सत्ता में नहीं आ पा रही है और इसका दूसरा पहलू यह है कि भारत में हिन्दुओं का बहुमत होने के उपरान्त भी तकरीबन 15 प्रतिशत मुस्लिम वोटों के बल पर काँग्रेस सत्ता का सुख भोग रही है और भोगती रहेगी।

हमारी विचारधारा के पोषक लोगों को भारत के अनन्त काल तक हिन्दू बहुल राष्ट्र बने रहने और दिन-प्रतिदिन ताकवर राष्ट्र के रूप में उभरते रहने में तनिक भी सन्देह नहीं है। हम भाजपा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, शिव सेना, बजरंग दल आदि के वर्तमान उजागर विचारों का अनुसरण करके कभी भी भारत को में हिन्दू राष्ट्र बनते देखने की कल्पना भी नहीं कर सकते। ऐसा क्यों है? इस देश के पचास करोड से अधिक लोगों की ऐसी ही सोच है! लेकिन क्यो? यह सवाल जिस दिन हिन्दूवादी संगठनों की समझ में आ जायेगा, उस दिन भारत, भारतीयों और हिन्दू धर्म की तस्वीर बदल जायेगी! लेकिन सच्चाई यह है कि हिन्दूवाद या हिन्दुत्व की बात करने वाले चाहते ही नहीं कि भारत, भारतीयों और हिन्दू धर्म की तस्वीर बदले। ये सब चाहते हैं कि सभी हिन्दु, हिन्दुत्व को उसी नजरिये से देखें, जैसा उनके द्वारा हजारों सालों से दिखाया जाता रहा है।

अब यह सम्भव नहीं है, क्योंकि अब उन लोगों ने भी सोचने, समझने और बोलने की ताकत के साथ-साथ जमीनी संघर्ष करने की ताकत भी अर्जित कर ली है, जिन्हें हिन्दू धर्म एवं हिन्दू धर्म के प्रवर्तक तथा संरक्षकों ने इन सबसे हजारों सालों तक वंचित रखा था। सैद्धान्तिक हकीकत कुछ भी हो, लेकिन व्यवहार में देश के अधिकतर लोग वर्तमान में हिन्दुत्व का जो मतलब समझते हैं, वो इस प्रकार है :-

हिन्दू धर्म के ग्रन्थ ब्राह्मणों द्वारा लिखे गये हैं।

हजारों सालों तक हिन्दू धर्म के ग्रन्थों को पढने-पढाने का अधिकार केवल ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों तक ही सीमित था।

वर्ण-वयवस्था, जातिभेद, छुआछूत, दहेज, सतिप्रथा, स्त्री के साथ भेदभाव इसी हिन्दू धर्म की दैन है।

क्षत्रियों एवं ताकतवर लोगों द्वारा निचली जातियों पर किया गया या किया जा रहा अत्याचार और पुरुष का नारी पर अत्याचार हिन्दू धर्म के संस्कारों तथा ब्राह्मणों के खुले या मूक समर्थन की ही दैन हैं।

हिन्दू धर्मशास्त्रों एवं क्षत्रियों के पुरोहितों ने क्षत्रियों के शराब सेवन को जायज एवं धर्मसंगत घोषित करके क्षत्रियों की बरबादी की नींव रख थी।

हिन्दू धर्मशास्त्रों में जानबूझकर लिखा गया कि सारे हिन्दू धर्मस्थलों पर केवल ब्राह्मण ही पुजारी होंगे। जहाँ अछूतों को प्रवेश नहीं दिया गया और आज भी नहीं दिया जाता है।
इन एवं ऐसी ही अनेकों बातों को संस्कारों को बचपन से ग्रहण करते हुए हिन्दू का समाजीकरण होता है। जिसमें हिन्दुत्व वही है, जो हिन्दुत्व के प्रवर्तक एवं संरक्षक ब्राह्मण या उनके अनुयाई घोषित करते रहे हैं।

आज भी हिन्दुत्व पर उन्हीं लोगों का कब्जा है, जिनका अनादि काल से कब्जा रहा है। हाँ उन्होंने जानबूझकर हिन्दुत्व को ताकतवर बनाने के नाम पर कुछ ऐसी बातें जरूर अपनी विचारधारा में शामिल कर ली हैं, जिनसे अब हिन्दुत्व के प्रवर्तकों का साथ देने वालों में क्षत्रियों के छोटे से कुलीन वर्ग के साथ-साथ, वैश्य भी शामिल हो गये हैं। कुछ ऐसे लोगों को भी शामिल कर लिया है, जिनको ज्ञात ही नहीं है कि वे किनका समर्थन कर रहे हैं। ऐसे लोग हिन्दुत्व के सम्मोहन या अन्धभक्ति के शिकार हैं! जबकि हकीकत में हिन्दुत्व के प्रवर्तकों की इस नीति से हिन्दुत्व का भला नहीं हो रहा, बल्कि हिन्दुत्व का विनाश हो रहा है। हिन्दुत्व से हिन्दू दूर भाग रहे हैं। जिसके चलते भारत में विदेशी ताकतों का प्रभाव बढ रहा है। इस बात का प्रत्येक सच्चे भारतवासी को दु:ख भी है।

अब यह जानना अत्यन्त जरूरी है कि वर्तमान में हिन्दुत्व के प्रवर्तकों एवं संरक्षकों की हिन्दूवादी नीति क्या हैं, जिनके बल पर वे भारत में हिन्दुत्व एवं हिन्दूवादी सरकार की स्थापना करके, कथित रूप से भारत को मजबूत करने की बातें करते हैं। भारत के पचास करोड से अधिक लोगों का मानना है कि हिन्दूवादी चाहते हैं कि-

अजा एवं अजजा वर्गों का शिक्षण संस्थानों, सरकारी सेवाओं तथा विधायिका में आरक्षण समाप्त हो। अन्य पिछडा वर्ग का शिक्षण संस्थानों, सरकारी सेवाओं तथा पंचायत राज व्यवस्था में आरक्षण समाप्त हो। जिसके पीछे इनका तर्क है कि आरक्षण के कारण उच्च बुद्धिमता वाले लोग विदेशों में पलायन कर रहे हैं और निकृष्ट और कम योग्यता वाले लोग लाभ उठा रहे हैं। इसी कारण से देश का विकास नहीं हो रहा है। उनका तर्क है कि केवल बुद्धिमान लोग ही देश का विकास कर सकते हैं और आरक्षित वर्ग के कम योग्यता वाले लोग बुद्धिमान नहीं होते हैं।

हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की आकांक्षा करने वाले हिन्दुवादियों के इस तर्क से देश की करीब 25 प्रतिशत अजा एवं अजजा वर्ग की आबादी एवं 45 प्रतिशत के करीब अन्य पिछडा वर्ग की आबादी कुल 70 प्रतिशत आबादी को निकृष्ट एवं हीन घोषित कर दिया गया है। इन लोगों की नजर में 15 प्रतिशत मुसलमान भी निकृष्ट होने के साथ-साथ देशभक्त भी नहीं हैं। इस प्रकार करीब 85 प्रतिशत आबादी तो तुलनात्मक रूप से कम योग्य और निकृष्ट होने के साथ-साथ इस देश के विकास में और इस देश के बुद्धिमान लोगों के अवसरों को छीनने के लिये जिम्मेदार है और बुद्धिमान लोगों के विदेशों में पलायन करने के लिये जिम्मेदार है।

यहाँ विचारणीय सवाल यह है कि कौन हैं, वे बुद्धिमान लोग जिनके लिये इस देश के 85 प्रतिशत लोगों को लगातार हीन घोषित किया जाता रहा है। स्वाभाविक रूप से हिन्दुत्व एवं हिन्दूवादी सोच के प्रवर्तक एवं समर्थक। जिनका सदा से सभी संसाधनों एवं सत्ता पर कब्जा रहा है। जिनके कारण देश के 70 प्रतिशत लोगों को आरक्षण देने की जरूरत पडी!
वे अभी भी देश को हिन्दुवादी बनाने और राष्ट्रवादी बनाने के नाम पर फिर से सभी संसाधनों एवं सत्ता पर कब्जा करना चाहते हैं। इस सोच के उपरान्त भी सभी हिन्दूओं ये समर्थन हासिल करने की आकांक्षा करना कहाँ तक न्यायसंगत है? यहाँ बडी चालाकी से मुसलमानों का भय दिखाकर, धारा 370 को हटाने, राम मन्दिर का निर्माण करने और समान नागरिक संहिता का असंवैधानिक राग अलाप कर, निकृष्ट घोषित 70 प्रतिशत हिन्दुओं को भी हिन्दूवादी सोच के राजनैतिक दल भाजपा का समर्थन करने का अविवेकपूर्ण हथियार आजमाया जाता है। जो कभी भी सफल नहीं हो सकता है।

यदि हिन्दूवादी सोच के लोग वास्तव में ईमानदार और देशभक्त होने के साथ-साथ, यदि सच्चे समतावादी हैं तो देश के 70 प्रतिशत हिन्दुओं का विकास करने वाला हिन्दुत्व कायम करने की बात करें। जिसके लिये हिन्दु धर्म की रक्षा करने के नाम पर काम करने वालों को अपने ऐजेण्डे में कुछ ही बातें बदलनी होंगी। देखते हैं भारत में हिन्दूवादी सरकार कायम होती है या नहीं? ऐसा करने के बाद भारत के 50 करोड से अधिक लोग आपके साथ होंगे।
आपको केवल इतना सा करना है-

1. हिन्दू धर्म सभा का गठन : राष्ट्रीय स्तर से गाँव स्तर तक हिन्दू धर्म सभा का गठन किया जावे, जिसमें सभी हिन्दू जातियों का जनंसख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व हो। हिन्दू धर्म सभा की सिफारिशों पर भारत की संसद विचार करने के लिये संवैधानिक रूप से बाध्य हो। हिन्दू धर्म सभा द्वारा धर्मस्थलों के पुजारी नियुक्त किये जावे। प्रारम्भिक 50 वर्ष के लिये ब्राह्मण, वैश्य एवं क्षत्रिय वर्ग का कोई व्यक्ति पुजारी नहीं हो। जिससे जन्मजातीय श्रेष्ठता एवं भू-देव जैसी मानसिक विकृतियाँ स्वत: समाप्त हो सकें। धार्मिक मामलो में हिन्दू धर्म सभा को निर्णय करने का अधिकार हो, जिसकी उच्च स्तरीय धर्म सभा में तीन स्तर तक अपील करने का भी प्रावधान हो।

2. सत्ता में आने पर दो से अधिक बच्चे पैदा करने वाले माता-पिता की एवं पूर्व पति या पत्नी के रहते दूसरा विवाह करने वाले नागरिकों की सम्पूर्ण सम्पत्ति छीनकर ऐसे लोगों को देशद्रोही घोषित करके बिना मुकदमा चलाये, केवल प्राथमिक स्तर पर प्रमाणीकरण के बाद ही कम से कम 10 वर्ष के लिये जेल में डाल दिया जावे और ऐसे माता पिता के बच्चों का लालन-पालन एवं पढाई की सम्पूर्ण व्यवस्था सरकार द्वारा की जावे।

3. सत्ता में आने पर प्रावधान किया जायेगा कि धर्म के अधार पर विवाह विच्छेद या तलाक मान्य नहीं होगा और कोर्ट द्वारा विवाह विच्छेद या तलाक घोषित होने के बाद पत्नी के भरणपोषण की वर्तमान विभेदकारी व्यवस्था समाप्त की जावे और विवाह विच्छेद या तलाक की सूरत में परिवार की सम्पत्ति में से सभी की हिस्सेदारी के लिये न्यायसंगत व्यवस्था लागू की जावे, जो सभी धर्म के अनुयाईयों पर लागू हो।

4. सत्ता में आने पर प्रावधान किया जायेगा कि भारत में राजकाज के सम्पूर्ण कार्य हिन्दी एवं स्थानीय/क्षेत्रीय भाषाओं में किये जाने का प्रावधान किया जावे। कार्यपालिका, संसद एवं सर्वोच्च न्यायालय की भाषा केवल हिन्दी हो। अंग्रेजी में सरकारी काम काज पर पाबन्दी हो। विदेशों में होने वाले शोध का तत्कान हिन्दी एवं क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद करवाने के लिये हर तरह के तकनीकी साधनों से सम्पन्न एवं योग्यतम अनुवादकों की व्यवस्था हो। भारत में बिकने वाले किसी भी उत्पाद का विवरण अंग्रेजी में देना अपराध हो।

5. सत्ता में आने पर प्रावधान किया जायेगा कि सार्वजनिक रूप से मांस एवं शराब की विक्री पर पूर्ण प्रतिबन्ध हो और सार्वजनिक रूप से शराब पीना अजमानतीय-अपराध घोषित किया जावे।

6. सत्ता में आने पर प्रावधान किया जायेगा कि उच्चतर माध्यमिक स्तर (12) तक सभी सरकारी एवं गैर-सरकारी शिक्षण संस्थानों में सम्पूर्ण रूप से मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था हो। जिसका खर्चा सरकार वहन करे। इसके साथ-साथ सरकारी एवं गैर-सरकारी सभी शिक्षण संस्थानों में एक समान पाठ्यक्रम और राष्ट्रीयता भाव जगाने वाली विद्यार्थियों की एक जैसी ही वेशभूषा हो, जिससे किसी भी विद्यार्थी को विशेष परिस्थितियों में किसी भी अन्य विद्यालय में प्रवेश लेने में कोई परेशानी नहीं हो।

7. सत्ता में आने पर प्रावधान किया जायेगा कि गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले सभी समाजों के मेधावी बच्चों को उच्चतम स्तर तक पढाई करने के लिये सरकारी द्वारा खर्चा वहन करने की पुख्ता व्यवस्था हो।

8. सत्ता में आने पर प्रावधान किया जायेगा कि चुनावों की भ्रष्ट दलीय व्यवस्था समाप्त की जावे और स्वतन्त्र रूप से चुनाव लडने वाले उन प्रत्याशियों को, जो कम से कम पचास प्रतिशत वोट प्राप्त करने पर ही निर्वाचित घोषित किया जावे। चुनाव पाँच वर्ष के लिये हों, बीच में विधानसभा या लोकसभा भंग नहीं हो। राज्यसभा तत्काल समाप्त की जावे। मुख्यमन्त्री या प्रधानमन्त्री का चुनाव सदन में बहुमत के आधार पर किया जावे। दलबदल (विचारधारा/नेता बदलने) को पूर्ण मान्यता हो। कोई भी व्यक्ति अधिकतम तीन कार्यकाल तक ही विधायक या सांसद रह सके। कोई भी विधायक या सांसद अधिकतम दो कार्यकाल के लिये मंन्त्री या मुख्यमन्त्री या प्रधानमन्त्री रह सके। विधायिका के जिये यह जरूरी हो कि किसी भी प्रकार का कानून अपने कुल सदस्यों के बहुत से पारित किया जावे, न कि उपस्थित सदस्यों के बहुत से।

9. सत्ता में आने पर प्रावधान किया जायेगा कि किसी भी न्यायाधीश को या भारतीय प्रशासनिक सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी को 10 वर्ष की सेवा करने के बाद नौकरी छोडकर या सेवानिवृत्ति प्राप्त करने के बाद कम से कम 20 वर्ष तक सरकारी लाभ के पद पर पदस्थ होने या चुनाव लडने का अधिकार नहीं होगा

10. सत्ता में आने पर प्रावधान किया जायेगा कि देश की जनगणना जाति एवं धर्म के आधार पर की जावे, जिससे सभी जातियों एवं सभी धमों के बारे में भ्रम दूर हो सकें और कमजोर, गरीबी रेखा से नीचे और आरक्षित वर्ग की जनसंख्या के अनुसार उनके विकास के साधन उपलब्ध करवाये जा सकें।

11. सत्ता में आने पर प्रावधान किया जायेगा कि छुआछूत करने वाले को कम से कम १० वर्ष की सजा का प्रावधान हो और मामले का निर्णय होने तक दोषी को किसी भी सूरत में जमानत नहीं दी जावे एवं मामले को निर्णय तीन माह में करने की बाध्यता हो।

12. सत्ता में आने पर प्रावधान किया जायेगा कि लोक सेवकों द्वारा भ्रष्टाचार किये जाने पर, मिलावट करने पर या किसी भी प्रकार का मानव को क्षतिकारी उत्पाद बनाने या बेचने पर, कम से कम 20 वर्ष की सजा का प्रावधान हो और मामले का निर्णय होने तक दोषी को किसी भी सूरत में जमानत नहीं दी जावे एवं मामले को निर्णय हर हाल में तीन माह में करने की बाध्यता हो।

13. सत्ता में आने पर प्रावधान किया जायेगा कि संविधान में वर्णित मूल अधिकारों का विरोध करने वाले और किसी भी प्रकार के विभेद को बढावा देने वाले मनुस्मृति जैसे सभी धर्मग्रन्थों से असंगत एवं असंवैधानिक हिस्सों को स्वयं हिन्दुओं द्वारा एक वर्ष के अन्दर-अन्दर हटाकर फिर से सभी को अधिकृत हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित किया जावे। जिसका खर्चा भारत सरकार के खजाने से वहन किया जावे। असंगत विवरण वाले पूर्व प्रकाशित धर्मग्रन्थों को निर्धारित समय अवधि में स्वयं ही जलाने का आदेश हो और निर्धारित अवधि के बाद ऐसे धर्मग्रन्थों को रखने वालों के विरुद्ध सख्त दण्डात्मक कार्यवाही की जावे।

14. सत्ता में आने पर प्रावधान किया जायेगा कि हर वर्ग की महिलाओं को उनके अपने-अपने वर्ग में विधायिका में, शिक्षण संस्थानों में एवं सभी स्तर की सरकारी सेवाओं में संविधान के तहत पचास फीसदी आरक्षण दिया जाना सुनिश्चत किया जावे।

15. सत्ता में आने पर प्रावधान किया जायेगा कि आतंकवाद में लिप्त अपराधियों एवं आतंकवाद को समर्थन देने लोगों को कम से कम उम्रकैद एवं अधिकतम फांसी का सजा का प्रावधान हो और किसी भी सूरत में आतंकवाद से जुडे मामलों में एक वर्ष के अन्दर-अन्दर निर्णय का क्रियान्वयन हो जाना चाहिये। आतंकवादियों के मामलों में राष्ट्रपति या राज्यपालों को प्रदत्त क्षमा आचना की शक्तियों को समाप्त किया जावे।

16. सत्ता में आने पर प्रावधान किया जायेगा कि हजारों वर्षों से शोषित अजा एवं अजजा वर्ग के लोगों को सभी स्तर की सरकारी सेवाओं, शिक्षण संस्थाओं और विधायिका में जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण सुनिश्चित किया जावे।

17. सत्ता में आने पर प्रावधान किया जायेगा कि अन्य पिछडा वर्ग के लोगों को सभी स्तर की सरकारी सेवाओं, शिक्षण संस्थाओं और विधायिका में जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण सुनिश्चित किया जावे।

18. सत्ता में आने पर प्रावधान किया जायेगा कि किसी भी लोक सेवक के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने से पूर्व सरकार की मंजूरी जरूरी नहीं हो।

19. सत्ता में आने पर लोगों को तुरन्त न्याय दिलाने हेतु प्रावधान किया जायेगा कि न्यायाधीशों की संख्या में 25 प्रतिशत बढोतरी की जावे।

20. सत्ता में आने पर प्रावधान किया जायेगा कि भ्रष्ट या अनैतिक कार्यों में लिप्त न्यायाधीशों जन प्रतिनिधियों, मंत्रियों आदि सभी को भी आम लोक सेवकों की भांति कानूनी कार्यवाही का सामना करना होगा।

21. किसी भी लोक सेवक को उसके विभाग की ओर से किसी भी प्रकार की सेवा या सुविधा मुफ्त में नहीं दी जायेगी। जिससे देश के बजट पर भार नहीं पडे और आम नागरिक के लिये सुविधाएँ मंहगी नहीं हों।

यदि हिन्दूवादी या राष्ट्रवादी इन कुछेक सुधारों को करने को सहमत हों तो न मात्र इस देश में हिन्दुत्व कायम होगा, अपितु भारत फिर से सोने की चिड़िया का सम्मान हासिल कर सकेगा और भारत को दांत दिखाने से पूर्व कोई भी दस बार सोचेगा। हाँ यदि हिन्दूवादी केवल 15 प्रतिशत उच्च जातीय आबादी के हितों को ही राष्ट्रीय हित मानते हैं तो फिर इस देश में कभी भी वो नहीं हो सकता, जो हिन्दूवादी चाहते हैं।

Friday, March 19, 2010

नक्सलवाद का कडवा सच!

हमारे देश में नक्सलवाद को राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री देश की सबसे बडी या आतंकवाद के समकक्ष समस्या बतला चुके हैं। अनेक लेखक भी वातानुकूलित कक्षों में बैठकर नक्सलवाद के ऊपर खूब लिख रहे हैं। राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री का बयान लिखने वालों में से अधिकतर ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की वस्तुस्थिति जाकर देखना तो दूर, उन क्षेत्रों के जिला मुख्यालयों तक का दौरा नहीं किया है। अपने आप को विद्वान कहने वाले और बडे-बडे समाचार-पत्रों में बिकने वाले अनेक लेखक भी नक्सलवाद पर लिखते हुए नक्सलवाद को इस देश का खतरनाक कोढ बतला रहे हैं।

कोई भी इस समस्या की असली तस्वीर पेश करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। या यह कहा जाये कि असल समस्या के बारे में उनको ज्ञान ही नहीं है। अनेक तो नक्सलवाद पर की असली तस्वीर पेश करने की खतरनाक यात्रा के मार्ग पर चाहकर भी नहीं चलना चाहते हैं। ऐसे में कूटनीतिक सोच एवं लोगों को मूर्ख बनाने की नीति से लिखे जाने वाले आलेख और राजनेताओं के भाषण इस समस्या को उलझाने के सिवा और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। राजनेता एवं नौकरशाहों की तो मजबूरी है, लेकिन स्वतन्त्र लेखकों से ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे असल को छोडकर सत्ता के गलियारे से निकलने वाली ध्वनि की नकल करते दिखाई दें। जिन लेखकों की रोजी रोटी बडे समाचार पत्रों में झूठ को सज बनाकर लेखन करने से चलती है, उनकी विवशता तो समझ में आती हैं, लेकिन सिर्फ अपने अन्दर की आवाज को सुनकर लिखने वालों को कलम उठाने से पहले अपने आपसे पूछना चाहिये कि मैं नक्सलवाद के बारे में अपने निजी अनुभव के आधार पर कितना जानता हँू? यदि आपकी अन्तर्रात्मा से उत्तर आता है कि कुछ नहीं, तो मेहरबानी करके इस देश और समाज को गुमराह करने की कुचेष्टा नहीं करें।

नक्सवाद पर कुछ लिखने से पहले मैं विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि मैं किसी भी सूरत में हिंसा का पक्षधर नहीं हूँ और नक्लल प्रभावित निर्दोष लोगों के प्रति मेरी सम्पूर्ण सहानुभूति है। इसलिये इस आलेख के माध्यम से मैं हर उस व्यक्ति को सम्बोधित करना चाहता हूँ, जिन्हें इंसाफ की व्यवस्था को बनाये रखने में आस्था और विश्वास हो। जिन्हें संविधान द्वारा प्रदत्त इस मूल अधिकार (अनुच्छे-14) में विश्वास हो, जिसमें साफ तौर पर कहा गया है कि देश के प्रत्येक व्यक्ति को कानून के समक्ष समान समझा जायेगा और प्रत्येक व्यक्ति को कानून का समान संरक्षण प्रदान किया जायेगा। जिनको संवैधानिक व्यवस्था मैं आस्था और विश्वास हो, लेकिन याद रहे, केवल कागजी या दिखावटी नहीं, बल्कि जिन्हें समाज की सच्ची तस्वीर और समस्याओं के व्यावहारिक पहलुओं का भी ज्ञान हो वे ही इन बातों को समझ सकते हैं। अन्यथा इस लेख को समझना आसान या सरल नहीं होगा?

यदि उक्त पंक्तियों को लिखने में मैंने धृष्टता नहीं की है तो कृपया सबसे पहले बिना किसी पूर्वाग्रह के इस बात को समझने का प्रयास करें कि एक ओर तो कहा जाता है कि हमारे देश में लोकतन्त्र है और दूसरी ओर लोकतन्त्र के नाम पर 1947 से लगातार यहाँ के बहुसंख्यक लोगों के समक्ष चुनावों का नाटक खेला जा रहा है। यदि देश में वास्तव में ही लोकतन्त्र है तो सरकार एवं प्रशासनिक व्यवस्था में देश के सभी वर्गों का समान रूप से प्रतिनिधित्व क्यों नहीं है? सभी वर्गों के लोगों की हर क्षेत्र में समान रूप से हिस्सेदारी भी होनी चाहिये। अन्यथा तो लोकतन्त्र होने के कोई मायने ही नहीं रह जाते हैं!

कुछ कथित प्रबुद्ध लोग कहते हैं, कि इस देश में तो लोकतन्त्र नहीं, केवल भीड तन्त्र है। इस विचारधारा के लोगों से मेरा सवाल है कि यदि लोकतन्त्र नहीं, भीडतन्त्र है तो केवल दो प्रतिशत लोगों के हाथ में इस देश की सत्ता और संसाधन क्यों हैं? भीडतन्त्र का प्रभाव दिखाई क्यों नहीं देता? भीडतन्त्र के पास तो सत्ता की चाबी होती है, फिर भी भीडतन्त्र इन दो प्रतिशत लोगों को सत्ता एवं संसाधनों से बेदखल क्यों नहीं कर पा रहा है? इन सवालों के उत्तर तलाशने पर पता चलेगा कि न तो इस देश में सच्चे अर्थों में लोकतन्त्र है और न हीं इस देश की ताकत भीडतन्त्र के पास है!

उपरोक्त परिप्रेक्ष में नक्सलवाद को समझने के लिये हमें आदिवासियों के बारे में भी कुछ मौलिक बातों को समझना बहुत जरूरी है, क्योंकि अधिसंख्य लोगों द्वारा यह झूठ फैलाया जा रहा है कि केवल आदिवासी ही नक्सलवाद का संवाहक है! वर्तमान में आदिवासी की दशा, इस देश में सबसे बुरी है। इस बात को स्वयं भारत सरकार के आँकडे ही प्रमाणित करते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि आजादी के बाद से आज तक आदिवासी का केवल शोषण ही शोषण किया जाता रहा है। मैं एक ऐसा कडवा सच उद्‌घाटित करने जा रहा हँू, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं! वो यह कि आजादी के बाद से दलित नेतृत्व ने भी आदिवासी वर्ग का जमकर शोषण, अपमान एवं तिरस्कार किया है। आदिवासियों के साथ दलित नेतृत्व ने हर मार्चे पर कुटिल विभेद किया है। इसकी भी वजह है। आदिवासियों के शोषण का हथियार स्वयं सरकार ने दलित नेतृत्व के हाथ में थमा दिया है।

इस देश के संविधान में अनुसूचित जाति (दलित) एवं अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) नाम के दो आरक्षित वर्ग प्रारम्भ से ही बनाये गये हैं। जिन्हें संक्षेप में एससी एवं एसटी कहा जाता है। यही संक्षेपीकरण सम्पूर्ण आदिवासियों का और इस देश के इंसाफ पसन्द लोगों का दुर्भाग्य है। इन एससी एवं एसटी दो संक्षेप्ताक्षरों को आजादी के बाद से आज तक इस देश के सभी राजनेताओं और नौकरशाहों ने पर्यायवाची की तरह प्रयोग किया है। इन दोनों वर्गों के उत्थान के लिये बनायी गयी नीतियों में कहीं भी इन दोनों वर्गों के लिये अलग-अलग नीति बनाने पर ध्यान नहीं दिया गया।

सरकार की कुनीतियों के चलते, एससी एवं एसटी वर्गों के कथित हितों के लिये काम करने वाले सभी संवैधानिक, सरकारी, संसदीय, गैर-सरकारी एवं समाजिक प्रकोष्ठों पर देशभर में केवल एससी के लोगों ने ऐसा कब्जा जमाया कि आदिवासियों के हित दलित नेतृत्व के यहाँ गिरवी हो गये। दलित नेतृत्व ने एससी एवं एसटी के हितों की रक्षा एवं संरक्षण के नाम पर केवल एससी के हितों का ध्यान रखा। केन्द्र या राज्यों की सरकारों द्वारा तो यह तक नहीं पूछा जाता कि एससी एवं एसटी वर्गों के अलग-अलग कितने लोगों या जातियों या समाजों का उत्थान किया गया? ०९ प्रतिशत मामलों में इन दोनों वर्गों की प्रगति रिपोर्ट भेजने वाले और उनका सत्यापन करने वाले दलित होते हैं। जिन्हें आमतौर पर इस बात से कोई सारोकार नहीं होता कि आदिवासियों के हितों का संरक्षण हो रहा है या नहीं और आदिवासियों के लिये स्वीकृत बजट दलितों के हितों पर क्यों खर्चा जा रहा है या क्यों लैप्स हो रहा है?

आदिवासियों के उत्थान की कथित योजनाओं के क्रियान्वयन के लिये ऐसे लोगों को जिम्मेदारी दी जाती रही है, जो आदिवासियों की पृष्ठभूमि को एवं आदिवासियों की समस्याओं के बारे में तो कुछ नहीं जानते, लेकिन यह अच्छी तरह से जानते हैं कि बिना कुछ किये आदिवासियों के लिये आवण्टित फण्ड को हजम कैसे किया जाता है! ऐसे ब्यूरोके्रट्‌स को दलित नेतृत्व का पूर्ण समर्थन मिलता रहा है। स्वाभाविक है कि उन्हें भी इसमें से हिस्सेदारी मिलती होगी? यहाँ यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि दलित नेतृत्व में सभी लोग आदिवासियों के विरोधी या दुश्मन नहीं हैं, बल्कि आम दलित तो आज भी आदिवासी के प्रति बेहद संवेदनशील है।
यही नहीं यह जानना भी जरूरी है कि एक जाति विशेष के कुछेक चालाक लोगों ने एससी एवं एसटी वर्गों की कथित एकता के नाम पर हर जगह कभी न समाप्त किया जा सकने वाला कब्जा जमा रखा है। ये लोग एससी की अन्य कमजोर (संख्याबल में) जातियों के भी शोषक हैं। आदिवासी भी प्रशासन में संख्यात्मक दृष्टि से दलितों की तुलना मे आधे से भी कम है। जिस देश में हर जाति एक राष्ट्रीय पहचान रखती हो, उस देश में एक वर्ग में बेमेल जातियों को शामिल कर देना और संवैधानिक रूप से दो भिन्न वर्गों (एससी एवं एसटी) को एक ही डण्डे से हाँकना, किस बेवकूफ की नीति है? यह तो सरकार ही बतला सकती है, लेकिन यह सही है कि आदिवासी की पृष्ठभूमि एवं जरूरत को आज तक न तो समझा गया है और न हीं इस दिशा में सार्थक पहल की जा रही है।

दूसरी ओर इस देश के केवल दो प्रतिशत लोग लच्छेदार अंग्रेजी में दिये जाने वाले तर्कों के जरिये इस देश को लूट रहे हैं और 98 प्रतिशत लोगों को मूर्ख बना रहे हैं। मुझे तो यह जानकर आश्चर्य हुआ कि इन दो प्रतिशत लोगों में हत्या जैसे जघन्य अपराध करने वालों की संख्या तुलनात्मक दृष्टि से कई गुनी है, लेकिन उनमें से किसी बिरले को ही कभी फांसी की सजा सुनाई गयी होगी? इसके पीछे भी कोई न कोई कुटिल समझ तो काम कर ही रही है। अन्यथा ऐसा कैसे सम्भव है कि अन्य 98 प्रतिशत लोगों को छोटे और कम घिनौने मामलों में भी फांसी का हार पहना कर देश के कानून की रक्षा करने का फर्ज बखूबी निभाया जाता रहा है। यदि किसी को विश्वास नहीं हो तो सूचना अधिकार कानून के तहत सुप्रीम कोर्ट से आंकडे प्राप्त करके स्वयं जाना जा सकता है कि किस-किस जाति के, कितने-कितने लोगों ने एक साथ एक से अधिक लोगों की हत्या की और उनमें से किस-किस जाति के, कितने-कितने लोगों को फांसी की सजा दी गयी और किनको चार-पाँच लोगों की बेरहमी से हत्या के बाद भी केवल उम्रकैद की सजा सुनाई गयी? आदिवासियों को सुनाई गयी सजाओं के आंकडों की संख्या देखकर तो कोई भी संवेदनशील व्यक्ति सदमाग्रस्त हो सकता है!

यही नहीं आप आँकडे निकाल कर पता कर लें कि किस जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार अधिक होते हैं? किस जाति के लोग बलात्कार अधिक करते हैं और किस जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार होने पर सजा दी जाती है एवं किस जाति की महिला के साथ बलात्कार होने पर मामला पुलिस के स्तर पर ही रफा-दफा कर दिया जाता है या अदालत में जाकर कोई सांकेतिक सजा के बाद समाप्त हो जाता है?

आप यह भी पता कर सकते हैं कि इस देश के दो प्रतिशत महामानवों के मामलों में प्रत्येक स्तर पर कितनी जल्दी न्याय मिलता है, जबकि शेष 98 प्रतिशत के मामलों में केवल तारीख और तारीख बस! मानव अधिकार आयोग, महिला आयोग आदि के द्वारा सुलटाये गये मामले उठा कर देखें, इनमें कितने लोगों को न्याय या मदद मिलती है? यहाँ पर भी जाति विशेष एवं महामानव होने की पहचान काम करती है। पेट्रोल पम्प एवं गैस ऐजेंसी किनको मिल रही हैं? अफसरों में जिनकी गोपनीय रिपोर्ट गलत या नकारात्मक लिखी जाती है, उनमें किस वर्ग के लोग अधिक हैं तथा नकारात्मक गोपनीय रिपोर्ट लिखने वाले कौन हैं? संघ लोक सेवा आयोग द्वारा कौनसी दैवीय प्रतिभा के चलते केवल दो प्रतिशत लोगों को पचास प्रतिशत से अधिक पदों पर चयनित किया जाता रहा है? जानबूझकर और दुराशयपूर्वक मनमानी एवं भेदभाव करने की यह फेहरिस्त बहुत लम्बी है!

ऐसी असंवेदनशील, असंवैधानिक, विभेदकारी और मनमानी प्रशासनिक व्यवस्था एवं शोषक व्यवस्था में आश्चर्य इस बात का नहीं होना चाहिये कि नक्सनवाद क्यों पनप रहा है, बल्कि आश्चर्य तो इस बात का होना चाहिये कि इतना अधिक क्रूरतापूर्ण दुर्व्यवहार होने पर भी केवल नक्लवाद ही पनप रहा है? लोग अभी भी आसानी से जिन्दा हैं? अभी भी लोग शान्ति की बात करने का साहस जुटा सकते हैं? लोगों को इतना होने पर भी लोकतन्त्र में विश्वास है?

एक झूट की ओर भी पाठकों का ध्यान खींचना जरूरी है, वह यह कि नक्लवादियों के बारे में यह कु-प्रचारित किया जाता रहा है कि नक्सली केवल आदिवासी हैं! जबकि सच्चाई यह है कि हर वर्ग का, हर वह व्यक्ति जिसका शोषण हो रहा है, जिसकी आँखों के सामने उसकी माँ, बहन, बेटी और बहू की इज्जत लूटी जा रही है, नक्सलवादी बन रहा है! कल्पना करके देखें माता-पिता की आँखों के सामने उनकी 13 से 16 वर्ष की उम्र की लडकी का सामूहिक बलात्कार किया जाता है और स्थानीय पुलिस उनकी रिपोर्ट तक दर्ज नहीं करती! स्थानीय जन-प्रतिनिधि आहत परिवार को संरक्षण देने के बजाय बलात्कारियों को पनाह देते हैं! तहसीलदार से लेकर राष्ट्रपति तक गुहार करने के बाद भी कोई सुनवाई नहीं होती है। ऐसे हालात में ऐसे परिवार के माता-पिता या बलात्कारित बहनों के भाईयों को क्या करना चाहिये? इस सवाल का उत्तर इस देश के संवेदनशील और इंसाफ में आस्था एवं विश्वास रखने वाले पाठकों से अपेक्षित है।

दूसरी तस्वीर, अपराध कोई ओर (बलशाली) करता है और पुलिस द्वारा दोषी से धन लेकर या अन्य किसी दुराशय से किसी निर्दोष को फंसा दिया जाता है। बेकसूर होते हुए भी वह कई वर्षों तक जेल में सडता रहता है। इस दौरान जेल गये व्यक्ति का परिवार खेती, पशु आदि सब बर्बाद हो जाते हैं। उसकी पत्नी और, या युवा बहन या बेटी को अगवा कर लिया जाता है। या उन्हें रखैल बनाकर रख लिया जाता है। अनेक बार तो 15 से 20 वर्ष के युवाओं को ऐसे मामलों में फंसा दिया जाता है और उनकी सारी जवानी जेल में ही समाप्त हो जाती है। जब कोई सबूत नहीं मिलता है तो वर्षों बाद अदालत इन्हें रिहा कर देती है, लेकिन ऐसे लोगों का न तो कोई मान सम्मान होता है और न हीं इनके जीवन का कोई मूल्य होता है। इसलिये अकारण वर्षों जेल में रहने के उपरान्त भी इनको किसी भी प्रकार का मुआवजा मिलना तो दूर, ये लोग जानते ही नहीं कि मुआवजा है किस चिडिया का नाम!

हम सभी जानते हैं कि सरकार को गलत ठहराकर, सरकार से मुआवजा प्राप्त करना लगभग असम्भव होता है। इसीलिये सरकार से मुआवजा प्राप्त करने के लिये अदालत की शरण लेनी पडती है, जिसके लिये वकील नियुक्त करने के लिये जरूरी दौलत इनके पास होती नहीं और इस देश की कानून एवं न्याय व्यवस्था बिना किसी वकील के ऐसे निर्दोष को, निर्दोष करार देकर भी सुनना जरूरी नहीं समझती है। इसके विपरीत अनेक ऐसे मामले भी इस देश में हुए हैं, जिनमें अदालत स्वयं संज्ञान लेकर मुआवजा प्रदान करने के आदेश प्रदान करती रही हैं, लेकिन किसी अपवाद को छोडकर ऐसे आदेश केवल उक्त उल्लिखित दो प्रतिशत लोगों के पक्ष में ही जारी किये जाते हैं।

मुझे याद आता है कि एक जनहित के मामले में एक सामाजिक कार्यकर्ता ने अपने राज्य के उच्च न्यायालय को अनेक पत्र लिखे, लेकिन उन पर कोई संज्ञान नहीं लिया गया, जबकि कुछ ही दिन बाद उन पत्रों में लिखा मामला एक दैनिक में प्रकाशित हुआ और उच्च न्यायालय ने स्वयं संज्ञान लेकर उसे जनहित याचिका मानकर हाई कोर्ट के तीन वकीलों का पैनल उसकी पैरवी करने के लिये नियुक्त कर दिया। अगले दिन दैनिक में हाई कोर्ट के बारे में बडे-बडे अक्षरों में समाचार प्रकाशित हुआ और हाई कोर्ट द्वारा संज्ञान लिये जाने के पक्ष में अखबार द्वारा सदीके पढे गये। इन हालातों में अन्याय, भेदभाव और क्रूरतापूर्ण दुर्व्यवहार के चलते पनपने वाले नहीं, बल्कि जानबूझकर पनपाये जाने वाले नक्सलवाद को, जो लोग इस देश की सबसे बडी समस्या बतला रहे हैं, असल में वे स्वयं ही इस देश की सबसे बडी समस्या हैं!

जैसा कि वर्तमान में सरकार द्वारा नक्सलियों के विरुद्ध संहारक अभियान चलाया जा रहा है, उस अभियान के मार्फत नक्लवादियों को मारकर इस समस्या से कभी भी स्थायी रूप से नहीं निपटा जा सकता, क्योंकि बीमार को मार देने से बीमारी को समाप्त नहीं किया जा सकता। यदि बीमारी के कारणों को ईमानदारी से पहचान कर, उनका ईमानदारी से उपचार करें तो नक्सलवाद क्या, किसी भी समस्या का समाधान सम्भव है, लेकिन अंग्रेजों द्वारा कुटिल उद्देश्यों की पूर्ति के लिये स्थापित आईएएस एवं आईपीएस व्यवस्था के भरोसे देश को चलाने वालों से यह आशा नहीं की जा सकती कि नक्सलवाद या किसी भी समस्या का समाधान सम्भव है! कम से कम डॉ. मनमोहन सिंह जैसे पूर्व अफसरशाह के प्रधानमन्त्री रहते तो बिल्कुल भी आशा नहीं की जा सकती।-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'