मेरे शुभचिंतक और समालोचक जिनके विश्वास एवं संबल पर मैं यहाँ लिख पा रहा हूँ!

यदि आपका कोई अपना या परिचित पीलिया रोग से पीड़ित है तो इसे हलके से नहीं लें, क्योंकि पीलिया इतना घातक है कि रोगी की मौत भी हो सकती है! इसमें आयुर्वेद और होम्योपैथी का उपचार अधिक कारगर है! हम पीलिया की दवाई मुफ्त में देते हैं! सम्पर्क करें : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, 098750-66111

Wednesday, October 5, 2016

भाजपा की राजस्थान सरकार के ‘सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय’ के ब्राह्मण मंत्री के स्थान पर किसी वंचित वर्ग के, सामाजिक न्याय के प्रति संवेदनशील किसी योग्य विधायक को बनवाया जावे।

प्रेषक :
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन
राष्ट्रीय कार्यालय : 7, तँवर कॉलोनी, खातीपुरा रोड, जयपुर (राजस्थान)
पत्रांक : एचआरडी/राष्ट्रीय प्रमुख/सामाजिक न्याय/16-5. दिनांक : 05 अक्टूबर, 2016
————————————————————————————
प्रेषिति :
प्रधानमंत्री : भारत सरकार, नयी दिल्ली।
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय जनता पार्टी, नयी दिल्ली!
विषय : भाजपा की राजस्थान सरकार के ‘सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय’ के ब्राह्मण मंत्री के स्थान पर किसी वंचित वर्ग के, सामाजिक न्याय के प्रति संवेदनशील किसी योग्य विधायक को बनवाया जावे। जिससे कम से कम सैद्धान्तिक तौर पर ही सही वंचित वर्ग को सामाजिक न्याय की उम्मीद तो बंधी रहे।
माननीय आप दोनों को अच्छी तरह से ज्ञात है कि भारत में उच्चवर्गीय आर्य ब्राह्मणों द्वारा हजारों सालों से धर्म की ओट में किये गये अन्याय और भेदभाव के कारण देश की 85 फीसदी से अधिक जनसंख्या प्रत्येक क्षेत्र में न मात्र अत्यधिक पिछड़ गयी, बल्कि दुराशयपूर्वक हर क्षेत्र में अधिकारों और प्रतिनिधित्व से वंचित कर दी गयी। साथ ही अमानवीय जीवन जीने को विवश कर दी गयी। ऐसे घिनौनी ब्राह्मणी व्यवस्था से मुक्ति हेतु हमारे संविधान की प्रस्तावना सहित, मूल अधिकारों में सामाजिक न्याय की अवधारणा को प्रमुखता से समाहित किया गया है। प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक न्याय की स्थापना के लिये केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों द्वारा ‘सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय’ की स्थापना की गयी है। सरकारों के लिये संवैधानिक बाध्यता न होते हुए भी आपकी केन्द्र सरकार सहित, सभी सरकारों द्वारा ‘सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय’ का प्रभारी मंत्री वंचित वर्ग के किसी जन प्रतिनिधि को ही बनाया जाता रहा है।
मगर अत्यन्त दु:ख और शर्म की बात है कि भाजपा शासित राजस्थान सरकार की मुख्यमंत्री ने सभी परम्पराओं और सामाजिक न्याय की स्थापना के प्रति सरकार की संवैधानिक प्रतिबद्धता को दरकिनार करते हुए राज्य के ‘सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय’ का मंत्री एक ब्राह्मण को बनाया हुआ है। जिनके नेतृत्व में पहले दिन से आरक्षित/वंचित वर्ग/विकलांग वर्ग तक के अधिकारों का लगातार हनन होता आ रहा है। आरक्षित वर्ग के विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति तक नहीं मिल रही है। मुख्यमंत्री के इस असंवैधानिक कुठाराघत पर प्रतिपक्ष, वंचित वर्ग के जनप्रतिनिधियों और सामाजिक संगठनों की दु:खद चुप्पी, आपसी आन्तरिक राजनैतिक तालमेल और, या सरकारी आतंक से भयाक्रांतता का जीता-जागता प्रमाण है।
अत: आप दोनों शीर्ष नेतृत्वकर्ताओं से आग्रह है कि अपने अधिकार और, या प्रभाव का उपयोग करते हुए भाजपा की राजस्थान सरकार के ‘सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय’ का मंत्री किसी वंचित वर्ग के, सामाजिक न्याय के प्रति संवेदनशील किसी योग्य विधायक को बनवाये जाने के निर्देश दिये जावें। जिससे कम से कम सैद्धान्तिक तौर पर ही सही, वंचित वर्ग को सामाजिक न्याय की उम्मीद तो बंधी रहे। 
उम्मीद की जाती है कि इस बारे में की गयी कार्यवाही से तत्काल अवगत करवाया जायेगा।
भवदीय
नोट : हाथ में फ्रेक्चर के कारण हस्ताक्षर के
स्थान पर बांये हाथ का अंगूठा लगाया है।

(डॉ. पुरुषोत्तम मीणा)
राष्ट्रीय प्रमुख
मो./वाट्स एप नं. : 9875066111
प्रतिलिपि : सम्पादक-समाचार-पत्र/इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एवं सम्पादक-ऑन लाईन न्यूज पोर्टल्स को सादर।

Tuesday, October 4, 2016

ऐसे निर्दयी रिश्तों और समाज का मूल्य क्या है?

ऐसे निर्दयी रिश्तों और समाज का मूल्य क्या है?
=========================
लेखक : सेवासुत डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
हमारे समाज में बात-बात पर रिश्तों, नैतिकता, संस्कारों और संस्कृति की दुहाई दी जाती है। जिनकी आड़ में अकसर खुनकर नजर आने वाली हकीकत और सत्य से मुख मोड़ लिया जाता है। जबकि समाजिक और खूनी रिश्तों का असली चेहरा अत्यन्त विकृत हो चुका है। आत्मीय रक्त सम्बन्धों में असंवेदनशीलता/ Insensibility/Non-Sensitivity और उथलापन/Shallowness अब बहुत आम बात हो चुकी है। यदि हम अपने आसपास सतर्क और पैनी दृष्टि से अवलोकन करें तो एक नहीं कई सौ ऐसे क्रूर उदाहरण देखने को मिल जायेंगे। जिन पर सहजता से सार्वजनिक रूप से बात तक नहीं की जा सकती। कुछ आँखों देखे हर जगह देखे जा सकने वाले उदाहरण :—
1. अपने पूर्वाग्रहों के चलते बेटे अपने ही पिता की हत्या करने को उद्यत/prepared रहते हैं। मारपीट आम बात बन चुकी है। अनेक बार पिता की हत्या तक कर दी जाती हैं।
2. पिता द्वारा अपने ही बेटों में से किसी एक कमजोर बेटे के साथ साशय/intentionally और क्रूरतापूर्ण विभेद किया जाता है। जिसकी कीमत वह जीवनभर चुकाने को विवश हो जाता है।
3. रिश्वत तथा उच्च पद की ताकत से मदमस्त कुछ भाईयों द्वारा अपने से कमजोर भाई या भाईयों के साथ सरेआम अपमान, विभेद तथा नाइंसाफी की जाती है।
उपरोक्त हालातों में आर्थिक रूप से कमजोर और उच्च-पदस्थ सक्षम भाईयों, पिता, बेटों के आतंक का दुष्परिणाम, कमजोर और उत्पीड़ितों के लिये मानसिक विषाद, तनाव और अनेक मामलों में आत्महत्या की घटनाओं तक में देखने-सुनने को मिलता है। इससे भी दुखद यह है कि ऐसी अमानवीय तथा आपराधिक घटनाओं को हम, सभ्य समाज के सभ्य लोग सिर्फ छोटी सी घटना और, या खबर मानकर अनदेखी करते रहते हैं, जबकि ऐसी घटनाएं ही समाज और समाज के ताने-बाने का ध्वस्त कर रहती हैं। ऐसी अनदेखी ही आत्मीय रिश्तों को बेमौत मार देती हैं। कितने ही पुत्र, पिता और भाई आत्मग्लानी, तनाव, रुदन और आत्मघात के शिकार हो रहे हैं। बावजूद इसके ऐसे मामले सूचना क्रान्ति के वर्तमान युग में भी दबे-छिपे रहते हैं, क्योंकि आत्मीय रिश्तों को किसी भी तरह से बचाने की जद्दो-जहद में इस प्रकार की अन्यायपूर्ण घटनाएं चाहकर भी व्यथित पक्ष द्वारा औपचारिक तौर पर सार्वजनिक रूप उजागर नहीं की जाती हैं। यद्यपि उत्पीड़क और उत्पीड़ित दोनों ही पक्षों के बारे में आस-पास के लोग और सभी रिश्तेदार सबकुछ जानते हुए भी मौन साधे रहते हैं। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि व्यथित और उत्पीड़ित पक्ष के लिये ऐसे निर्दयी रिश्तों और समाज का मूल्य क्या है?
लेखक : सेवासुत डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
मोबाईल एवं वाट्स एप नं. : 9875066111

Wednesday, April 22, 2015

किसानों की आत्महत्या-लोकतंत्र की असफलता-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा

किसानों की आत्महत्या-लोकतंत्र की असफलता-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा
=============================================
आत्महत्या किसी समस्या का समाधान नहीं, लेकिन आत्महत्या करने को कोई क्यों विवश होता है, ये सवाल उत्तर माँगता है!
देश में लगातार हो रही किसानों की आत्महत्या, प्रशासन, सरकार और जनप्रतिनिधियों के निष्ठुर होने का अकाट्य प्रमाण!
लोकतंत्र को सर्वश्रेष्ठ शासन व्यवस्था मानकर अपनाया गया था, लेकिन किसानों की आत्महत्याओं के चलते अब ये भ्रम भरभराकर टूट रहा है!
दलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में संवेदनशील जन-प्रतिनिधि नहीं, बल्कि असंवेदनशील दल+प्रतिनिधि पैदा हो रहे हैं, दुष्परिणाम-किसानों की आत्महत्या!
निष्ठुर और असंवेदनशील जन-प्रतिनिधि, नहीं, दल-प्रतिनिधि जनता का विश्वास खो चुके हैं! लोकतंत्र असफल हो रहा है!
ऐसे में सर्वाधिक विचारणीय सवाल-क्या लोकतंत्र असफल हो गया है या असफल किया जा चुका है? क्या किसानों की आत्महत्या-लोकतंत्र की असफलता का प्रमाण नहीं?
अत: क्या अब वर्तमान लोकतंत्र से बेहतर किसी नयी और अधिक जनोन्मुखी शासन व्यवस्था को ईजाद करने का समय नहीं आ गया है?-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा

Monday, April 13, 2015

एनसीआरटी की स्थापना से आज तक अजा/अजजा के कर्मचारियों के साथ भेदभाव जारी कार्यवाही हेतु हक रक्षक दल के प्रमुख ने प्रधानमंत्री और मानव संसाधन मंत्री को पत्र लिखा

एनसीआरटी की स्थापना से आज तक अजा/अजजा के कर्मचारियों के साथ भेदभाव जारी
कार्यवाही हेतु हक रक्षक दल के प्रमुख ने प्रधानमंत्री और मानव संसाधन मंत्री को पत्र लिखा
=========================================================
जयपुर। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) में अजा/अजजा के कर्मचारियों के मौलिक अधिकारों का हनन, अत्याचार, भेदभाव और मनमानी के विरुद्ध दण्डात्मक कार्यवाही करने के सम्बन्ध में हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन के राष्ट्रीय प्रमुख डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ने प्रधानमंत्री, भारत सरकार, नयी दिल्ली और मानव संसाधन मंत्री भारत सरकार, नयी दिल्ली को पत्र लिखकर मांग की है कि अजा एवं अजजा वर्गों के कर्मचारियों को जानबूझकर क्षति पहुंचाने वाले गैर अजा/अजजा प्रशासकों के खिलाफ कठोर दंडात्मक कार्यवाही की जावे और अभियान चलाकर अजा एवं अजजा वर्गों के कर्मचारियों को पदोन्नतियां प्रदान की जावें।
पत्र में डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ने लिखा है कि हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन के राष्ट्रीय प्रमुख डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ने प्रधानमंत्री, भारत सरकार, नयी दिल्ली और मानव संसा को प्राप्त जानकारी के अनुसार-भारत सरकार के मानव संसाधन विभाग के अधीन संचालित राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद में इसकी स्थापना से आज तक अजा एवं अजजा के कर्मचारियों को संविधान में निर्धारित प्रावधानों और सरकारी नीति तथा प्रक्रियानुसार पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करने के लिये विधिवत रोस्टर बनाकर लागू नहीं किया गया है। रोस्टर में जानबूझकर विसंगतियॉं छोड़ने वाले कर्मचारियों को अनारक्षित वर्ग के उच्चाधिकारियों का दुराशयपूर्ण संरक्षण प्राप्त है। अजा एवं अजजा वर्गों के कर्मचारियों के उच्च श्रेणी में पद रिक्ति होने के वर्षों बाद तक डीपीसी का गठन नहीं किया जाता है। यही नहीं अजा एवं अजजा वर्गों के कर्मचारियों की पदोन्नति की पात्रता में किसी भी प्रकार की छूट का नियम लागू नहीं किया गया है। जबकि भारत सरकार की सभी मंत्रालयों में इस प्रकार की छूट के स्पष्ट प्रावधान लागू हैं।

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ने आगे लिखा है कि इस प्रकार उपरोक्त कारणों से राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद की स्थापना से आज तक अनारक्षित वर्ग के उच्च पदस्थ प्रशासकों द्वारा निम्न से उच्च पदों पर अजा एवं अजजा के कर्मचारियों की पदोन्नति दुराशयपर्वक बाधित की जाती रही हैं और इस कारण राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद की स्थापना से आज तक उच्चतम पदों पर अजा एवं अजजा वर्गों का संविधान के अनुच्छेद 16 (4) के अनुसार पर्याप्त और निर्धारित प्रतिनिधित्व सम्भव नहीं हो पाया है। जिसके चलते अजा एवं अजजा के निम्न स्तर के कर्मचारियों का संरक्षण और उनका उत्थान असंसभव हो चुका है। परिषद के उच्च पदस्थ गैर-अजा एवं अजजा वर्ग के प्रशासकों का यह कृत्य अजा एवं अजजा अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 की धारा 3 (1) (9) के तहत दण्डनीय अपराध की श्रेणी में आता है।

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ने उपरोक्त तथ्यों से अवगत करवाकर प्रधानमंत्री और मानव संसाधन मंत्री  से आग्रह है कि-

1. अजा एवं अजजा वर्गों के कर्मचारियों को पदोन्नति की क्षति पहुँचाने वाले गैर-अजा एवं अजजा वर्गों के उपरोक्तानुसार लिप्त रहे सभी प्रशासकों के विरुद्ध अजा एवं अजजा अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 की धारा 3 (1) (9) के तहत आपराधिक मुकदम दर्ज करवाकर उन्हें कारवास की सजा दिलवाई जावे और साथ ही साथ ऐसे प्रशासकों के विरुद्ध विभागीय सख्त अनुशासनिक कार्यवाही भी की जावे। जिससे भविष्य में अजा एवं अजजा वर्गों के हितों को नुकसान पहुँचाने की कोई गैर-अजा एवं अजजा वर्गों का प्रशासक हिम्मत नहीं जुटा सके।
2. राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद की स्थापना से आज तक अजा एवं अजजा वर्गों को हुए नुकसान की भरपाई करने के लिये किसी बाहरी स्वतन्त्र और निष्पक्ष ऐजेंसी से सभी पदों का सही रोस्टर बनवाया जावे और भारत सरकार की नीति के अनुसार पदोन्नति पात्रता में शिथिलता प्रदान करते हुए अजा एवं अजजा वर्गों के समस्त रिक्त पदों को अभियान चलाकर तुरन्त प्रभाव से भरवाये जाने के आदेश प्रदान किये जावें।
पत्र के अंत में डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ने लिखा है की पत्र पर की जाने वाली कार्यवाही सेहक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन को अवगत करवाने का कष्ट करें।

(डॉ. पुरुषोत्तम मीणा)
राष्ट्रीय प्रमुख
========================================================
लिखा गया पात्र  ----------------------------------------------------------------------------
========================================================
प्रेषक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन 
राष्ट्रीय कार्यालय : 7, तंवर कॉलोनी, खातीपुरा रोड, जयपुर-302006 (राजस्थान)
=====================================
पत्रांक : /भारत सरकार/पत्र/2 दिनांक : 13.04.2015
=====================================

प्रतिष्ठा में :
प्रधानमंत्री, भारत सरकार, नयी दिल्ली।
शिक्षामंत्री, भारत सरकार, नयी दिल्ली।

विषय : राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) में अजा/अजजा के कर्मचारियों के मौलिक अधिकारों का हनन, अत्याचार, भेदभाव और मनमानी के विरुद्ध दण्डात्मक कार्यवाही करने के सम्बन्ध में।
______________

इस संगठन को प्राप्त जानकारी के अनुसार-

भारत सरकार के मानव संसाधन विभाग के अधीन संचालित राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद में इसकी स्थापना से आज तक अजा एवं अजजा के कर्मचारियों को संविधान में निर्धारित प्रावधानों और सरकारी नीति तथा प्रक्रियानुसार पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करने के लिये विधिवत रोस्टर बनाकर लागू नहीं किया गया है। रोस्टर में जानबूझकर विसंगतियॉं छोड़ने वाले कर्मचारियों को अनारक्षित वर्ग के उच्चाधिकारियों का दुराशयपूर्ण संरक्षण प्राप्त है। अजा एवं अजजा वर्गों के कर्मचारियों के उच्च श्रेणी में पद रिक्ति होने के वर्षों बाद तक डीपीसी का गठन नहीं किया जाता है। यही नहीं अजा एवं अजजा वर्गों के कर्मचारियों की पदोन्नति की पात्रता में किसी भी प्रकार की छूट का नियम लागू नहीं किया गया है। जबकि भारत सरकार की सभी मंत्रालयों में इस प्रकार की छूट के स्पष्ट प्रावधान लागू हैं।

इस प्रकार उपरोक्त कारणों से राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद की स्थापना से आज तक अनारक्षित वर्ग के उच्च पदस्थ प्रशासकों द्वारा निम्न से उच्च पदों पर अजा एवं अजजा के कर्मचारियों की पदोन्नति दुराशयपर्वक बाधित की जाती रही हैं और इस कारण राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद की स्थापना से आज तक उच्चतम पदों पर अजा एवं अजजा वर्गों का संविधान के अनुच्छेद 16 (4) के अनुसार पर्याप्त और निर्धारित प्रतिनिधित्व सम्भव नहीं हो पाया है। जिसके चलते अजा एवं अजजा के निम्न स्तर के कर्मचारियों का संरक्षण और उनका उत्थान असंसभव हो चुका है। परिषद के उच्च पदस्थ गैर-अजा एवं अजजा वर्ग के प्रशासकों का यह कृत्य अजा एवं अजजा अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 की धारा 3 (1) (9) के तहत दण्डनीय अपराध की श्रेणी में आता है।

अत: आपको उपरोक्त तथ्यों से अवगत करवाकर आग्रह है कि-

  • 1. अजा एवं अजजा वर्गों के कर्मचारियों को पदोन्नति की क्षति पहुँचाने वाले गैर-अजा एवं अजजा वर्गों के उपरोक्तानुसार लिप्त रहे सभी प्रशासकों के विरुद्ध अजा एवं अजजा अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 की धारा 3 (1) (9) के तहत आपराधिक मुकदम दर्ज करवाकर उन्हें कारवास की सजा दिलवाई जावे और साथ ही साथ ऐसे प्रशासकों के विरुद्ध विभागीय सख्त अनुशासनिक कार्यवाही भी की जावे। जिससे भविष्य में अजा एवं अजजा वर्गों के हितों को नुकसान पहुँचाने की कोई गैर-अजा एवं अजजा वर्गों का प्रशासक हिम्मत नहीं जुटा सके।
  • 2. राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद की स्थापना से आज तक अजा एवं अजजा वर्गों को हुए नुकसान की भरपाई करने के लिये किसी बाहरी स्वतन्त्र और निष्पक्ष ऐजेंसी से सभी पदों का सही रोस्टर बनवाया जावे और भारत सरकार की नीति के अनुसार पदोन्नति पात्रता में शिथिलता प्रदान करते हुए अजा एवं अजजा वर्गों के समस्त रिक्त पदों को अभियान चलाकर तुरन्त प्रभाव से भरवाये जाने के आदेश प्रदान किये जावें।
  • 3. उक्त पत्र पर की जाने वाली कार्यवाही से इस संगठन को अवगत करवाने का कष्ट करें।

भवदीय 
(डॉ. पुरुषोत्तम मीणा)
राष्ट्रीय प्रमुख

Thursday, April 9, 2015

अलवर राजस्थान के किसानों को रोड पर लाने की शुरूआत!

अलवर राजस्थान के किसानों को रोड पर लाने की शुरूआत!
======================================

राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अलवर में जापानी कम्पनी को 500 एकड़ जमीन देंगी।
क्यों? क्योंकि इस जमीन में जापानी इन्वेस्टमेंट जोन स्थापित होगा! इसमें सैरेमिक्स, इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम और मैन्यूफैक्चरिंग जैसे क्षेत्रों पर फॉक्स होगा।
लेकिन सरकार को यह भी बतलाना चाहिए कि-
क्या उक्त निर्णय/घोषणा से पूर्व इस तथ्य का आकलन किया गया है-कि इस कारण कितने किसान हमेशा को बेरोजगार होंगे?
यदि नहीं तो क्यों नहीं किया गया?
जिन किसानों की बेसकीमती उपजाऊ जमीन जापानी कम्पनी/कार्पोरेट को दी जाएगी उनके स्थाई पुनर्वास की क्या कोई जमीनी योजना है या नहीं?
इस बारे में राजस्थान सरकार को खुलासा करना होगा। स्थानीय किसान नेता होने का दावा करने वाले वर्तमान, निवर्तमान और पूर्व जनप्रतिनिधियों को इस बारे में सजग होकर सामने आना होगा।
अन्यथा केंद्र सरकार के भूमि अधिग्रहण कानून (काले कानून) की आड़ में अगले चार सालों में न जाने कितने किसानों को आत्महत्या करने को मजबूर किया जाएगा?
जो भी पाठक सरकार की इस मनमानी को शोषण, अन्याय और अत्याचार मानते हैं, अपने विचार जरूर लिखें।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, राष्ट्रीय प्रमुख-हक़ रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन

Friday, January 9, 2015

स्त्री का पुरुषोचित आचरण सबसे बड़ी मूर्खता है।--डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

स्त्री का पुरुषोचित आचरण सबसे बड़ी मूर्खता है।--डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

स्त्री और पुरुष का के बीच लैंगिक अंतर तो प्रकृति की अनुपम दैन है! इसको स्त्री की कमजोरी और पुरुष की ताकत समझना, पुरुष की सबसे बड़ी मूर्खता है और इसे अपनी कमजोरी मानकर, इसे छुपाने के लिए स्त्री द्वारा पुरुषोचित व्यवहार या आचरण करना उससे भी बड़ी मूर्खता है।
केवल भारत में ही नहीं, बल्कि सारे विश्व में हमारे पुरुष प्रधान समाज की कुछ मूलभूत समस्याएँ हैं। भारत में हजारों सालों से अमानवीय मनुवादी कुव्यवस्था के चंगुल में रही है। जिसमें स्त्री की मानवीय संवेदनाओं तक को क्रूरता से कुचला जाता रहा है। ऎसी ऐतिहासिक प्रष्ठभूमि में स्त्री और पुरुष के बीच भारत में अनेक प्रकार की वैचारिक, सामाजिक और व्यवहारगत समस्याएं विशेष रूप से देखने को मिलती हैं। जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

1-पुरुष का स्त्री के प्रति हीनता का विचार और स्त्री को परुष से कमतर मानने का अहंकारी सोच। 

2-पुरुष का स्त्री के प्रति पूर्वाग्रही और रुग्णता पर आधारित स्वनिर्मित अवधारणाएं। 

3-स्त्री द्वारा स्त्री को प्रकृति प्रदत्त अनुपम उपहार स्त्रीत्व और प्रजनन को स्त्री जाति की कमजोरी समझने का असंगत, किन्तु संस्कारगत विचार। 

4-स्त्री का पुरुष द्वारा निर्मित धारणाओं के अनुसार खुद का, खुद को कमतर आकलन करने का संकीर्ण, किन्तु संस्कारगत नजरिया। 

5-इसी के साथ-साथ स्त्री का खुद को पुरुष की बराबरी करने का अव्यावहारिक और असंगत विचार भी बड़ी समस्या है, क्योंकि न पुरुष स्त्री की बराबरी कर सकता है और न ही स्त्री पुरुष की बराबरी कर सकती है। 

6-स्त्री को पुरुष की या पुरुष को स्त्री की बराबरी करने की जरूरत भी नहीं होनी चाहिए। बराबरी करने की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि दोनों अपने आप में अनूठे हैं और दोनों एक दूसरे के बिना अ-पूर्ण हैं।

7-स्त्री और पुरुष की पूर्णता आपसी प्रतिस्पर्धा या एक दूसरे को कमतर या श्रेष्ठतर समझने में नहीं, बल्कि सम्मानजनक मिलन, सहयोग और सहजीवन में ही है। 

8-एक स्त्री का स्त्रैण और पुरुष का पौरुष दोनों में प्रकृतिदत्त अनूठा और विपरीतगामी स्वभावगत अद्वितीय गौरव है। 

9-स्त्री और पुरुष दोनों में बराबरी की बात सोचना ही बेमानी हैं। दोनों प्रकृति ने ही भिन्न बनाये हैं, लेकिन इसका अर्थ किसी का किसी से कमतर या हीनतर या उच्चतर या श्रेष्ठतर का विचार अन्याय पूर्ण है। दोनों अनुपम हैं, दोनों अनूठे हैं।

10-स्त्री और पुरुष की सोचने और समझे की मानसिक और स्वभावगत प्रक्रिया और आदतें भी भिन्न है। 

11-यद्यपि पुरुष का दिमांग स्त्री के दिनाग से दस फीसदी बड़ा होता है, लेकिन पुरुष के दिमांग का केवल एक बायाँ (आधा) हिस्सा ही काम करता है। जबकि स्त्री के दिमांग के दोनों हिस्से बराबर और लगातार काम करते रहते हैं। इसीलिए तुलनात्मक रूप से स्त्री अधिक संवेदनशील होती हैं और पुरुष कम संवेदनशील! स्त्रियों को "बात-बात पर रोने वाली" और "मर्द रोता नहीं" जैसी सोच भी इसी भिन्नता का अनुभवजन्य परिणाम है। बावजूद इसके पुरुष और खुद स्त्रियाँ भी, स्त्री को कम बुद्धिमान मानने की भ्रांत धारणा से ग्रस्त हैं।

12-यदि बिना पूर्वाग्रह के अवलोकन और शोधन किया जाये तो स्त्री और पुरुष की प्रकृतिगत वैचारिक और बौद्धिक भिन्नता उनके दैनिक जीवन के व्यवहार और आचरण में आसानी से देखी-समझी जा सकती है।
कुछ उदाहरण-
  • (1) स्त्रियों को ऐसे मर्द पसंद होते हैं, जो खुलकर सभी संवेदनशील परेशानी और बातें स्त्री से कहने में संकोच नहीं करें, जबकि इसके ठीक विपरीत पुरुष खुद तो अपनी संवेदनाओं को व्यक्त नहीं करना चाहते और साथ ही वे कतई भी नहीं चाहते कि स्त्रियाँ अपनी संवेदनाओं (जिन्हें पुरुष समस्या मानते हैं) में पुरुषों को उलझाएँ। 
  • (1) स्त्री के साथ, पुरुष की प्रथम प्राथमिकता प्यार नहीं, स्त्री को सम्पूर्णता से पाना है। स्त्री को हमेशा के लिए अपने वश में, अपने नियंत्रण में और अपने काबू में करना एवं रखना है। प्यार पुरुष के लिए द्वितीयक (बल्कि गौण) विषय है। आदिकाल से पुरुष स्त्री को अपनी निजी अर्जित संपत्ति समझता रहा है, (इस बात की पुष्टि भारतीय दंड संहिता की धारा 497 से भी होती है, जिसमें स्त्री को पुरुष की निजी संपत्ति माना गया गया है), जबकि स्त्री की पहली प्राथमिकता पुरुष पर काबू करने के बजाय, पुरुष का असीमित प्यार पाना है (जो बहुत कम को नसीब होता है) और पुरुष से निश्छल प्यार करना है। अपने पति या प्रेमी को काबू करना स्त्री भी चाहती है, लेकिन ये स्त्री की पहली नहीं, अंतिम आकांक्षा है। यह स्त्री की द्रष्टि में उसके प्यार का स्वाभाविक प्रतिफल है।  
  • (3) विश्वभर के मानव व्यवहार शास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि स्त्री प्यार में ठगी जाने के कुछ समय बाद फिर से खुद को संभालने में सक्षम हो जाती हैं, जबकि पुरुषों के लिए यह बहुत असम्भव या बहुत ही मुश्किल होता है। (इस विचार से अनेक पाठक असहमत हो सकते हैं, मगर अनेकों बार किये गए शोध, हर बार इस निष्कर्ष की पुष्टि करते रहे हैं।)
  • (4) पुरुष अनेक महत्वपूर्ण दिन और तारीखों को (जैसे पत्नी का जन्म दिन, विवाह की वर्ष गाँठ आदि) भूल जाते हैं और पुरुष इन्हें साधारण भूल मानकर इनकी अनदेखी करते रहते हैं, जबकि स्त्रियों के लिए हर छोटी बात, दिन और तारिख को याद रखना आसान होता है। साथ ही ऐसे दिन और तरीखों को पुरुष (पति या प्रेमी) द्वारा भूल जाना स्त्री (पत्नी या प्रेमिका) के लिए अत्यंत असहनीय और पीड़ादायक होता है। जो पारिवारिक कलह और विघटन के कारण भी बन जाते हैं। 
  • (5) स्त्रियाँ चाहती हैं कि उनके साथ चलने वाला उनका पति या प्रेमी, अन्य किसी भी स्त्री को नहीं देखे, जबकि राह चलता पुरुष अपनी पत्नी या प्रेमिका के आलावा सारी स्त्रियों को देखना चाहता है। यही नहीं स्त्रियाँ भी यही चाहती हैं कि राह चलते समय हर मर्द की नजर उन्हीं पर आकर टिक जाये। स्त्रियाँ खुद भी कनखियों से रास्तेभर उनकी ओर देखने वाले हर मर्द को देखती हुई चलती हैं, मगर स्त्री के साथ चलने वाले पति या प्रेमी को इसका आभास तक नहीं हो पाता। 
12-कालांतर में समाज ने स्त्री और पुरुष दोनों के समाजीकरण (लालन-पालन-व्यवहार और कार्य विभाजन) में जो प्रथक्करण किया गया, वास्तव में वही आज के समय की बड़ी मुसीबत है और इससे भी बड़ी मुसीबत है, स्त्री का आँख बंद करके पुरुष की बराबरी करने की मूर्खतापूर्ण लालसा! गहराई में जाकर समझें तो यह केवल लालसा नहीं, बल्कि पुरुष जैसी दिखने की उसकी हजारों सालों से दमित रुग्ण आकांक्षा है! क्योंकि हजारों सालों से स्त्री पुरुष पर निर्भर रही है, बल्कि पुरुष की गुलाम जैसी ही रही है। इसलिए वह पुरुष जैसी दिखकर पुरुष पर निर्भरता से मुक्ति पाने की मानसिक आकांक्षी होने का प्रदर्शन करती रहती है। 

13-एक स्त्री जब अपने आप में प्रकृति की पूर्ण कृति है तो उसे अपने नैसर्गिक स्त्रैण गुणों को दबाकर या छिपाकर या कुचलकर पुरुष जैसे बनने या दिखने या दिखाने का असफल प्रयास करके की क्या जरूरत है? इस तथ्य पर विचार किये बिना, स्त्री के लिए अपने स्त्रैणत्व के गौरव की रक्षा करना असंभव है।

14-बेशक जेनेटिक कारण भी स्त्री और पुरुष दोनों को जन्म से मानसिक रूप से भिन्न बनाते हैं। लेकिन स्त्री और पुरुष प्राकृतिक रूप से अ-समान होकर भी एक-दूसरे से कमतर या उच्चतर व्यक्तित्व नहीं, बल्कि एक दूसरे के सम्पूर्णता से पूरक हैं। स्त्रैण और पौरुष दोनों के अनूठे और मौलिक गुण हैं। 

15-हम शनै-शनै समाजीकरण की प्रक्रिया में कुछ बदलाव अवश्य ला सकते हैं। यदि इसे हम आज शुरू करते हैं तो असर दिखने में सदियाँ लगेंगी। मगर बदलाव स्त्री या पुरुष की निजी महत्वाकांक्षा या जरूरत पूरी करने के लिए नहीं, बल्कि दोनों के जीवन की जीवन्तता को जिन्दादिल बनाये रखने के लिए होने चाहिए।

16-समाज शास्त्रियों या समाज सुधारकों या स्त्री सशक्तिकरण के समर्थकों या पुरुष विरोधियों की द्रष्टि में कुछ सामाजिक सुधारों की तार्किक जरूरत सिद्ध की जा सकती है। लेकिन कानून बनाकर या सामाजिक निर्णयों को थोपकर इच्छित परिणाम नहीं मिल सकते। बदलाव तब ही स्वागत योग्य और परिणामदायी समझे जा सकते हैं, जबकि हम उन्हें स्त्री-पुरुष के मानसिक और सामाजिक द्वंद्व से निकलकर, एक इन्सान के रूप में सहजता और सरलता से आत्मसात और अंगीकार करके जीने में फक्र अनुभव करें। 

18-अंत में यही कहा जा सकता है कि स्त्री और पुरुष का के बीच लैंगिक अंतर तो प्रकृति की अनुपम दैन है! इसको स्त्री की कमजोरी और पुरुष की ताकत समझना, पुरुष की सबसे बड़ी मूर्खता है और इसे अपनी कमजोरी मानकर, इसे छुपाने के लिए स्त्री द्वारा पुरुषोचित व्यवहार या आचरण करना उससे भी बड़ी मूर्खता है।

-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'-098750-66111

Wednesday, December 31, 2014

पीके फिल्म का विरोध, आखिर क्यों?

सुप्रसिद्ध फिल्मी नायक आमिर खान अभिनीत की "पीके" फिल्म से पाखंडी और ढोंगी धर्म के ठेकेदारों की दुकानों की नींव हिल रही  हैं। इस कारण ऐसे लोग पगला से गये हैं और उलजुलूल बयान जारी करके आमिर खान का विरोध करते हुए समाज में मुस्लिमों के प्रति नफरत पैदा कर रहे हैं।

इस दुश्चक्र में अनेक अनार्य और दलित-आदिवासी तथा पिछड़े वर्ग के लोग भी फंसते दिखाई दे रहे हैं। ऐसे सब लोगों के चिंतन के लिए बताना जरूरी है कि समाज में तरह-तरह की बातें, चर्चा और बहस सुनने को मिल रही हैं। उन्हीं सब बातों को आधार बनाकर कुछ सीधे सवाल और जवाब उन धूर्त, मक्कार और पाखंडी लोगों से जो फिल्म "पीके" के बाद आमिर खान को मुस्लिम कहकर गाली दे रहे हैं और धर्म के नाम पर देश के शांत माहोल को खराब करने की फिर से कोशिश कर रहे हैं।

यदि फिल्मी परदे पर निभाई गयी भूमिका से ही किसी कलाकार की देश के प्रति निष्ठा, वफादारी या गद्दारी का आकलन किया जाना है तो यहाँ पर पूछा जाना जरूरी है कि-

आमिर खान ने जब अजय सिँह राठौड़ बनकर पाकिस्तानी आतँकवादी गुलफाम हसन को मारा था, क्या तब वह मुसलमान नहीं था।

आमिर खान ने जब फुन्सुक वाँगड़ू (रैंचो) बनकर पढ़ने और जीने का तरीका सिखाया था, क्या तब वह मुसलमान नहीं था।

आमिर खान ने जब भुवन बनकर ब्रिटिश सरकार से लड़कर अपने गाँव का लगान माफ कराया था, क्या तब वह मुसलमान नहीं था।

आमिर खान ने जब मंगल पाण्डेय बनकर अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की थी, क्या तब वह मुसलमान नहीं था।


आमिर खान ने जब टीचर बनकर बच्चों की प्रतिभा कैसे निखारी जाए सिखाया था, क्या तब वह मुसलमान नहीं था।

आमिर खान द्वारा निर्मित टी वी सीरियल सत्यमेव जयते, जिसको देख कर देश में उल्लेखनीय जागरूकता आई, क्या उसे बनाते वक्त वह मुसलमान नहीं था।

इतना सब करने तक तो आमिर भारत का एक देशभक्त नागरिक, लोगों की आँखों का तारा और एक जिम्मेदार तथा वफादार भारतीय नागरिक था। लेकिन जैसे ही आमिर खान ने "पीके" फिल्म के मार्फ़त धर्म के नाम पर कट्टरपंथी धर्मांध और विशेषकर हिन्दुओं के ढोंगी धर्म गुरुओं के पाखण्ड और अंधविश्वास को उजागर करने का सराहनीय और साहसिक काम किया है। आमिर खान जो एक देशभक्त और मंझा हुआ हिन्दी फिल्मों का कलाकार है, अचानक सिर्फ और सिर्फ मुसलमान हो गया? वाह क्या कसौटी है-हमारी?

क्या यह कहना सच नहीं कि आमिर खान का मुसलमान के नाम पर विरोध केवल वही घटिया लोग कर रहे हैं जो पांच हजार से अधिक वर्षों से अपने ही धर्म के लोगों के जीवन को नरक बनाकर उनको गुलामों की भांति जीवन बसर करने को विवश करते रहे हैं? यही धूर्त लोग हैं जो चाहते है-उनका धर्म का धंधा अनादी काल तक बिना रोक टोक के चलता रहे। जबकि इसके ठीक विपरीत ओएमजी में भगवान पर मुक़दमा ठोकने वाले परेश रावल को तो उसी अंध विचारधारा के पोषक लोगों की पार्टी द्वारा माननीय सांसद बना दिया गया है।

सच तो यह है कि इन ढोंगी और पाखंडियों को डर लगता है कि यदि आमिर खान का विरोध नहीं किया तो धर्म के नाम पर जारी उनका ढोंग और पाखंड, खंड-खंड हो जायेगा। उनके कथित धर्म का ढांचा भरभरा कर ढह जायेगा। ऐसे ढोंग और पाखंड से पोषित धर्म के नाम पर संचालित व्यवस्था को तो जितना जल्दी संभव हो विनाश हो ही जाना चाहिए। "पीके" जैसे कथानक वाली कम से कम एक फिल्म हर महिने रिलीज होनी ही चाहिए।
-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

Saturday, September 20, 2014

आर्य-वैदिक साहित्य में आदिवासियों के पूर्वजों का राक्षस, असुर, दानव, दैत्य आदि के रूप में उल्लेख

लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

रामायण में असुर की उत्पत्ति का उल्लेख :-

सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:।
अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥

उक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है। चूंकि आर्य लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे। इस कारण आर्यों के कथित देव (देवता) सुर कहलाये और सुरा का पान नहीं करने वाले मूल-भारतवासी असुर (जिन्हें आर्यों द्वारा अदेव कहा गया) कहलाये। जबकि इसके उलट यदि आर्यों द्वारा रचित वेदों में उल्लिखित सन्दर्भों पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि आर्यों के आगमन से पूर्व तक यहॉं के मूल निवासियों द्वारा ‘असुर’ शब्द को विशिष्ठ सम्मान सूचक अर्थ में विशेषण के रूप में उपयोग किया जाता था। क्योंकि संस्कृत में असुर को संधि विच्छेद करके ‘असु+र’ दो हिस्सों में विभाजित किया है और ‘असु’ का अर्थ ‘प्राण’ तथा ‘र’ का अर्थ ‘वाला’-‘प्राणवाला’ दर्शाया गया है।

एक अन्य स्थान पर असुनीति का अर्थ प्राणनीति बताया गया है। ॠग्वेद (10.59.56) में भी इसकी पुष्टि की गयी है। इस प्रकार प्रारम्भिक काल में ‘असुर’ का भावार्थ ‘प्राणवान’ और ‘शक्तिशाली’ के रूप में दर्शाया गया है। केवल इतना ही नहीं, बल्कि अनार्यों में असुर विशेषण से सम्मानित व्यक्ति को इतना अधिक सम्मान व महत्व प्राप्त था कि उससे प्रभावित होकर शुरू-शुरू में आर्यों द्वारा रचित वेदों में (ॠगवेद में) आर्य-वरुण तथा आर्यों के अन्य कथित देवों के लिये भी ‘असुर’ शब्द का विशेषण के रूप में उपयोग किये जाने का उल्लेख मिलता है। ॠग्वेद के अनुसार असुर विशेषण से सम्मानित व्यक्ति के बारे में यह माना जाता जात था कि वह रहस्यमयी गुणों से युक्त व्यक्ति है।

महाभारत सहित अन्य प्रचलित कथाओं में भी असुरों के विशिष्ट गुणों पर प्रकाश डालते हुए उन्हें मानवों में श्रेृष्ठ कोटि के विद्याधरों में शामिल किया गया है।

मगर कालान्तर में आर्यों और अनार्यों के मध्य चले संघर्ष में आर्यों की लगातार हार होती गयी और अनार्य जीतते गये। आर्य लगातार अनार्यों के समक्ष अपमानित और पराजित होते गये। इस कुण्ठा के चलते आर्य-सुरों अर्थात सुरा का पान करने वाले आर्यों के दुश्मन के रूप में सुरों के दुश्मनों को ‘असुर’ कहकर सम्बोधित किया गया। आर्यों के कथित देवताओं को ‘सुर’ लिखा गया है और उनकी हॉं में हॉं नहीं मिलाने वाले या उनके दुश्मनों को ‘असुर’ कहा गया। इस प्रकार यहॉं पर आर्यों ने असुर का दूसरा अर्थ यह दिया कि जो सुर (देवता) नहीं है, या जो सुरा (शराब) का सेवन नहीं करता है-वो असुर है।

लेकिन इसके बाद में ब्राह्मणों द्वारा रचित कथित संस्कृत धर्म ग्रंथों में असुर, दैत्य एवं दानव को समानार्थी के रूप में उपयोग किया गया है। जबकि ऐसा उल्लेख मिलता है कि प्रारम्भ में ‘दैत्य’ और ‘दानव’ असुर जाति के दो विभाग थे। क्योंकि असुर जाति के दिति के पुत्र ‘दैत्य’ और दनु के पुत्र ‘दानव’ कहलाये। जो आगे चलकर दैत्य, दैतेय, दनुज, इन्द्रारि, दानव, शुक्रशिष्य, दितिसुत, दूर्वदेव, सुरद्विट्, देवरिपु, देवारि आदि नामों से जाने गये।

जहॉं तक राक्षस शब्द की उत्पत्ति का सवाल है तो आचार्य चुतरसेन द्वारा लिखित महानतम ऐतिहासिक औपन्यासिक कृति ‘वयं रक्षाम:’ और उसके खण्ड दो में प्रस्तुत किये गये साक्ष्यों पर गौर करें तो आर्यों के आक्रमणों से अपने कबीलों की सुरक्षा के लिये भारत के मूल निवासियों द्वारा हर एक कबीले में बलिष्ठ यौद्धाओं को वहॉं के निवासियों को ‘रक्षकों’ के रूप में नियुक्ति किया गया। ‘रक्षक समूह’ को ‘रक्षक दल’ कहा गया और रक्षकों पर निर्भर अनार्यों की संस्कृति को ‘रक्ष संस्कृति’ का नाम दिया गया। यही रक्ष संस्कृति कालान्तर में आर्यों द्वारा ‘रक्ष संस्कृति’ से ‘राक्षस प्रजाति’ बना दी गयी।

निष्कर्ष : इस प्रकार स्पष्ट है कि आर्यों के आगमन से पूर्व यहॉं के मूल निवासी अनार्यों का भारत के जनपदों (राज्यों) (नीचे टिप्पणी भी पढें) पर सम्पूर्ण स्वामित्व और अधिपत्य था। जिन्होंने व्यापारी बनकर आये और यहीं पर बस गये आर्यों को अनेकों बार युद्धभूमि में धूल चटायी। जिन्हें अपने दुश्मन मानने वाले आर्यों ने बाद में घृणासूचक रूप में दैत्य, दानव, असुर, राक्षस आदि नामों से अपने कथित धर्म ग्रंथों उल्लेखित किया है। जबकि असुर भारत के मूल निवासी थे और वर्तमान में उन्हीं मूलनिवासियों के वंशजों को आदिवासी कहा जाता है।

टिप्पणी : अनार्य जनपदों में मछली के भौगोलिक आकार का एक मतस्य नामक जनपद भी था, जिसके ध्वज में मतस्य अर्थात् मछली अंकित होती थी-मीणा उसी जनपद के वंशज हैं। चालाक आर्यों द्वारा मीणाओं को विष्णू के मतस्य अवतार का वंशज घोषित करके आर्यों में शामिल करने का षड़यंत्र रचा गया और पिछले चार दशकों में जगह-जगह मीन भगवान के मन्दिरों की स्थापना करवा दी। जिससे कि मीणाओं का आदिवासी दर्जा समाप्त करवाया जा सके।
स्रोत : ‘हिन्दू धर्मकोश’, वयं रक्षाम: और अन्य सन्दर्भ।
लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’ प्रमुख-हक रक्षक दल
(‘हक रक्षक दल’-अनार्यों के हक की आवाज)

Tuesday, August 19, 2014

विश्‍व आदिवासी दिवस-मनुवादी-आर्य शुभचिन्तक नहीं, शोषक हैं!

विश्‍व आदिवासी दिवस-मनुवादी-आर्य शुभचिन्तक नहीं, शोषक हैं!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

‘‘9 अगस्त, 2014 को पूरे विश्‍व में विश्‍व आदिवासी दिवस मनाया गया। यदि इस अवसर पर कोई मौन रहा तो वो थी हिन्दुओं की तथाकथित संरक्षक विचारधारा की पोषक 'भारतीय जनता पार्टी की भारत सरकार', जिसकी ओर से इस अवसर पर एक शब्द भी आदिवासियों के उत्थान के लिये या आदिवासियों के बदतर हालातों को ठीक करने के बारे में नहीं कहा गया। बल्कि भाजपा अपने राष्ट्रीय आयोजन के मार्फत देश को गुमराह करने में मशगूल दिखी। इससे एक बार फिर से यह बात सच साबित हो गयी कि हिन्दूवादी ताकतें, जिन पर आर्यों और मनुवादियों का शिकंजा कसा हुआ है, वे भारत के मूल निवासी आदिवासियों को आदिवासी तक मानने को तैयार नहीं हैं। बल्कि इसके ठीक विपरीत मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें आर्यों को ही इस देश के ‘मूलनिवासी’ सिद्ध करने में लगी हुई हैं और भारत के असली मालिक और यहॉं के मूल निवासी आदिवासियों को ‘वनवासी’ कहकर उनको नष्ट करने का सुनियोजित षड़यंत्र चलाया जा रहा है।’’

विश्‍व आदिवासी दिवस के अवसर पर उक्त सारांश भारत के विभिन्न राज्यों के आदिवासियों के आक्रोश और विचारों में देखने को मिला है। जो विभिन्न माध्यमों से 09 अगस्त, 2014 को आयोजनों, सभाओं और संदेशों के मार्फत विश्‍व आदिवासी दिवस पर प्रकट हुआ है।

इसके अलावा अन्तरजाल (नेट) पर व मोबाइल के मार्फत तकनीक का अब आदिवासी भी उपयोग करना सीख रहा है, जहॉं पर मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें पूरी तरह से हावी हैं और वो देश और समाज को बरगाले में पीछे नहीं हैं। ये अहसास अब अनार्यों को भी हो रहा है। इस बात का जवाब भारत के विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न कारणों से फैले राजस्थान और मध्य प्रदेश के आदिवासियों ने विश्‍व आदिवासी दिवस पर देने का प्रयास किया है।

इस दौरान आदिवासियों की ओर से विश्‍व आदिवासी दिवस तो हजारों स्थानों पर चर्चा, बैठक, रैली, सभा, गोष्ठी आदि के जरिये बढचढकर मनाया तो गया ही, इसके साथ-साथ जागरूक आदिवासियों की और से जो सन्देश आपस में प्रसारित किये गये, वे इस देश और इस देश के मूल निवासी आदिवासियों तथा अनार्यों के आने वाले कल के बारे में बहुत कुछ बयां करते हैं। यहॉं ऐसे ही कुछ संदेशों का सारांश और भावार्थ प्रस्तुत हैं :-

1. ‘‘पे बेक टू सोसायटी-एक सामाजिक जिम्मेदारी है।’’ : यह एक विचारधारा है, जिसके अनुसार हम जिस समाज के कर्जदार हैं, उसके प्रति हमारी कुछ नैतिक जिम्मेदारी है। जिसका निर्वाह करना समाज के प्रत्येक व्यक्ति का अनिवार्य कर्त्तव्य है। यह विचारधारा किसी संगठन की मोहताज नहीं है। हम में से कोई भी किसी भी संगठन से जुड़ा हो पर हमारा प्रथम कर्त्तव्य है कि भारत के असली मालिक और यहॉं के मूल निवासी आदिवासी जो आर्यों की नजर में अनार्य हैं, वे सब मिलकर आपास में एक दूसरे की मदद और सहयोग करें। जिसकी शुरुआत हम इस ग्रुप से जुड़े लोगों का सहयोग करके कर सकते हैं। पे बेक टू सोसायटी ग्रुप में अगर किसी भी सदस्य को परेशानी हो या समाज के किसी भी सदस्य की परेशानी का पता चले तो सभी उसका तत्काल सहयोग करें। सहयोग की ये भावना ही हम सभी को एक सूत्र में जोड़ेगी और हमारे आदिवासी प्रेम को प्रमाणित करेगी। सभी आदिवासी चाहे वो किसी भी जाति के हों या किसी भी राज्य में रहते हों, हम सभी एक दूसरे के सहयोग की कसम खाते हैं। सभी भाइयों से अनुरोध है की वो सभी अपनी-अपनी जगह विश्‍व आदिवासी दिवस को ‘पे बेक टू सोसायटी-एक सामाजिक जिम्मेदारी’ के नाम से अपने मित्र सगे सम्बन्धी और मिलने वाले सभी लोगों के साथ हर्षोल्लास के साथ अपने घरों पर दीप जलाकर मनायें और उसकी फोटो एक दूसरे को भेजें तथा आदिवासी समाज के विकास और एकता पर चर्चा करें। आज का दिन हम सभी के आने वाले भविष्य के लिए ऐतिहासिक दिन होने वाला है। हम सभी का आपसी सहयोग और कड़ा परिश्रम आदिवासी समाज तथा देश की एकता के लिए मिसाल बने। जय अदिवासी एकता।

2. आदिवासी युवा शक्ति का आह्वान : ‘‘वक्त आने दे बता देंगे, तुझे ऐ आसमां...हम अभी से क्या बताएँ, क्या हमारे दिल में है।’’ विश्‍व आदिवासी दिवस के मौके पर आर्यों के वंशज शोषकों को ज्ञात हो जाना चाहिये कि भारत का मूल निवासी अब जाग गया है। अब हम गॉंव-गॉंव ढाणी-ढाणी घूम-घूम कर लोगों को इस बात को बतायेंगे कि मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें हिन्दुत्व के नाम पर आदिवासियों को और अनार्यों को किस प्रकार से आर्यों की गुलाम बनाये रखने के लिये काम कर रही हैं? हम प्रतिज्ञा करते हैं कि इस देश में मनुवाद अधिक दिन तक चलने वाला नहीं है। इस देश को आर्यों के चंगुल और मनुवाद की मानसिक गुलामी से मुक्त करवाना ही होगा। इस आह्वान को जमीनी स्तर पर प्रमाणित करने वाले आयोजन जैसे सभा, रैली आदि भी देशभर में देखने को मिले। 

3. जयस संगठन का आह्वान : सभी साथियों को विश्‍व आदिवासी दिवस की बहुत सारी शुभकामनावों के साथ आज 9 अगस्त को जयस घोषणा करता है की जो भी आदिवासिओं के जल, जंगल, जमीन और आदिवासियों आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों के साथ-साथ आदिवासियों की संस्द्भति के साथ खिलावाड़ करेगा जयस (मध्य प्रदेश से संचालित संगठन) उनके खिलाफ खुली लड़ाई लड़ेगा और आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावो में उन सभी राजनैतिक पार्टियों का खुला विरोध करेगा। जिनकी नीतियां आदिवासियों के हितों के खिलाफ बनाई जा रही हैं। जिनकी नीतिओं में आदिवासी बच्चों को भूख और कुपोषण से मरने को मजबूर किया जा रहा है। आज जयस घोषणा करता है कि देश के उन सभी आदिवासी जनप्रतिनिधियों का भी खुल्लम खुल्ला विरोध करेगा जो विधायक और सांसद बनने के बाद पूरे पांच साल तक आदिवासी मुद्दों पर चुप रहकर अपनी-अपनी राजनैतिक पार्टियों की गुलामी करते हैं। जयस देश के सभी आदिवासी युवाओं से अनुरोध करता है कि आप किसी भी राजनैतिक पार्टी का समर्थन करने की बजाय आदिवासी समुदाय के उन पढे-लिखे आदिवासी युवाओं को चुनकर विधानसभा और लोकसभा में भेजें जो आदिवासिओं के संवैधानिक अधिकारों के जानकार होने के साथ-साथ संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ने वाले हों। दोस्तों यही बदलाव की सच्ची शुरुआत है और इसके लिए हम आप सभी को मिलकर लड़ना है, तभी हम यह लड़ाई जीत पाएंगे। 

4. आरक्षण भीख नही है : जब सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू की रिपोर्ट से भी ये साबित हो चुकी है कि भारत के असली उतराधिकारी आठ फीसदी आदिवासी ही हैं तो फिर आरक्षण पर सवाल उठाने वाले षड़यंत्रकारी मनुवादी लोगों को खुद की गिरवान में झांकना चाहिये कि वो कितने बड़े गुनेहगारों के वंशज है। जिन्होंने देश के मूल निवासियों को इन बदतर हालातों में पहुंचा दिया है। इस बात को एक उदाहरण के जरिये समझ सकते हैं कि-कोई आपके पास आपके मकान में किराये से रहने के लिए आता है और आप उसे मकान किराये पर दे देते है, लेकिन वो आपके मकान पर कैंजा कर लेता है, आप मकान खाली कराने का प्रयास करते हैं तो किरायेदार मकान मालिक को उसके ही मकान के 10 कमरों में से एक कमरा रहने को दे देता है। मकान मालिक को इतना प्रताड़ित और आतंकित किया जाता है कि सब कुछ भूलकर वह उस एक कमरे में जीवन बिताने को मजबूर हो जाता है, लेकिन मकान पर जबरन काबिज आपराधिक प्रवृत्ति के लोग, मकान के मालिक को उस एक कमरे में से भी बेदखल करके बाहर निकालने के षड़यंत्र लगातार रचते रहते हैं। क्या यह न्याय है??????? क्या आज इस देश में हमारे साथ यही नहीं हो रहा है? जिस देश पर आदिवासियों का शतप्रतिशत हक था, उस हक को साढे सात फीसदी पर सीमित कर दिया गया और अब उसको भी छीने जाने के नये-नये कुचक्र चले जा रहे हैं। इस उदाहरण से कोई भी समझ सकता है कि सम्पूर्ण मकान अर्थात् पूरा भारत देश हमारा है, जिसमें आर्य लोग आकर ऐसे घुसे कि पूरे देश पर ही कैंजा कर लिया और हमारे सभी हकों को छीनकर उन पर काबिज हो गये। एक कमरा अर्थात् जो संवैधानिक आरक्षण हमें डॉ. अम्बेड़कर के साथ गॉंधी द्वारा किये गए धोखे के बाद दिया गया, अब उस आरक्षण को भी हटाने की मुहिम अन्य मूल आरक्षित वर्गों के साथ-साथ आदिवासियों के विरुद्ध भी तेजी से चलाई जा रही है। यह कितनी मनमानी और कितनी अन्याय पूर्ण बात है, इसे कोई भी इंसाफ पसन्द व्यक्ति आसानी से समझकर महसूस कर सकता है। इस प्रकार मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें आदिवासियों को उनके बचे खुचे हकों से भी वंचित करने जा रही हैं। हमें इसका साहसपूर्वक सामना करना होगा। अन्यथा मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें हमें कुचल देंगी, हमें नेस्तनाबूद कर देंगी। क्योंकि संविधान द्वारा बनाये गये सभी निकायों पर इनका एक छत्र कैंजा है। इसे हटाने के लिये सभी अनार्य, जिनकी आबादी 90 फीसदी से अधिक है को एकजुट और संगठित होना होगा।

5. जयपुर में संयुक्त जनजाति संस्थान की सभा : इस अवसर पर अनुसूचित जनजाति संयुक्त संस्थान जयपर की सभा में आदिवासियों के साथ किये जा रहे भेदभाव के प्रति आक्रोश व्यक्त करने के साथ-साथ, संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव व यूनिसेफ के महानिदेशक के संदेशों को बैठक में पढकर सुनाया गया। इन संदेशों में आदिवासियों के हितों के लिए दिए गए सुझावोंं के क्रियान्वयन के लिए वृहद रूप रेखा तैयार की गई। जिसमें मुख्य रूप से यह संकल्प लिया गया कि राज्य के सभी आदिवासी एकजुट होकर अपने हितों की रक्षा के लिये आवश्यक कदम उठायेंगे। सरकार द्वारा फिर भी उदासीनता बरती गयी तो संस्थान को आन्दोलनात्मक कदम उठाने को मजबूर होना पड़ेगा।

6. निराशा भी दिखी : मोबाइलों पर सेदेश देखने को मिले कि दोस्तों नेट, मोबाइल, फेसबुक और व्हाट्सअप पर कई सन्देश डालने के बाद भी सभी आदिवासी युवा उनके प्रचार-प्रसार करने में आगे नहीं आ रहा हैं। विश्‍व आदिवासी दिवस के मौके पर फालतू बातें डिस्कस करने की बजाय अपने संवैधानिक अधिकारों के बारे में चर्चा करें। ताकि आदिवासी समुदाय के पढेे लिखे लोगों में अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूकता आये। लेकिन जयादातर पढेे लिखे आदिवासी युवा फालतू बातें करने में और भेड़ चाल चलने में आगे रहते हैं, जबकि अपने आदिवासी समुदाय की बात करने में उनको शर्म आती है जो कि आदिवासी समुदाय के अस्तित्व के लिए ठीक नहीं है। ऐसे लोगों को आदिवासियों की मूल जागरूक धारा के साथ जोड़ने के सन्देश भी जारी किये गए। 

7. दीप, सभा और हर्षोल्लास के साथ मनाया गया आदिवासी दिवस : राजस्थान और मध्य प्रदेश सहित देश के तकरीबन सभी आदिवासी बहुल राज्यों में और जहां-जहां भी आदिवासी वर्ग के लोग किसी भी वजह से निवास करते हैं, उन सभी ने विश्‍व आदिवासी दिवस को व्यक्तिगत रूप से अपने-अपने घरों में दीप जलाकर और बैठक व सभाओं में आपसी चर्चा करके हर्षोल्लास के साथ मनाया। पढेलिखे आदिवासियों ने वाटसेप, मेल और फेसबुक के जरिये भी विश्‍व आदिवासी दिवस की शुभकामनाएँ एक-दूसरे को ज्ञापित की। जिसे प्रस्तुत फोटोग्राफ से बखूबी समझा जा सकता है। यह अपने आप में आदिवासियों में तकनीक के इस्तेमाल के जरिये एक बड़ा बदलाव देखा जा सकता है।

8. हम हिन्दू नहीं, हम आदिवासी हैं, धार्मिक कोड की मांग : विश्‍व आदिवासी दिवस के अवसर पर आदिवासियों के अनेक समूहों की ओर से इस बात को भी ताकत से उठाया गया कि आदिवासी हिन्दू नहीं है, बल्कि मनुवादी-आर्यों द्वारा उन्हें जबरन हिन्दू बनाये रखने के अनैतिक प्रयास और षड़यंत्र किये जाते रहते हैं। आदिवासियों को अलग से आदिवासी धर्म के रूप में धार्मिंक कोड प्रदान किये जाने की आवाज भी उठायी गयी। जिसका देश के अनेक राज्यों के आदिवासियों की ओर से पुरजोर समर्थन किया गया।

9. आदिवासियों में सभी सरकारों के प्रति आक्रोश : सारे देश के आदिवासियों में इस बात को लेकर गहरा आक्रोश और गुस्सा देखा गया कि भारत की केन्द्र सरकार सहित तकरीबन सभी राज्य सरकारों ने विश्‍व आदिवासी दिवस का सरकारी स्तर पर आयोजन नहीं किया और इस दिन की कोई परवाह नहीं की और सभी सरकारों की ओर से इस प्रकार से आदिवासियों को सरेआम अपमानित करने का प्रयास किया गया। जो आदिवासियों के बीच गहरी चिन्ता का विषय बन गया है। आदिवासियों की परवाह करने के बजाय सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी अपने राष्ट्रीय जलसे के आयोजन में मशगूल रही। केन्द्र में शासित दल भारतीय जनता पार्टी सहित प्रधानमंत्री या किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री ने विश्‍व आदिवासी दिवस के दिन आदिवासियों के हित में कोई कदम नहीं उठाया। इससे आदिवासियों को इस बात का अहसास हो गया की उनकी औकात राजनैतिक दलों की नजर में वोट बैंक के आलावा कुछ भी नहीं है। आदिवासियों ने इस मौके पर तय किया है कि हमें हमारे सच्चे तथा समर्पित नेतृत्व को आगे लाना होगा और आदिवासियों की राजनैतिक ताकत को दलितों तथा अन्य कमजोर अनार्य जातियों के साथ मिलकर दिखाना होगा।

10. मनुवादी-आर्य शुभचिन्तक नहीं, शोषक और दुश्मन हैं : विश्‍व आदिवासी दिवस के अवसर पर आदिवासियों के सभी समूहों में यह बात समान रूप से सामने आयी है कि आदिवासी जो इस देश का असली मालिक है, उसे अब इस बात का अहसास होने लगा है कि मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें उनकी मित्र या शुभचिन्तक नहीं, बल्कि उनकी असली दुश्मन और शोषक हैं। जिनका आदिवासियों और अनार्यों द्वारा पर्दाफाश किया जाना समय की मांग है। जिसके लिये सभी उम्र के आदिवासी समूहों को जागरूक किये जाने की सख्त जरूरत है। इसके लिये पे-बैक टू सोसायटी ग्रुप की ओर से सभी अनार्यों जातियों और वर्गों के सहयोग से एक मुहिम चलाने के लिये अलग-अलग ग्रुप तैयार किये जाने की बात भी कही गयी है। यदि आदिवासी इस मुहिम को चलाने में सफल हो पाते हैं तो आने वाले कुछ ही वर्षों में इस देश के मनुवाद के धार्मिक शिकंजे में कैद आदिवासी और अनार्यों की तकदीर में क्रान्तिकारी बदलाव की शुरूआत हो सकती है। 

11. आदिवासियों को तकनीक का उपयोग समझ में आया : विश्‍व आदिवासी दिवस के अवसर पर, देशभर में सबसे बड़ी और उल्लेखनीय बात यह देखने में आयी कि तकनीक के जरिये आदिवासियों द्वारा विचार विनिमय किये जाने की शुरूआत हो गयी है, जो आने वाले भविष्य में आदिवासियों के सभी समूहों को एक दूसरे के करीब लाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण मुहिम सिद्ध हो सकती है।-09875066111

Sunday, August 10, 2014

विश्‍व आदिवासी दिवस-मनुवादी-आर्य शुभचिन्तक नहीं, शोषक हैं

विश्‍व आदिवासी दिवस-मनुवादी-आर्य शुभचिन्तक नहीं, शोषक हैं

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

‘‘9 अगस्त, 2014 को पूरे विश्‍व में विश्‍व आदिवासी दिवस मनाया गया। यदि इस अवसर पर कोई मौन रहा तो वो थी हिन्दुओं की तथाकथत संरक्षक विचारधारा की पोषक भारतीय जनता पार्टी की भारत सरकार, जिसकी ओर से इस असर पर एक शब्द भी आदिवासियों के उत्थान के लिये या आदिवासियों के बदतर हालातों के बारे में नहीं कहा गया। बल्कि भाजपा अपने राष्ट्रीय आयोजन के माफर्र्त देश को गुमराह करने में मशगूल दिखी। इससे एक बार फिर से यह बात सच साबित हो गयी कि हिन्दूवादी ताकतें, जिन पर आर्यों और मनुवादियों का शिकंजा कसा हुआ है, वे आदिवासियों को आदिवासी तक मानने को ही तैयार नहीं हैं। बल्कि इसके ठीक विपरीत मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें आर्यों को ही इस देश के मूल निवासी सिद्ध करने में लगी हुई हैं और भारत के असली मालिक और यहॉं के मूल निवासी आदिवासियों को वनवासी कहकर नष्ट करने का सुनियोजित षड़यंत्र चलाया जा रहा है।’’


विश्‍व में विश्‍व आदिवासी दिवस के अवसर पर यह सारांश भारत के विभिन्न राज्यों के आदिवासियों के आक्रोश और विचारों का देखने को मिला है। जो विभिन्न माध्यमों से 09 अगस्त, 2014 को आयोजनों, सभाओं और संदेशों के मार्फ़त विश्‍व आदिवासी दिवस को प्रकट हुआ है।


इसके अलावा अन्तरजाल पर मोबाइल के मार्फत तकनीक का अब आदिवासी भी उपयोग करना सीख रहा है, जहॉं पर मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें पूरी तरह से हावी हैं और वो देश और समाज को बरगाले में पीछे नहीं हैं। ये अहसास अब अनार्यों को भी हो रहा है। इस बात का जवाब भारत के विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न कारणों से फैले राजस्थान और मध्य प्रदेश के आदिवासियों ने विश्‍व आदिवासी दिवस पर देने का प्रयास किया है। इस दौरान आदिवासियों की ओर से विश्‍व आदिवासी दिवस तो हजारों स्थानों पर चर्चा, बैठक, रैली, सभा, गोष्ठी आदि के जरिये बढचढकर मनाया तो गया ही, इसके साथ-साथ जागरूक आदिवासियों की और से जो सन्देश आपस में प्रसारित किये गये, वे इस देश और इस देश के मूल निवासी आदिवासियों तथा अनार्यों के आने वाले कल के बारे में बहुत कुछ बयां करते हैं। यहॉं ऐसे ही कुछ संदेशों का सारांश और भावार्थ प्रस्तुत हैं :-


1. ‘‘पे बेक टू सोसायटी-एक सामाजिक जिम्मेदारी है।’’ : यह एक विचारधारा है, जिसके अनुसार हम जिस समाज के कर्जदार हैं, उसके प्रति हमारी कुछ नैतिक जिम्मेदारी है। जिसका निर्वाह करना समाज के प्रत्येक व्यक्ति का अनिवार्य कर्त्तव्य है। यह विचारधारा किसी संगठन की मोहताज नहीं है। हम में से कोई भी किसी भी संगठन से जुड़ा हो पर हमारा प्रथम कर्त्तव्य है कि भारत के असली मालिक और यहॉं के मूल निवासी आदिवासी जो आर्यों की नजर में अनार्य हैं, वे सब मिलकर आपास में एक दूसरे की मदद और सहयोग करें। जिसकी शुरुआत हम इस ग्रुप से जुड़े लोगों का सहयोग करके कर सकते हैं। पे बेक टू सोसायटी ग्रुप में अगर किसी भी सदस्य को परेशानी हो या समाज के किसी भी सदस्य की परेशानी का पता चले तो सभी उसका तत्काल सहयोग करें। सहयोग की ये भावना ही हम सभी को एक सूत्र में जोड़ेगी और हमारे आदिवासी प्रेम को प्रमाणित करेगी। सभी आदिवासी चाहे वो किसी भी जाति के हो या किसी भी राज्य में रहते हों, हम सभी  एक दूसरे के सहयोग की कसम खाते हैं। सभी भाइयों से अनुरोध है की वो सभी अपनी-अपनी जगह विश्‍व आदिवासी दिवस को "पे बेक टू सोसायटी-एक सामाजिक जिम्मेदारी" के नाम से अपने मित्र सगे सम्बन्धी और मिलने वाले सभी लोगों के साथ हर्षोल्लास के साथ अपने घरों पर दीप जलाकर मनायें और उसकी फोटो एक दूसरे को भेजें तथा आदिवासी समाज के विकास और एकता पर चर्चा करें। आज का दिन हम सभी के आने वाले भविष्य के लिए ऐतिहासिक दिन होने वाला है। हम सभी का आपसी सहयोग और कड़ा परिश्रम आदिवासी समाज तथा देश की एकता के लिए मिसाल बने। जय अदिवासी एकता।

2. आदिवासी युवा शक्ति का आह्वान : ‘‘वक्त आने दे बता देंगे, तुझे ऐ आसमां...हम अभी से क्या बताएँ, क्या हमारे दिल में है।’’ विश्‍व आदिवासी दिवस के मौके पर आर्यों के वंशज शोषकों को ज्ञात हो जाना चाहिये कि भारत का मूल निवासी अब जाग गया है। अब हम गॉंव-गॉंव ढाणी-ढाणी घूम-घूम कर लोगों को इस बात को बतायेंगे कि मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें हिन्दुत्व के नाम पर आदिवासियों को और अनार्यों को किस प्रकार से आर्यों की गुलाम बनाये रखने के लिये काम कर रही हैं? हम प्रतिज्ञा करते हैं कि इस देश में मनुवाद अधिक दिन तक चलने वाला नहीं है। इस देश को आर्यों के चंगुल और मनुवाद की मानसिक गुलामी से मुक्त करवाना ही होगा। इस आह्वान को जमीनी स्तर पर प्रमाणित करने वाले आयोजन जैसे सभा, रैली आदि भी देशभर में देखने को मिले।  

3. जयस संगठन का आह्वान : सभी साथियों को विश्‍व आदिवासी दिवस की बहुत सारी शुभकामनावों के साथ आज 9 अगस्त को जयस घोषणा करता है की जो भी आदिवासिओं के जल, जंगल, जमीन और आदिवासियों आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों के साथ-साथ आदिवासियों की संस्कृति के साथ खिलावाड़ करेगा जयस (मध्य प्रदेश से संचालित संगठन) उनके खिलाफ खुली लड़ाई लड़ेगा और आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावो में उन सभी राजनैतिक पार्टियों का खुला विरोध करेगा। जिनकी नीतियां आदिवासियों के हितों के खिलाफ बनाई जा रही हैं। जिनकी नीतिओं में आदिवासी बच्चों को भूख और कुपोषण से मरने को मजबूर किया जा रहा है। आज जयस घोषणा करता है कि देश के उन सभी आदिवासी जनप्रतिनिधियों का भी खुल्लम खुल्ला विरोध करेगा जो विधायक और सांसद बनने के बाद पूरे पांच साल तक आदिवासी मुद्दों पर चुप रहकर  अपनी अपनी राजनैतिक पार्टियों की गुलामी करते हैं। जयस देश के सभी आदिवासी युवाओं से अनुरोध करता है कि आप किसी भी राजनैतिक पार्टी का समर्थन करने की बजाय आदिवासी समुदाय के उन पढे-लिखे आदिवासी युवाओं को चुनकर विधानसभा और लोकसभा में भेजें जो आदिवासिओं के संवैधानिक अधिकारों के जानकार होने के साथ साथ संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ने वाले हों। दोस्तों यही बदलाव की सच्ची शुरुआत है और इसके लिए हम आप सभी को मिलकर लड़ना है, तभी हम यह लड़ाई जीत पाएंगे।



4. आरक्षण भीख नही है : जब सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू की रिपोर्ट से भी ये साबित हो चुका है कि भारत के असली उतराधिकारी आठ फीसदी आदिवासी ही हैं तो फिर आरक्षण पर सवाल उठाने वाले षड़यंत्रकारी मनुवादी लोगों को खुद की गिरवान में झांकना चाहिये कि वो कितने बड़े गुनेहगारों के वंशज है। जिन्होंने देश के मूल निवासियों को इन बदतर हालातों में पहुंचा दिया है। इस बात को एक उदाहरण के जरिये समझ सकते हैं कि-कोई आपके पास आपके मकान में किराये से रहने के लिए आता है और आप उसे मकान किराया पर दे देते है, लेकिन वो आपके मकान पर कब्जा कर लेता है, आप मकान खाली कराने को प्रयास करते हैं तो किरायेदार मकान मालिक को उसके ही मकान के 10 कमरों में से एक कमरा रहने को दे
देता है। मकान मालिक इतना प्रताड़ित आतंकित किया जाता है कि सब कुछ भूलकर उस एक कमरे में जीवन बिताने को मजबूर हो जाता है, लेकिन मकान पर जबरन काबिज आपराधिक प्रवृत्ति के लोग, मकान के मालिक को उस एक कमरे में से भी बेदखल करके बाहर निकालने के षड़यंत्र लगातार रचते रहते हैं। क्या यह न्याय है??????? आज इस देश में हमारे साथ यही नहीं हो रहा है? जिस देश की आदिवासियों का शतप्रतिशत हक था, उस हक को साढे सात फीसदी पर सीमित कर दिया गया और अब उसको भी छीने जाने के नये-नये कुचक्र चले जा रहे हैं। इस उदाहरण से कोई भी समझ सकता है कि सम्पूर्ण मकान अर्थात् पूरा भारत देश हमारा है, जिसमें आर्य लोग आकर ऐसे घुसे कि पूरे देश पर ही कब्जा कर लिया और हमारे सभी हकों छीनकर उन पर काबिज हो हो गये। एक कमरा अर्थात् जो संवैधानिक आरक्षण हमें डॉ. अम्बेड़कर के साथ गॉंधी द्वारा किये गए के धोखे के बाद दिया गया, अब उस आरक्षण को भी हटाने की मुहिम अन्य मूल आरक्षित वर्गों के साथ-साथ आदिवासियों के विरुद्ध भी तेजी से चलाई जा रही है। यह कितनी मनमानी और कितनी अन्याय पूर्ण बात है, इसे कोई भी इंसाफ पसन्द व्यक्ति आसनी से समझकर महसूस कर सकता है। इस प्रकार मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें आदिवासियों को उनके बचे कुचे हकों से भी वंचित करने जा रही हैं। हमें इसका साहसपूर्वक सामना करना होगा। अन्यथा मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें हमें कुचल देंगी, हमें नेस्तनाबूद कर देंगी। क्योंकि संविधान द्वारा बनाये गये सभी निकायों पर इनका एक छत्र कब्जा है। इसे हटाने के लिये सभी अनार्य जिनकी आबादी 90 फीसदी से अधिक है को एकजुट और संगठित होना होगा।



5. जयपुर में संयुक्त जनजाति संस्थान की सभा : इस अवसर पर अनुसूचित जनजाति संयुक्त संस्थान जयपर की सभा में आदिवासियों के साथ किये जा रहे भेदभाव के प्रति आक्रोश व्यक्त करने के साथ-साथ, संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव व यूनिसेफ के महानिदेशक के संदेशों को बैठक में पढकर सुनाया गया। इन संदेशों में आदिवासियों के हितों के लिए दिए गए सुझावोंं के क्रियान्वयन के लिए वृहद रूप रेखा तैयार की गई। जिसमें मुख्य रूप से यह संकल्प लिया गया कि राज्य के सभी आदिवासी एकजुट होकर अपने हितों की रक्षा के लिये आवश्यक कदम उठायेंगे। सरकार द्वारा फिर भी उदासीनता बरती गयी तो संस्थान को आन्दोलनात्मक कदम उठाने को मजबूर होना पड़ेगा।


6. निराशा भी दिखी : मोबाइलों पर देखने को मिला कि दोस्तों नेट, मोबाइल, फेसबुक और व्हाट्सअप पर कई सन्देश डालने के बाद भी सभी आदिवासी युवा उनके प्रचार-प्रसार करने में आगे नहीं आ रहा है। विश्‍व आदिवासी दिवस के मौके पर फालतू बातें डिस्कस करने की बजाय अपने संवैधानिक अधिकारों के बारे में चर्चा करें। ताकि आदिवासी समुदाय के पढेे लिखे लोगों में अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूकता आये। लेकिन जयादातर पढेे लिखे आदिवासी युवा फालतू बातें करने में और भेड़ चाल चलने में आगे रहते हैं, जबकि अपने आदिवासी समुदाय की बात करने में उनको शर्म आती है जो कि आदिवासी समुदाय के अस्तित्व के लिए ठीक नहीं है। ऐसे लोगों को आदिवासियों की मूल जागरूक धारा के साथ जोड़ने के सन्देश भी जारी किये गए। 

7. दीप, सभा और हर्षोल्लास के साथ मनाया गया आदिवासी दिवस : राजस्थान और मध्य प्रदेश सहित देश के तकरीबन सभी आदिवासी बहुल राज्यों में और जहां-जहां भी आदिवासी वर्ग के लोग किसी भी वजह से निवास करते हैं, उन सभी ने विश्‍व आदिवासी दिवस को व्यक्तिगत रूप से अपने-अपने घरों में दीप जलाकर और बैठक व सभाओं में आपसी चर्चा करके हर्षोल्लास के साथ मनाया। पढेलिखे आदिवासियों ने वाटसेप, मेल और फेसबुक के जरिये भी विश्‍व आदिवासी दिवस की शुभकामनाएँ एक-दूसरे को ज्ञापित की। जिसे प्रस्तुत फोटोग्राफ से बखूबी समझा जा सकता है। यह अपने आप में आदिवासियों में तकनीक के इस्तेमाल के जरिये एक बड़ा बदलाव देखा जा सकता है।


8. हम हिन्दू नहीं, हम आदिवासी हैं, धार्मिक कोड की मांग : विश्‍व आदिवासी दिवस के अवसर पर आदिवासियों के अनेक समूहों की ओर से इस बात को भी ताकत से उठाया गया कि आदिवासी हिन्दू नहीं है, बल्कि मनुवादी-आर्यों द्वारा उसे जबरन हिन्दू बनाये रखने के अनैतिक प्रयास और षड़यंत्र किये जाते रहते हैं। आदिवासियों को अलग से आदिवासी धर्म के रूप में धार्मिंक कोड प्रदान किये जाने की आवाज भी उठायी गयी। जिसका देश के अनेक राज्यों के आदिवासियों की ओर से पुरजोर समर्थन किया गया।


9. आदिवासियों में सभी सरकारों के प्रति आक्रोश : सारे देश के आदिवासियों में इस बात को लेकर गहरा आक्रोश और गुस्सा देखा गया कि भारत की केन्द्र सरकार सहित तकरीबन सभी राज्य सरकारों ने विश्‍व आदिवासी दिवस का सरकारी स्तर पर आयोजन नहीं किया और इस दिन की कोई परवाह नहीं की और सभी सरकारों की ओर से इस प्रकार से आदिवासियों को सरेआम अपमानित करने का प्रयास किया गया। जो आदिवासियों के बीच गहरी चिन्ता का विषय बन गया है। आदिवासियों की परवाह करने के बजाय सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी अपने राष्ट्रीय जलसे के आयोजन में मशगूल रही। भाजपा सहित प्रधानमंत्री या किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री ने विश्व आदिवासी दिवस के दिन आदिवासियों के हिट में कोई कदम नहीं उठाया।  इससे आदिवासियों को इस बात का अहसास हो गया की उनकी औकात राजनैतिक दलों की नजर में वोट बैंक के आलावा कुछ भी नहीं है। आदिवासियों ने इस मौके पर तय किया है कि हमें हमारे सच्चे नेतृत्व तथा समर्पित को आगे लाना होगा और आदिवासियों की राजनैतिक ताकत को दलितों तथा अन्य कमजोर अनार्य जातियों के साथ मिलकर दिखाना होगा। 

 10. मनुवादी-आर्य शुभचिन्तक नहीं, शोषक और दुश्मन हैं : विश्‍व आदिवासी दिवस के अवसर पर आदिवासियों के सभी समूहों में यह एक बात समान रूप से सामने आयी है कि आदिवासी जो इस देश का असली मालिक है, उसे इस अब बात का अहसास होने लगा है कि मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें उनकी मित्र या शुभचिन्तक नहीं, बल्कि उनकी असली दुश्मन और शोषक हैं। जिनका आम आदिवासियों और अनार्यों के पर्दाफाश किया जाना समय की मांग है। जिसके लिये सभी उम्र के आदिवासी समूहों को जागरूक किये जाने की सख्त जरूरत है। इसके लिये पे-बैक टू सोसायटी ग्रुप की ओर से सभी अनार्यों जातियों और वर्गों के सहयोग से एक मुहिम चलाने के लिये अलग-अलग ग्रुप तैयार किये जाने की बात भी कही गयी है। यदि आदिवासी इस मुहिम को चलाने में सफल हो पाते हैं तो आने वाले कुछ ही वर्षों में इस देश के मनुवाद के धार्मिक शिकंजे में कैद आदिवासी और अनार्यों की तकदीर में क्रान्तिकारी बदलाव की शुरूआत हो सकती है। 

11. आदिवासियों को तकनीक का उपयोग समझ में आया : विश्‍व आदिवासी दिवस के अवसर पर, देशभर में सबसे बड़ी और उल्लेखनीय बात यह देखने में आयी कि तकनीक के जरिये आदिवासियों द्वारा विचार विनिमय किये जाने की शुरूआत हो गयी है, जो आने वाले भविष्य में आदिवासियों के सभी समूहों को एक दूसरे के करीब लाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण मुहिम सिद्ध हो सकती है।-09875066111

Sunday, July 20, 2014

हर रोज हजारों बलात्कार इज्जत की चादर में लपेट कर दफना दिए जाते हैं!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

हमारे देश में स्त्रियों के साथ बलात्कार तो रोज होते हैं, एकाध नहीं हजारों की संख्या में किये जाते हैं, लेकिन कुछ एक बलात्कार की घटनाएं किन्हीं अपरिहार्य कारणों और हालातों में सार्वजनिक हो जाती हैं। जिनके मीडिया के मार्फ़त सामने आ जाने पर औरतों, मर्दोँ और मीडिया द्वारा वहशी बलात्कारी मर्दों को गाली देने और सरकार को कोसने का सिलसिला शुरू हो जाता है। लेकिन हमारा अनुभव साक्षी है की इन बातों से न तो कुछ हासिल हुआ, न हो रहा और न होगा। क्योंकि हम इस रोग को ठीक करने के बारे में  ईमानदारी से विचार ही नहीं करना चाहते!

यदि साहस करके कड़वा सच कहा जाये तो सबसे गंभीर और सोचने वाली बात ये है कि हम बलात्कार को हजारों सालों से पोषित करते रहे हैं।  अत: हमें बलात्कार के प्रसंग में तकनीकी तौर पर नहीं, बल्कि निरपेक्ष भाव से बिना पूर्वाग्रह के एक पुरुष, पति या शासक बनकर नहीं, बल्कि एक पिता, एक माता, एक भाई और सबसे बढ़कर एक मानव बनकर विचार करना होगा कि किन-किन कारणों से आदिकाल से हम एक स्त्री को बलात्कार और मर्द की भोग की वस्तु मात्र ही मानते रहे हैं और खुद स्त्री को भी इसी सोच की पैदा करते रहे हैं या वो पैदा होती रही या ऐसी बनाई जाती रही है। हमें जानना होगा कि हमारी सोच और हमारे अवचेतन मन को रुग्ण करने वाले वे कौनसे ऐसे कारण हैं, जो आज भी बदस्तूर और सरेआम जारी हैं! जिन्हे देश की बहुसंख्यक आबादी न मात्र मानती ही है, बल्कि उन्हें सार्वजनिक रूप से महिमा मंडित भी करती रहती है।

जब तक बलात्कार की इस मूल जड़ को सामूहिक रूप से नहीं काटा जायेगा, हम सभी कभी न कभी एक दूसरे की बहन-बेटियों को अपनी दमित और कुत्सित कामनाओं का यों ही शिकार बनाते रहेंगे और फिर सोशल मीडिया सहित हम सर्वत्र, हर मंच से गरियाते रहने का निरर्थक नाटक भी करते रहेंगे। 

यदि हम में सच कहने की हिम्मत है तो हम सच कहें और देश की आधी आबादी को गुलाम मानने, गुलाम बनाये रखने, उसको बलात्कार तथा भोग की वस्तु मात्र बनी रहने देने और नारी को गुलाम समझने की शिक्षा देने वाले हमारे कथित धर्म ग्रंथों, कथित सांस्कृतिक संस्कारों और कथित सामाजिक (कु) शिक्षाओं के वाहकों को हमें साहस पूर्वक ध्वस्त करना होगा। क्या हम ऐसा करने को तैयार हैं? शायद नहीं!

अभी तक तो ऐसा करने की कोई टिमटिमाती आशा की किरण भी नहीं दिख रही। लेकिन जिस दिन हम ऐसा कर पाये उसके बाद भी हमें हजारों साल पुरानी इस बीमारी के खात्में का अगले कोई पचास सौ साल बाद कुछ सांकेतिक असर दिखेगा। अन्यथा तो नाटक करते रहें कुछ नहीं होने वाला। ये धर्म और संस्कृति जनित मानसिक बीमारी सख्त कानून बनाने या मर्दों या केंद्र सरकार या राज्य सरकारों को कोसने या गाली देने से नहीं मिटने वाली!

यदि हममें हिम्मत है तो इस दिशा में चिंगारी जलाएं करें, अन्यथा घड़ियाली आंसू बहाने से कुछ नहीं होगा। बलात्कार की जो घटनाएं सामने आ रही हैं, वे बलात्कार के कड़वे सच का संकेत मात्र हैं। सच तो ये है की हर रोज हजारों बलात्कार इज्जत की चादर में लपेट कर दफना दिए जाते हैं!
-Mob : 09875066111, Mail : nacbmail@gmail.com, Facebook : https://www.facebook.com/drnirankush

Friday, July 4, 2014

धारा 498-ए : सुप्रीम कोर्ट का निर्णय बेअसर!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ’निरंकुश’

हमारी बहन-बेटियों को दहेज उत्पीड़न के सामाजिक अभिशाप से कानूनी तरीके से बचाने और दहेज उत्पीड़कों को कठोर सजा दिलाने के मकसद से संसद द्वारा सम्बंधित कानूनी प्रावधानों में संशोधनों के साथ भारतीय दण्ड संहिता में धारा 498-ए जोड़ी गयी थी। मगर किसी भी इकतरफा कठोर कानून की भांति इस कानून का भी प्रारम्भ से ही दुरुपयोग शुरू हो गया। जिसको लेकर कानूनविदों में लगातार विवाद रहा है और इस धारा को समाप्त या संशोधित करने की लगातार मांग की जाती रही है। इस धारा के दुरुपयोग के सम्बन्ध में समय-समय पर अनेक प्रकार की गम्भीर टिप्पणियॉं और विचार सामने आते रहे हैं। जिनमें से कुछ यहॉं प्रस्तुत हैं :-
1. 19 जुलाई, 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-ए को कानूनी आतंकवाद की संज्ञा दी।
2. 11 जून, 2010 सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-ए के सम्बन्ध में कहा कि पतियों को अपनी स्वतंत्रता को भूल जाना चाहिये।
3. 14 अगस्त, 2010 सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार से भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-ए में संशोधन करने के लिए कहा।
4. 04 फरवरी, 2010 पंजाब के अम्बाला कोर्ट ने स्वीकारा कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-ए के प्रावधानों का दुरूपयोग हो रहा है।
5. 16 अप्रेल, 2010 बॉम्बे हाई कोर्ट ने और 22 अगस्त, 2010 को बैंगलौर हाई कोर्ट ने भी भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-ए के दुरूपयोग की बात को स्वीकारा।
6. केवल यही नहीं, बल्कि 22 अगस्त, 2010 को भारत सरकार ने सभी प्रदेशों की पुलिस को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-ए के प्रावधानों के दुरुपयोग के बारे में चेतावनी दी।
7. विधि आयोग ने अपनी 154 वीं रिपोर्ट में इस बात को साफ शब्दों में स्वीकारा कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-ए के प्रावधानों का दुरूपयोग हो रहा है।
8. नवम्बर, 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 498-ए के आरोप में केवल एफआईआर में नाम लिखवा देने मात्र के आधार पर ही पति-पक्ष के लोगों के विरुद्ध धारा-498-ए के तहत मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिये।
उपरोक्त गंभीर विचारों के होते हुए भी धारा 498-ए भारतीय दंड संहिता में ज्यों की त्यों कायम है इसका दुरुपयोग भी लगातार जारी रहा है। जिसको लेकर देश की सर्वोच्च अदालत अर्थात् सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार 02 जुलाई, 2014 को एक बार फिर से अनेक गम्भीर मानी जा रही टिप्पणियों के साथ अपना निर्णय सुनाया है। न्यायमूर्ति चंद्रमौलि कुमार प्रसाद की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने अपने निर्णय में मूल रूप से निम्न बातें कही हैं:-
1. दहेज उत्पीड़न विरोधी धारा 498-ए का पत्नियों द्वारा जमकर दुरुपयोग किया जा रहा है।
2. धारा 498-क में वर्णित अपराध के संज्ञेय और गैर जमानती होने के कारण असंतुष्ट पत्नियां इसे अपने कवच की बजाय अपने पतियों के विरुद्ध हथियार के रूप में इस्तेमाल करती हैं।
3. धारा 498-क के तहत गिरफ्तारी व्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने के साथ-साथ, गिरफ्तार व्यक्ति को अपमानित भी करती है और हमेशा के लिए उस पर धब्बा लगाती है।
4. धारा 498-ए वर पक्ष के लोगों को परेशान करने का सबसे आसान तरीका है। पति और उसके रिश्तेदारों को इस प्रावधान के तहत गिरफ्तार कराना बहुत आसान है। अनेक मामलों में पति के अशक्त दादा-दादी, विदेश में दशकों से रहने वाली उनकी बहनों तक को भी गिरफ्तार किया गया है।
5. धारा 498-ए के इस प्रावधान के तहत गिरफ्तार व्यक्तियों में से करीब एक चौथाई पतियों की मां और बहन जैसी महिलायें होती हैं, जिन्हें गिरफ्तारी के जाल में लिया जाता है।
6. धारा 498-ए के मामलों में आरोप पत्र दाखिल करने की दर 93.6 फीसदी तक है, जबकि सजा दिलाने की दर सिर्फ 15 फीसदी है।
7. वैवाहिक विवादों में इजाफा हुआ है। जिससे शादी जैसी संस्था प्रभावित हो रही है।
उपरोक्त कारणों से सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने कहा कि धारा 498-ए के दुरूपयोग को रोकने के लिये हम सभी राज्य सरकारों को निम्न निर्देश देते हैं :-(सुप्रीम कोर्ट के प्रत्येक निर्देश के सम्बन्ध में इस आलेख के लेखक द्वारा टिप्पणियॉं भी दी गयी हैं।)
1. देश में पुलिस अभी तक ब्रितानी सोच से बाहर नहीं निकली है और गिरफ्तार करने का अधिकार बेहद आकर्षक है। पहले गिरफ्तारी और फिर बाकी कार्यवाही करने का रवैया निन्दनीय है, जिस पर अंकुश लगाना चाहिए। पुलिस अधिकारी के पास तुरंत गिरफ्तारी की शक्ति को भ्रष्टाचार का बड़ा स्रोत है।
लेखक की टिप्पणी : अर्थात् सुप्रीम कोर्ट मानता है कि हमारी पुलिस न तो न्यायप्रिय है और न हीं निष्पक्ष है, बल्कि इसके साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट की दृष्टि में पुलिस भ्रष्ट भी है। इसके उपरान्त भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा केवल पुलिस के इस चरित्र की निन्दा करके ही इस गभीर मामले को समाप्त कर दिया गया। पुलिस के चरित्र में सुधार के लिये किसी प्रकार की पुख्ता निगरानी व्यवस्था कायम करने या अन्य किसी भी प्रकार के सुधारात्मक आदेश नहीं दिये गये। जबकि न मात्र धारा 498-ए के सन्दर्भ में बल्कि हर एक मामले पुलिस का न्यायप्रिय तथा निष्पक्ष नहीं होना और साथ ही भ्रष्ट होना आम व्यक्ति के लिए न्याय प्राप्ति में सबसे बड़ी और खतरनाक बाधा है। मगर सुप्रीम कोर्ट कम से कम इस मामले में आश्चर्यजनक रूप से मौन रहा है।
2. सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में आगे निर्देश देते हुए कहा है कि सभी राज्य सरकारें अपने-अपने पुलिस अधिकारियों को हिदायत दें कि भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के तहत मामला दर्ज होने पर स्वत: ही गिरफ्तारी नहीं करें, बल्कि पहले दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 में प्रदत्त मापदंडों के तहत गिरफ्तारी की आवश्यकता के बारे में खुद को संतुष्ट करें।
लेखक की टिप्पणी : अर्थात् जिस पुलिस को खुद सुप्रीम कोर्ट एक ओर भ्रष्ट मानता है, उसी पुलिस को खुद को ही इस बात की निगरानी रखनी है कि पुलिस के द्वारा कानूनी प्रावधानों का सही से प्रयोग किया जा रहा है या नहीं! क्या यह संभव है?
3. किसी व्यक्ति के खिलाफ पत्नियों द्वारा अपराध करने का आरोप लगाने के आधार पर ही फौरी तौर पर कोई गिरफ्तारी नहीं की जानी चाहिए। दूरदर्शी और बुद्धिमान पुलिस अधिकारी के लिए उचित होगा कि आरोपों की सच्चाई की थोड़ी बहुत जांच के बाद उचित तरीके से संतुष्ट हुए बगैर कोई गिरफ्तारी नहीं की जाये।
लेखक की टिप्पणी : अर्थात् यहॉं पर भी सुप्रीम कोर्ट की नजर में दूरदर्शी और बुद्धिमान पुलिस को ही स्वयं ही, स्वयं पर निगरानी रखनी है। पुलिस को भ्रष्ट करार देने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट को किसी बाहरी ऐजेंसी से पुलिस की निगरानी करवाने की जरूरत प्रतीत नहीं हुई।
4. पुलिस स्वत: ही आरोपी को गिरफ्तार नहीं कर सकती और उसे गिरफ्तार करने की वजह बतानी होगी और ऐसी वजहों की न्यायिक समीक्षा की जायेगी। पुलिस अधिकारी को गिरफ्तार करने की जरूरत के बारे में मजिस्ट्रेट के समक्ष गिरफ्तारी के कारण और उनके समर्थन में सामग्री पेश करनी होगी। क्योंकि पतियों को गिरफ्तार करने का कानूनी अधिकार एक बात है और इसके इस्तेमाल को पुलिस द्वारा न्यायोचित ठहराना दूसरी बात है। गिरफ्तार करने के अधिकार के साथ ही पुलिस अधिकारी ऐसा करने को कारणों के साथ न्यायोचित ठहराने योग्य होना चाहिए।
लेखक की टिप्पणी : यहॉं पर सुप्रीम कोर्ट के उक्त आदेश के बारे में दो बातें गौर करने वाली हैं। प्रथम तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश में ये बात साफ नहीं है कि धारा 498-ए के तहत मुकदमा दर्ज होने के बाद आरोपियों को गिरफ्तार करने से पूर्व मजिस्ट्रेट के समक्ष गिरफ्तारी के आधारों को पुलिस की ओर से सिद्ध करना होगा या गिरफ्तारी के बाद में मजिस्ट्रेट के पूछने पर सिद्ध करना होगा। दूसरे जिन मजिस्ट्रटों की अदालत से राष्ट्रपति तक के खिलाफ आसानी से गिरफ्तारी वारण्ट जारी करवाये जा सकते हैं और जो अदालतें मुकदमों के भार से इस कदर दबी बड़ी हैं कि उनके पास वर्षों तक तारीख बदलने के अलावा लोगों की सुनवाई करने तक का समय नहीं है, उन अदालतों से ये अपेक्षा किया जाना कि पुलिस द्वारा अरोपियों को गिरफ्तारी करने से पूर्व अपनी अन्वेषण डायरी में जो कारण लिखें हैं, वे कितने न्यायोचित या सही या उचित हैं, कहॉं तक व्यावहारिक होगा?
5. जिन किन्हीं मामलों में 7 साल तक की सजा हो सकती है, उनमें गिरफ्तारी सिर्फ इस कयास के आधार पर नहीं की जा सकती कि आरोपी ने वह अपराध किया होगा। गिरफ्तारी तभी की जाए, जब इस बात के पर्याप्त सबूत हों कि आरोपी के आजाद रहने से मामले की जांच प्रभावित हो सकती है और वह कोई और क्राइम कर सकता है या फरार हो सकता है।
लेखक की टिप्पणी : अर्थात् सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी उक्त आदेश को पूर्व में भी अनेकों बार दोहराया जाता रहा है, लेकिन पुलिस द्वारा लगातार और बिना किसी प्रकार की परवाह किये इस प्रावधान का और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का हर दिन उल्लंघन किया जाता रहा है। जिसका मूल कारण है, इस कानून का उल्लंघन करने वाले एक भी पुलिस लोक सेवक को आज तक किसी प्रकार की सजा नहीं दिया जाना। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक बार फिर से दोहराये गये इस आदेश का क्या हाल होगा, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है!

ये तो हुई बात सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय की उक्त टिप्पणियों तथा निर्देशों की, लेकिन जमीनी हकीकत इतनी भयावह है कि धारा 498-ए के कहर से निर्दोष पीड़ितों को मुक्ति दिलाने के लिये इससे भी कहीं आगे बढकर किसी भी संवैधानिक संस्था को विचार कर निर्णय करना होगा, क्योंकि फौरी उपचारों से इस क्रूर व्यवस्था से निर्दोष पतियों को न्याय नहीं मिल सकता है। अत: मेरी नजर में इसके बारे में कुछ व्यवहारिक और कानूनी मुद्दे विचारार्थ प्रस्तुत हैं :-
1. पति-पत्नी के बीच किसी सामान्य या असामान्य विवाद के कारण यदि पत्नी की ओर से भावावेश में या अपने पीहर के लोगों के दबाव या बहकावे में आकर धारा 498-ए के तहत एक बार पति के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवा देने के बाद इसमें समझौता करने का कानूनी प्रावधान नहीं हैं!
ऐसे हालातों में इस कानूनी व्यवस्था के तहत एक बार मुकदमा अर्थात् एफआईआर दर्ज करवाने के बाद वर पक्ष को मुकदमें का सामना करने के अलावा, विवाद के समाधान का अन्य कोई रास्ता ही नहीं बचता है। इसलिये यदि हम वास्तव में ही विवाह और परिवार नाम की सामाजिक संस्थाओं को बचाने के प्रति गम्भीर हैं तो हमें इस मामले में मुकदमे को वापस लेने या किसी भी स्तर पर समझौता करने का कानूनी प्रावधान करना होगा। अन्यथा वर्तमान हालातों में मुकदमा सिद्ध नहीं होने पर, मुकदमा दायर करने वाली पत्नी के विरुद्ध झूठा मुकदमा दायर करने के अपराध में स्वत: आपराधिक मुकदमा दर्ज करने की कानूनी व्यवस्था किया जाना प्राकृतिक न्याय की मांग है, क्योंकि स्वयं सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि 85 फीसदी मामलों में धारा 498-ए के आरोप सिद्ध ही नहीं हो पाते हैं। इस स्थिति से कैसे निपटा जाये और झूठे आरोप लगाने वाली पत्नियों के साथ क्या सलूक किया जाना चाहिए, इस बारे में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय पूरी तरह से मौन है। जो दु:खद है!
2. वरपक्ष के जिस किसी भी सदस्य का, वधुपक्ष की ओर से धारा 498-ए के तहत एफआईआर में नाम लिखवा दिया जाता है, उन सभी सदस्यों को बिना ये जाने कि उन्होंने कोई अपराध किया भी है या नहीं उनकी गिरफ्तारी करना पुलिस अपना परमकर्त्तव्य समझती रही है! 
मेरी राय में उक्त हालातों के लिये मूल में दो बड़े कारण हैं-

पहला तो यह कि धारा 498-ए के मामले में साक्ष्य अधिनियम के प्रावधान न्यायशास्त्र के उस मौलिक सिद्धान्त का सरेआम उल्लंघन करते हैं, जिसके अनुसार आरोप लगाने के बाद आरोपों को सही सिद्ध करने का दायित्व अभियोजन या वादी पक्ष पर नहीं डालकर आरोपी पर डालता है और कहता कि आरोपी अपने आपको निर्दोष सिद्ध करे। जिसके चलते पुलिस को इस बात से कोई लेना-देना नहीं रहता कि कोर्ट से यदि कोई आरोपी छूट भी जाता है तो इसके बारे में उससे कोई सवाल-जवाब किये जाने की समस्या होगी।

दूसरा बड़ा कारण यह है कि ऐसे मामलों में पुलिस को अपना रौद्र रूप दिखाने का पूरा अवसर मिलता है और सारी दुनिया जानती है कि रौद्र रूप दिखाते ही सामने वाला निरीह प्राणी थर-थर कांपने लगता है! पुलिस व्यवस्था तो वैसे ही अंग्रेजी राज्य के जमाने की अमानवीय परम्पराओं और कानूनों पर आधारित है! जहॉं पर पुलिस को लोगों की रक्षक बनाने के बजाय, लोगों को डंडा मारने वाली ताकत के रूप में जाना और पहचाना जाता है! ऐसे में यदि कानून ये कहता हो कि 498-ए में किसी को भी बन्द कर दो, यह चिन्ता कतई मत करो कि वह निर्दोष है या नहीं! क्योंकि पकड़े गये व्यक्ति को खुद को ही सिद्ध करना होगा कि वह दोषी नहीं, निर्दोष है। अर्थात् अरोपी को अपने आपको निर्दोष सिद्ध करने के लिये स्वयं ही साक्ष्य जुटाने होंगे। ऐसे में पुलिस को पति-पक्ष के लोगों का तेल निकालने का पूरा-पूरा मौका मिल जाता है।

इसलिये जरूरी है कि संसारभर में मान्यता प्राप्त न्यायशास्त्र के इस सिद्धान्ता को धारा 498-ए के मामले में भी लागू किया जाना चाहिये कि आरोप लगाने वाली पत्नियॉं इस बात के लिये जिम्मेदार हों कि उनकी ओर से लगाये गये आरोप पुख्ता तथा सही हैं और मंगठन्थ नहीं हैं। जिन्हें न्यायालय के समक्ष कानूनी प्रक्रिया के तहत सिद्ध करना उनका कानूनी दायित्व है। जब तक इस प्रावधान को नहीं बदला जाता है, तब तक गिरफ्तारी को पारदर्शी बनाने की औपचारिकता मात्र से कुछ भी नहीं होने वाला है।
3. अनेक बार तो खुद पुलिस एफआईआर को फड़वाकर, अपनी सलाह पर पत्नीपक्ष के लोगों से ऐसी एफआईआर लिखवाती है, जिसमें पति-पक्ष के सभी छोटे बड़े लोगों के नाम लिखे जाते हैं। जिनमें-पति, सास, सास की सास, ननद-ननदोई, श्‍वसुर, श्‍वसुर के पिता, जेठ-जेठानियॉं, देवर-देवरानिया, जेठ-जेठानियों और देवर-देवरानिया के पुत्र-पुत्रियों तक के नाम लिखवाये जाते हैं। अनेक मामलों में तो भानजे-भानजियों तक के नाम घसीटे जाते हैं।
पुलिस ऐसा इसलिये करती है, क्योंकि जब इतने सारे लोगों के नाम आरोपी के रूप में एफआईआर में लिखवाये जाते हैं तो उनको गिरफ्तार करके या गिरफ्तारी का भय दिखाकर आरोपियों से अच्छी-खायी रिश्‍वत वसूलना आसान हो जाता है (जिसे स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने भी स्वीकारा है) और अपनी तथाकथित जॉंच के दौरान ऐसे आलतू-फालतू-झूठे नामों को रिश्‍वत लेकर मुकदमे से हटा दिया जाता है। जिससे अदालत को भी अहसास कराने का नाटक किया जाता है कि पुलिस कितनी सही जॉंच करती है कि पहली ही नजर में निर्दोष दिखने वालों के नाम हटा दिये गये हैं। ऐसे में इस बात का भी कानूनी प्रावधान किया जाना जरूरी है कि यदि इस बात की पुष्टि किसी भी स्तर पर हो जाती है कि धारा 498-ए के मामले में किसी व्यक्ति का असत्य नाम लिखवाया गया है तो उसी स्तर पर एफआईआर लिखवाने वाली के विरुद्ध मुकदमा दायर किया जाकर कार्यवाही की जावे।

इस प्रकार हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि न मात्र धारा 498-ए के मामलों में बल्कि जिन किन्हीं भी मामलों या प्रावधानों में कानून का दुरुपयोग हो रहा है, वहॉं पर किसी प्राभावी संवैधानिक संस्था को लगातार सतर्क और विवेकपूर्ण निगरानी रखनी चाहिये, जिससे कि ऐसे मामलों में धारा 498-ए की जैसी स्थिति निर्मित ही नहीं होने पाये। क्योंकि आज धारा 498-ए के मामले में सुप्रीम कोर्ट के अनेक निर्णयों के बाद भी इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं दिख रहा है, बल्कि कुछ लोगों का तो यहॉं तक कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के कारण दहेज उत्पीड़कों के हौंसले बढेंगे, जिससे पत्नियों पर अत्याचार बढ सकते हैं। फिर भी मेरा साफ तौर पर मानना है कि जब तक इस कानून में से आरोपी के ऊपर स्वयं अपने आपको निर्दोष सिद्ध करने का भार है, तब तक पति-पक्ष के निर्दोष लोगों के ऊपर होने वाले अन्याय को रोक पाना या उन्हें न्याय प्रदान करना वर्तमान व्यवस्था में असम्भव है, क्योंकि धारा 498-ए के मामले में साक्ष्य अधिनियम के प्रावधान न्याय का गला घोंटने वाले, अप्राकृतिक और अन्यायपूर्ण हैं! अत: धारा 498-ए के कहर से निर्दोष पतियों को बचाने में सुप्रीम कोर्ट का वर्तमान निर्णय भी बेअसर ही सिद्ध होना है!
मोबाइल नं. : 098750-66111

Friday, June 13, 2014

भ्रष्टाचारियों को बचाने को प्रतिबद्ध राजस्थान सरकार

तथाकथित प्रचलित कमीशन रूपी रिश्‍वत के विभाजन की प्रक्रिया के अनुसार कनिष्ठ व सहायक अभियन्ताओं को ठेकेदारों द्वारा कमीशन सीधे नगद भुगतान किया जाता है, जबकि सभी कार्यपालक अभियन्ताओं द्वारा अपने-अपने अधीन के निर्माण कार्यों को कराने वाले कनिष्ठ व सहायक अभियन्ताओं से संग्रहित करके समस्त कमीशन को समय-सयम पर मुख्य अभियन्ता को पहुँचाया जाता रहता है। मुख्य अभियन्ता अपना हिस्सा काटने के बाद शेष राशि को अपने विभाग के विभागाध्यक्ष/ एमडी/सीएमडी/सचिव (ये सभी सामान्यत: आईएएस ही होते हैं) को पहुँचाते हैं। जिसमें से सभी अपना हिस्सा रखने के बाद निर्धारित राशि विभाग के मंत्री को पार्टी फण्ड के नाम पर भेंट कर दी जाती है। इस प्रकार सवा सौ करोड़ रुपये के कार्य में से पच्चीस करोड़ रुपये का विभाजन तो बिना किसी व्यवधान के आसानी से कमीशन के रूप में चलता रहता है। ठेकेदार को भी इसे अदा करने में कोई दिक्कत नहीं आती है। क्योंकि उसे कार्य केवल सौ करोड़ का ही करना होता है और पच्चीस करोड़ का कमीशन भुगतान करने की अलिखित शर्त पर ही कार्य मिलता है। लेकिन समस्या तब उत्पन्न होती है, जबकि आमतौर पर कुछ अति लालची/चालाक मुख्य अभियन्ता या विभाग प्रमुख, मंत्री के नाम पर सवा सौ करोड़ के कार्य में से पच्चीस करोड़ के बजाय चालीस-पचास करोड़ रुपये की राशि को कमीशन के रूप में प्राप्त करने के लिये नीचे के अभियन्ताओं पर दबाव बनाते हैं।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

राजस्थान सरकार ने राज्य के दो दर्जन से अधिक भ्रष्ट अफसरों और कर्मचारियों अर्थात जनता के नौकरों अर्थात् लोक सेवकों पर जनहित को दरकिनाकर करते हुए दरियादिली दिखायी है। ये सभी लोक सेवक किसी न किसी गैर कानूनी कार्य या गलत कार्य को करते हुए या जनहित को नुकसान पहुँचाते हुए या राज्य के खजाने या जनता को लूटते हुए रिश्‍वत लेते रंगे हाथ पकड़े गये थे। जिन्हें बाकायदा गिरफ्तार भी किया गया और ये जेल में भी बन्द रहे थे। राज्य सरकार की भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने कड़ी मेहनत करके इन सभी के खिलाफ पर्याप्त सबूत जुटाकर मामले को अदालत में प्रस्तुत करके इन्हें दोषी सिद्ध करने का सराहनीय साहस दिखाने का बीड़ा उठाया, लेकिन भय, भूख और भ्रष्टाचार को समाप्त करके राम राज्य की स्थापना करने को प्रतिबद्ध भाजपा की राजस्थान सरकार ने भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो को कह दिया है कि सरकार की नजर में इन लोक सेवकों ने कोई गलत काम नहीं किया। अत: इनके खिलाफ कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है।

आये दिन इस प्रकार के वाकये केवल राजस्थान में ही नहीं, बल्कि हर राज्य में और हर पार्टी की सरकार द्वारा अंजाम दिये जाते रहते रहते हैं। आम जनता समाचार-पत्रों में इस प्रकार के समाचार पढ कर अपना सिर नौचने के अलावा कुछ नहीं कर सकती है। लेकिन कहीं न कहीं मन में यह सवाल जरूर उठता है कि सरकार द्वारा भ्रष्टाचारियों को बचाने के लिये इस प्रकार के मनामने निर्णय क्यों लिये जाते हैं? सरकार भ्रष्ट लोक सेवकों को क्यों बचाती रहती है या भ्रष्टाचारियों को क्यों संरक्षण प्रदान करती है? करोड़ों देशवासियों के मन में कौंधते इसी प्रकार के सवालों का यहॉं पर उत्तर तलाशने का प्रयास किया गया है।

तथाकथित रूप से सर्वविदित तथ्य यह है कि सरकारी महकमे में नीचे से ऊपर तक हर एक कार्य के निष्पादन में अफसरों की भागीदारी होती है। आजादी के पूर्व से चली आयी इस अलिखित तथाकथित परम्परा का निर्वाह बहुत ईमानदारी से किया जाता है। जनहित का कार्य गुणवत्ता और ईमानदारी के साथ पूरा हो या न हो लेकिन कमीशन रूपी रिश्‍वत का विभाजन पूर्ण ईमानदारी से अवश्य किया जाता है। इसमें किसी भी प्रकार की कोताई या लेट लतीफी बर्दाश्त नहीं की जाती है। 

इस तथाकथित बेईमानी की ईमानदार प्रक्रिया को समझने के लिये हम किसी भी सरकार के किसी भी इंजीनियरिंग विभाग के एक उदाहरण से आसानी से समझ सकते हैं। माना कि किसी सिविल इंजीनियरिंग विभाग में कोई निर्माण कार्य करवाना है तो उस कार्य का अनुमानित लागत का प्रपत्र, जिसे एस्टीमेट कहा जाता है, उस क्षेत्र के कनिष्ठ अभियन्ता द्वारा बनाकर सहायक अभियन्ता, कार्यपालक अभियन्ता, अधीक्षण अभियन्ता और मुख्य अभियन्ता के मार्फत एमडी/सीएमडी/विभागाध्यक्ष या सचिव या मंत्री के समक्ष अनुमोदन हेतु पेश किया जाता है।

तथाकथित प्रचलित सामान्य प्रक्रिया के अनुसार यदि सौ करोड़ का निर्माण कार्य करवाना है तो कनिष्ठ अभियन्ता से सवा सौ करोड़ रुपये का एस्टीमेट बनवाकर प्रस्तुत करवाया जाता है। इस पच्चीस करोड़ की राशि का निर्धारित प्रतिशत में नीचे से ऊपर तक प्रत्येक कार्य प्राप्त करने वाले ठेकेदार के द्वारा कार्य के प्रत्येक चरण के पूर्ण होने पर सीधे या निम्न स्तर के अभियन्ताओं के मार्फत नगद भुगतान किया जाता है।

तथाकथित प्रचलित कमीशन रूपी रिश्‍वत के विभाजन की प्रक्रिया के अनुसार कनिष्ठ व सहायक अभियन्ताओं को ठेकेदारों द्वारा कमीशन सीधे नगद भुगतान किया जाता है, जबकि सभी कार्यपालक अभियन्ताओं द्वारा अपने-अपने अधीन के निर्माण कार्यों को कराने वाले कनिष्ठ व सहायक अभियन्ताओं से संग्रहित करके समस्त कमीशन को समय-सयम पर मुख्य अभियन्ता को पहुँचाया जाता रहता है। मुख्य अभियन्ता अपना हिस्सा काटने के बाद शेष राशि को अपने विभाग के विभागाध्यक्ष/ एमडी/सीएमडी/सचिव (ये सभी सामान्यत: आईएएस ही होते हैं) को पहुँचाते हैं। जिसमें से सभी अपना हिस्सा रखने के बाद निर्धारित राशि विभाग के मंत्री को पार्टी फण्ड के नाम पर भेंट कर दी जाती है। इस प्रकार सवा सौ करोड़ रुपये के कार्य में से पच्चीस करोड़ रुपये का विभाजन तो बिना किसी व्यवधान के आसानी से कमीशन के रूप में चलता रहता है। ठेकेदार को भी इसे अदा करने में कोई दिक्कत नहीं आती है। क्योंकि उसे कार्य केवल सौ करोड़ का ही करना होता है और पच्चीस करोड़ का कमीशन भुगतान करने की अलिखित शर्त पर ही कार्य मिलता है।

प्राप्त जानकारी के अनुसार समस्या तब उत्पन्न होती है, जबकि आमतौर पर कुछ अति लालची/चालाक मुख्य अभियन्ता या विभाग प्रमुख, मंत्री के नाम पर सवा सौ करोड़ के कार्य में से पच्चीस करोड़ के बजाय चालीस-पचास करोड़ रुपये की राशि को कमीशन के रूप में प्राप्त करने के लिये नीचे के अभियन्ताओं पर दबाव बनाते हैं। जिसकी उगाही नहीं करने पर उनकी नौकरी जाने का खतरा बना रहता है। साथ ही इस मनमानी वसूली करने पर ठेकेदार भी कार्य की गुणवत्ता को गिरा देता है, फिर भी कनिष्ठ व सहायक अभियन्ताओं को अपनी नौकरी को दाव पर लगाकर यह प्रमाणित करना होता है कि ठेकेदार द्वारा निर्धारित मापदण्डों और शर्तों के अनुसार ही निर्माण कार्य पूर्ण किया गया है। यदि वे ऐसा नहीं लिखें तो ठेकेदार को भुगतान नहीं हो सकता और भुगतान नहीं होगा तो किसी को कमीशन का एक पैसा भी नहीं मिलेगा। ऐसे में कुछ कनिष्ठ व सहायक अभियन्ताओं द्वारा ऐसा प्रमाण-पत्र जारी करने से पूर्व ठेकेदार पर निर्धारित रीति से सही काम करने का दबाव बनाया जाता है। लेकिन ऐसे हालातों में निर्धारित मापदण्डों और शर्तों के अनुसार सही काम करवाने के बाद ठेकेदार द्वारा अधिक कमीशन देने में आनाकानी की जाती है। जबकि ऊपर से अत्यन्त दबाव होता है जो कनिष्ठ व सहायक अभियन्ताओं के मार्फत ठेकेदार तक जाता है। ऐसे में ठेकेदार भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो से सम्पर्क साधकर सम्बन्धित कनिष्ठ या सहायक अभियन्ता को रंगे हाथों कमीशन रूपी रिश्‍वत को लेते गिरफ्तार करवा देते हैं। अखबारों में रिश्‍वत लेने की खबरें छपती हैं। पकड़े गये अभियन्ता का सामाजिक मानसम्मान सब कुछ ध्वस्त हो जाता है।

इसके बावजूद भी बहुत कम ऐसे अभियन्ता या रिश्‍वतखोर लोक सेवक होते हैं, जिनको सजा मिलती है। कारण कि पकड़े गये अभियन्ता या रिश्‍वतखोर लोक सेवकों के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति सरकार द्वारा दी जाती है। सरकार का मतलब एमडी/सीएमडी/सचिव/मंत्री जो अधिकतर मामलों में ऐसी स्वीकृति नहीं देते हैं, क्योंकि उनको धन एकट्ठा करने के कारण ही तो अभियन्ता या रिश्‍वतखोर लोक सेवकों को पकड़ा जाता है। लेकिन कभी-कभी इसमें भी व्यवधान आ जाता है। कमीशन मांगने वाले और अभियोजन चलाने की स्वीकृति देने वाले अधिकारी बदल जाते हैं। ऐसे में आपसी सामंजस्य बिगड़ जाता है या मामले को मीडिया में उठवा दिया जाता है और कभी-कभी अभियोजन चलाने की स्वीकृति मिल भी जाती है। फिर भी अदालत से दो फीसदी से अधिक मामलों में सजा नहीं मिलती है। क्योंकि मामले को कोर्ट के समक्ष सिद्ध करने की जिम्मेदारी जिन लोक सेवकों के ऊपर होती है, उनके साथ आरोपियो द्वारा आसानी से सामंजस्य बिठा लिया जाता है।  

बताया यह भी जाता है कि जब भी नयी सरकार या नये मंत्री या नये विभागाध्यक्ष पदस्थ होते हैं, आमतौर पर भ्रष्टाचार के मामलों में पकड़े गये लोक सेवकों से मोटी रकम वसूल करके उनके खिलाफ अभियोजन चलाने की स्वीकृति देने से किसी न किसी बहाने इनकार कर देते हैं और ऐसे लोक सेवकों को माल कमाने के लिये मलाईदार पदों पर पदस्थ करके उन्हें उपकृत कर देते हैं। ऐसे में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो या भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिये कार्य करने वाली सरकारी एजेंसियों का हतोत्साहित होना स्वाभाविक है। कभी-कभी इसका परिणाम ये होतो है कि भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो या भ्रष्टाचार उन्मूलन ऐजेंसी द्वारा रिश्‍वत लेते रंगे हाथ पकड़े जाने पर खुद ही सौदा कर लिया जाता है और आरोपियों को छोड़ दिया जाता है।

अच्छे दिनों के सपने दिखाने वाले भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा की राजस्थान सरकार लोकसभा चुनावों के बाद असली रंग में आ चुकी है और अपने पिछले कार्य काल की ही भांति मनमानी और अफसरों की तानाशाही प्रारम्भ हो चुकी है। यही कारण था कि पिछली बार भाजपा और कॉंग्रेस का पतन हुआ था, लेकिन सत्ता में आते ही जनहित सहित सब कुछ भुलाकर राजनेता और अफसरशाही का अटूट भ्रष्ट गठजोड़ केवल और केवल माल कमाने में मशगूल हो जाता है।-लेखक 1993 से देश भर में सेवारत-"भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान" (बास) का राष्ट्रीय अध्यक्ष है। मोबाईल : -098750661111