संसार में जितने भी युद्ध हुए हैं, उनमें से अधिकतर के पीछे धार्मिक कारण रहे हैं। धर्म या धार्मिक लोगों या कथित धार्मिक महापुरुषों ने कितने लोगों को जीवनदान दिया, इसका तो कोई पुख्ता और तथ्यात्मक सबूत नहीं है, लेकिन हम देख रहे हैं कि धर्म हर रोज ही लोगों को लीलता जा रहता है। ऐसे में क्या मानव निर्मित धर्म के औचित्य के बारे में हमें गम्भीरता से सोचने की जरूरत नहीं है?
मेरे शुभचिंतक और समालोचक जिनके विश्वास एवं संबल पर मैं यहाँ लिख पा रहा हूँ!
‘यदि आपका कोई अपना या परिचित पीलिया रोग से पीड़ित है तो इसे हलके से नहीं लें, क्योंकि पीलिया इतना घातक है कि रोगी की मौत भी हो सकती है! इसमें आयुर्वेद और होम्योपैथी का उपचार अधिक कारगर है! हम पीलिया की दवाई मुफ्त में देते हैं! सम्पर्क करें : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, 098750-66111
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Wednesday, October 16, 2013
मानव-निर्मित धर्म की क्रूरता से खुद को बचायें
Thursday, September 19, 2013
कानून है किस चिड़िया का नाम?
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि कानून के सामने प्रत्येक व्यक्ति को एक समान समझा जायेगा और प्रत्येक व्यक्ति को कानून का एक समान संरक्षण प्रदान किया जायेगा| जिसके तहत प्रत्येक अपराधी के विरुद्ध एक समान कानूनी कार्यवाही करना भी शामिल है, लेकिन इसके बावजदू भी पिछले कुछ समय से भारत में कुछ इस प्रकार की घटनाएँ हो रही हैं, जिन्हें जान, समझ और पढकर मैं ये सोचने को विवश
Monday, July 1, 2013
मनुवाद द्वारा प्रायोजित महात्रासदी
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
भारत में जहॉं हर कि प्रकार के प्राकृतिक संसाधन मौजूद हैं, वहीं हम भारतीय हर प्रकार की प्राकृतिक और मनुष्यजन्य विपदाओं का सामना करते रहने के भी आदि होते जा रहे हैं। उत्तराखण्ड में आयी बाढ और भू-स्खलन के कारण जो हालात पैदा हुए हैं, उनके लिये हमारे देश में बुद्धिजीवी वास्तवकि कारणों को ढूँढने में लगे हुए हैं, वहीं नरेन्द्र मोदी जैसे राजनेताओं ने इस विपदा को भी अपनी राजनैतिक रोटी सेकने का अखाड़ा बनाने की शुरूआत करके इसमें भी गंदी और वीभत्स राजनीति को प्रवेश करवा दिया।
Friday, May 10, 2013
दलित-आदिवासी और स्त्रियों का धर्म आधारित उत्पीड़न हमारी चिन्ता क्यों नहीं?
तत्काल समाधान हेतु इस देश में यदि आज सबसे बड़ी कोई समस्या है तो वो है, देश के पच्चीस फीसदी दलितों और आदिवासियों और अड़तालीस फीसदी महिला आबादी को वास्तव में सम्मान, संवैधानिक समानता, सुरक्षा और हर क्षेत्र में पारदर्शी न्याय प्रदान करना और यदि सबसे बड़ा कोई अपराध है तो वो है-दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों को धर्म के नाम पर हर दिन अपमानित, शोषित और उत्पीड़ित किया जाना। यही नहीं इस देश में आज की तारीख में यदि सबसे सबसे बड़ी सजा का हकदार कोई अपराधी हैं तो वे सभी हैं, जो दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों के साथ खुलेआम भेदभाव, अन्याय, शोषण, उत्पीड़न कर रहे हैं और जिन्हें धर्म और संस्द्भति के नाम पर जो लोग और संगठन लगातार सहयोग प्रदान करते रहते हैं।
Friday, November 9, 2012
अनर्गल बयानबाजी का कड़वा सच?
कोई पुरानी पत्नी को मजा रहित बतलाये या कोई किसी की पत्नी को पचास करोड़ गर्लफ्रेंड कहे| चाहे कोई किसी को बन्दर कहे! चाहे कोई राम को अयोग्य पति कहे या कोई राधा को रखैल| चाहे कोई दाऊद और विवेकानंद को एक तराजू में तोले या कोई मंदिरों से शौचालयों को पवित्र बतलाये! इन सब अनर्गल बातों को रोक पाना अब लगभग मुश्किल सा हो गया है! क्योंकि हम ही लोगों ने दुष्टों को महादुष्ट और महादुष्टों को मानव भक्षक बना दिया है और इन सभी के आगे हम और हमारे तथाकथित संरक्षक जनप्रतिनिधी पूंछ हिलाते देखे जा सकते हैं|
Saturday, May 21, 2011
भारत की इण्डिया से आजादी!
समाज और देश के वर्तमान हालातों में यह बहुत जरूरी हो गया है कि हम सभी भारतवासी धर्म, सम्प्रदाय, जाति, भाषा, लिंग और क्षेत्रीय विवादों से दूर रहकर सत्ता और प्रशासन पर काबिज भ्रष्ट तथा अत्याचारी लोगों के नापाक गठजोड़ के खिलाफ मजबूती से एकजुट हो जायें और हर हाल में, हर तरीके से जागरूक, सजग, सतर्क तथा सच्चे देशभक्त नागरिक बनने का दिल से सम्पूर्ण प्रयास करें| तब ही हम सत्ता के भूखे भेड़ियों और काले अंग्रेजों से (जिनकी कुल जनसंख्या मात्र दो प्रतिशत है) भारत को इण्डिया बनने से बचा पायेंगे|
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
आज की युवा पीढी शायद इस बात को आसानी से नहीं समझ सके कि भारत की ‘आजादी का पर्व’ भारत के ‘गणतन्त्र दिवस’ की तुलना में छोटी घटना थी| क्योंकि भारत के लम्बे और हजारों साल के इतिहास में, भारत के कई सौ छोटे-छोटे राज्य, प्रदेश, सूबे, क्षेत्र और इलाके न जाने कितनी बार एक राजा/बादशाह/शासक से दूसरे राजा/बादशाह/शासक के अधीन/स्वतन्त्र/आजाद होते रहे हैं| इस दौरान यहॉं की शोषित/गुलाम और असहाय प्रजा ने राजशाही, सामन्तशाही, बादशाही, अंग्रेजी हुकूमत, आजादी और परतन्त्रता को खूब देखा, भोगा और सहा था| इसलिये १५ अगस्त, १९४७ को अंग्रेजों से मिली आजादी भी भारतीयों की तत्कालीन पीढी के लिये कोई नयी, अनौखी या अनहौनी घटना नहीं थी|
हॉं २६ जनवरी, १९५० को जब भारत में, भारतीय लोगों द्वारा बनाया गया संविधान लागू हुआ तो यह अवश्य भारत के इतिहास में नयी, अनौखी या अनहौनी घटना थी और सदैव रहेगी| अनेक लोग भारत के संविधान को अंग्रेजों के कानूनों की नकल भी मानते हैं और साठ साल के भारतीय गणतन्त्र के इतिहास में जनता के अनुभव में संविधान में अनेक प्रकार की खामियॉं भी सामने आयी हैं| जिसके लिये कौन जिम्मेदार है, यह बहस का विषय हो सकता है, लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं है कि हम संसार का सर्वश्रेष्ठ समझा और कहा जाने वाला संविधान बनाने में तो सफल रहे, लेकिन हम श्रेष्ठ और देशभक्त नागरिक तथा जनता के प्रति जवाबदेह लोक सेवक बनाने में पूरी तरह से असफल रहे| जिसके चलते आज की पीढी भारत के विशाल और बहुआयामी सोच को परिलक्षित करने वाले संविधान की महत्ता और गरिमा को कैसे समझ सकती है?
इस सबके उपरान्त भी भारत के इतिहास में २६ जनवरी, १९५० का दिन स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाने वाला दिन है और सदैव रहेगा| भारत में संविधान लागू होते ही देशवासियों में ‘समानता की स्थापना’ करने वाली ऐसी संवैधानिक व्यवस्था कायम हो गयी जिसकी, उस समय के आम लोगों की पिछली पीढियों ने कभी सपने में भी कल्पना तक नहीं की होगी| जिसे नीचे दी गयी कुछ बातों से उस समय के सामाजिक एवं प्रशासनिक सन्दर्भ में साफ-साफ समझा जा सकता है :-
‘समानता की स्थापना’ करने वाली संवैधानिक व्यवस्था कायम
१. रंगभेद समाप्त : हमारे देश में अदालतों द्वारा आरोपियों के काले-गौर रंग को देखकर इंसाफ किया जाता था, जो संविधान लागू होते ही समाप्त हो गया|
२. धार्मिक विभेद से मुक्ति : हमारे देश में शासकों द्वारा धर्म-विशेष के लोगों के विरुद्ध ‘जजिया’ जैसे कर लगाये जाते थे, जो संविधान लागू होते ही समाप्त हो गये|
३. धार्मिक आजादी : हमारे देश में शासकों द्वारा धर्म/सम्प्रदाय-विशेष के लोगों को अपने धर्मानुसार आचरण करने की आजादी पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अंकुश लगाया जाता, जो संविधान लागू होते ही न मात्र समाप्त हो गया, बल्कि संविधान लागू होने के साथ-साथ सरकारों पर यह संवैधानिक दायित्व भी सौंपा गया है कि सरकार सभी धर्मों और सम्प्रदायों के प्रति समभाव रखेंगी| और धर्म के आधार पर किसी के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जायेगा|
४. जातिगत भेदभाव समाप्त : हमारे देश में अदालतों/धर्माधीशों/पंचों द्वारा आरोपियों की उच्च और निम्न जाति तथा उनके व्यवसाय को देखकर इंसाफ किया जाता था और अलग-अलग दण्ड दिये जाते थे, जो संविधान लागू होते ही समाप्त हो गये|
५. छुआछूत समाप्त : हमारे देश में निम्न जातीय लोगों के प्रति अश्पृश्यता और छुआछूत का व्यवहार/दुर्व्यवहार करना धर्मानुकूल माना जाता था| जो संविधान लागू होते ही समाप्त हो गया|
६. लिंग भेद समाप्त : भारत में स्त्रियों को दोयम दर्जे की नागरिक समझा जाता था| अनेक ऐसे भी उदाहरण हैं, जिनमें स्त्री को मानवीय अधिकार भी नहीं थे| स्त्रियों को जानवरों की भांति बेचा और खरीदा जाता था| लेकिन संविधान लागू होते ही, कानूनी रूप से स्त्री, पुरुष के समकक्ष खड़ी होने को आज़ाद हो गयी| धर्म और सामाजिक बुराईयों में जकड़े समाज में ये अनहोनी घटना थी|
७. समान मताधिकार : भारत में जहॉं स्त्रियों और दमित लोगों को सम्मान से अपना जीवन जीने तक का हक नहीं था, वहां समान मताधिकार की कल्पना करना भी इनके लिए असम्भव था! संविधान ने सभी वयस्कों को सामान मताधिकार दिया और सत्ता को बदलने का हथियार बहुसंख्यक भारतीयों को प्रदान किया| यह अपने आप में बहुत बड़ी और अप्रत्याशित घटना थी|
उपरोक्त सभी और ऐसी ही अनेकों बातों के होते हुए भी भारत के लोगों द्वारा बनाया गया, भारतीय संविधान, भारत में लागू होने के उपरान्त भी आज देश के बहुसंख्यक लोगों की दशा अत्यन्त चिन्तनीय और दर्दनाक है| मात्र दो फीसदी लोग देश के सभी संसाधनों और सत्ता पर काबिज हैं| जिसके लिये मूल रूप से निम्न बातें जिम्मेदार हैं :-
१. समानता को लागू करने वाली सभी बातें संवैधानिक रूप से भारत में लागू तो हो गयी, लेकिन इन सभी बुराईयों के समर्थक लोगों का सत्ता, सरकार और नीति निर्माण में आजादी के बाद से लगातार एकाधिकार रहा है| जो अभी भी समाप्त नहीं हुआ है| इस कारण कमोबेश संविधान लागू होने से पूर्व की सभी बुराईयॉं आज भी इस देश में संविधान को धता बताकर कायम हैं और अनेक लोग, संगठन तथा राजनैतिक दल फिर से पुरातनपंथी व्यवस्था को इस देश में लागू करने के सपने देखते रहते हैं| जिसके चलते देश का सौहार्दपूर्ण माहौल खराब करने का लगातार प्रयास किया जाता रहता है| इन लोगों का लगातार प्रयास है कि यैन-कैन प्रकारेण भारत के संविधान को विफल सिद्ध करके, नया संविधान लागू किया जावे, और इस प्रक्रिया में समानता के उपरोक्त समस्त पवित्र सिद्धान्तों को परोक्ष रूप से नकार दिया जावे|
२. अंग्रेजी शासन के विरुद्ध स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लेने वाली भारतीय देशभक्त पीढी के अवसान के बाद, देश के राजनैतिक धरातल पर ऐसी पीढी का उदय हुआ, जो किसी भी तरीके से सत्ता पर काबिज होना अपना पहला और अन्तिम लक्ष्य मानने लगी और यह पीढी सत्ता पर न मात्र काबिज होती गयी, बल्कि इस पीढी ने सत्तारूढ होने के बाद, सत्ता का मनमाना दुरूपयोग भी किया| भारत में सभी दलों की सरकारें रह चुकी हैं, लेकिन इस मामले में सभी में एकरूपता देखी गयी है| सत्ता में आने के बाद किसी ने आम लोगों और देश के उत्थान के लिये, संविधान के अनुसार कार्य नहीं किया| हर एक ने अपना वोटबैंक पक्का करने के लिये देश का खजाना लुटाया या सभी ने मिलकर लूटा है, और आज भी लूट रहे हैं|
३. आजादी के बाद भी, आजादी से पूर्व में जारी भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था को भारत में ज्यों का त्यों लागू रखा गया| जिसके चलते नौकरशाहों को दिया जाने वाला प्रशिक्षण और प्रशासनिक व्यवस्था को संचालित करने वाली भेदभावपूर्ण कानूनी व्यवस्था को बदस्तूर लागू और अगली पीढी के लिये स्थानान्तरित करना जारी रखा गया| जबकि २६ जनवरी, १९५० को संविधान के अनुच्छेद १३ (१) में इस भेदभावपूर्ण और अंग्रेजों द्वारा अपने स्वार्थ साधन के लिये भारतीयों पर जबरन थोपी गयी व्यवस्था को पूरी तरह से निरस्त और शून्य करार दिया जा चुका था| इस प्रकार की व्यवस्था के चलते भारतीय नौकरशाह, जिन्हें संविधान में लोक सेवक अर्थात्-जनता के नौकर का दर्जा दिया गया, वे जनता के विरुद्ध भूखे भेड़ियों की तरह से बर्ताव करने लगे और उन्होंने जैसे चाहा, उसी प्रकार से देश के संसाधनों को लूटना और बर्बाद करना शुरू कर दिया|
४. उक्त बिन्दु २ एवं ३ में दर्शायी गयी स्थिति में सत्ता और प्रशासन दोनों के स्वार्थपूर्ण और आपराधिक लक्ष्य मिल गये| अर्थात् दोनों को देश और देशवासियों को लूटना था| अत: चोर-चोर मौसेरे भाई बन गये| अंग्रेजों की विरासत में प्राप्त शोषण, अत्याचार और देश को लूटने के सभी गुण नौकरशाहों ने जनप्रतिनिधियों को भी सिखा दिये| और जनप्रतिनिधियों तथा नौकरशाहों के बीच ऐसा अटूट-गठजोड़ बन गया, जिसे तोड़ना आम जनता के लिये सत्ता परिवर्तन से सम्भव नहीं रहा| क्योंकि सत्ता के बदलते ही नौकरशाह नये सत्ताधारियों को चारा डालने के लिये तैयार रहने लगे| इस कारण देश में भ्रष्टाचार, अत्याचार, उत्पीड़न, भेदभाव, कमीशनखोरी, मिलावट और विकास के नाम पर लूट का खुला खेल शुरू हो गया जो लगातार आज भी जारी है|
५. उपरोक्त हालातों में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका तो एक दूसरे के पूरक बनकर रह गये| ऐसे में आम लोगों ने न्यायपालिका की ओर आशाभरी नजर से देखना शुरू कर दिया| न्यायपालिका ने जनता को पूरी तरह से निराश भी नहीं किया, लेकिन शनै: शनै: न्यायपालिका को भी भ्रष्टाचार के रोग ने जकड़ लिया| न्यायालय धनकुबेरों और उच्च अधिकारियों के विरुद्ध यदा-कदा होने वाली कानूनी कार्यवाहियों को संचालित नहीं होने देने के लिये स्थगन आदेश और जनहित याचिकाओं के आधार पर परोक्ष रूप से संरक्षण प्रदान करते हुए नजर आ रहे हैं| जबकि आम लोगों के मामलों में सालों तक सुनवाई नहीं होती है| इससे आम जनता की नज़र में न्यायपालिका की शाख भी घटी है|
आम लोगों के पास अपनी ‘‘एकजुटता’’
की ताकत के अलावा कोई नहीं रास्ता है
इन विकट और दर्दनाक हालातों में आम जनता को अपनी ‘‘एकजुटता’’ की ताकत के अलावा कहीं से भी कोई आशा नजर नहीं आती है| क्योंकि इतिहास गवाह है कि जनता की एकजुट ताकत के आगे झुकना सत्ता की मजबूरी है| इसलिये वर्तमान में देश के अच्छे, सच्चे, न्यायप्रिय और देशभक्त लोगों तथा नौकरशाहों को एकजुट होकर एक दूसरे की ढाल बनने की सख्त जरूरत है| यदि हम ऐसा कर पाते हैं तो ही हम-
(१) सबसे पहले हम स्वयं अपनी एवं अपने परिवार की जानमाल की हिफाजत कर पाने में सक्षम हो पायेंगे|
(२) यदि स्वयं एवं अपने परिवार की जानमान की हिफाजन करने में सफल रहेंगे, तो ही हम जरूरतमन्द, विकलांग, अक्षम और निरीह लोगों तथा पर्यावरण एवं मूक जीव-जन्तुओं की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिये कदम उठा पायेंगे|
(३) जब हम उक्त दोनों स्तरों पर न्याय पाने और दिलाने में सफल हो जायेंगे तो हम देश और देशहित की बात करने के काबिल होंगे| इस स्तर पर हम नकली दवाई बनाने वाली फैक्ट्रियों, जमीनों को बेचने वाले सत्ताधारियों, सत्ता के दलालों, कालाबाजारी करने वालों, मिलावटियों आदि के विरुद्ध एकजुट होकर जनहित और राष्ट्रहित में सफलतापूर्वक जनान्दोलन शुरू करने और भारत को बचाने में सक्षम और समर्थ हो पाएंगे|
सबसे बड़ी चेतावनी : लेकिन ध्यान रहे कि ‘‘देश की नौकरशाही और समस्त राजनैतिक दल चाहते हैं कि आम व्यक्ति को अपनी स्वयं की एवं अपने परिवार की जानमाल की चिन्ता में ही बुरी तरह से उलझा कर रखा जावे, जिससे वह दूसरों की दुख-तकलीफों तथा राष्ट्र की चिन्ता करने में सक्षम ही नहीं हो सके|’’
अत: इन हालातों में यह और भी जरूरी हो गया है कि ‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान’ (बास) के मंच पर ऐसे लोगों का उदय हो, जो राजनेताओं और धार्मिक संगठनों के बहकावे में नहीं आकर स्वयं के साथ-साथ, मानव समाज, मूक जीवजन्तु और राष्ट्र के बारे में सोचने और जरूरी कदम उठाने में सक्षम हो सकें|
‘‘इसलिये समाज और देश के वर्तमान हालातों में यह बहुत जरूरी हो गया है कि हम सभी भारतवासी धर्म, सम्प्रदाय, जाति, भाषा, लिंग और क्षेत्रीय विवादों से दूर रहकर सत्ता और प्रशासन पर काबिज भ्रष्ट तथा अत्याचारी लोगों के नापाक गठजोड़ के खिलाफ मजबूती से एकजुट हो जायें और हर हाल में, हर तरीके से जागरूक, सजग, सतर्क तथा सच्चे देशभक्त नागरिक बनने का दिल से सम्पूर्ण प्रयास करें| तब ही हम सत्ता के भूखे भेड़ियों और काले अंग्रेजों से (जिनकी कुल जनसंख्या मात्र दो प्रतिशत है) भारत को इण्डिया बनने से बचा पायेंगे|’’
अत: यदि संक्षेप और सार रूप में कहा जाये तो इतना कहना ही पर्याप्त है कि-
एक साथ आना शुरूआत है, एक रहना प्रगति है और एक साथ काम करना सफलता है|
Friday, April 29, 2011
भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी क्यों?

भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी क्यों?
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि इन दिनों भारत में हर क्षेत्र में, भ्रष्टाचार चरम पर है| भ्रष्टाचार के ये हालात एक दिन या कुछ वर्षों में पैदा नहीं हुए हैं| इन विकट हालातों के लिये हजारों वर्षों की कुसंस्कृति और सत्ताधारियों को गुरुमन्त्र देने के नाम पर सिखायी जाने वाली भेदभावमूलक धर्मनीति तथा राजनीति ही असल कारण है| जिसके कारण कालान्तर में गलत एवं पथभ्रष्ट लोगों को सम्मान देने नीति का पनपना और ऐसे लोगों के विरुद्ध आवाज नहीं उठाने की हमारी वैचारिकता भी जिम्मेदार है|
आजादी के बाद पहली बार हमें अपना संविधान तो मिला, लेकिन संविधान का संचालन उसी पुरानी और सड़ीगली व्यवस्था के पोषक लोगों के ही हाथ में रहा| हमने अच्छे-अच्छे नियम-कानून और व्यवस्थाएँ बनाने पर तो जोर दिया, लेकिन इनको लागू करने वाले सच्चे, समर्पित और निष्ठावान लोगों के निर्माण को बिलकुल भुला दिया|
दुष्परिणाम यह हुआ कि सरकार, प्रशासन और व्यवस्था का संचालन करने वाले लोगों के दिलोदिमांग में वे सब बातें यथावत स्थापित रही, जो समाज को जाति, वर्ण, धर्म और अन्य अनेक हिस्सों में हजारों सालों से बांटती रही| इन्हीं कटुताओं को लेकर रुग्ण मानसिकता के पूर्वाग्रही लोगों द्वारा अपने चहेतों को शासक और प्रशासक बनाया जाने लगा| जो स्वनिर्मित नीति अपने मातहतों तथा देश के लोगों पर थोपते रहे|
एक ओर तो प्रशासन पर इस प्रकार के लोगों का कब्जा होता चला गया और दूसरी ओर राजनीतिक लोगों में आजादी के आन्दोलन के समय के समय के जज्बात् और भावनाएँ समाप्त होती गयी| जिन लोगों ने अंग्रेजों की मुखबिरी की वे, उनके साथी और उनके अनुयाई संसद और सत्ता तक पहुँच स्थापित करने में सक्षम हो गये| जिनका भारत, भारतीयता और मूल भारतीय लोगों के उत्थान से कोई वास्ता नहीं रहा, ऐसे लोगों ने प्रशासन में सुधार लाने के बजाय खुद को ही भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे अफसरों के साथ मिला लिया और विनिवेश के नाम पर देश को बेचना शुरू कर दिया|
सत्ताधारी पार्टी के मुखिया को कैमरे में कैद करके रिश्वत लेते टीवी स्क्रीन पर पूरे देश ने देखा, लेकिन सत्ताधारी लोगों ने उसके खिलाफ कार्यवाही करने के बजाय, उसका बचाव किया| राष्ट्रवाद, संस्कृति और धर्म की बात करने वालों ने तो अपना राजधर्म नहीं निभाया, लेकिन सत्ता परिवर्तन के बाद यूपीए प्रथम और द्वितीय सरकार ने भी उस मामले को नये सिरे से देखना तक जरूरी नहीं समझा|
ऐसे सत्ताधारी लोगों के कुकर्मों के कारण भारत में भ्रष्टाचार रूपी नाग लगातार फन फैलाता जा रहा है और कोई कुछ भी करने की स्थिति में नहीं दिख रहा है| सत्ताधारी राजनैतिक गठबन्धन से लेकर, सत्ता से बाहर बैठे, हर छोटे-बड़े राजनैतिक दल में भ्रष्टाचारियों, अत्याचारियों और राष्ट्रद्रोहियों का बोलबाला लगातार बढता ही जा रहा है| ऐसे में नौकरशाही का ताकतवर होना स्वभाविक है| भ्रष्ट नौकरशाही लगातार मनमानी करने लगी है और वह अपने कुकर्मों में सत्ताधारियों को इस प्रकार से शामिल करने में माहिर हो गयी है कि जनप्रतिनिधि चाहकर भी कुछ नहीं कर सकें|
ऐसे समय में देश में अन्ना हजारे जी ने गॉंधीवाद के नाम पर भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन करके सत्ता को झुकाने का साहस किया, लेकिन स्वयं हजारे जी की मण्डली में शामिल लोगों के दामन पर इतने दाग नजर आ रहे हैं कि अन्ना हजारे को अपने जीवनभर के प्रयासों को बचाना मुश्किल होता दिख रहा है|
ऐसे हालात में भी देश में सूचना का अधिकार कानून लागू किया जाना और सत्ताधारी गठबन्धन द्वारा भ्रष्टाचार के मामले में आरोपी पाये जाने पर अपनी ही सरकार के मन्त्रियों तथा बड़े-बड़े नेताओं तथा नौकरशाहों के विरुद्ध कठोर रुख अपनाना आम लोगों को राहत प्रदान करता है|
अन्यथा प्रपिपक्ष तो भ्रष्टाचार और धर्म-विशेष के लोगों का कत्लेआम करवाने के आरोपी अपने मुख्यमन्त्रियों को उनके पदों से त्यागपत्र तक नहीं दिला सका और फिर भी भ्रष्टाचार के खिलाफ गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाने का नाटक करता रहता है!
Thursday, August 12, 2010
बुद्धिजीवियों की उपयोगिता?
(मैंने इस आलेख पर जो शीर्षक लिखा है, सर्वोत्तम नहीं जान पड़ता है,
अत: निवेदन है कि आप इसका सही शीर्षक निर्धारित करने का कष्ट करें!)
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
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इस देश में जाति के आधार पर जनगणना करने और नहीं करने पर काफी समय से बहस चल रही है। अनेक विद्वान लेखकों ने जाति के आधार पर जनगणना करवाने के अनेक फायदे गिनाये हैं। उनकी ओर से और भी फायदे गिनाये जा सकते हैं। दूसरी और ढेर सारे नुकसान भी गिनाने वाले विद्वान लेखकों की कमी नहीं है। जो जाति के आधार पर जनगणना चाहते हैं, उनके अपने तर्क हैं और जो नहीं चाहते हैं, उनके भी अपने तर्क हैं। कोई पूर्वाग्रह से सोचता है, तो कोई बिना पूवाग्रह के, लेकिन सभी अपने-अपने तरीके से सोचते हैं। लेकिन लोकतन्त्र में कोई भी व्यक्ति किसी पर भी दबाव के जरिये अपने विचारों को थोप नहीं सकता है।
इस सबके उपरान्त भी यदि भारत सरकार जाति आधारित जनगणना करवाने को राजी हो जाती है, तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जाना चाहिये कि केवल जाति आधारित जनगणना की मांग करने वालों के तर्क ही अधिक मजबूत और न्याससंगत हैं और इसके विपरीत यदि सरकार जाति आधारित जनगणना करवाने को राजी नहीं होती है, तो भी इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जाना चाहिये कि जाति आधारित जनगणना की मांग का विरोध करने वालों के तर्क गलत या निरर्थक हैं!
हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में अपनाये गये, दलगत राजनीति पर अधारित संसदीय जनतन्त्र में सबसे पहले राजनैतिक दलों को किसी भी कीमत पर मतदाता को रिझाना जरूरी होता है। जिसके लिये 1984 में सिक्खों के इकतरफा कत्लेआम और गुजरात में हुए नरसंहार को दंगों का नाम दे दिया जाता है। वोटों की खातिर बाबरी मस्जिद को शहीद करके देश के धर्मनिरपेक्ष मस्तक पर सारे विश्व के सामने झुका दिया जाता है। मुसलमानों के वोटों की खातिर, मुसलमानों की औरतों के हित में शाहबानों प्रकरण के न्यायसंगत निर्णय को संसद की ताकत के बल पर बदल दिया जाता है और दूसरी ओर धर्मनिरपेक्षता की संरक्षक कहलाने वाली काँग्रेस की नेतृत्व वाली केन्द्रीय सरकार बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा को मौलवियों के विरोध के चलते भारत में वीजा देने में लगातार इनकार करती रही है?
हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना को लेकर जन्मी जनसंघ के वर्तमान स्वरूप भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान संरक्षक लालकृष्ण आडवाणी, धर्म के आधार पर भारत विभाजन के खलनायक माने जाने वाले मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर सजदा करके, पाकिस्तान की सरजमीं पर ही जिन्ना को धर्मनिरेपक्षता का प्रमाण-पत्र दे आते हैं। फिर भी भाजपा की असली कमान उन्हीं के हाथ में है।
इसके विपरीत भाजपा के वरिष्ठ नेता जसवन्त सिंह को जिन्ना का समर्थन करने एवं सरदार वल्लभ भाई पटेल का विरोधी ठहराकर, सफाई का अवसर दिये बिना ही पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है, लेकिन राजपूत वोटों में सेंध लगाने में सक्षम पूर्व राष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत के इन्तकाल के कुछ ही माह बाद, राजपूतों को अपनी ओर लुभाने की खातिर बिना शर्त जसवन्त सिंह की ससम्मान भाजपा में वापसी किस बात का प्रमाण है। नि:सन्देह जातिवादी राजनीति का ही पोषण है!
उपरोक्त के अलावा भी ढेरों उदाहरण गिनाये जा सकते हैं। असल समझने वाली बात यह है कि इस देश की राजनीति की वास्तविकता क्या है? 5-6 वर्ष पूर्व मैं राजस्थान के एक पूर्व मुख्यमन्त्री के साथ कुछ विषयों पर अनौपचारिक चर्चा कर रहा था, कि इसी बीच राजनैतिक दलों के सिद्धान्तों का सवाल सामने आ गया तो उन्होनें बडे ही बेवाकी से टिप्पणी की, कि-"मुझे तो नहीं लगता कि इस देश में किसी पार्टी का कोई सिद्धान्त हैं? हाँ पहले साम्यवादियों के कुछ सिद्धान्त हुआ करते थे, लेकिन अब तो वे भी अवसरवादी हो गये हैं।" कुछ वर्षों के सत्ता से सन्यास के बाद जब इन्हीं महाशय को राज्यपाल बना दिया गया तो मैंने एक कार्यक्रम में उन्हें यह कहते हुए सुना कि-"इस देश में काँग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है, जो सिद्धान्तों की राजनीति करती है।"
भारतीय जनता पार्टी की एक प्रान्तीय सरकार में काबीना मन्त्री रहे एक मुसलमान नेता से चुनाव पूर्व जब यह सवाल किया गया कि आपने भाजपा, भाजपा की नीतियों से प्रभावित होकर जोइन की है या और कोई कारण है? इस पर उनका जवाब भी काबिले गौर है? "मेरे क्षेत्र में मसुलामनों का वोट बैंक है और कांग्रेस ने मुझे टिकिट नहीं देकर जाट जाति के व्यक्ति को अपना उम्मीदवार बनाया है। चूँकि मुसलमान किसी को भी वोट दे सकता है, लेकिन जाट को नहीं देगा, ऐसे में मौके का लाभ उठाने में क्या बुराई है! जीत गये तो मुस्लिम कोटे में मन्त्री बनने के भी अवसर हैं।" आश्चर्यजनक रूप से ये महाशय चुनाव जीत गये और काबीना मन्त्री भी रहे, लेकिन एक बार इन्होंने अपने किसी परिचत के दबाव में अपने विभाग के एक तृतीय श्रेणी के कर्मचारी का स्थानान्तरण कर दिया, जिसे मुख्यमन्त्री ने ये कहते हुए स्टे (स्थगित) कर दिया कि आपको मन्त्री पद और लाल बत्ती की गाडी चाहिये या ट्रांसफर करने का अधिकार?
इसके बावजूद भी इस देश में लगातार प्रचार किया जा रहा है कि इस देश को धर्म एवं जाति से खतरा है! सोचने वाली बात ये है कि यदि कोई दल सत्ता में ही नहीं आयेगा तो वह सिद्धान्तों की पूजा करके क्या करेगा? हम सभी जानते हैं कि आज किसी भी दल के अन्दर कोई भी सिद्धान्त, कहीं भी परिलक्षित नहीं हो रहे हैं। ऐसे में किसी भी दल से यह अपेक्षा करना कि वह देशहित में अपने वोटबैंक की बलि चढा देगा, दिन में सपने देखने जैसा है।
इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि माहौल बनाने के लिये हर विषय पर स्वस्थ चर्चा-परिचर्चाएं होती रहनी चाहिये। बद्धिजीवियों को इससे खुराक मिलती रहती है, लेकिन इस देश का दुर्भाग्य है कि जिस प्रकार से यहाँ के राजनेताओं की अपनी मजबूरियाँ हैं, उसी प्रकार से लेखकों एवं पाठकों की भी मजबूरियाँ हैं। जिसके चलते जब एक पक्ष सत्य पर आधारित चर्चा की शुरूआत ही नहीं करता है, तो असहमति प्रकट करने वाले पक्ष से इस बात की अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह केवल सत्य को ही चर्चा का आधार बनायेगा। हर कोई स्वयं के विचार को सर्वश्रेष्ठ और स्वयं को सबसे अधिक जानकार तथा अपने विचारों को ही मौलिक सिद्ध करने का प्रयास करने पर उतारू हो जाता है।
इस प्रकार की चर्चा एवं बहसों से हमारी बौद्धिक संस्कृति का ह्रास हो रहा है। जिसके लिये हम सब जिम्मेदार हैं। दु:ख तो इस बात का है कि इस पर लगाम, लगना कहीं दूर-दूर तक भी नजर नहीं आ रहा है। क्योंकि कोई भी अपनी गिरेबान में देखने को तैयार नहीं है। जाति के आधार पर जनगणना का विरोध करने वाले विद्वजन एक ही बात को बार-बार दौहराते हैं कि जातियों के आधार पर गणना करने से देश में टूटन हो सकती है, देश में वैमनस्यता को बढावा मिल सकता है। जबकि दूसरे पक्ष का कहना है कि इससे देश को कुछ नहीं होगा, लेकिन कमजोर और पिछडी जातियों की वास्तविक जनसंख्या का पता चल जायेगा और इससे उनके उत्थान के लिये योजनाएँ बनाने तथा बजट आवण्टन में सहूलियत होगी।
कुछ लोग इस राग का आलाप करते रहते हैं कि यदि जातियों के आधार पर जनगणना की गयी तो देश में जातिवाद को समाप्त नहीं किया जा सकता है। मेरी यह समझ में नहीं आ रहा कि हम जातियों को समाप्त कर कैसे सकते हैं? कम से कम मुझे तो आज तक कोई सर्वमान्य एवं व्यावहारिक ऐसा फार्मूला कहीं पढने या सुनने को नहीं मिला, जिसके आधार पर इस देश में जातियों को समाप्त करने की कोई आशा नजर आती हो?
सच्चाई तो यही है कि इस देश की सत्तर प्रतिशत से अधिक आबादी को तो अपनी रोजी-रोटी जुटाने से ही फुर्सत नहीं है। उच्च वर्ग को इस बात से कोई मतलब नहीं कि देश किस दिशा में जा रहा है या नहीं जा रहा है? उनको हर पार्टी एवं दल के राजनेताओं को और नौकरशाही को खरीदना आता है। देश का मध्यम वर्ग आपसी काटछांट एवं आलोचना करने में समय गुजारता रहता है।
बुद्धिजीवी वर्ग अन्याय एवं अव्यवस्था के विरुद्ध चुप नहीं बैठ सकता। क्योंकि बुद्धिजीवी वर्ग को चुप नहीं रहने की बीमारी है। राजनेता बडे चतुर और चालाक होते हैं। अत: उन्होंने बुद्धिजीवी वर्ग को उलझाये रखने के लिये देश में जाति, धर्म, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता, भाषा, मन्दिर-मस्जिद, गुजरात, नक्सलवाद, आतंकवाद, बांग्लादेशी नागरिक, कश्मीर जैसे मुद्दे जिन्दा रखे हुए हैं। बुद्धिजीवी इन सब विषयों पर गर्मागरम बहस और चर्चा-परिचर्चा करते रहते हैं। जिसके चलते अनेकानेक पत्र-पत्रिकाएँ एवं समाचार चैनल धडल्ले से अपना व्यापार बढा रहे हैं।
उक्त विवेचन के प्रकाश में उन सभी बद्धिजीवियों से एक सवाल है, जो स्वयं को बुद्धिजीवी वर्ग का हिस्सा मानते हैं, यदि वे वास्तव में इस प्रकार से आपस में उलझकर वाद-विवाद करने में उलझे रहेंगे तो उनको बुद्धिजीवी कहलाने का क्या हक है? ऐसे बुद्धिजीवियों को अपनी उपयोगिता के बारे में विचार करना चाहिये!
यह आलेख निम्न लिंक पर भी अलग-अलग शीर्षक से पढ़ा जा सकता है :-
1. >जाति जनगणना विवाद- भारतीय बुद्धिजीवि वर्ग की बौद्धिक शुन्यता का परिचायक
http://www.vicharmimansa.com/blog/2010/08/13/जाति-जनगणना-विवाद-भारतीय/
2. बुद्धिजीवियों की उपयोगिता?
http://www.merikhabar.com/news_details.php?nid=32816
3. क्या इन्हें बुद्धिजीवी कहलाने का हक है?
http://www.pravakta.com/?p=12290
4. बुद्धिजीवियों से एक सवाल
http://www.janokti.com/author/drmeena/
5. वोटों की खातिर जाति आधारित जनगणना की मजबूरी
http://www.pressnote.in/nirkunsh_89124.html
6. जनगणना और बुद्धिजीवी
http://www.pressnote.in/nirkunsh_89124.html
7. बुद्धिजीवियों की उपयोगिता?
http://www.bharatkesari.com/cjarticles.aspx?p=Dr.PurushottamMeena
8. सभी बद्धिजीवियों से एक सवाल?
http://presspalika.mywebdunia.com/articles/
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1. >जाति जनगणना विवाद- भारतीय बुद्धिजीवि वर्ग की बौद्धिक शुन्यता का परिचायक
http://www.vicharmimansa.com/blog/2010/08/13/जाति-जनगणना-विवाद-भारतीय/
2. बुद्धिजीवियों की उपयोगिता?
http://www.merikhabar.com/news_details.php?nid=32816
3. क्या इन्हें बुद्धिजीवी कहलाने का हक है?
http://www.pravakta.com/?p=12290
4. बुद्धिजीवियों से एक सवाल
http://www.janokti.com/author/drmeena/
5. वोटों की खातिर जाति आधारित जनगणना की मजबूरी
http://www.pressnote.in/nirkunsh_89124.html
6. जनगणना और बुद्धिजीवी
http://www.pressnote.in/nirkunsh_89124.html
7. बुद्धिजीवियों की उपयोगिता?
http://www.bharatkesari.com/cjarticles.aspx?p=Dr.PurushottamMeena
8. सभी बद्धिजीवियों से एक सवाल?
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