मेरे शुभचिंतक और समालोचक जिनके विश्वास एवं संबल पर मैं यहाँ लिख पा रहा हूँ!

यदि आपका कोई अपना या परिचित पीलिया रोग से पीड़ित है तो इसे हलके से नहीं लें, क्योंकि पीलिया इतना घातक है कि रोगी की मौत भी हो सकती है! इसमें आयुर्वेद और होम्योपैथी का उपचार अधिक कारगर है! हम पीलिया की दवाई मुफ्त में देते हैं! सम्पर्क करें : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, 098750-66111
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Sunday, October 16, 2011

व्यवस्था इंसान के लिये या इंसान व्यवस्था के लिये?


डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'


पूर्वी राजस्थान के करौली जिले में गत 4 अक्टूबर को एक तीन वर्षीय बीमार बालक की इस कारण से असमय मौत हो गयी, क्योंकि उस बालक का उपचार करके उसका जीवन बचाने के बजाय कार्यरत डॉक्टर जीएन अग्रवाल ने अस्पताल के लियमों की पालना करवाने को अधिक प्राथमिकता प्रदान की|

सरकारी अस्पताल में उपचार करवाने के लिये आने वाले रोगियों का व्यवस्थित तरीके से उपचार करने के पवित्र उद्देश्य से यह व्यवस्था की हुई है कि रोगी को डॉक्टर को दिखाने से पूर्व एक प्रवेश पर्ची बनवानी होती और तब लाइन में खड़े रहकर रोगी को उपचार करवाना होता है| स्वाभाविक है कि डॉक्टर के कक्ष के समक्ष लाइन में खड़े होने से पूर्व रोगी या उसके परिजनों को पहले पर्ची बनवाने के लिये लाइन में खड़ा होना पड़ता है| ये एक प्रक्रियागत ऐसी व्यवस्था है, जिसका उल्लंघन करने पर किसी भी डॉक्टर को सजा नहीं हो सकती है| इसलिये आपात स्थिति में और रोगी की हालत गम्भीर होने पर डॉक्टर रोगी को बिना पर्ची भी देख सकता है| क्योंकि इस बात का निर्णय करने की योग्यता भी डॉक्टर के पास ही होती है कि किस रोगी को तत्काल उपचार की जरूरत है?


इस सबके उपरान्त भी 3 वर्षीय बीमार बालक के परिजन रोते और चीखते रहे कि पहले उनके बच्चे को बिना पर्ची देख लिया जावे, क्योंकि बच्चे की हालत खराब हो चुकी है, लेकिन डॉक्टर अग्रवाल को बच्चे के जीवन को बचाने के बजाय, पर्ची लेकर उपचार करवाने की व्यवस्था को बचाने की अधिक चिन्ता थी| इसलिये उसने बिना पर्ची के बच्चे का उपचार तो दूर, उसे देखना तक जरूरी नहीं समझा| जब तक बीमार के परिजन पर्ची बनवाकर लाये तब तक बच्चे के प्राण पखेरू उड़ चुके है| परिणामस्वरूप वहॉं हंगामा होना ही था| जिसे शान्त करने के लिये कलेक्टर ने डॉक्टर को एपीओ कर दिया| अर्थात् डॉक्टर को बिना कार्य किये ही तक तक वेतन मिलता रहेगा, जब तक कि उसकी अन्यत्र पोस्टिंग नहीं हो जाती है| समझ में नहीं आता कि यह दण्ड है या पुरस्कार| राजस्थान में जब भी कोई लोक सेवक, विशेषकर अफसर अपराध करते हुए पकड़ा जाता है तो उसे एपीओ (अवेटिंग फॉर पोस्टिंग आर्डर-पदस्थापना आदेश की प्रतीक्षा में) कर दिया जाता है| कुछ दिनों बाद फिर से कोई नई घटना या घौटाले की खबरें सुर्खियों में आती है और जनता सबकुछ भूल जाती है| एपीओ किये गये अफसर को किसी अच्छी कमाई की जगह पर पोस्टिंग दे दी जाती है| जबकि ऐसे अपराधियों को तत्काल निलम्बित करके विभागीय नियमों के तहत अनुशासनिक कार्यवाही करने के साथ-साथ, ऐसे लोक सेवकों के आपराधिक  कृत्य के अनुसार भारतीय दण्ड संहिता के तहत भी कठोर कार्यवाही की जानी चाहिये|

कानूनी संरक्षण नहीं मिलने के कारण व पुलिस की लापरवाही से दहेज लोभी पति ने अपनी ही पत्नी को बेचने हेतु बंधक बनाया|

उधर पश्‍चिमी राजस्थान में ही 4 अक्टूबर को अजमेर जिले में एक वधु के घरवालों द्वारा दहेज की पूर्ति नहीं किये जाने के कारण ससुरालियों के सहयोग से पति ने न मात्र अपनी पत्नी को बन्धक बनाया, बल्कि उसे अन्य पुरुष को बेचने की भी कोशिश की गयी| सबसे बड़ा आश्‍चर्य तो ये है कि हिन्दुओं में प्रचलित दहेज प्रथा अब इस्लाम के अनुयाईयों में भी पैर पसारने लगी है| अजमेर जिले की तहसील ब्यावर के सदर थाना क्षेत्र की गुंदा का बाला निवासी पीड़िता ने रिपोर्ट पेश कर 13 सितंबर को मामला दर्ज करवाया था, लेकिन आरोपी आजाद काठात, मुल्तान कमरुद्दीन सहित अन्य के खिलाफ पुलिस ने कोई कार्यवाही नहीं की जिसके चलते आरोपियों ने उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाने की हिमाकत करने वाली बेवश औरत के साल क्रूरतापूर्ण कृत्य करने में कोई डर महसूस नहीं किया|

पुलिस को संवेदनशील मामलों में रिश्‍वत या बखशीस की उम्मीद छोड़कर तत्काल कानूनी कार्यवाही कर, अपराधियों को बड़े अपराध करने से रोकने के उपाय करने पर ध्यान देना चाहिये| तब ही इस प्रकार के क्रूर अपराधों की रोकथाम सम्भव है|

Sunday, February 20, 2011

एक साथ काम करना सफलता है!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

श्री संजय राणा जी ने क्रान्तिकारी देशभक्त हिन्दुस्तान के नाम से इसी ब्लॉग पर प्रकाशित मेरे आलेख "आपने पुलिस के लिये क्या किया" पर निम्न टिप्पणी दी है।

"बहुत ही सही कहा है आपने पर कुछ पुलिस वाले होते ही ऐसे हैं जैसे ही खाकी में आते हैं उनका रूप ही बदल जाता है अभी कल की ही बात है हम अपनी बोलेरो गाड़ी से बरोटीवाला हिमाचल से करनाल हरयाना के लिए जा रहे थे तो जैसे ही हमारी गाड़ी अम्बाला क्रोस करके निकली तो पुलिस के एक नाके ने हमें हाथ दिया हमने गाड़ी सईड की और इतने में एक कोंस्टेबल आया और ड्राईवर को कहने लगा की गाड़ी के कागज़ दिखा तो ड्राईवर ने सारे सम्बंधित कागजात दिखाए फिर उसने लाईन्सेंस माँगा उसने वो भी दिखा दिया, इतने में वो कहने लगा नीचे उतर और साहब के पास आजा, वो ड्राईवर भी उतर गया और साथ ही साथ दूसरी तरफ से में भी उसके साथ उनके बड़े साहब के पास पहुंचा वो कड़क आवाज में पूछा कितने आदमी बैठे हैं गाड़ी में ड्राईवर ने कहा साहब आठ और एक में यानी कुल नौ , साहब कहने लगा कितने पास हैं गाड़ी में उसने कहा इतने ही पास हैं साहब जितने बिठाये हैं कहने लगा बेवकूफ बनाता है मेरा उसने कहा साहब इसमें बेवकूफ की कोण सी बात है कहने लगा तुने सीट बेल्ट क्यूँ नि लगा रखी थी उसने कहा साहब लगा राखी थी पर जब आपके पास आना था तो वो तो खोल के ही आना पडेगा पर वो कहाँ माने कहा मन्ने बेवकूफ ब्न्नावे तू बीस साल हो गए नोकरी कर्वे से, ये तो चालान हे तेरा हमने रक्वेस्ट भी की की साहब क्यूँ जान बूझ के कर रहे हो पर वो नि मन और उसने सीट बेल्ट का चालान कर ही दिया और कहा सिर्फ सौ रुपे का चालान करा मेने तेरे लिए इन्ना करूँ की दस दिना के अंदर अंदर अपनी आर सी अम्बाला पुलिस लाईन ते ले जावें आईके बस जा अब क्या मुंह देखे खड़े खड़े से...
बस इतना तानाशाह सारा मूड ही खराब हो गया तो फिर आप ही बताओ की कैसे हैं ये वर्दी वाले हमारे सेवक..."
उक्त टिप्पणी के प्रतिउत्तर में, मैंने श्री संजय जी को निम्न जानकारी प्रस्तुत की है:-

आदरणीय श्री संजय राणा जी,
नमस्कार।

आशा है कि आप कुशल होंगे।

आपने बास-वोइस पर टिप्पणी की एवं बास-वोइस पर प्रकाशित अनेक आलेखों को अपने ब्लॉग पर भी प्रकाशित किया हुआ है। केवल इतना ही नहीं, बल्कि आपने अपने ब्लॉग पर भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) की सदस्यता के लियेhttp://baasindia.blogspot.com का लिंक भी दिया हुआ है। यह सब आपके एक अच्छे व्यक्ति होने की प्रीतीति कराने के संकेत हैं। इस सबके लिये बास के 17 राज्यों में सेवारत 4610 आजीवन सदस्यों की ओर से मैं आपका आभार ज्ञापित करता हूँ। आपकी ओर से कुछ सवाल भी उठाये गये हैं। इन सबके बारे में कुछ बातें आपके समक्ष रखना जरूरी समझता हूँ। यदि एक भी बात अनुचित लगे तो कृपया अवगत कराने का कष्ट करें :-

यह बात सही है और हम सभी जानते भी हैं कि देशभर में भ्रष्टाचार हर जगह पर व्याप्त है। जिसके शिकार सभी आम लोग हो रहे हैं। मैं ऐसा मानता हूँ कि अब समय बहुत तेजी से बदल रहा है। केवल इतने से ही काम नहीं चल सकता कि हम सही हैं और कानून का पालन करते हैं, इस कारण हमें कोई परेशान नहीं करें। आप रोड पर चलते समय इस बात का अनेकों बार अहसास कर सकते हैं। जब आप यातायात नियमों का पालन करते हुए वाहन चलाते हैं या पैदल चलते हैं। फिर भी दुर्घटना हो जाती है या होते-होते बचती है। कहने का मतलब यह है कि आपको सडक पर चलना है तो न मात्र स्वयं यातायात के नियमों का पालन करना है, बल्कि दूसरों द्वारा नियमों का पालन नहीं करने से भी अपने आपको बचाना होगा। क्या करोगे जिन्दा रहने के लिये जरूरी है।

इसी प्रकार से हमें भ्रष्ट व्यवस्था में रहते हुए यदि स्वयं को भ्रष्टाचार से बचाना है तो न मात्र स्वयं सही रहना होगा, बल्कि इसके साथ-साथ हमें अपने बचाव एवं संरक्षण के सरकार से इतर भी कुछ उपाय करने होंगे। जब बर्षात हो रही होती है या होने की सम्भावना होती है तो हम घर से छतरी या रैनकोट साथ में लेकर निकलते हैं। यद्यपि इसके बावजूद भी अनेक बार हम बर्षात में न मात्र भीग जाते हैं, बल्कि बीमार भी हो जाते हैं। क्योंकि तूफानी बर्षात छतरी को भी उडा ले जाती है। बर्षात के साथ ओले गिरने पर छतरी या रैनकोट बचाव नहीं कर सकते हैं। इसके बावजदू भी हम बर्षात से बचाव के लिये घर से छतरी और रैनकोट साथ में लेकर अवश्य निकलते हैं।

हम सबको ज्ञात है कि रोड पर कहीं न कहीं यातायात पुलिस अवश्य मिलेगी। हमें यह भी ज्ञात है और यदि ज्ञात नहीं है तो ज्ञात होना चाहिये कि यातायात पुलिस में पोस्टिंग करवाने के लिये बडे अफसरों को अग्रिम घूस तो देनी ही होती है। इसके अलावा जब तक यातायात पुलिस में रहना है, वाहनों के चालान का टार्गेट पूरा करने के साथ-साथ प्रतिमाह निर्धारित रकम भी साहब लोगों को पहुँचानी होती है। जो लोग आपकी तरह से हर प्रकार के नियम का पालन करके चलते हैं, उन्हें चालान कटवाना होता है और केवल जुर्माना भरना होता है, जिससे यातायात पुलिस का टार्गेट पूरा होता है। लेकिन जो लोग कानून का पालन नहीं करते हैं, उनसे हवालात में बन्द करने की धमकी के सहारे रिश्वत भी वसूली जाती है। इस सबका का यातायात पुलिस के सिपाही से लेकर यातायात मन्त्री तक सबको पता है। फिर भी कोई कुछ नहीं कर रहा है।

ऐसे में आपको और हम सबको अर्थात् सडक पर चलने वालों को ही अपने बचाव के लिये कुछ करना होगा। ऐसा करना किसी कानून के कारण तो जरूरी नहीं है, लेकिन रोड पर चलने की परिस्थितिजन्य बाध्यता अवश्य है। जिससे बचाव के उपाय कोई और नहीं, बल्कि स्वयं हमें ही करने होंगे। हम सभी जानते हैं कि जब भी हमारे मोहल्ले में मलेरिया फैलता है तो हम मलेरिया रोधी छिडकाव नहीं करने के लिये, जिम्मेदार लोगों के भरोसे नहीं बैठे रहते हैं, बल्कि मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों ये बचाव के उपाय खुद ही करते हैं और अपने आपको बीमार होने से बचाने का हर सम्भव प्रयास करते हैं, बेशक बचाव करते-करते हम अनेक बार बीमार भी हो जाते हैं, क्योंकि सब कुछ हमारे नियन्त्रण में तो नहीं होता है।

इसी प्रकार से जनता की सेवा करने के नाम पर वेतन उठाने वाले और कानून का पालन कराने के लिये तैनात लोक सेवकों अर्थात् सरकारी कर्मचारियों एवं अफसरों के कानूनी कहर से बचने के लिये देश के आम व्यक्ति को अपने स्तर पर कुछ वैकल्पिक उपाय करने होते हैं।

आम लोगों के पास अपनी एकता के अलावा और क्या है? लेकिन एकता में बहुत ताकत होती है और ताकत से लोग डरते हैं। बेशक ताकत कानूनी हो या गैर-कानूनी! ताकत के सामने कौन टिक सकता है और संगठित ताकत तो देश की सरकार तक को बदल सकती है। इसलिय हमने 1993 में "भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान" की स्थापना की थी और कानून का कवच धारण करके आम लोगों का खून पीने वालों के कहर से अपने आपको बचाने, जरूरतमन्दों की मदद करने एवं सार्वजनिक हित के मामलों में हस्तक्षेप करने के लिये सजग लोगों का एक मंच तैयार किया। जिसके सहारे हम इस कुव्यवस्था के खिलाफ संघर्षरत हैं। बेशक इसके बावजूद भी हमारे कार्यकर्ताओं को भी अनेक बार अप्रिय स्थितियों का सामना करना पडता है, लेकिन जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है कि तूफान में छतरी उड जाने के कारण छतरी को दोष नहीं दिया जा सकता और न हीं छतरी रखना छोडा जा सकता है। तूफान की ताकत से कहीं अधिक मजबूत छतरी का निर्माण करने एवं छतरी का उपयोग करना सीखना जरूरी है।

मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि बास के "प्रोटेक्शन अम्ब्रेला" को अपनाने वालों के सम्मान एवं अधिकारों की रक्षा होती है। बशर्ते कि ऐसे लोग स्वयं ठीक हों और अपने आचरण से अपने आदर्शों को प्रमाणित कर सकें। मेरा ऐसा मानना है कि मैं वहीं बातें लोगों से कहूँ, जिनपर सबसे पहले मैं स्वयं अमल कर सकूँ। जिन बातों को मैं अपने जीवन में धारण नहीं कर सकता, उन्हें दूसरे कैसे अपनायेंगे? संजय जी क्षमा कीजियेगा आप जब तक बास के सदस्य नहीं हैं, आपके ब्लॉग के पाठकों को आप"http://baasindia.blogspot.com" का लिंक देकर भी बास की सदस्यता के लिये ईमानदारी से प्रेरित नहीं कर सकते हैं।

हमारे अनेक सदस्यों को आपकी ही भांति यातायात पुलिस से दो-चार होना पडता है, लेकिन जैसे ही यातायात पुलिस को पता चलता है कि वाहन मालिक या चालक बास का पदाधिकारी है, कम से कम धौंस-दबट या असंसदीय भाषा का प्रयोग करने या अकारण चालान काटने से पूर्व यातायात पुलिस को सोचना पडता है। ऐसा नहीं है कि बास का फोटो कार्ड अभेद्य "सुरक्षा कवच" है। अनेक बार बास के परिचय के बाद भी अप्रिय स्थिति का सामना करना पडता है, जिससे घटना के बाद संगठन द्वारा कानूनी तरीके से निपटा जाता है, जो आतताईयों को अधिक कष्टप्रद अनुभव होता है।

अत: मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि हमारे कार्यकर्ताओं को अत्याचारों, नाइंसाफी एवं मनमानी के विरुद्ध काफी सीमा तक संरक्षण प्राप्त हो रहा है। इसलिये अकसर मैं जहाँ कहीं भी बुलाया जाता हूँ या जब कभी भी कहीं बोलने का मौका मिलता है, दो बातें जरूर कहता हूँ।

एक-"बोलोगे नहीं तो कोई सुनेगा कैस?" और

दूसरी-"एक साथ आना शुरूआत है, एक साथ चलना प्रगति है और एक साथ काम करना सफलता है!"

श्री संजय जी पुलिस जैसी भी है, उसे उसके लिये दोषी ठहराकर समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता। जैसा समाज है और समाज में जितने भी गुण-दोष हैं, वैसे ही समाज में नागरिक हैं और उन्हीं नागरिकों में से पुलिस है।

शुभकामनाओं सहित।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
098285-02666
0141-2222225

Friday, February 12, 2010

क्या सिब्बल साहब शिक्षा को मुनाफे का धन्धा नहीं बनने देंगे?

शिक्षा को धन्धा बनने से न तो कोई रोक सका है और न हीं कोई रोक सकता है और इसकी सबसे बडी वजह है गैर-सरकारी शिक्षा संस्थानों/केन्द्रों में स्वनिर्धारित पाठ्यक्रम को थोपा जाना और गैर-सरकारी शिक्षा संस्थानों को मान्यता देने के लिये निर्धारित मापदण्डों एवं मानकों के प्रति सरकारी अमले में आस्था का अभाव। साथ ही साथ मान्यता प्रदान कर दिये जाने के बाद मान्यता देने के लिये निर्धारित मापदण्डों एवं मानकों के वास्तविक प्रवर्तन की पुख्ता व्यवस्था नहीं होना और इसमें कोताही बरतने वाले ब्यूरोक्रेट को कडाई से दण्डित नहीं किया जाना।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

भारत सरकार के मानव संसाधन मन्त्री कपिल सिब्बल जो देश के शिक्षा मन्त्री भी हैं, उनका कहना है कि वे शिक्षा को मुनाफे का धन्धा नहीं बनने देंगे। जबकि शिक्षा तो वर्षों से, बल्कि गैर-सरकारी क्षेत्र जाने के दिन से ही मुनाफे का धन्धा बन चुकी है। मन्त्री महोदय इतने अज्ञानी भी नहीं हैं कि उनको शिक्षा से मुनाफा कमाने वाले शिक्षा माफिया के बारे में कोई जानकारी ही नहीं हो और माननीय कपिल सिब्बल जी द्वारा मानव संसाधन मन्त्री का ओहदा संभालने के बाद से आज तक एक भी कदम ऐसा नहीं उठाया गया है, जिससे लगता हो कि वे वास्तव में ही शिक्षा माफिया का सफाया करना चाहते हैं या उन्हें देश की शिक्षा व्यवस्था की गन्दगी को दूर करने की वास्तव में चिन्ता सताती हो! हम सभी जानते हैं कि सिब्बल साहब सुप्रीम कोर्ट के एक वरिष्ठ अधिवक्ता हैं, अच्छे वक्ता भी हैं, वे कानून की बारीकियों से अच्छी तरह से परिचित हैं। इसलिये सबसे पहले तो सिब्बल साहब गैर-सरकारी शिक्षा संस्थानों को, निजी शिक्षा संस्थान कहना छोडिये। क्योंकि इस देश में शिक्षा के क्षेत्र में गैर-सरकारी क्षेत्र को ही शिक्षा प्रदान करने की मान्यता दी जाती है, जिन्हें हम ट्रस्ट एवं सोसायटीज्‌ का नाम देते हैं और ऐसे संस्थान भी समाज सेवा करने के पवित्र उद्देश्य की घोषणा करने की शर्त पर पंजीकृत किये जाते हैं, इन गैर-सरकारी शिक्षा संस्थानों को निजी क्षेत्र के शिक्षा संस्थान कह कर स्वयं सिब्बल जी ही इन्हें निजी संस्थान बनाने पर आमादा लगते हैं। इस बात को कोई आम व्यक्ति भी आसानी से समझ सकता है कि निजी का मतलब ही, निजी होता है। निजी वस्तु निजी उपभोग के लिये होती है। गैर-सरकारी शिक्षा संस्थानों को निजी शिक्षा संस्थान के रूप में बदलने और प्रचारित करने के लिये भारत का प्रिण्ट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी कम जिम्मेदार नहीं है। जब तक हम गैर-सरकारी शिक्षा संस्थानों को निजी शिक्षा संस्थान लिखते और बोलते रहेंगे, भू-माफिया की भांति शिक्षा माफिया को फलने-फूलने से रोक नहीं सकेंगे।

मन्त्री जी द्वारा अपने उद्‌बोधन में अनेक विदेशी शिक्षा संस्थानों को भी वहाँ के ट्रस्टों द्वारा संचालित किये जाने का उदाहरण, देकर कहा गया हैं कि हम भी शिक्षा को मुनाफे का धन्धा नहीं बनने देंगे। विदेशों में क्या हो रहा है, इसकी तो इस देश के लोगों को जानकारी नहीं है, लेकिन भारत में ट्रस्ट एवं सोसायटीज्‌ की सच्चाई क्या है, यह किसी से छुपी नहीं है! भारत के इतिहास में आदिकाल से ही शिक्षा बेचने की वस्तु नहीं, बल्कि दान का विषय रही है, जबकि आज की तारीख में गैर-सरकारी शिक्षा केन्द्रों शिक्षा दान करने के अलावा सब कुछ होता है! तथाकथित श्रेृष्ठ शिक्षा देना या बेचना तो उनकी मजबूरी है, क्योंकि कथित अच्छी शिक्षा देने से ही उनका धन्धा (सेवा नहीं, जिसके लिये उन्हें पंजीकृत करके मान्यता दी जाती है) चलता है। जिस प्रकार से किसी देश की नामी और प्रख्यात हस्ती (ऐक्टर या क्रिकेटर द्वारा) द्वारा किसी उत्पाद का विज्ञापन करने से ही कोई उत्पाद बाजार में बिकता है, उसी प्रकार से गैर-सरकारी शिक्षा संस्थानों का उत्पाद अर्थात्‌-शिक्षा भी बेचा जा रहा है, जिसे बेचने के लिये उच्चतम अंक प्राप्त करने वाले विार्थियों को ही बाजार में विज्ञापन करने के लिये ब्राण्ड के रूप में उतारा जाता रहा है। ऐसे विार्थी ही शोषक शिक्षा माफिया के शिक्षा ब्राण्ड होते हैं। सबसे आश्चर्यजनक तो यह है कि कम से कम एक उोगपति अपने उत्पाद का विज्ञापन करने वाली हस्तियों को अपने, इसके एवज में कीमत तो अदा करते हैं, लेकिन गैर-सरकारी शिक्षा केन्द्रों का संचालन करने वाले शिक्षा माफिया द्वारा तो उच्चतम अंक प्राप्त करने वाले विार्थियों को अपने शिक्षा केन्द्र के विज्ञापन का आधार बनाकर पेश किया जाता है, लेकिन उनको एक धेला तक नहीं दिया जाता है!

इसके अलावा समझने वाली बात यह भी है कि हमारे देश में गैर-सरकारी शिक्षा संस्थानों को नो लोस, नो प्रोफिट (बिना लाभ हानि) के आधार पर शिक्षण संस्थान संचालित करने की शर्त पर ही सरकार द्वारा मान्यता दी जाती रही है और गैर-सरकारी शिक्षा केन्द्रों को केवल शिक्षा के मन्दिर मात्र ही माना जाने के प्रावधान हैं। फिर सवाल यह उठता है कि इन्हें विज्ञापन पर अनाप-शनाप खर्चा करने की क्या जरूरत है? यदि ये शिक्षा को धन्धे के रूप में नहीं अपनाते हैं तो अभिभावकों को अपने बच्चों के लिये स्कूल से ही पुस्तकें और यूनीफार्म खरीदने की बाध्यता क्यों है?

क्या कपिल सिब्बल जी को पता नहीं है कि सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत समाज सेवा करने की शर्त पर और समाज की सेवा करने के नाम पर ही शिक्षा के मन्दिर खोलने वाले ये शिक्षा प्रदाता, प्रारम्भ में सडकों पर धूल फांकते दिखते हैं, लेकिन कुछ ही वर्षों में वातानुकूलित कक्षों में बिराजमान हो जाते हैं, बेशक बच्चों के लिये कक्षाओं में पंखे भी नहीं होते हैं। यही नहीं, बल्कि सरकारी स्कूलों में अप्रिशिक्षित अध्यापकों से पढाई असम्भव है, जबकि सरकार से मान्यता प्राप्त करके शिक्षा बेचने वाले शिक्षा के इन तथाकथित मन्दिरों में अधिकांश अप्रशिक्षित टीचर ही शिक्षा का ज्ञान बांटते हैं और फिर भी गैर-सरकारी स्कूल के बच्चों के अंक सरकारी स्कूलों की तुलना तीस प्रतिशत तक अधिक आते हैं! ऐसे में प्रशिक्षित अध्यापकों द्वारा ही शिक्षा प्रदान किये जाने की सरकार की नीति पर भी सवाल खडा होता है! यही नहीं गैर-सरकारी स्ूकल अपने यहाँ कार्यरत अध्यापकों को मासिक वेतन कागज पर तो ५ से २० हजार तक देना दर्शाते हैं, लेकिन वास्तव में १ से ५ हजार तक ही वेतन भुगतान किया जाता है। क्या ऐसे लोगों से आशा की जा सकती है कि वे समाज सेवा या ट्रस्ट की भावना में आस्था रखते होंगे?

कपिल सिब्बल जी यदि आप केवल इतना सा ही कानून बनवा दें कि गैर-सरकारी शिक्षा संस्थान अपने अध्यापकों और अन्य कर्मचारियों को मासिक वेतन का भुगतान हर हाल में नगद नहीं करेंगे और हर प्रकार का भुगतान चैक के माध्यम से किया जायेगा तो ही बडी उपलब्धि होगी। हालांकि शिक्षा को धन्धा बनने से न तो कोई रोक सका है और न हीं कोई रोक सकता है और इसकी सबसे बडी वजह है गैर-सरकारी शिक्षा संस्थानों/केन्द्रों में स्वनिर्धारित पाठ्यक्रम को थोपा जाना और गैर-सरकारी शिक्षा संस्थानों को मान्यता देने के लिये निर्धारित मापदण्डों एवं मानकों के प्रति सरकारी अमले में आस्था का अभाव। साथ ही साथ मान्यता प्रदान कर दिये जाने के बाद मान्यता देने के लिये निर्धारित मापदण्डों एवं मानकों के वास्तविक प्रवर्तन की पुख्ता व्यवस्था नहीं होना और इसमें कोताही बरतने वाले ब्यूरोक्रेट्‌स को कडाई से दण्डित नहीं किया जाना।

अतः सिब्बल साहब यदि आप वास्तव में ही गैर-सरकारी क्षेत्र द्वारा प्रदान की जा रही शिक्षा के प्रति संजीदा हैं तो कृपा करके प्रचार पाने वाली बयानबाजी करने के बजाय गैर-सरकारी शिक्षा व्यवस्था की असली तस्वीर को उपरोक्त विवेचन के प्रकाश में देखने का कष्ट करें और इस नीति पर पुनर्विचार करके सुधारात्मक एवं समाधानकारी निर्णय लेने के लिये अपने विभाग के उन अयोग्य, अकर्मण्य एवं भ्रष्ट लोगों पर निर्भर नहीं रहें, जो वेतन तो देश की जनता की सेवा करने के लिये पाते हैं, लेकिन हकीकत में वे गैर-सरकारी शिक्षा संस्थानों से मोटी वसूली करके, उन्हीं के पक्ष में और उन्हीं को लाभ पहुँचाने वाली नीति बनाने के लिये आपके विभाग की सही नीतियों में तोडमरोड करने में महारत हासिल कर चुके हैं!