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Thursday, December 5, 2013

खेल संस्थाओं पर हो खिलाड़ियों का नियन्त्रण : सुप्रीम कोर्ट का आदेश कितना प्रासंगिक?

इन सब बातों से दो बातें साफ होती है कि एक ओर तो देश की राजनैतिक सत्ता एवं शासन व्यवस्था अकर्मण्य और अयोग्य लोगों के हाथों में है। जिसके चलते देश के सरकारी और गैर-सरकारी संस्थान या तो छलांग लगा रहे हैं या कछुआ की रफ्तार से रैंग रहे हैं। ऐसे में दूसरी बात ये भी स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार के आरोपों और सुप्रीम कोर्ट के शीर्ष जज द्वारा शीर्ष स्तर पर खुली स्वीकृति के उपरान्त भी न्यायपालिका आज भी खुद को पाकसाफ समझने के साथ-साथ देश के किसी भी संस्थान के विरुद्ध टिप्पणियॉं करने के लिये खुद को स्वतन्त्र और सम्पूर्ण रूप से अधिकार सम्पन्न मानती है। ये दोनों ही स्थितियॉं खतरनाक हैं। इनका जब तक उपचार नहीं होगा, इस प्रकार के निर्णय आते ही रहेंगे। जिन्हें चाहे अनचाहे झेलने के लिये देश के लोगों को तैयार रहना होगा। ऐसी स्थिति के लिये ही कहा जाता है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से न्याय होता हो या नहीं, न्याय हुआ हो या नहीं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को मानना देशवासियों की व्यवस्थागत मजबूरी है, क्योंकि उसके निर्णय के विरुद्ध कहीं अपील नहीं हो सकती।