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Sunday, February 20, 2011

अससंवेदनशीलता के मायने...?

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

यदि आतंवादी लगातार घटनाओं को जन्म नहीं दें तो आम व्यक्ति आतंकवाद के खिलाफ बोलने या आतंकवाद का विरोध करने के बारे में उसी प्रकार से चुप्पी साध ले, जिस प्रकार से भ्रष्टाचार के मामले में साथ रखी है।
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जब-जब भी देश में बम विस्फोट होते हैं या फिदायीन हमले होते हैं तो सभी वर्गों द्वारा आतंकवाद की बढचढकर आलोचना की जाती है। कठोर से कठोर कानून बनाकर आतंकवाद से निजात दिलाने के लिये सरकार से मांग की जाती हैं। सरकार की ओर से भी हर-सम्भव कार्यवाही का पूर्ण आश्वासन भी दिया जाता है, लेकिन जैसे ही मरने वालों की आग ठण्डी होती है, आतंकवाद के खिलाफ लोगों का गुस्सा भी ठण्डा होने लगता है। यदि आतंवादी लगातार घटनाओं को जन्म नहीं दें तो आम व्यक्ति आतंकवाद के खिलाफ बोलने या आतंकवाद का विरोध करने के बारे में उसी प्रकार से चुप्पी साध ले, जिस प्रकार से भ्रष्टाचार के मामले में साथ रखी है।

इससे यह प्रमाणित होता है कि अपराधियों, राजनेताओं और उच्च पदों पर आसीन लोक सेवकों के साथ-साथ आम व्यक्ति भी संवेदना-शून्य होता जा रहा है। जिसके चलते अपने सामने घटित क्रूर घटनाओं पर भी आम व्यक्ति चुप्पी साध लेता है और आशा करने लगता है कि सरकार एवं प्रशासन उसके लिये हमेशा उपलब्ध रहें! यह कैसे सम्भव है कि यदि हम अपने पडौसी के सुख-दु:ख में भागीदार नहीं हो सकते तो वेतन लेकर सेवा करने वाले लोक सेवक, जिनका हमसे किसी भी प्रकार का आत्मीय या सामाजिक सम्बन्ध नहीं है, हमारे प्रति संवेदनशील रहेंगे।

दिनप्रतिदिन घटती इस संवेदनहीनता का खामियाजा हमें हर दिन किसी न किसी किसी क्षेत्र में, किसी न किसी जगह पर भुगतना पड रहा है। आज जितने भी अपराध और दुराचार हो रहे हैं, उसके लिये हमारी यही असंवेदनशील सोच भी जिम्मेदार है। जिसके चलते भ्रष्ट लोक सेवकों, अपराधियों और गुण्डा तत्वों के होंसले लगातार बढते जा रहे हैं और पुलिस, सामान्य प्रशासन एवं सरकार हमारी परवाह नहीं पालते हैं।

इसलिये यदि हमें अपने आपको तथा आनेवाली पीढियों को बचाना है तो अपने-आपके साथ-साथ, अपने आसपडौस के लोगों के प्रति भी संवेदनशील होना सीखना होगा। अन्यथा दूसरों से संवेदनशील रहने की और मानव अधिकारों की रक्षा की उम्मीद करना छोडना होगा।