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Tuesday, July 19, 2011

विभागीय जाँच रूपी अभेद्य सुरक्षा कवच को भेदना होगा!

इन दिनों देशभर में लोकपाल कानून को बनाये जाने और लोकपाल के दायरे में ऊपर से नीचे तक के  सभी स्तर के लोक सेवकों को लाने की बात पर लगातार चर्चा एवं बहस हो रही है| सरकार निचले स्तर के लोक सेवकों को लोकपाल की जॉंच के दायरे से मुक्त रखना चाहती है, जबकि सिविल सोसायटी के प्रतिनिधि सभी लोक सेवकों को लोकपाल के दायरे में लाना चाहते हैं| ऐसे में लोक सेवकों को वर्तमान में दण्डित करने की व्यवस्था के बारे में भी विचार करने की जरूरत है| इस बात को आम लोगों को समझने की जरूरत है कि लोक सेवकों को अपराध करने पर सजा क्यों नहीं मिलती है|

लोक सेवकों को सजा नहीं मिलना और लोक अर्थात् आम लोगों को लगातार उत्पीड़ित होते रहना दो विरोधी और असंवैधानिक बातें हैं| नौकर मजे कर रहे हैं और नौकरों की मालिक आम जनता अत्याचार झेलने को विवश है| आम व्यक्ति से भूलवश जरा सी भी चूक हो जाये तो कानून के कथित रखवाले ऐसे व्यक्ति को हवालात एवं जेल के सींखचों में बन्द कर देते हैं| जबकि आम जनता की रक्षा करने के लिये तैनात और आम जनता के नौकर अर्थात् लोक सेवक यदि कानून की रक्षा करने के बजाय, स्वयं ही कानून का मखौल उड़ाते पकडे़ जायें तो भी उनके साथ कानूनी कठोरता बरतना तो दूर किसी भी प्रकार की दण्डिक कार्यवाही नहीं की जाती! आखिर क्यों? क्या केवल इसलिये कि लोक सेवक आम जनता नहीं है या लोक सेवक बनने के बाद वे भारत के नागरिक नहीं रह जाते हैं? अन्यथा क्या कारण हो सकता है कि भारत के संविधान के भाग-3, अनुच्छेद 14 में इस बात की सुस्पष्ट व्यवस्था के होते हुए कि कानून के समक्ष सभी लोगों को समान समझा जायेगा और सभी को कानून का समान संरक्षण भी प्राप्त होगा, भारत का दाण्डिक कानून लोक सेवकों के प्रति चुप्पी साध लेता है?

पिछले दिनों राजस्थान के कुछ आईएएस अफसरों ने सरकारी खजाने से अपने आवास की बिजली का बिल जमा करके सरकारी खजाने का न मात्र दुरुपयोग किया बल्कि सरकारी धन जो उनके पास अमनत के रूप में संरक्षित था उस अमानत की खयानत करके भारतीय दण्ड संहिता की धारा 409 के तहत वर्णित आपराधिक न्यासभंग का अपराध किया, लेकिन उनको गिरफ्तार करके जेल में डालना तो दूर अभी तक किसी के भी विरुद्ध एफआईआर तक दर्ज करवाने की जानकारी समाने नहीं आयी है| और ऐसे गम्भीर मामले में भी जॉंच की जा रही है, कह कर इस मामले को दबाया जा रहा है| हम देख सकते हैं कि जब कभी लोक सेवक घोर लापरवाही करते हुए और भ्रष्टाचार या नाइंसाफी करते हुए पाये जावें तो उनके विरुद्ध आम व्यक्ति की भांति कठोर कानूनी कार्यवाही होने के बजाय, विभागीय जॉंच की आड़ में दिखावे के लिये स्थानान्तरण या ज्यादा से ज्यादा निलम्बन की कार्यवाही ही की जाती है| यह सब जानते-समझते हुए भी आम जनता तथा जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि चुपचाप यह तमाशा देखते रहते हैं| जबकि कानून के अनुसार लोक सेवकों के विरुद्ध विभागीय कार्यवाही के साथ-साथ भारतीय आपराधिक कानूनों के तहत दौहरी दण्डात्मक कार्यवाही किये जाने की व्यवस्था है|

इस प्रकार की घटनाओं में पहली नजर में ही आईएएस अफसर उनके घरेलु बिजली उपभोग के बिलों का सरकारी खजाने से भुगतान करवाने में सहयोग करने वाल या चुप रहने वाले उनके साथी या उनके अधीनस्थ भी बराबर के अपराधी हैं| जिन्हें वर्तमान में जेल में ही होना चाहिये, लेकिन सभी मजे से सरकारी नौकरी कर रहे हैं| ऐसे में विचारणीय मसला यह है कि जब आईएएस अफसर ने कलेक्टर के पद पर रहेतु अपने दायित्वों के प्रति न मात्र लापरवाही बरती है, बल्कि घोर अपराध किया है तो एसे अपराधियों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता एवं भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत तत्काल सख्त कानूनी कार्यवाही क्यों नहीं की जा रही है? नीचे से ऊपर तक सभी लोक सेवकों के मामलों में ऐसी ही नीति लगातार जारी है| जिससे अपराधी लोक सेवकों के होंसले बुलन्द हैं!

इन हालातों में सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सरकारी सेवा में आने से कोई भी व्यक्ति महामानव बन जाता है? जिसे कानून का मखौल उड़ाने का और अपराध करने का ‘विभागीय जॉंच’ रूपी अभेद्य सुरक्षा कवच मिला हुआ है| जिसकी आड़ में वह कितना ही गम्भीर और बड़ा अपराध करके भी सजा से बच निकलता है| जरूरी है, इस असंवैधानिक और मनमानी व्यवस्था को जितना जल्दी सम्भव हो समाप्त किया जावे| इस स्थिति को सरकारी सेवा में मेवा लूटने वालों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता| क्योंकि सभी चोर-चोर मौसेरे भाई होते हैं, जो हमेशा अन्दर ही अन्दर एक-दूसरे को बचाने में जुटे रहते हैं| आम जनता को ही इस दिशा में कदम उठाने होंगे| इस दिशा में कदम उठाना मुश्किल जरूर है, लेकिन असम्भव नहीं है| क्योंकि विभागीय जॉंच कानून में भी इस बात की व्यवस्था है कि लोक सेवकों के विरुद्ध विभागीय कार्यवाही के साथ-साथ आपराधिक मुकदमे दायर कर आम व्यक्ति की तरह लोक सेवकों के विरुद्ध भी कानूनी कार्यवाही की जावे| जिसे व्यवहार में ताक पर उठा कर रख दिया गया लगता है| अब समय आ गया है, जबकि इस प्रावधान को भी आम लोगों को ही क्रियान्वित कराना होगा| अभी तक पुलिस एवं प्रशासन कानून का डण्डा हाथ में लिये अपने पद एवं वर्दी का खौफ दिखाकर हम लोगों को डराता रहा है, लेकिन अब समय आ गया है, जबकि हम आम लोग कानून की ताकत अपने हाथ में लें और विभागीय जॉंच की आड़ में बच निकलने वालों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमे दर्ज करावें| जिससे कि उन्हें भी आम जनता की भांति कारावास की तन्हा जिन्दगी का अनुभव प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त हो सके और जिससे आगे से लोक सेवक, आम व्यक्ति को उत्पीड़ित करने तथा कानून का मखौल उड़ाने से पूर्व दस बार सोचने को विवश हों|

लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश' सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित और अठारह राज्यों में प्रसारित हिन्दी पाक्षिक) तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)

Saturday, November 20, 2010

यह कैसा न्याय? अपराध सिद्ध फिर भी सजा नहीं!

यह कैसा न्याय? अपराध सिद्ध फिर भी सजा नहीं!
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इस बात को कोई साधारण पढालिखा या साधारण सी समझ रखने वाला व्यक्ति भी समझता है कि देश के खजाने को नुकसान पहुँचाने वाला व्यक्ति देशद्रोही से कम अपराधी नहीं हो सकता और उसके विरुद्ध कानून में किसी भी प्रकार के रहम की व्यवस्था नहीं होनी चाहिये, लेकिन जिन्दगीभर भ्रष्टाचार के जरिये करोडों का धन अर्जित करने वालों को सेवानिवृत्ति के बाद यदि 1/2 पेंशन रोक कर सजा देना ही न्याय है तो फिर इसे तो कोई भी सरकारी अफसर खुशी-खुशी स्वीकार कर लेगा।
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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

पिछले दिनों दिल्ली हाई कोर्ट ने एक निर्णय सुनाया, जिसमें न्यायाधीश द्वय प्रदीप नंदराजोग तथा एमसी गर्ग की खण्डपीठ ने रक्षा मंत्रालय से वरिष्ठ लेखा अधिकारी पद से सेवानिवृत्त हो चुके एचएल गुलाटी की आधी पेंशन काटे जाने की बात कही गयी। गुलाटी भारत सरकार की सेवा करतु हुए 36 झूठे दावों के लिए भुगतान को मंजूरी देकर सरकारी खजाने को 42 लाख रुपये से भी अधिक की चपत लगायी थी। हाई कोर्ट ने भ्रष्टाचार का अपराध सिद्ध होने पर भी गुलाटी को जेल में डालने पर विचार तक नहीं किया और रक्षा मंत्रालय में रहकर भ्रष्ट आचरण करने वाले एचएल गुलाटी की 50 फीसदी पेंशन काटी जाने की सजा सुना दी।

हाई कोर्ट के इस निर्णय से भ्रष्टाचार को बढावा ही मिलेगा :

इस निर्णय को अनेक तथाकथित राष्ट्रीय कहलाने वाले समाचार-पत्रों और इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने अफसरों के लिये कोर्ट का कडा सन्देश कहकर प्रचारित किया। जबकि मेरा मानना है कि एक सिद्धदोष भ्रष्ट अपराधी के विरुद्ध हाई कोर्ट का इससे नरम रुख और क्या हो सकता था? मैं तो यहाँ तक कहना चाहूँगा कि हाई कोर्ट के इस निर्णय से भ्रष्टाचार पर लगाम लगने के बजाय भ्रष्टाचार को बढावा ही मिलेगा।

अनुशासनिक कार्यवाही के साथ-साथ दण्ड विधियों के तहत भी कार्यवाही :

प्रश्न यह नहीं है कि कोर्ट का रुख नरम है या कडा, बल्कि सबसे बडा सवाल तो यह है कि 42 लाख रुपये का गलत भुगतान करवाने वाले भ्रष्टाचारी के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता के तहत मामला दर्ज करके दण्डात्मक कार्यवाही क्यों नहीं की गयी? और केवल विभागीय जाँच करके और विभागीय नियमों के तहत की जाने वाली अनुशासनिक कार्यवाही की औपचरिकता पूर्ण करके मामले की फायल बन्द क्यों कर दी गयी? जबकि विभागीय कानून में स्पष्ट प्रावधान है कि लोक सेवकों द्वारा किये जाने वाले अपराधों के लिये अनुशासनिक कार्यवाही के साथ-साथ दण्ड विधियों के तहत भी कार्यवाही की जा सकती है या की जानी चाहिये।

कार्यवाही की जा सकती है या की जानी चाहिये शब्दावली भी समस्या की असल जड और 99 फीसदी समस्याओं के मूल कारण आईएएस :
इन कानूनों में-कार्यवाही की जा सकती है या की जानी चाहिये शब्दावली भी समस्या की असल जड है! इसके स्थान परविभागीय अनुशासनिक कार्यवाही के साथ-साथ दण्ड विधियों के तहत भी कार्यवाही की जायेगी और ऐसा नहीं करने पर जिम्मेदार उच्च लोक सेवक या विभागाध्यक्ष के विरुद्ध भी कार्यवाही होगी।ऐसा कानूनी प्रावधान क्यों नहीं है? जवाब भी बहुत साफ है, क्योंकि कानून बनाने वाले वही लोग हैं, जिनको ऐसा प्रावधान लागू करना होता है। ऐसे में कौन अपने गले में फांसी का फन्दा बनाकर डालना चाहेगा? कहने को तो भारत में लोकतन्त्र है और जनता द्वारा निर्वाचित सांसद, संसद मिलबैठकर कानून बनाते हैं, लेकिन- संसद के समक्ष पेश किये जाने वाले कानूनों की संरचना भारतीय प्रशासनिक सेवा के उत्पाद महामानवों द्वारा की जाती हैं। जो स्वयं ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस देश की 99 फीसदी समस्याओं के मूल कारण हैं।

जनता को कारावास और जनता के नौकरों की मात्र निंदा :
विचारणीय विषय है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को गाली-गलोंच और मारपीट करता है तो आरोपी के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता के तहत अपराध बनाता है और ऐसे आरोपी के विरुद्ध मुकदमा दर्ज होने पर पुलिस जाँच करती है। मजिस्ट्रेट के समक्ष खुली अदालत में मामले का विचारण होता है और अपराध सिद्ध होने पर कारावास की सजा होती है, जबकि इसक विपरीत एक अधिकारी द्वारा अपने कार्यालय के किसी सहकर्मी के विरुद्ध यदि यही अपराध किया जाता है तो उच्च पदस्थ अधिकारी या विभागाध्यक्ष ऐसे आरोपी के खिलाफ पुलिस में मामला दर्ज नहीं करवाकर स्वयं ही अपने विभाग के अनुशासनिक नियमों के तहत कार्यवाही करते हैं। जिसके तहत आमतौर पर चेतावनी, उसके कृत्य की भर्त्सना (निंदा) किये जाने आदि का दण्ड दिया जाता है और मामले को दफा-दफा कर दिया जाता है।

विभागाध्यक्ष भी तो अपराध कारित करते रहते हैं :
इस प्रकार के प्रकरणों में प्रताड़ित या व्यथित व्यक्ति (पक्षकार) की कमी के कारण भी अपराधी लोक सेवक कानूनी सजा से बच जाता है, क्योंकि व्यथित व्यक्ति स्वयं भी चाहे तो मुकदमा दायर कर सकता है, लेकिन अपनी नौकरी को खतरा होने की सम्भावना के चलते वह ऐसा नहीं करता है। लेकिन यदि विभागाध्यक्ष द्वारा मुकदमा दायर करवाया जाये तो विभागाध्यक्ष की नौकरी को तो किसी प्रकार का खतरा नहीं हो सकता, लेकिन विभागाध्यक्ष द्वारा पुलिस में प्रकरण दर्ज नहीं करवाया जाता है। जिसकी भी वजह होती है-स्वयं विभागाध्यक्ष भी तो आये दिन इस प्रकार के अपराध कारित करते हुए ही अपने विभाग में अपने अधिनस्थों पर आतंक को कायम रख पाते हैं। जिसके चलते मनमानी व्यवस्था संचालित होती है, जो कानूनों के विरद्ध कार्य करवाकर भ्रष्टाचार को अंजाम देने के लिये जरूरी होता है।

विभागीय जाँच के नाम पर सुरक्षा कवच :
किसी भी सरकारी विभाग में किसी महिलाकर्मी के साथ छेडछाड या यौन-उत्पीडन करने, सरकारी धन का दुरुपयोग करने, भ्रष्टाचार करने, रिश्वत मांगने आदि मामलों में भी इसी प्रकार की अनुशासनिक कार्यवाही होती है, जबकि इसी प्रकार के अपराध आम व्यक्ति द्वारा किये जाने पर, उन्हें जेल की हवा खानी पडती है। ऐसे में यह साफ तौर पर प्रमाणित हो जाता है कि जनता की सेवा करने के लिये, जनता के धन से, जनता के नौकर के रूप में नियुक्ति सरकारी अधिकारी या कर्मचारी, नौकरी लगते ही जनता और कानून से उच्च हो जाते हैं। उन्हें आम जनता की तरह सजा नहीं दी जाती, बल्कि उन्हें विभागीय जाँच के नाम पर सुरक्षा कवच उपलब्ध करवाया दिया जाता है।

विभागीय जाँच का असली मकसद अपराधी को बचाना :
जबकि विधि के इतिहास में जाकर गहराई से और निष्पक्षतापूर्वक देखा जाये तो प्रारम्भ में विभागीय जाँच की अवधारणा केवल उन मामलों के लिये स्वीकार की गयी थी, जिनमें कार्यालयीन (ओफिसियल) कार्य को अंजाम देने के दौरान लापरवाही करने, बार-बार गलतियाँ करने और कार्य को समय पर निष्पादित नहीं करने जैसे दुराचरण के जिम्मेदार लोक सेवकों को छोटी-मोटी शास्ती देकर सुधारा जा सके, लेकिन कालान्तर में लोक सेवकों के सभी प्रकार के कुकृत्यों को केवल दुराचरण मानकर विभागीय जाँच का नाटकर करके, उन्हें बचाने की व्यवस्था लागू कर दी गयी। जिसकी ओट में सजा देने का केवल नाटक भर किया जाता है, विभागीय जाँच का असली मकसद अपराधी को बचाना होता है।
खजाने को नुकसान पहुँचाने वाला देशद्रोही से कम नहीं :
इस बात को कोई साधारण पढालिखा या साधारण सी समझ रखने वाला व्यक्ति भी समझता है कि देश के खजाने को नुकसान पहुँचाने वाला व्यक्ति देशद्रोही से कम अपराधी नहीं हो सकता और उसके विरुद्ध कानून में किसी भी प्रकार के रहम की व्यवस्था नहीं होनी चाहिये, लेकिन जिन्दगीभर भ्रष्टाचार के जरिये करोडों का धन अर्जित करने वालों को सेवानिवृत्ति के बाद यदि 1/2 पेंशन रोक कर सजा देना ही न्याय है तो फिर इसे तो कोई भी सरकारी अफसर खुशी-खुशी स्वीकार कर लेगा।

उम्र कैद की सजा का अपराध करके भी अपराधी नहीं :

दिल्ली हाई कोर्ट के इस निर्णय से 42 लाख रुपये के गलत भुगतान का अपराधी सिद्ध होने पर भी गुलाटी न तो चुनाव लडने या मतदान करने से वंचित होगा और न हीं वह कानून के अनुसार अपराधी सिद्ध हो सका है। उसे केवल दुराचरण का दोषी ठहराया गया है। जबकि ऐसे भ्रष्ट व्यक्ति के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 409 के अनुसार आपराधिक न्यासभंग का मामला बनता है, जिसमें अपराध सिद्ध होने पर आजीवन कारावास तक की सजा का कडा प्रावधान किया गया है। फिर प्रश्न वही खडा हो जाता है कि इस कानून के तहत मुकदमा कौन दर्ज करे?
जब तक कानून की शब्दावली में-ऐसा किया जा सकता है! किया जाना चाहिये! आदि शब्द कायम हैं कोई कुछ नहीं कर सकता! जिस व्यक्ति ने 36 मामलों में गलत भुगतान करवाया और सरकारी खजाने को 42 लाख की क्षति कारित की, उसके पीछे उसका कोई पवित्र ध्येय तो रहा नहीं होगा, बल्कि 42 लाख में से हिस्सेदारी तय होने के बाद ही भुगतान किया गया होगा। जो सीधे तौर पर सरकारी धन, जो लोक सेवकों के पास जनता की अमानत होता है। उस अमान की खयानत करने का मामला बनता है, जिसकी सजा उक्त धारा 409 के तहत अपराधी को मिलनी ही चाहिये।
कोर्ट को स्वयं संज्ञान लेकर आपराधिक मामले दर्ज करने के आदेश देने चाहिये :

मेरा तो स्पष्ट मामना है कि जैसे ही कोर्ट के समक्ष ऐसे प्रकरण आयें, कोर्ट को स्वयं संज्ञान लेकर अपराधी के साथ-साथ सक्षम उच्च अधिकारी या विभागाध्यक्ष के विरुद्ध भी आपराधिक मामले दर्ज करने के आदेश देने चाहिये, जिससे ऐसे मामलों में स्वत: ही प्रारम्भिक स्तर पर ही पुलिस में मामले दर्ज होने शुरू हो जायें और अपराधी विभागीय जाँच की आड में सजा से बच कर नहीं निकल सकें। इसके लिये आमजन को आगे आना होगा और संसद को भी इस प्रकार का कानून बनाने के लिये बाध्य करना होगा। अन्यथा गुलाटी जैसे भ्रष्टाचारी जनता के धन को इसी तरह से लूटते रहेंगे और सरेआम बचकर इसी भांति निकलते भी रहेंगे।

Tuesday, September 14, 2010

बेलगाम नौकरशाही को लूट की छूट!


डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'/Dr. Purushottam Meena 'Nirankush'

सत्ता में आने के बाद कुछ माह तक मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत ने अपने निवास पर जनता दरबार लगाकर, जनता की शिकायतें सुनने का प्रयास किया था, जिनका हश्र जानकर कोई भी कह सकता है कि राज्य की नौकरशाही पूरी तरह से निरंकुश एवं सरकार के नियन्त्रण से बाहर हो चुकी हैप्राप्त शिकायतों पर मुख्यमन्त्री के विशेषाधिकारी (आईएएस अफसर) की ओर से कलक्टरों एवं अन्य उच्च अधिकारियों को चिठ्ठी लिखी गयी कि मुख्यमन्त्री चाहते हैं कि जनता की शिकायतों की जाँच करके सात/दस दिन में अवगत करवाया जावे। इन पत्रों का एक वर्ष तक भी न तो जवाब दिया गया है और न हीं किसी प्रकार की जाँच की गयी है। इसके विपरीत मुख्यमन्त्री से मिलकर फरियाद करने वाले लोगों को अफसरों द्वारा अपने कार्यालय में बुलाकर धमकाया भी जा रहा है। साफ शब्दों में कहा जाता है कि मुख्यमन्त्री ने क्या कर लिया? मुख्यमन्त्री को राज करना है तो अफसरशाही के खिलाफ बकवास बन्द करनी होगी। ऐसे हालात में राजस्थान की जनता की क्या दशा होगी, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है।
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भाजपा की वसुन्धरा राजे सरकार को भ्रष्ट और भू-माफिया से साठगांठ रखने वाली सरकार घोषित करके जनता से विकलांग समर्थन हासिल करने वाली राजस्थान की काँग्रेस सरकार में भी इन दिनों भ्रष्टाचार चरम पर है। दो वर्ष से भी कम समय में जनता त्रस्त हो चुकी है। जनता साफ तौर पर कहने लगी है कि राज्य के मुख्यमन्त्री अशोक गहलोग अभी तक अपनी पिछली हार के भय से उबर नहीं हो पाये हैं।

पिछली बार सत्ताच्युत होने के बाद अशोक गहलोत पर यह आरोप लगाया गया था कि कर्मचारियों एवं अधिकारियों के विरोध के चलते ही काँग्रेस सत्ता से बाहर हुई थी। हार भी इतनी भयावह थी कि दो सौ विधायकों की विधानसभा में 156 में से केवल 56 विधायक ही जी सके थे।

अशोक गहालोत की हार पर अनेक राजनैतिक विश्लेषकों ने तो यहाँ तक लिखा था कि राजस्थान के इतिहास में पहली बार वसुन्धरा राजे के नेतृत्व में भाजपा को मिला पूर्ण बहुमत अशोक गहलोग के प्रति नकारात्मक मतदान का ही परिणाम था। इस डर से राजस्थान के वर्तमान मुख्यमन्त्री इतने भयभीत हैं कि राज्य की नौकरशाही के विरुद्ध किसी भी प्रकार की कठोर कार्यवाही नहीं की कर पा रहे हैं।

सत्ता में आने के बाद कुछ माह तक मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत ने अपने निवास पर जनता दरबार लगाकर, जनता की शिकायतें सुनने का प्रयास किया था, जिनका हश्र जानकर कोई भी कह सकता है कि राज्य की नौकरशाही पूरी तरह से निरंकुश एवं सरकार के नियन्त्रण से बाहर हो चुकी है।

प्राप्त शिकायतों पर मुख्यमन्त्री के विशेषाधिकारी (आईएएस अफसर) की ओर से कलक्टरों एवं अन्य उच्च अधिकारियों को चिठ्ठी लिखी गयी कि मुख्यमन्त्री चाहते हैं कि जनता की शिकायतों की जाँच करके सात/दस दिन में अवगत करवाया जावे। इन पत्रों का एक वर्ष तक भी न तो जवाब दिया गया है और न हीं किसी प्रकार की जाँच की गयी है। इसके विपरीत मुख्यमन्त्री से मिलकर फरियाद करने वाले लोगों को अफसरों द्वारा अपने कार्यालय में बुलाकर धमकाया भी जा रहा है। साफ शब्दों में कहा जाता है कि मुख्यमन्त्री ने क्या कर लिया? मुख्यमन्त्री को राज करना है तो अफसरशाही के खिलाफ बकवास बन्द करनी होगी। ऐसे हालात में राजस्थान की जनता की क्या दशा होगी, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है।

मनरेगा में काम करने वाली गरीब जनता को तीन महिने तक मजदूरी नहीं मिलती है। शिकायत करने पर कोई कार्यवाही नहीं होती है। सूचना अधिकार के तहत जानकारी मांगने पर जनता को लोक सूचना अधिकारी एवं प्रथम अपील अधिकारी द्वारा सूचना या जानकारी देना तो दूर कोई जवाब तक नहीं दिया जाता है। राज्य सूचना आयुक्त के पास दूसरी अपील पेश करने पर भी ऐसे अफसरों के विरुद्ध किसी प्रकार की कार्यवाही नहीं होना आश्चर्यजनक है।

पुलिस थानों में खुलकर रिश्वतखोरी एवं मनमानी चल रही है। अपराधियों के होंसले बलुन्द हैं। अपराधियों में किसी प्रकार का भय नहीं है। सरेआम अपराध करके घूमते रहते हैं।

कहने को तो पिछली सरकार द्वारा खोली गयी शराब की दुकानों में से बहुत सारी बन्द की जा चुकी हैं, लेकिन जितनी बन्द की गयी हैं, उससे कई गुनी बिना लाईसेंस के अफसरों की मेहरबानी से धडल्ले से चल रही हैं।

राज्य में मिलावट का कारोबार जोरों पर है। हालात इतने खराब हो चुके हैं कि राजस्थान से बाहर रहने वाले राजस्थानी शर्मसार होने लगे हैं। मसाले, घी, दूध, आटा, कोल्ड ड्रिंक, तेल, सीमण्ट सभी में लगातार मिलावटियों के मामले सामने आ रहे हैं। आश्चर्यजनक रूप से मिलावटियों को किसी प्रकार का डर नहीं है। नकली एवं एक्सपायर्ड दवाईयाँ भी खूब बिक रही हैं। मैडीकल व्यवसाय से जुडे लोग 80 प्रतिशत तक गैर-कानूनी दवाई व्यवसाय कर रहे हैं।

भाजपा राज में भू-माफिया के खिलाफ बढचढकर आवाज उठाने वाली काँग्रेस के वर्तमान नगरीय आवास मन्त्री ने जयपुर में नया जयपुर बनाकर आगरा रोड एवं दिल्ली रोड पर आम लोगों द्वारा वर्षों की मेहनत की कमाई से खरीदे गये गये भूखण्डों को एवं किसानों को अपनी जमीन को औने-पौने दाम पर बेचने को विवश कर दिया है। जयपुर विकास प्राधिकरण द्वारा 90 बी (भू-रूपान्तरण) पर तो पाबन्दी लगादी है, लेकिन भू-बेचान जारी रखने के लिये रजिस्ट्रिंयाँ चालू हैं। आवाप्ती की तलवार लटका दी गयी है। जिसका सीधा सा सन्देश है कि सरकार द्वारा कृषि भूमि को आवासीय भूमि में परिवर्तन नहीं किया जायेगा, लेकिन सस्ती दर पर भू-माफिया को खरीदने की पूरी आजादी है।

केवल इतना ही नहीं, बल्कि आगरा रोड एवं दिल्ली रोड पर प्रस्ताविक नये जयपुर के लिये घोषित क्षेत्र में निर्माण पर भी पाबन्दी लगादी गयी है और साथ ही यह भी सन्देश प्रचारित कर दिया गया है कि जिस किसी के प्लाट में मकान निर्माण हो चुका है, उसे अवाप्त नहीं किया जायेगा। इसके चलते इस क्षेत्र में हर माह कम से कम 500 नये मकानों की नींव रखी जा रही है। यह तब हो रहा है, जबकि नये मकानों के निर्माण की रोकथाम के लिये विशेष दस्ता नियुक्त किया गया है। यह दस्ता मकान निर्माण तो नहीं रोक पा रहा, लेकिन हर मकान निर्माता पचास हजार से एक लाख रुपये तक जयपुर विकास प्राधिकरण के इन अफसरों को भेट चढा कर आसानी से मकान निर्माण जरूर कर पा रहा है। जो कोई रिश्वत नहीं देता है, उसके मकान को ध्वस्त कर दिया जाता है।

क्या राजस्थान के आवासीय मन्त्री (जो राज्य के गृहमन्त्री भी हैं) और मुख्यमन्त्री इतने भोले और मासूम हैं कि उन्हें जयपुर विकास प्राधिकरण के अफसरों के इस गोरखधन्धे की कोई जानकारी ही नहीं है। सच्चाई तो यह है कि जनता द्वारा हर महिने इस बारे में सैकडों शिकायतें मुख्यमन्त्री एवं आवासीय मन्त्री को भेजी जाती हैं, जिन्हें उन्हीं भ्रष्ट अफसरों को जरूरी कार्यवाही के लिये अग्रेषित कर दिया जाता है, जिनके विरुद्ध शिकायत की गयी होती है। जहाँ पर क्या कार्यवाही हो सकती है, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि राज्य की नौकरशाही पूरी तरह से बेलगाम हो चुकी है और सरकार का या तो नौकरशाही पर नियन्त्रण नहीं है या पिछली बार काँग्रेस एवं अशोक गहलोत से नाराज हो चुकी नौकरशाही को खुश करने के लिये स्वयं सरकार ने ही खुली छूट दे रखी है कि बेशक जितना कमाया जावे, उतना कमा लो, लेकिन मेहरबानी करके नाराज नहीं हों। अब तो ऐसा लगने लगा है कि राज्य सरकार को जनता का खून पीने से कोई फर्क ही नहीं पडता।

कुछ लोग तो यहाँ तक कहने लगे हैं कि राहुल गाँधी का वरदहस्त प्राप्त केन्द्रीय ग्रामीण विकास मन्त्री (जो राजस्थान में काँग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी हैं) सी. पी जोशी के लगातार दबाव एवं राज्य सरकार के मामलो में दखलांजी के चलते अशोक गहलोत को इस कार्यकाल के बाद मुख्यमन्त्री बनने की कोई उम्मीद नहीं है, इसलिये वे किसी भी तरह से अपना कार्यकाल पूर्ण करना चाहते हैं। अगली बार काँग्रेस हारे तो खूब हारे उन्हें क्या फर्क पडने वाला है!

-लेखक होम्योपैथ चिकित्सक, मानव व्यवहारशास्त्री, दाम्पत्य विवादों के सलाहकार, विविध विषयों के लेखक, टिप्पणीकार, कवि, शायर, चिन्तक, शोधार्थी, तनाव मुक्त जीवन, लोगों से काम लेने की कला, सकारात्मक जीवन पद्धति आदि विषय के व्याख्याता तथा समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध 1993 में स्थापित एवं 1994 से राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली से पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। जिसमें 13 सितम्बर, 2010 तक, 4463 रजिस्टर्ड आजीवन कार्यकर्ता देश के 17 राज्यों में सेवारत हैं। फोन नं. 0141-2222225 (सायं 7 से 8 बजे)

Monday, May 3, 2010

भ्रष्टाचार का परिणाम है : जासूसी व देशद्रोह!

भ्रष्टाचार का परिणाम है : जासूसी व देशद्रोह

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
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आईएएस, आईपीएस, आयकर विभाग के उच्च अधिकारी, सीबीआई, सीआईडी, भ्रष्टाचार अन्वेषण ब्यूरो, सतर्कता टीम के छोटे बडे अधिकारी रंगे हाथ रिश्वतखोरी में पकडे जा रहे हैं। माधुरी गुप्ता को देश की सूचनाएँ पाकिस्तान को बेचने के आरोपों में पकडा गया है। पुलिस और सीआरपीएफ के जवान नक्सलवादियों को सरकारी कारतूस बेचते हैं। अनेक राज्यों के पुलिस के लोग आतंकवादियों को हथियार एवं कारतूस सप्लाई करते हैं। मुस्लिम एवं आदिवासी विरोध के नाम पर राष्ट्रवाद की बात करने वाले अजमेर की दरगाह में विस्फोटों में शामिल पाये जाते हैं। इस सबके उलट जिन मासूम बच्चियों के साथ सामूहिक बलात्कार किया जाता है, उन्हें चोरी के इल्जाम में जेल में बन्द कर दिया जाता है और बालात्कारियों से मोटी रकम लेकर, शेष कुवारी लडकियों की इज्जत लूटने के लिये छोड दिया जाता है। इन हालातों में इस देश में कौन सुरक्षित हो सकता है और इन हालातों में कोई कब तक जिन्दा रह सकता है? इस सवाल का जवाब इस देश की जनता इस देश के शासकों से चाहती है? लेकिन कोई भी जवाब जनता के जख्मों पर मरहम नहीं लगा सकता, क्योंकि भ्रष्टाचार की गन्दी नदी में कुछ भी पवित्र नहीं बचा है। भ्रष्टाचार की गंगोत्री से ही जासूसी, नक्सलवाद, आतंकवाद, उग्रवाद और देशद्रोह का जन्म हो रहा है।
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हाल ही में माधुरी गुप्ता को जासूसी के मामले में पकडे जाने के बाद सारे के सारे कथित ढोंगी राष्ट्रवादी न जाने कहाँ गायब हो गये। जबकि कल तक ये धोखेबाज और मुखौटे पहने राष्ट्रवाद की बात करने वाले और अपने आपको बुद्धिजीवी कहने वाले सारे देश के मुसलमानों को आतंकवादी और देश के सारे आदिवासियों को नक्सलवादी ठहराने में हजारों तर्क गिना रहे थे। माधुरी और अजमेर में पकडे देशभक्तों के मामले में इनमें से किसी ने भी आगे आकर इनको फांसी पर लटकाने की मांग करने की हिम्मत नहीं दिखाई। जबकि इसके विपरीत चिल्लाचोट करने के आदी कुछ उथली मानसिकता के लोगों ने अवश्य माधुरी के नाम को लेकर झूठा हल्ला मचाया हुआ है।

जबकि विचारणीय मुद्दा यह है कि माधुरी गुप्ता द्वारा जो कुछ किया गया है, वह तो एक नमूना है, क्योंकि देशभर में हर क्षेत्र में पैठ जमा चुकी हजारों माधुरियाँ अभी पकडी जानी बाकी हैं। ऐसी अनेकों माधुरी और भ्रंवर हर सरकारी ऑफिस में उपलब्ध हैं। आज हजारों स्त्री और पुरुष धन, सुविधा और पदोन्नति के बदले कुछ भी करने को तैयार हैं। असल मुद्दा माधुरी गुप्ता, केतन देसाई या अन्य ऐसे लोगों को का पर्दाफाश करके इन्हें प्रचारित करना नहीं है, ये सब निहायती उथली और बेवकूफी भरी बातें हैं। असल में हमारे लिये विचारणीय मुद्दा यह होना चाहिये कि आगे से कोई माधुरी या केतन देसाई पैदा नहीं हो, इसके लिये क्या किया जाना चाहिये?

इसे हमें इस प्रकार से समझना होगा कि रोगग्रस्त व्यक्ति का उपचार नहीं करके उसको जान से खत्म कर देने से समाज के शेष लोगों को बीमारी से मुक्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि जब तक वातावरण में रोग के जीवाणु तैरते रहेंगे, किसी भी स्वस्थ व्यक्ति को वे अपनी चपेट में लेकर बीमार बना सकते हैं। रोग के कारण अर्थात्‌ जीवाणुओं को पहचानने की सख्त जरूरत है। इसलिये सबसे पहले हमें इस बात को स्वीकारना होगा कि भ्रष्टाचार नामक रोग के जीवाणुओं को पनपने देने के लिये हम सब सुशिक्षित और तेजी से आगे बढने की चाह रखने वाले इण्डियन मानसिकता के भारतीय नागरिक जिम्मेदार हैं। हम अपने आसपास नजर दौडाकर देख सकते हैं कि किसी भी प्रकार से धन कमाने वालों को हम कितना सम्मान देते हैं? हम किसी भी तरह से अपना काम बिना बारी और बिना लाईन में लगे करवाने पर कितने फक्र का अनुभव करते हैं? धन के बल पर चुनाव जीतने वालों का हम जुलूस निकालते हैं? इन सब कार्यों से हम खुले तौर पर भ्रष्टाचार को बढावा ही नहीं देते हैं, बल्कि भ्रष्टाचार को सामाजिक स्वीकृति एवं मान्यता भी प्रदान करते हैं।

ऐसा करते समय हम भूल जाते हैं कि जो व्यक्ति राशन कार्ड बनाने के लिये वेतन पाता है और फिर भी राशन बनाने के बदले में रिश्वत लेता है, वही व्यक्ति अवसर मिलने पर देश की खुफिया जानकारियाँ उपलब्ध करने के बदले में चीन या पाकिस्तान से धन क्यों नहीं ले सकता है? जो व्यक्ति नकली दवाईयों के सैम्पल पास करते हैं, जो व्यक्ति असली पुर्जे बेचकर नकली पुर्जे लगाकर सरकारी बसों को दुर्घटना होने के लिये छोड देते हैं! जो लोग पुलों ओर बडी-बडी इमारतों में निर्धारित मापदण्डों के अनुरूप सामग्री का इस्तमाल नहीं करते, ऐसे व्यक्तियों को हम देशद्रोही क्यों नहीं मानते हैं?

इन लोगों की अनदेखी तो हम करते ही हैं, साथ ही साथ हम भ्रष्टाचार एवं अन्ततः देशद्रोह को भी बढावा देते हैं। लेकिन सब चलता है! भ्रष्टाचार तो देश के विकास के लिये जरूरी है। भ्रष्टाचार तो अन्तर्राष्ट्रीय बीमारी है, इसे रोका नहीं जा सकता आदि बेतुकी बातों का अनेक लोग बिना विचारे समर्थन करते रहते हैं! ऐसा कहते समय हम भूल जाते हैं कि हम भ्रष्टाचार के साथ-साथ परोक्ष रूप से जासूसी, आतंकवाद, नक्लवाद जैसे देशद्रोह को जन्म देने वाले अपराधों को भी बढावा दे रहे हैं।

इसके अलावा हमारी अन्धी और मीडिया द्वारा नियन्त्रित सोच का मूर्खता का जीता जागता नमूना यह भी है कि जब मुम्बई में ताज होटल में आतंकी घुस जाते हैं तो इसे राष्ट्र पर हमला बताया जाता है। लेकिन मुझे आज तक यह बात समझ में नहीं आता कि बम्बई बम ब्लॉक, जयपुर बम ब्लॉस्ट, कानपुर बम ब्लॉस्ट, लाल किले पर हमला और देश के विभिन्न हिस्सों में हुए सैकडों हमले राष्ट्र पर हमला क्यों नहीं थे और केवल मुम्बई के ताज होटल में हुआ हमला ही राष्ट्र पर हमला क्यों है? यही नहीं इस कथित राष्ट्रीय हमले पर मीडिया की जुबानी सारा देश आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होकर खडा होने का नाटक करता हुआ दिखता है, लेकिन आतंकवादियों को चांदी के चन्द सिक्कों के बदले होटल तक आने का रास्ता दिखलाने वाले देशद्रोहियों के नाम न जाने कहाँ गुम हो जाते हैं? मुम्बई में ताज होटल पर हुअे हमले को सरकार ने इतनी गम्भीरता से लिया कि पाकिस्तान से चल रही वार्ता को हर स्तर पर स्थगित कर दिया और ताज होटल मामले में पकडे गये एक मात्र आतंकी कसाब को सजा मिलने से पूर्व ही भूटान यात्रा के दौरान दोनों देशों के प्रधानमन्त्री विदेश मन्त्री स्तर की वार्ता के लिये सहमत हो गये। समझ में यह नहीं आता कि गत डेढ वर्ष में ऐसा कौनसा बदलाव आ गया, जिससे पाकिस्तान और भारत में फिर से वार्ता जारी रखने का माहौल बन गया है?

यदि हम सच को स्वीकार सकें तो बहुत कडवी सच्चाई यह है कि जिस प्रकार से मीडिया ने ताज होटल हमले के दौरान सारे राष्ट्र को एकजुट दिखाने का सफल नाटक किया था, उसी प्रकारसे भारत और पाकिस्तान के शासक गत छह दशकों से सचिव एवं मन्त्री स्तर की तथा शिखर वार्ताओं पर अरबों रुपये खर्च करके वार्ताओं के जरिये समस्याओं के समाधान ढँूढने का सफलतापूर्व नाटक करते आ रहे हैं। असल में दोनों देशों के शासकों में से कोई भी नहीं चाहता कि शान्ति कायम हो, क्योंकि दोनों देशों में जनता को पडौसी मुल्क का खतरा दिखाकर वोट मांगने और धार्मिक उन्माद फैलाकर शासन करने का इससे बढिया कोई और रास्ता हो ही नहीं सकता। ऐसा नहीं है कि हमारे देश में ही ऐसा हो रहा है। विश्व के अनेक देशों के शासक ऐसा करते रहते हैं।

बात मुम्बई ताज होटल की हो रही थी, तो इसकी कडवी और नंगी सच्चाई यह है कि ताज होटल जैसे आश-ओ-आराम उपलब्ध करवाने वाले आधुनिक होटलों में सांसद, विधायक, आईएएस, आईपीएस, कार्पोरेट मीडिया के लोग, क्रिकेटर, ऐक्टर, सारे उोगपति, पंँूजीपति, सफेदपोश अपराधी आदि बडे-बडे लोग न मात्र रुकते ही हैं, बल्कि सभी प्रकार की काली-सफेद डील भी इन्हीं होटलों में होती हैं। इसलिये जब ताज होटल पर हमला हुआ तो मुम्बई की फिल्मी दुनिया के लोग, जो एसी से बाहर नहीं निकलते रोड पर आकर शान्ति मार्च करते दिखे, उनके साथ कन्धा मिला रहे थे-अम्बानी जैसे उोगपति और सारा इल्क्ट्रोनिक एवं प्रिण्ट मीडिया ताज होटल पर हुए हमले को राष्ट्र पर हमला करार दे रहा था। ताज होटल पर हुए हमले को सभी दलों ने एक स्वर में राष्ट्र पर हमला करार दिया। वामपंथियों ओर दक्षिणपंथियों में इस मामले में एक राय होना कितना आश्चर्यजनक है।

सचिन तेन्दुलकर ने भी इसकी भर्त्सना की, अमिताभ की नींद उड गयी थी। परन्तु कोई भी इस बात का जवाब नहीं दे रहा था कि केवल यही हमला क्यों राष्ट्र पर है? क्या जयपुर या दिल्ली या कानपुर या मेरठ या अजमेर दरगाह भारत में नहीं हैं? यदि भारत में हैं तो उन हमलों को राष्ट्र पर हमला क्यों नहीं माना जाता? कडवी सच्चाई यह है कि इस देश के असली मालिक वे लोग हैं, जो इण्डिया में बसते हैं और इण्डिया इन्हीं ताज होटलों की गिरफ्त में है। शेष जो भारत में बसते हैं वे तो ताज होटलों में एश-ओ-आराम करने वाले इण्डिया के राजाओं की प्रजा हैं। हम सभी जानते हैं और इतिहास गवाह है कि आदिकाल से प्रजा केवल मरने के लिये ही पैदा होती रही है। प्रजा पर होने वाले हमलों का न तो हिसाब रखा जाता है और हीं उन पर चर्चा होती है।

अन्यथा क्या कारण है कि बांग्लादेश जैसे पिद्दी से देश के सुरक्षा गार्डों द्वारा कुछ वर्षों पर हमारे देश के सैनिकों के यौनांगों को काट डाला गया? उनके आँख, कान, नाक आदि काट दिये गये और लाश को हमारी सीमा में यह दिखाने के लिये पहुँचाया गया कि देख लो हम बांग्लादेशी कितने ताकतवर हैं? इस मामले में इण्डिया की सरकार ने कुछ भी नहीं किया, क्योंकि हमला इण्डिया पर नहीं, बल्कि भारत के लोगों पर हुआ था। सडकों पर मरने वाले भारतीय होते हैं ओर ताज होटलों में मरने वाले इण्डियन! इसलिये ताज होटल का हमला राष्ट्र पर हमला कहकर प्रचारित किया गया। यही फर्क है इस देश में भारतीय और इण्डियन होने का!

मुम्बई के ताज होटल में प्रवेश करने वालों को बेशक राष्ट्र का दुश्मन बतलाया गया हो और आगे से ऐसी घटनाएँ न हों इसके लिये बेशक कितने भी प्रयास किये गये हों, लेकिन जब तक माधुरी गुप्ता, केतन देसाई जैसे लोग इस देश में हैं न तो भारतीय सुरक्षित हैं और न हीं इण्डियन! यदि हम चाहते हैं कि यह देश नक्सलवाद, आतंकवाद, उग्रवाद, साम्प्रदायिकता आदि बीमारियों से मुक्त हो तो सबसे पहले इस देश को भ्रष्टाचार एवं भ्रष्टाचारियों से से मुक्त रखना होगा। इस देश की संसद को निर्णय लेना होगा कि भ्रष्टाचार की सजा कम से कम उम्र कैद और अधिकतम फांसी हो। इसके साथ-साथ आईएएस लॉबी की प्रशासनिक मनमानी पर रोक लगानी होगी, बल्कि तत्काल आईएएस प्रणाली को समाप्त करना होगा और विभागीय जाँच के नाटक बन्द करने होंगे। अन्यथा इस देश की सम्प्रभुता की सुरक्षा मुश्किल ही नहीं, असम्भव है।

लेकिन अभी तक के आजाद भारत के इतिहास की ओर नजर डालें तो पायेंगे कि हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं, क्योंकि हम सारी मुसीबतों के लिये दूसरों को जिम्मेदार ठहराने की प्रवृत्ति को छोडने को और स्वयं को तनिक भी दोषी मानने को तैयार हो ही नहीं सकते। हमें तो हमारे धर्मगुरुओं और शंकराचार्यों द्वारा सिखाया गया है कि हम तो गलत हो ही नहीं सकते! सारा का सारा दोष तो बाहरी संस्कृति का है। हमें बताया गया है कि रोग के जीवाणू तो बाहर से फैलाये जाते हैं। हमारी संस्कृति तो इतनी पवित्र है कि हमारे यहाँ किसी प्रकार की बुराई पैदा हो ही नहीं सकती। परिणाम सामने हैं!

क्या हम इस बात को स्वीकार करना पसन्द करेंगे कि इस देश में आईएएस नाम का जीव भ्रष्टाचार, अत्याचार, आतंकवाद, नक्सलवाद, उग्रवाद, साम्प्रदायिकता जैसी देश को खोखला एवं पथभ्रष्ट कर देने वाली सभी बुराईयों की असली जड है। जिसे अंग्रेजों ने इन्हीं सब कामों को पैदा करने के लिये जन्म दिया था, लेकिन यह जीव आजादी के बाद भी ज्यों का त्यों कुर्सी पर बिराजमान है, बल्कि और ताकतवर हो गया है। फर्क सिर्फ इतना है कि पहले गौरा अंग्रेज था, अब काला अंग्रेज बैठ गया है। यदि किसी को विश्वास नहीं हो तो जाँच करवाकर देख लो यूपीएएससी से भर्ती होने के बाद १० वर्ष की सेवा करते-करते ८० प्रतिशत से अधिक आईएएस कम से कम ५० करोड से अधिक की सम्पत्ती के स्वामी बन जाते हैं!

बेरोकटोक धन कमाने के लिये आजाद ऐसे लोगों को धन के संग्रह के साथ-साथ, आसानी से उपलब्ध गरम गोश्त की भी जरूरत होती है। ऐसे में उन्हें अविवाहित माधुरियाँ आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं। फिर माधुरियों के लिये पाकिस्तान तक पहुँचना मुश्किल नहीं रह जाता? केतन देसाई जैसे भ्रष्ट लोग क्या देश द्रोही नहीं हैं? क्या केतन देसाई या ललित मोदी अकेले इतने बडे कारनामों को अंजाम दे सकते हैं? कभी नहीं, हर एक माधुरी गुप्ता, हर एक ललित मोदी, हर एक केतन देसाई जैसों को इस देश के नीति-नियन्ता आईएएस और राजनेताओं का बरदहस्त प्राप्त होता है। जिन्हें हम सब आम लोग जमकर सम्मान देते हैं। जब तक भ्रष्टाचार करने वालों को आजादी मिली रहेगी और हम इन भ्रष्टाचारियों को सम्मान तथा पुरस्कार देते रहेंगे, तब तक देशद्रोह, आतंकवाद और नक्सलवाद चलता ही रहेगा, कोई कुछ नहीं कर सकता।

यदि हम दुनिया को बदलना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें स्वयं को बदलना होगा। जो बदलाव हम दूसरों में देखना चाहते हैं, सबसे पहले वे सभी बदलाव हमें अपने-आप में करने होंगे और जो कुछ हम दूसरों से पालन करने को कहते हैं, उन सभी बातों को हमें अपने आचरण से प्रमाणित करना होगा। हमें शहीद भगत सिंह और सुभाष चन्द्र बोस जैसे सर्वकालिक सच्चे राष्ट्रीयवीरों के दिलों में धधकती ज्वाला, अपने-आपके अन्दर जलानी होगी, लेकिन सावधान भगत सिंह जैसी गलती कभी नहीं करें! आक्रोश की आग में भगत सिंह की भांति स्वयं को नहीं जलायें, क्योंकि सारा देश जानता है कि यदि भगत सिंह और उनके जैसे देशभक्त जिन्दा रहे होते तो मोहन दास कर्मचन्द गाँधी देश के टुकडे करने के लिये आजाद नहीं होता। आजादी के बाद शासक तुष्टिकरण की कुनीतियों के जरिये समाज को विभाजित नहीं कर पाते। हमें भगत सिंह, चन्द्र शेखर, सुभाष चन्द्र बोस, ऊधम सिंह, असफाकउल्ला जैसे अमर शहीद देश भक्तों के संघर्ष को अपने दिलों में संजोकर, इस देश और मानवता को बचाने के लिये अपने आसपास के वातानुकूलित कक्षों में बिराजे देशद्रोहियों और गद्दारों से लडना होगा। तब ही हम विदेशी ताकतों से लडने में सक्षम हो सकते हैं।

अन्त में एक बात और कि शुक्र है कि पकडी गयी महिला मुसलमान नहीं है, अन्यथा आरएएस, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, दुर्गावाहिनी, श्री राम सेना, शिव सेना और बीजेपी के अन्य सहयोगी संगठन देश में सडकों पर उतर आते और उत्पात मचाना शुरू कर देते।

-लेखक जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र "प्रेसपालिका" के सम्पादक एवं राष्ट्रीय संगठन "भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान" (बास), के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं,
जिसमें दि. 03/05/2010 तक 4231 आजीवन कार्यकर्ता देश के 17 राज्यों में सेवारत हैं
। फोन नं. 0141- 2222225 (सायं 7 से 8 बजे के बीच)।

Friday, March 19, 2010

नक्सलवाद का कडवा सच!

हमारे देश में नक्सलवाद को राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री देश की सबसे बडी या आतंकवाद के समकक्ष समस्या बतला चुके हैं। अनेक लेखक भी वातानुकूलित कक्षों में बैठकर नक्सलवाद के ऊपर खूब लिख रहे हैं। राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री का बयान लिखने वालों में से अधिकतर ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की वस्तुस्थिति जाकर देखना तो दूर, उन क्षेत्रों के जिला मुख्यालयों तक का दौरा नहीं किया है। अपने आप को विद्वान कहने वाले और बडे-बडे समाचार-पत्रों में बिकने वाले अनेक लेखक भी नक्सलवाद पर लिखते हुए नक्सलवाद को इस देश का खतरनाक कोढ बतला रहे हैं।

कोई भी इस समस्या की असली तस्वीर पेश करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। या यह कहा जाये कि असल समस्या के बारे में उनको ज्ञान ही नहीं है। अनेक तो नक्सलवाद पर की असली तस्वीर पेश करने की खतरनाक यात्रा के मार्ग पर चाहकर भी नहीं चलना चाहते हैं। ऐसे में कूटनीतिक सोच एवं लोगों को मूर्ख बनाने की नीति से लिखे जाने वाले आलेख और राजनेताओं के भाषण इस समस्या को उलझाने के सिवा और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। राजनेता एवं नौकरशाहों की तो मजबूरी है, लेकिन स्वतन्त्र लेखकों से ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे असल को छोडकर सत्ता के गलियारे से निकलने वाली ध्वनि की नकल करते दिखाई दें। जिन लेखकों की रोजी रोटी बडे समाचार पत्रों में झूठ को सज बनाकर लेखन करने से चलती है, उनकी विवशता तो समझ में आती हैं, लेकिन सिर्फ अपने अन्दर की आवाज को सुनकर लिखने वालों को कलम उठाने से पहले अपने आपसे पूछना चाहिये कि मैं नक्सलवाद के बारे में अपने निजी अनुभव के आधार पर कितना जानता हँू? यदि आपकी अन्तर्रात्मा से उत्तर आता है कि कुछ नहीं, तो मेहरबानी करके इस देश और समाज को गुमराह करने की कुचेष्टा नहीं करें।

नक्सवाद पर कुछ लिखने से पहले मैं विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि मैं किसी भी सूरत में हिंसा का पक्षधर नहीं हूँ और नक्लल प्रभावित निर्दोष लोगों के प्रति मेरी सम्पूर्ण सहानुभूति है। इसलिये इस आलेख के माध्यम से मैं हर उस व्यक्ति को सम्बोधित करना चाहता हूँ, जिन्हें इंसाफ की व्यवस्था को बनाये रखने में आस्था और विश्वास हो। जिन्हें संविधान द्वारा प्रदत्त इस मूल अधिकार (अनुच्छे-14) में विश्वास हो, जिसमें साफ तौर पर कहा गया है कि देश के प्रत्येक व्यक्ति को कानून के समक्ष समान समझा जायेगा और प्रत्येक व्यक्ति को कानून का समान संरक्षण प्रदान किया जायेगा। जिनको संवैधानिक व्यवस्था मैं आस्था और विश्वास हो, लेकिन याद रहे, केवल कागजी या दिखावटी नहीं, बल्कि जिन्हें समाज की सच्ची तस्वीर और समस्याओं के व्यावहारिक पहलुओं का भी ज्ञान हो वे ही इन बातों को समझ सकते हैं। अन्यथा इस लेख को समझना आसान या सरल नहीं होगा?

यदि उक्त पंक्तियों को लिखने में मैंने धृष्टता नहीं की है तो कृपया सबसे पहले बिना किसी पूर्वाग्रह के इस बात को समझने का प्रयास करें कि एक ओर तो कहा जाता है कि हमारे देश में लोकतन्त्र है और दूसरी ओर लोकतन्त्र के नाम पर 1947 से लगातार यहाँ के बहुसंख्यक लोगों के समक्ष चुनावों का नाटक खेला जा रहा है। यदि देश में वास्तव में ही लोकतन्त्र है तो सरकार एवं प्रशासनिक व्यवस्था में देश के सभी वर्गों का समान रूप से प्रतिनिधित्व क्यों नहीं है? सभी वर्गों के लोगों की हर क्षेत्र में समान रूप से हिस्सेदारी भी होनी चाहिये। अन्यथा तो लोकतन्त्र होने के कोई मायने ही नहीं रह जाते हैं!

कुछ कथित प्रबुद्ध लोग कहते हैं, कि इस देश में तो लोकतन्त्र नहीं, केवल भीड तन्त्र है। इस विचारधारा के लोगों से मेरा सवाल है कि यदि लोकतन्त्र नहीं, भीडतन्त्र है तो केवल दो प्रतिशत लोगों के हाथ में इस देश की सत्ता और संसाधन क्यों हैं? भीडतन्त्र का प्रभाव दिखाई क्यों नहीं देता? भीडतन्त्र के पास तो सत्ता की चाबी होती है, फिर भी भीडतन्त्र इन दो प्रतिशत लोगों को सत्ता एवं संसाधनों से बेदखल क्यों नहीं कर पा रहा है? इन सवालों के उत्तर तलाशने पर पता चलेगा कि न तो इस देश में सच्चे अर्थों में लोकतन्त्र है और न हीं इस देश की ताकत भीडतन्त्र के पास है!

उपरोक्त परिप्रेक्ष में नक्सलवाद को समझने के लिये हमें आदिवासियों के बारे में भी कुछ मौलिक बातों को समझना बहुत जरूरी है, क्योंकि अधिसंख्य लोगों द्वारा यह झूठ फैलाया जा रहा है कि केवल आदिवासी ही नक्सलवाद का संवाहक है! वर्तमान में आदिवासी की दशा, इस देश में सबसे बुरी है। इस बात को स्वयं भारत सरकार के आँकडे ही प्रमाणित करते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि आजादी के बाद से आज तक आदिवासी का केवल शोषण ही शोषण किया जाता रहा है। मैं एक ऐसा कडवा सच उद्‌घाटित करने जा रहा हँू, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं! वो यह कि आजादी के बाद से दलित नेतृत्व ने भी आदिवासी वर्ग का जमकर शोषण, अपमान एवं तिरस्कार किया है। आदिवासियों के साथ दलित नेतृत्व ने हर मार्चे पर कुटिल विभेद किया है। इसकी भी वजह है। आदिवासियों के शोषण का हथियार स्वयं सरकार ने दलित नेतृत्व के हाथ में थमा दिया है।

इस देश के संविधान में अनुसूचित जाति (दलित) एवं अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) नाम के दो आरक्षित वर्ग प्रारम्भ से ही बनाये गये हैं। जिन्हें संक्षेप में एससी एवं एसटी कहा जाता है। यही संक्षेपीकरण सम्पूर्ण आदिवासियों का और इस देश के इंसाफ पसन्द लोगों का दुर्भाग्य है। इन एससी एवं एसटी दो संक्षेप्ताक्षरों को आजादी के बाद से आज तक इस देश के सभी राजनेताओं और नौकरशाहों ने पर्यायवाची की तरह प्रयोग किया है। इन दोनों वर्गों के उत्थान के लिये बनायी गयी नीतियों में कहीं भी इन दोनों वर्गों के लिये अलग-अलग नीति बनाने पर ध्यान नहीं दिया गया।

सरकार की कुनीतियों के चलते, एससी एवं एसटी वर्गों के कथित हितों के लिये काम करने वाले सभी संवैधानिक, सरकारी, संसदीय, गैर-सरकारी एवं समाजिक प्रकोष्ठों पर देशभर में केवल एससी के लोगों ने ऐसा कब्जा जमाया कि आदिवासियों के हित दलित नेतृत्व के यहाँ गिरवी हो गये। दलित नेतृत्व ने एससी एवं एसटी के हितों की रक्षा एवं संरक्षण के नाम पर केवल एससी के हितों का ध्यान रखा। केन्द्र या राज्यों की सरकारों द्वारा तो यह तक नहीं पूछा जाता कि एससी एवं एसटी वर्गों के अलग-अलग कितने लोगों या जातियों या समाजों का उत्थान किया गया? ०९ प्रतिशत मामलों में इन दोनों वर्गों की प्रगति रिपोर्ट भेजने वाले और उनका सत्यापन करने वाले दलित होते हैं। जिन्हें आमतौर पर इस बात से कोई सारोकार नहीं होता कि आदिवासियों के हितों का संरक्षण हो रहा है या नहीं और आदिवासियों के लिये स्वीकृत बजट दलितों के हितों पर क्यों खर्चा जा रहा है या क्यों लैप्स हो रहा है?

आदिवासियों के उत्थान की कथित योजनाओं के क्रियान्वयन के लिये ऐसे लोगों को जिम्मेदारी दी जाती रही है, जो आदिवासियों की पृष्ठभूमि को एवं आदिवासियों की समस्याओं के बारे में तो कुछ नहीं जानते, लेकिन यह अच्छी तरह से जानते हैं कि बिना कुछ किये आदिवासियों के लिये आवण्टित फण्ड को हजम कैसे किया जाता है! ऐसे ब्यूरोके्रट्‌स को दलित नेतृत्व का पूर्ण समर्थन मिलता रहा है। स्वाभाविक है कि उन्हें भी इसमें से हिस्सेदारी मिलती होगी? यहाँ यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि दलित नेतृत्व में सभी लोग आदिवासियों के विरोधी या दुश्मन नहीं हैं, बल्कि आम दलित तो आज भी आदिवासी के प्रति बेहद संवेदनशील है।
यही नहीं यह जानना भी जरूरी है कि एक जाति विशेष के कुछेक चालाक लोगों ने एससी एवं एसटी वर्गों की कथित एकता के नाम पर हर जगह कभी न समाप्त किया जा सकने वाला कब्जा जमा रखा है। ये लोग एससी की अन्य कमजोर (संख्याबल में) जातियों के भी शोषक हैं। आदिवासी भी प्रशासन में संख्यात्मक दृष्टि से दलितों की तुलना मे आधे से भी कम है। जिस देश में हर जाति एक राष्ट्रीय पहचान रखती हो, उस देश में एक वर्ग में बेमेल जातियों को शामिल कर देना और संवैधानिक रूप से दो भिन्न वर्गों (एससी एवं एसटी) को एक ही डण्डे से हाँकना, किस बेवकूफ की नीति है? यह तो सरकार ही बतला सकती है, लेकिन यह सही है कि आदिवासी की पृष्ठभूमि एवं जरूरत को आज तक न तो समझा गया है और न हीं इस दिशा में सार्थक पहल की जा रही है।

दूसरी ओर इस देश के केवल दो प्रतिशत लोग लच्छेदार अंग्रेजी में दिये जाने वाले तर्कों के जरिये इस देश को लूट रहे हैं और 98 प्रतिशत लोगों को मूर्ख बना रहे हैं। मुझे तो यह जानकर आश्चर्य हुआ कि इन दो प्रतिशत लोगों में हत्या जैसे जघन्य अपराध करने वालों की संख्या तुलनात्मक दृष्टि से कई गुनी है, लेकिन उनमें से किसी बिरले को ही कभी फांसी की सजा सुनाई गयी होगी? इसके पीछे भी कोई न कोई कुटिल समझ तो काम कर ही रही है। अन्यथा ऐसा कैसे सम्भव है कि अन्य 98 प्रतिशत लोगों को छोटे और कम घिनौने मामलों में भी फांसी का हार पहना कर देश के कानून की रक्षा करने का फर्ज बखूबी निभाया जाता रहा है। यदि किसी को विश्वास नहीं हो तो सूचना अधिकार कानून के तहत सुप्रीम कोर्ट से आंकडे प्राप्त करके स्वयं जाना जा सकता है कि किस-किस जाति के, कितने-कितने लोगों ने एक साथ एक से अधिक लोगों की हत्या की और उनमें से किस-किस जाति के, कितने-कितने लोगों को फांसी की सजा दी गयी और किनको चार-पाँच लोगों की बेरहमी से हत्या के बाद भी केवल उम्रकैद की सजा सुनाई गयी? आदिवासियों को सुनाई गयी सजाओं के आंकडों की संख्या देखकर तो कोई भी संवेदनशील व्यक्ति सदमाग्रस्त हो सकता है!

यही नहीं आप आँकडे निकाल कर पता कर लें कि किस जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार अधिक होते हैं? किस जाति के लोग बलात्कार अधिक करते हैं और किस जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार होने पर सजा दी जाती है एवं किस जाति की महिला के साथ बलात्कार होने पर मामला पुलिस के स्तर पर ही रफा-दफा कर दिया जाता है या अदालत में जाकर कोई सांकेतिक सजा के बाद समाप्त हो जाता है?

आप यह भी पता कर सकते हैं कि इस देश के दो प्रतिशत महामानवों के मामलों में प्रत्येक स्तर पर कितनी जल्दी न्याय मिलता है, जबकि शेष 98 प्रतिशत के मामलों में केवल तारीख और तारीख बस! मानव अधिकार आयोग, महिला आयोग आदि के द्वारा सुलटाये गये मामले उठा कर देखें, इनमें कितने लोगों को न्याय या मदद मिलती है? यहाँ पर भी जाति विशेष एवं महामानव होने की पहचान काम करती है। पेट्रोल पम्प एवं गैस ऐजेंसी किनको मिल रही हैं? अफसरों में जिनकी गोपनीय रिपोर्ट गलत या नकारात्मक लिखी जाती है, उनमें किस वर्ग के लोग अधिक हैं तथा नकारात्मक गोपनीय रिपोर्ट लिखने वाले कौन हैं? संघ लोक सेवा आयोग द्वारा कौनसी दैवीय प्रतिभा के चलते केवल दो प्रतिशत लोगों को पचास प्रतिशत से अधिक पदों पर चयनित किया जाता रहा है? जानबूझकर और दुराशयपूर्वक मनमानी एवं भेदभाव करने की यह फेहरिस्त बहुत लम्बी है!

ऐसी असंवेदनशील, असंवैधानिक, विभेदकारी और मनमानी प्रशासनिक व्यवस्था एवं शोषक व्यवस्था में आश्चर्य इस बात का नहीं होना चाहिये कि नक्सनवाद क्यों पनप रहा है, बल्कि आश्चर्य तो इस बात का होना चाहिये कि इतना अधिक क्रूरतापूर्ण दुर्व्यवहार होने पर भी केवल नक्लवाद ही पनप रहा है? लोग अभी भी आसानी से जिन्दा हैं? अभी भी लोग शान्ति की बात करने का साहस जुटा सकते हैं? लोगों को इतना होने पर भी लोकतन्त्र में विश्वास है?

एक झूट की ओर भी पाठकों का ध्यान खींचना जरूरी है, वह यह कि नक्लवादियों के बारे में यह कु-प्रचारित किया जाता रहा है कि नक्सली केवल आदिवासी हैं! जबकि सच्चाई यह है कि हर वर्ग का, हर वह व्यक्ति जिसका शोषण हो रहा है, जिसकी आँखों के सामने उसकी माँ, बहन, बेटी और बहू की इज्जत लूटी जा रही है, नक्सलवादी बन रहा है! कल्पना करके देखें माता-पिता की आँखों के सामने उनकी 13 से 16 वर्ष की उम्र की लडकी का सामूहिक बलात्कार किया जाता है और स्थानीय पुलिस उनकी रिपोर्ट तक दर्ज नहीं करती! स्थानीय जन-प्रतिनिधि आहत परिवार को संरक्षण देने के बजाय बलात्कारियों को पनाह देते हैं! तहसीलदार से लेकर राष्ट्रपति तक गुहार करने के बाद भी कोई सुनवाई नहीं होती है। ऐसे हालात में ऐसे परिवार के माता-पिता या बलात्कारित बहनों के भाईयों को क्या करना चाहिये? इस सवाल का उत्तर इस देश के संवेदनशील और इंसाफ में आस्था एवं विश्वास रखने वाले पाठकों से अपेक्षित है।

दूसरी तस्वीर, अपराध कोई ओर (बलशाली) करता है और पुलिस द्वारा दोषी से धन लेकर या अन्य किसी दुराशय से किसी निर्दोष को फंसा दिया जाता है। बेकसूर होते हुए भी वह कई वर्षों तक जेल में सडता रहता है। इस दौरान जेल गये व्यक्ति का परिवार खेती, पशु आदि सब बर्बाद हो जाते हैं। उसकी पत्नी और, या युवा बहन या बेटी को अगवा कर लिया जाता है। या उन्हें रखैल बनाकर रख लिया जाता है। अनेक बार तो 15 से 20 वर्ष के युवाओं को ऐसे मामलों में फंसा दिया जाता है और उनकी सारी जवानी जेल में ही समाप्त हो जाती है। जब कोई सबूत नहीं मिलता है तो वर्षों बाद अदालत इन्हें रिहा कर देती है, लेकिन ऐसे लोगों का न तो कोई मान सम्मान होता है और न हीं इनके जीवन का कोई मूल्य होता है। इसलिये अकारण वर्षों जेल में रहने के उपरान्त भी इनको किसी भी प्रकार का मुआवजा मिलना तो दूर, ये लोग जानते ही नहीं कि मुआवजा है किस चिडिया का नाम!

हम सभी जानते हैं कि सरकार को गलत ठहराकर, सरकार से मुआवजा प्राप्त करना लगभग असम्भव होता है। इसीलिये सरकार से मुआवजा प्राप्त करने के लिये अदालत की शरण लेनी पडती है, जिसके लिये वकील नियुक्त करने के लिये जरूरी दौलत इनके पास होती नहीं और इस देश की कानून एवं न्याय व्यवस्था बिना किसी वकील के ऐसे निर्दोष को, निर्दोष करार देकर भी सुनना जरूरी नहीं समझती है। इसके विपरीत अनेक ऐसे मामले भी इस देश में हुए हैं, जिनमें अदालत स्वयं संज्ञान लेकर मुआवजा प्रदान करने के आदेश प्रदान करती रही हैं, लेकिन किसी अपवाद को छोडकर ऐसे आदेश केवल उक्त उल्लिखित दो प्रतिशत लोगों के पक्ष में ही जारी किये जाते हैं।

मुझे याद आता है कि एक जनहित के मामले में एक सामाजिक कार्यकर्ता ने अपने राज्य के उच्च न्यायालय को अनेक पत्र लिखे, लेकिन उन पर कोई संज्ञान नहीं लिया गया, जबकि कुछ ही दिन बाद उन पत्रों में लिखा मामला एक दैनिक में प्रकाशित हुआ और उच्च न्यायालय ने स्वयं संज्ञान लेकर उसे जनहित याचिका मानकर हाई कोर्ट के तीन वकीलों का पैनल उसकी पैरवी करने के लिये नियुक्त कर दिया। अगले दिन दैनिक में हाई कोर्ट के बारे में बडे-बडे अक्षरों में समाचार प्रकाशित हुआ और हाई कोर्ट द्वारा संज्ञान लिये जाने के पक्ष में अखबार द्वारा सदीके पढे गये। इन हालातों में अन्याय, भेदभाव और क्रूरतापूर्ण दुर्व्यवहार के चलते पनपने वाले नहीं, बल्कि जानबूझकर पनपाये जाने वाले नक्सलवाद को, जो लोग इस देश की सबसे बडी समस्या बतला रहे हैं, असल में वे स्वयं ही इस देश की सबसे बडी समस्या हैं!

जैसा कि वर्तमान में सरकार द्वारा नक्सलियों के विरुद्ध संहारक अभियान चलाया जा रहा है, उस अभियान के मार्फत नक्लवादियों को मारकर इस समस्या से कभी भी स्थायी रूप से नहीं निपटा जा सकता, क्योंकि बीमार को मार देने से बीमारी को समाप्त नहीं किया जा सकता। यदि बीमारी के कारणों को ईमानदारी से पहचान कर, उनका ईमानदारी से उपचार करें तो नक्सलवाद क्या, किसी भी समस्या का समाधान सम्भव है, लेकिन अंग्रेजों द्वारा कुटिल उद्देश्यों की पूर्ति के लिये स्थापित आईएएस एवं आईपीएस व्यवस्था के भरोसे देश को चलाने वालों से यह आशा नहीं की जा सकती कि नक्सलवाद या किसी भी समस्या का समाधान सम्भव है! कम से कम डॉ. मनमोहन सिंह जैसे पूर्व अफसरशाह के प्रधानमन्त्री रहते तो बिल्कुल भी आशा नहीं की जा सकती।-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'