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Friday, January 9, 2015

स्त्री का पुरुषोचित आचरण सबसे बड़ी मूर्खता है।--डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

स्त्री का पुरुषोचित आचरण सबसे बड़ी मूर्खता है।--डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

स्त्री और पुरुष का के बीच लैंगिक अंतर तो प्रकृति की अनुपम दैन है! इसको स्त्री की कमजोरी और पुरुष की ताकत समझना, पुरुष की सबसे बड़ी मूर्खता है और इसे अपनी कमजोरी मानकर, इसे छुपाने के लिए स्त्री द्वारा पुरुषोचित व्यवहार या आचरण करना उससे भी बड़ी मूर्खता है।
केवल भारत में ही नहीं, बल्कि सारे विश्व में हमारे पुरुष प्रधान समाज की कुछ मूलभूत समस्याएँ हैं। भारत में हजारों सालों से अमानवीय मनुवादी कुव्यवस्था के चंगुल में रही है। जिसमें स्त्री की मानवीय संवेदनाओं तक को क्रूरता से कुचला जाता रहा है। ऎसी ऐतिहासिक प्रष्ठभूमि में स्त्री और पुरुष के बीच भारत में अनेक प्रकार की वैचारिक, सामाजिक और व्यवहारगत समस्याएं विशेष रूप से देखने को मिलती हैं। जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

1-पुरुष का स्त्री के प्रति हीनता का विचार और स्त्री को परुष से कमतर मानने का अहंकारी सोच। 

2-पुरुष का स्त्री के प्रति पूर्वाग्रही और रुग्णता पर आधारित स्वनिर्मित अवधारणाएं। 

3-स्त्री द्वारा स्त्री को प्रकृति प्रदत्त अनुपम उपहार स्त्रीत्व और प्रजनन को स्त्री जाति की कमजोरी समझने का असंगत, किन्तु संस्कारगत विचार। 

4-स्त्री का पुरुष द्वारा निर्मित धारणाओं के अनुसार खुद का, खुद को कमतर आकलन करने का संकीर्ण, किन्तु संस्कारगत नजरिया। 

5-इसी के साथ-साथ स्त्री का खुद को पुरुष की बराबरी करने का अव्यावहारिक और असंगत विचार भी बड़ी समस्या है, क्योंकि न पुरुष स्त्री की बराबरी कर सकता है और न ही स्त्री पुरुष की बराबरी कर सकती है। 

6-स्त्री को पुरुष की या पुरुष को स्त्री की बराबरी करने की जरूरत भी नहीं होनी चाहिए। बराबरी करने की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि दोनों अपने आप में अनूठे हैं और दोनों एक दूसरे के बिना अ-पूर्ण हैं।

7-स्त्री और पुरुष की पूर्णता आपसी प्रतिस्पर्धा या एक दूसरे को कमतर या श्रेष्ठतर समझने में नहीं, बल्कि सम्मानजनक मिलन, सहयोग और सहजीवन में ही है। 

8-एक स्त्री का स्त्रैण और पुरुष का पौरुष दोनों में प्रकृतिदत्त अनूठा और विपरीतगामी स्वभावगत अद्वितीय गौरव है। 

9-स्त्री और पुरुष दोनों में बराबरी की बात सोचना ही बेमानी हैं। दोनों प्रकृति ने ही भिन्न बनाये हैं, लेकिन इसका अर्थ किसी का किसी से कमतर या हीनतर या उच्चतर या श्रेष्ठतर का विचार अन्याय पूर्ण है। दोनों अनुपम हैं, दोनों अनूठे हैं।

10-स्त्री और पुरुष की सोचने और समझे की मानसिक और स्वभावगत प्रक्रिया और आदतें भी भिन्न है। 

11-यद्यपि पुरुष का दिमांग स्त्री के दिनाग से दस फीसदी बड़ा होता है, लेकिन पुरुष के दिमांग का केवल एक बायाँ (आधा) हिस्सा ही काम करता है। जबकि स्त्री के दिमांग के दोनों हिस्से बराबर और लगातार काम करते रहते हैं। इसीलिए तुलनात्मक रूप से स्त्री अधिक संवेदनशील होती हैं और पुरुष कम संवेदनशील! स्त्रियों को "बात-बात पर रोने वाली" और "मर्द रोता नहीं" जैसी सोच भी इसी भिन्नता का अनुभवजन्य परिणाम है। बावजूद इसके पुरुष और खुद स्त्रियाँ भी, स्त्री को कम बुद्धिमान मानने की भ्रांत धारणा से ग्रस्त हैं।

12-यदि बिना पूर्वाग्रह के अवलोकन और शोधन किया जाये तो स्त्री और पुरुष की प्रकृतिगत वैचारिक और बौद्धिक भिन्नता उनके दैनिक जीवन के व्यवहार और आचरण में आसानी से देखी-समझी जा सकती है।
कुछ उदाहरण-
  • (1) स्त्रियों को ऐसे मर्द पसंद होते हैं, जो खुलकर सभी संवेदनशील परेशानी और बातें स्त्री से कहने में संकोच नहीं करें, जबकि इसके ठीक विपरीत पुरुष खुद तो अपनी संवेदनाओं को व्यक्त नहीं करना चाहते और साथ ही वे कतई भी नहीं चाहते कि स्त्रियाँ अपनी संवेदनाओं (जिन्हें पुरुष समस्या मानते हैं) में पुरुषों को उलझाएँ। 
  • (1) स्त्री के साथ, पुरुष की प्रथम प्राथमिकता प्यार नहीं, स्त्री को सम्पूर्णता से पाना है। स्त्री को हमेशा के लिए अपने वश में, अपने नियंत्रण में और अपने काबू में करना एवं रखना है। प्यार पुरुष के लिए द्वितीयक (बल्कि गौण) विषय है। आदिकाल से पुरुष स्त्री को अपनी निजी अर्जित संपत्ति समझता रहा है, (इस बात की पुष्टि भारतीय दंड संहिता की धारा 497 से भी होती है, जिसमें स्त्री को पुरुष की निजी संपत्ति माना गया गया है), जबकि स्त्री की पहली प्राथमिकता पुरुष पर काबू करने के बजाय, पुरुष का असीमित प्यार पाना है (जो बहुत कम को नसीब होता है) और पुरुष से निश्छल प्यार करना है। अपने पति या प्रेमी को काबू करना स्त्री भी चाहती है, लेकिन ये स्त्री की पहली नहीं, अंतिम आकांक्षा है। यह स्त्री की द्रष्टि में उसके प्यार का स्वाभाविक प्रतिफल है।  
  • (3) विश्वभर के मानव व्यवहार शास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि स्त्री प्यार में ठगी जाने के कुछ समय बाद फिर से खुद को संभालने में सक्षम हो जाती हैं, जबकि पुरुषों के लिए यह बहुत असम्भव या बहुत ही मुश्किल होता है। (इस विचार से अनेक पाठक असहमत हो सकते हैं, मगर अनेकों बार किये गए शोध, हर बार इस निष्कर्ष की पुष्टि करते रहे हैं।)
  • (4) पुरुष अनेक महत्वपूर्ण दिन और तारीखों को (जैसे पत्नी का जन्म दिन, विवाह की वर्ष गाँठ आदि) भूल जाते हैं और पुरुष इन्हें साधारण भूल मानकर इनकी अनदेखी करते रहते हैं, जबकि स्त्रियों के लिए हर छोटी बात, दिन और तारिख को याद रखना आसान होता है। साथ ही ऐसे दिन और तरीखों को पुरुष (पति या प्रेमी) द्वारा भूल जाना स्त्री (पत्नी या प्रेमिका) के लिए अत्यंत असहनीय और पीड़ादायक होता है। जो पारिवारिक कलह और विघटन के कारण भी बन जाते हैं। 
  • (5) स्त्रियाँ चाहती हैं कि उनके साथ चलने वाला उनका पति या प्रेमी, अन्य किसी भी स्त्री को नहीं देखे, जबकि राह चलता पुरुष अपनी पत्नी या प्रेमिका के आलावा सारी स्त्रियों को देखना चाहता है। यही नहीं स्त्रियाँ भी यही चाहती हैं कि राह चलते समय हर मर्द की नजर उन्हीं पर आकर टिक जाये। स्त्रियाँ खुद भी कनखियों से रास्तेभर उनकी ओर देखने वाले हर मर्द को देखती हुई चलती हैं, मगर स्त्री के साथ चलने वाले पति या प्रेमी को इसका आभास तक नहीं हो पाता। 
12-कालांतर में समाज ने स्त्री और पुरुष दोनों के समाजीकरण (लालन-पालन-व्यवहार और कार्य विभाजन) में जो प्रथक्करण किया गया, वास्तव में वही आज के समय की बड़ी मुसीबत है और इससे भी बड़ी मुसीबत है, स्त्री का आँख बंद करके पुरुष की बराबरी करने की मूर्खतापूर्ण लालसा! गहराई में जाकर समझें तो यह केवल लालसा नहीं, बल्कि पुरुष जैसी दिखने की उसकी हजारों सालों से दमित रुग्ण आकांक्षा है! क्योंकि हजारों सालों से स्त्री पुरुष पर निर्भर रही है, बल्कि पुरुष की गुलाम जैसी ही रही है। इसलिए वह पुरुष जैसी दिखकर पुरुष पर निर्भरता से मुक्ति पाने की मानसिक आकांक्षी होने का प्रदर्शन करती रहती है। 

13-एक स्त्री जब अपने आप में प्रकृति की पूर्ण कृति है तो उसे अपने नैसर्गिक स्त्रैण गुणों को दबाकर या छिपाकर या कुचलकर पुरुष जैसे बनने या दिखने या दिखाने का असफल प्रयास करके की क्या जरूरत है? इस तथ्य पर विचार किये बिना, स्त्री के लिए अपने स्त्रैणत्व के गौरव की रक्षा करना असंभव है।

14-बेशक जेनेटिक कारण भी स्त्री और पुरुष दोनों को जन्म से मानसिक रूप से भिन्न बनाते हैं। लेकिन स्त्री और पुरुष प्राकृतिक रूप से अ-समान होकर भी एक-दूसरे से कमतर या उच्चतर व्यक्तित्व नहीं, बल्कि एक दूसरे के सम्पूर्णता से पूरक हैं। स्त्रैण और पौरुष दोनों के अनूठे और मौलिक गुण हैं। 

15-हम शनै-शनै समाजीकरण की प्रक्रिया में कुछ बदलाव अवश्य ला सकते हैं। यदि इसे हम आज शुरू करते हैं तो असर दिखने में सदियाँ लगेंगी। मगर बदलाव स्त्री या पुरुष की निजी महत्वाकांक्षा या जरूरत पूरी करने के लिए नहीं, बल्कि दोनों के जीवन की जीवन्तता को जिन्दादिल बनाये रखने के लिए होने चाहिए।

16-समाज शास्त्रियों या समाज सुधारकों या स्त्री सशक्तिकरण के समर्थकों या पुरुष विरोधियों की द्रष्टि में कुछ सामाजिक सुधारों की तार्किक जरूरत सिद्ध की जा सकती है। लेकिन कानून बनाकर या सामाजिक निर्णयों को थोपकर इच्छित परिणाम नहीं मिल सकते। बदलाव तब ही स्वागत योग्य और परिणामदायी समझे जा सकते हैं, जबकि हम उन्हें स्त्री-पुरुष के मानसिक और सामाजिक द्वंद्व से निकलकर, एक इन्सान के रूप में सहजता और सरलता से आत्मसात और अंगीकार करके जीने में फक्र अनुभव करें। 

18-अंत में यही कहा जा सकता है कि स्त्री और पुरुष का के बीच लैंगिक अंतर तो प्रकृति की अनुपम दैन है! इसको स्त्री की कमजोरी और पुरुष की ताकत समझना, पुरुष की सबसे बड़ी मूर्खता है और इसे अपनी कमजोरी मानकर, इसे छुपाने के लिए स्त्री द्वारा पुरुषोचित व्यवहार या आचरण करना उससे भी बड़ी मूर्खता है।

-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'-098750-66111

Friday, November 9, 2012

अनर्गल बयानबाजी का कड़वा सच?

कोई पुरानी पत्नी को मजा रहित बतलाये या कोई किसी की पत्नी को पचास करोड़ गर्लफ्रेंड कहे| चाहे कोई किसी को बन्दर कहे! चाहे कोई राम को अयोग्य पति कहे या कोई राधा को रखैल| चाहे कोई दाऊद और विवेकानंद को एक तराजू में तोले या कोई मंदिरों से शौचालयों को पवित्र बतलाये! इन सब अनर्गल बातों को रोक पाना अब लगभग मुश्किल सा हो गया है! क्योंकि हम ही लोगों ने दुष्टों को महादुष्ट और महादुष्टों को मानव भक्षक बना दिया है और इन सभी के आगे हम और हमारे तथाकथित संरक्षक जनप्रतिनिधी पूंछ हिलाते देखे जा सकते हैं|

Thursday, February 11, 2010

सरकारी यात्रा पर पत्नी का क्या काम?

एक दूसरा पहलु भी विचारणीय है और वह यह कि देश या विदेश में सरकारी यात्राओं पर जाने वाले मन्त्री, सांसद या उच्च अधिकारों के साथ जाने वाले पीए, सीए, पीएस आदि को सरकारी दायित्वों का निर्वाह करना होता है, लेकिन उन्हें अपने साथ अपनी पत्नी या पति को ले जाने की कोई अनुमति नहीं होती है, आखिर क्यों? क्या छोटे पदों पर आसीन लोगों को पत्नी के भावनात्मक सामीप्य की जरूरत नहीं होती है।केवल बडे लोगों का ही मानसिक स्तर कमजोर होता है, जिन्हें सहारा देने के लिये उनके साथ में उनकी पत्नी या पति को सरकारी खर्चे पर यात्रा करने की अनुमति दी जाती है? इन सवालों के जवाब देश की जनता मांग रही है और आज नहीं तो कल इन सवालों के जवाब देने ही होंगे। आखिर लोगों के खून-पसीने की गाढी कमाई को मन्त्रियों, सांसदों और अफसरों के पति या पत्नी के सैर-सपाटे के बर्बाद करते हुए कोई कैसे सहन कर सकता है। यह आम करदाता के साथ धोखा है। जिसके लिये ऐसे कानून बना कर राजस्व की बर्बादी करने वालों को जवाबदेह होना चाहिये।
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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
हमारे देश में सुख-सुविधाओं के नाम पर सरकारी धन को लूटने की होड सी चल निकली है। किसी न किसी बहाने से लोग सरकारी धन को लूटने का रास्ता खोज लेते हैं। इनमें बडे ओहदेदार ही आगे हैं। जिनके पास पहले से ही बहुत है, उन्हीं को और धन उपलब्ध करवाया जा रहा है। यही नहीं, बल्कि छोटे समझे जाने वाले लोगों के पास आर्थिक संसाधन नहीं है, उन्हें और वंचित करने के प्रयास भी साथ-साथ जारी हैं। ऐसा ही एक उदाहरण सामने आया है जो देश की सबसे बडी अदालत के सबसे बडे न्यायाधीश से जुडा हुआ है। इसलिये इस बारे में चर्चा होना तो स्वाभाविक ही है।

इस सम्बन्ध में एक सबसे बडा सवाल यह है कि सरकारी यात्रा पर जाने वाले राज नेताओं या अफसरों के साथ उनकी पत्नियों का जाना व्यक्तिगत तौर पर और कानून तौर पर तो हक है और इसे न तो कोई नकार सकता है और न हीं इसे रोका जा सकता है। लेकिन समस्या तब पैदा होती है, जबकि ऐसी सरकारी यात्रा पर जाने वाले मन्त्री, राजनेता या अफसर के साथ जाने वाली उसकी पत्नी या उसके परिवार के लोगों का किरया, रहना, खाना आदि का भुगतान राष्ट्रीय कोश से किया जाता है। क्यों आखिर क्यों सरकारी यात्रा पर किसी की भी पत्नी का क्या काम है? क्या हित होता राष्ट्र का पत्नियों से या पत्नी अधिकारियों या मन्त्राणियों के साथ में उनके पति के जाने से राष्ट्र को कोई लाभ नहीं होता। इसलिये साथ में जाने वाले पति या पत्नी का खर्चा सरकारी खजाने से उठाना देश के लोगों की गाढी कमाई की खुलेआम बर्बादी के अलावा कुछ भी नहीं है।

कुछ लोगों का तर्क होता है कि लम्बी यात्राओं के दौरान यदि पति के साथ पत्नी या पत्नी के साथ पति जाता है तो दोनों को भावनात्मक विछोह अनुभव नहीं होता है और इससे उनका मानसिक स्वास्थ्य ठीक बना रहता है। जिसके चलते जिस उद्देश्य के लिये यात्रा की जाती है, उसके सकारात्मक परिणाम की अधिक आशा की जा सकती है। इसलिये पत्नी के साथ पति और पति के साथ पत्नी का जाना कहीं न कहीं राष्ट्रीय हित में है। इस प्रकार के तर्क (जिन्हें कुतर्क कहा जाना चाहिये) के सहारे पति अपनी पत्नी को और पत्नी अपने पति को अपने साथ देश और विदेश में सैर कराने के लिये अपने साथ ले जाने और सैर का सारा खर्चा देश के राजस्व से उठाने का कानूनी अधिकार पा लेते हैं। साथ ही ऐसे तर्कों के आधार पर सिद्ध कर दिया जाता है कि यह सब जरूरी है।

इसी का परिणाम है कि पिछले दिनों देश की सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीश की पत्नी, उनके साथ विदेश यात्रा पर गयी, जिसका खर्चा सरकार ने उठाया और यात्रा से लौटने के बाद मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय की ओर से भारत सरकार को लिखा गया कि मुख्य न्यायाधीश की पत्नी के विदेश दौरे की अवधि के टीए एवं डीए का भुगतान किया जाये और इस दौरान हुए खर्च सरकार को उठाने चाहिए?यपि यह स्पष्ट नहीं है कि यह मांग मुख्य न्यायाधीश के कहने पर की है या फिर उच्चतम न्यायालय के प्रशासनिक कार्यालय द्वारा अपनी ओर से की गयी है। भारत सरकार की ओर से मुख्य न्यायाधीश के साथ में उनकी पत्नी को सरकारी खर्चे पर हवाई यात्रा की मंजूरी दी गयी थी और शेष सभी खर्चे स्वयं मुख्य न्यायाधीश को अपनी जेब से वहन करने थे, लेकिन भारत सरकार को लिखा गया है कि मुख्य न्यायाधीश की गत वर्ष 12 से 18 अक्तूबर के दौरान डबलिन और लंदन की यात्रा के दौरान जो खर्चा उनकी पत्नी पर किया गया उसकी भी भरपाई की जानी चाहिये। जिसे टीए एवं डीए के रूप में मांगा गया है। भारत सरकार की ओर से अभी तक इसकी मंजूरी नहीं दी गयी है, लेकिन मंजूरी दी भी जा सकती है। वातानुकूलित कमरों में बैठे ब्यूरोक्रेट इसे अपने अनुकूल पाकर, निर्णय ले सकते हैं कि जिन कारणों से मुख्य न्यायाधीश की पत्नी को सरकारी खर्चे पर हवाई यात्रा की मंजूरी दी गयी उन्हीं के आधार पर उन्हें टीए एवं डीए का भी भुगतान किया जा सकता है। यदि विधि मन्त्रालय इसे मंजूरी दे देता है तो भविष्य सभी पतियों के साथ जाने वाली पत्नियों के लिये भी टीए एवं डीए प्राप्त करने का कानूनी मार्ग खुल जायेगा। देखना होगा कि इस बारे में ब्यूराक्रेसी फ़ाइल पर कैसी टिप्पणी लिखती है?

जबकि एक दूसरा पहलु भी विचारणीय है और वह यह कि देश या विदेश में सरकारी यात्राओं पर जाने वाले मन्त्री, सांसद या उच्च अधिकारों के साथ जाने वाले पीए, सीए, पीएस आदि को सरकारी दायित्वों का निर्वाह करना होता है, लेकिन उन्हें अपने साथ अपनी पत्नी या पति को ले जाने की कोई अनुमति नहीं होती है, आखिर क्यों? क्या छोटे पदों पर आसीन लोगों को पत्नी के भावनात्मक सामीप्य की जरूरत नहीं होती है।केवल बडे लोगों का ही मानसिक स्तर कमजोर होता है, जिन्हें सहारा देने के लिये उनके साथ में उनकी पत्नी या पति को सरकारी खर्चे पर यात्रा करने की अनुमति दी जाती है? इन सवालों के जवाब देश की जनता मांग रही है और आज नहीं तो कल इन सवालों के जवाब देने ही होंगे। आखिर लोगों के खून-पसीने की गाढी कमाई को मन्त्रियों, सांसदों और अफसरों के पति या पत्नी के सैर-सपाटे के बर्बाद करते हुए कोई कैसे सहन कर सकता है। यह आम करदाता के साथ धोखा है। जिसके लिये ऐसे कानून बना कर राजस्व की बर्बादी करने वालों को जवाबदेह होना चाहिये।

Wednesday, November 11, 2009

बेवफा पत्नी को क्यों मिले गुजारा भत्ता?


डॉ. पुरुषोत्तम मीणा

स्वयं स्त्रियों को ही आगे आकर इस कानून के सम्भावित बदलाव का विरोध करना चाहिए, क्योंकि यदि कानून में प्रस्तावित बदलाव हो जाता है तो इससे स्त्रियाँ पुरुष के वंश के संचालन के लिये उपलब्ध विश्वास को खा सकती हैं। इसके बाद स्त्रियों के चरित्र पर सन्देह गहरा सकता है। स्त्री यौन-पवित्रता जैसे पवित्र आभूषण को खो सकती हैं। यही नहीं, ऐसा होने पर हमें परिवार की परिभाषा भी नई बनानी पड़ सकती है!अतः समय रहते न मात्र कानूनविदों को ही, बल्कि इस विषय पर समाजशास्त्रियों को भी चिन्तन मनन करके, किसी भी प्रकार का निर्णय लेने से पूर्व अपनी राय से सरकार को अवगत करना चाहिए। अन्यथा यदि किसी दबाव में और जल्दबाजी में सरकार इस प्रकार के बदलाव के लिए राजी हो जाती है तो यह घोर अनर्थकारी सिद्ध हो सकता है।
नई दिल्ली: राष्ट्रीय महिला आयोग ने भारत सरकार को सुझाव दिया है कि विवाहित पुरुष को न सिर्फ अपनी पत्नी व बच्‍चों, बल्कि सौतेले बच्‍चों व सौतेले अभिभावकों को भी गुजारा भत्ता देना चाहिए। इस तर्क के आधार पर महिला आयोग द्वारा बेवफा पत्नी (पूर्व) को भी पति से गुजारा भत्ता पाने का कानूनी रूप से हकदार बनाने की सलाह दी गई है।

विवाह अधिनियम में यह प्रावधान है कि यदि पत्नी अपने पति से बवफाई करती है तो केवल इसी आधार पर उसे तलाक तो दिया ही जा सकता है। साथ ही साथ ऐसी पत्नी को अपने पूर्व पति से किसी भी प्रकार का गुजारा भत्ता पाने की हकदार भी नहीं रहती है। यह प्रावधान इसलिए किया गया है ताकि पति-पत्नी का सम्बन्ध उसी प्रकार से बना रहे, जिस प्रकार से की वैवाहिक सम्बन्धों के बने रहने की अपेक्षा की जाती रही है। अर्थात्‌ दोनों एक दूसरे के प्रति समर्पित एवं वफादार रहें।


हाँ इस बात में भी कोई दो राय नहीं है कि कुछ मामलों में जब स्वयं पुरुष बेवफा हो, तो वह अपनी पत्नी से पीछा छुड़ाकर दूसरा विवाह रचाने के लिए अपनी पूर्व पत्नी के चरित्र पर को संदिग्ध करार देकर तलाक की अर्जी लगाते हैं। यद्यपि किसी स्त्री या पुरुष के किसी अन्य स्त्री या पुरुष से नाजायज यौन सम्बन्ध हैं, इस तथ्य को अदालत में सिद्ध करना आसान नहीं है। फिर भी जिन कुछ गिने-चुने मामलों में पत्नियों को अदालत के समक्ष बदचरित्र सिद्ध कर दिया जाता है। उन मामलों में पत्नियाँ, अपने पूर्व पति से दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा १२५ के तहत गुजारा भत्तापाने की हकदार नहीं रह जाती हैं।

सम्भवतः इसी प्रावधान के दुरुपयोग की सम्भावना को रोकने के लिए ही राष्ट्रीय महिला आयोग बेवफा सिद्ध की जा चुकी पूर्व पत्नियों को भी गुजारा भत्ता दिलाने के पक्ष में कानून में संशोधन करवाना चाहती हैं। लेकिन देखने वाली बात ये है कि पति और पत्नियाँ दोनों ही आपसी सम्बन्धों में बेवफा भी होते रहें हैं, इस बात को नकारा नहीं जा सकता। पुरुष को तो आमतौर पर पूर्व पत्नी से गुजारा मिलता नहीं, लेकिन यदि पूर्व पत्नियों को अपने पूर्व पति से गुजारा प्राप्त करने का कानून में हक दिया गया था, तो साथ में उसकी पात्रता भी निर्धारित की गयी है।

विधिवेत्ताओं ने कानून के अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित किए हैं, उनमें से एक-कर्त्तव्य एवं अधिकार का सिद्धान्त है। जिसके तहत कहा गया है कि केवल अधिकारों की बात करने से काम नहीं चल सकता, व्यक्ति को अपने दायित्वों का भी बोध होना चाहिए और दायित्वों का निर्वाह नहीं करने पर ऐसे व्यक्ति को उसके हकों से वंचित करने का कड़ा कानून भी होना ही चाहिए। इसी सिद्धान्त के तहत पति से बेवफाई करना वह आधार है, जिसके आधार पर पूर्व पत्नी को गुजारा भत्ता पाने के हक से वंचित किया जाता है, क्योंकि आदि काल से ही समाज एवं कानून द्वारा पत्नी पर अपने पति के प्रति वफादार रहने का कर्त्तव्य अधिरोपित किया गया है। जिसका निर्वाह नहीं करने वाली स्त्रियों को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 (5) में गुजारा भत्ता नहीं देने का भी स्पष्ट प्रावधान किया गया है।

राष्ट्रीय महिला आयोग इसी प्रावधान को हटाने के पक्ष में है। जिसे उक्त कानूनी सिद्धान्तों के प्रकाश में न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता है। केवल इतना ही नहीं, बल्कि महिला आयोग तो यह भी चाहता है कि कानून में पत्नी की परिभाषा का दायरा बढ़ा दिया जाए। जिसके तहत उस स्त्री को भी पत्नी माना जावे, जिसके किसी अन्य व्यक्ति से (विवाह के बाद) वैवाहिक जैसे रिश्ते हैं या जो अपनी शादी को अमान्य करती हो। इसके अलावा आयोग ने किसी बच्‍चों के लिए धारा 125 (आई) (बी) में से अवैध संतान शब्द हटाने की एक अच्छी भी सलाह दी है, जिसे उचित माना जा सकता है। यद्यपि अनेक पुरुष के संगठनों ने आयोग की इन सिफारिशों पर कड़ा ऐतराज जताया है। सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन के विराग धुलिया ने कहा कि ऐसे मामले गुण-दोषों के आधार पर निपटाए जाने चाहिए, न कि लिंगभेद के आधार पर।

मेरा तो यहाँ तक मानना है कि सर्वप्रथम तो अब समय बदल रहा है, स्त्री भी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो रही है। ऐसे हालात में तलाक के बाद गुजारा भत्ता को भी सशर्त बनाये जाने की जरूरत है। उन महिलाओं को गुजारा भत्ता नहीं मिले, जो धन अर्जित करने में अक्षम हों। आखिर यह भी तो विचारणीय तथ्य है कि एडवोकट, हाऊस डेकोरेटर, डाक्टर, आर्चीटेक्ट या ऐसे ही किसी अन्य पेशे को करने के लिए कानूनी रूप से योग्य, निपुण एवं दक्ष महिलाओं को गुजारा भत्ता क्यों दिया जावे? हाँ ऐसा कार्य शुरु करने पर सरकार को ऐसी महिलाओं को न्यूनतम ब्याज दर पर बैंक से ऋण दिलाकर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करने में योगदान देना चाहिए। इससे देश की उत्पादकता बढाने में महिलाओं के हुनर एवं योग्यता का सही दोहन भी हो सकेगा। इससे स्त्रियों का आत्मसम्मान भी बढेगा।

द्वितीय स्वयं स्त्रियों को ही आगे आकर इस कानून के सम्भावित बदलाव का विरोध करना चाहिए, क्योंकि यदि कानून में प्रस्तावित बदलाव हो जाता है तो इससे स्त्रियाँ पुरुष के वंश के संचालन के लिये उपलब्ध विश्वास को खा सकती हैं। इसके बाद स्त्रियों के चरित्र पर सन्देह गहरा सकता है। स्त्री यौन-पवित्रता जैसे पवित्र आभूषण को खो सकती हैं। यही नहीं, ऐसा होने पर हमें परिवार की परिभाषा भी नई बनानी पड़ सकती है!अतः समय रहते न मात्र कानूनविदों को ही, बल्कि इस विषय पर समाजशास्त्रियों को भी चिन्तन मनन करके, किसी भी प्रकार का निर्णय लेने से पूर्व अपनी राय से सरकार को अवगत करना चाहिए। अन्यथा यदि किसी दबाव में और जल्दबाजी में सरकार इस प्रकार के बदलाव के लिए राजी हो जाती है तो यह घोर अनर्थकारी सिद्ध हो सकता है।-लेखक भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।