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Saturday, September 20, 2014

आर्य-वैदिक साहित्य में आदिवासियों के पूर्वजों का राक्षस, असुर, दानव, दैत्य आदि के रूप में उल्लेख

लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

रामायण में असुर की उत्पत्ति का उल्लेख :-

सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:।
अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥

उक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है। चूंकि आर्य लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे। इस कारण आर्यों के कथित देव (देवता) सुर कहलाये और सुरा का पान नहीं करने वाले मूल-भारतवासी असुर (जिन्हें आर्यों द्वारा अदेव कहा गया) कहलाये। जबकि इसके उलट यदि आर्यों द्वारा रचित वेदों में उल्लिखित सन्दर्भों पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि आर्यों के आगमन से पूर्व तक यहॉं के मूल निवासियों द्वारा ‘असुर’ शब्द को विशिष्ठ सम्मान सूचक अर्थ में विशेषण के रूप में उपयोग किया जाता था। क्योंकि संस्कृत में असुर को संधि विच्छेद करके ‘असु+र’ दो हिस्सों में विभाजित किया है और ‘असु’ का अर्थ ‘प्राण’ तथा ‘र’ का अर्थ ‘वाला’-‘प्राणवाला’ दर्शाया गया है।

एक अन्य स्थान पर असुनीति का अर्थ प्राणनीति बताया गया है। ॠग्वेद (10.59.56) में भी इसकी पुष्टि की गयी है। इस प्रकार प्रारम्भिक काल में ‘असुर’ का भावार्थ ‘प्राणवान’ और ‘शक्तिशाली’ के रूप में दर्शाया गया है। केवल इतना ही नहीं, बल्कि अनार्यों में असुर विशेषण से सम्मानित व्यक्ति को इतना अधिक सम्मान व महत्व प्राप्त था कि उससे प्रभावित होकर शुरू-शुरू में आर्यों द्वारा रचित वेदों में (ॠगवेद में) आर्य-वरुण तथा आर्यों के अन्य कथित देवों के लिये भी ‘असुर’ शब्द का विशेषण के रूप में उपयोग किये जाने का उल्लेख मिलता है। ॠग्वेद के अनुसार असुर विशेषण से सम्मानित व्यक्ति के बारे में यह माना जाता जात था कि वह रहस्यमयी गुणों से युक्त व्यक्ति है।

महाभारत सहित अन्य प्रचलित कथाओं में भी असुरों के विशिष्ट गुणों पर प्रकाश डालते हुए उन्हें मानवों में श्रेृष्ठ कोटि के विद्याधरों में शामिल किया गया है।

मगर कालान्तर में आर्यों और अनार्यों के मध्य चले संघर्ष में आर्यों की लगातार हार होती गयी और अनार्य जीतते गये। आर्य लगातार अनार्यों के समक्ष अपमानित और पराजित होते गये। इस कुण्ठा के चलते आर्य-सुरों अर्थात सुरा का पान करने वाले आर्यों के दुश्मन के रूप में सुरों के दुश्मनों को ‘असुर’ कहकर सम्बोधित किया गया। आर्यों के कथित देवताओं को ‘सुर’ लिखा गया है और उनकी हॉं में हॉं नहीं मिलाने वाले या उनके दुश्मनों को ‘असुर’ कहा गया। इस प्रकार यहॉं पर आर्यों ने असुर का दूसरा अर्थ यह दिया कि जो सुर (देवता) नहीं है, या जो सुरा (शराब) का सेवन नहीं करता है-वो असुर है।

लेकिन इसके बाद में ब्राह्मणों द्वारा रचित कथित संस्कृत धर्म ग्रंथों में असुर, दैत्य एवं दानव को समानार्थी के रूप में उपयोग किया गया है। जबकि ऐसा उल्लेख मिलता है कि प्रारम्भ में ‘दैत्य’ और ‘दानव’ असुर जाति के दो विभाग थे। क्योंकि असुर जाति के दिति के पुत्र ‘दैत्य’ और दनु के पुत्र ‘दानव’ कहलाये। जो आगे चलकर दैत्य, दैतेय, दनुज, इन्द्रारि, दानव, शुक्रशिष्य, दितिसुत, दूर्वदेव, सुरद्विट्, देवरिपु, देवारि आदि नामों से जाने गये।

जहॉं तक राक्षस शब्द की उत्पत्ति का सवाल है तो आचार्य चुतरसेन द्वारा लिखित महानतम ऐतिहासिक औपन्यासिक कृति ‘वयं रक्षाम:’ और उसके खण्ड दो में प्रस्तुत किये गये साक्ष्यों पर गौर करें तो आर्यों के आक्रमणों से अपने कबीलों की सुरक्षा के लिये भारत के मूल निवासियों द्वारा हर एक कबीले में बलिष्ठ यौद्धाओं को वहॉं के निवासियों को ‘रक्षकों’ के रूप में नियुक्ति किया गया। ‘रक्षक समूह’ को ‘रक्षक दल’ कहा गया और रक्षकों पर निर्भर अनार्यों की संस्कृति को ‘रक्ष संस्कृति’ का नाम दिया गया। यही रक्ष संस्कृति कालान्तर में आर्यों द्वारा ‘रक्ष संस्कृति’ से ‘राक्षस प्रजाति’ बना दी गयी।

निष्कर्ष : इस प्रकार स्पष्ट है कि आर्यों के आगमन से पूर्व यहॉं के मूल निवासी अनार्यों का भारत के जनपदों (राज्यों) (नीचे टिप्पणी भी पढें) पर सम्पूर्ण स्वामित्व और अधिपत्य था। जिन्होंने व्यापारी बनकर आये और यहीं पर बस गये आर्यों को अनेकों बार युद्धभूमि में धूल चटायी। जिन्हें अपने दुश्मन मानने वाले आर्यों ने बाद में घृणासूचक रूप में दैत्य, दानव, असुर, राक्षस आदि नामों से अपने कथित धर्म ग्रंथों उल्लेखित किया है। जबकि असुर भारत के मूल निवासी थे और वर्तमान में उन्हीं मूलनिवासियों के वंशजों को आदिवासी कहा जाता है।

टिप्पणी : अनार्य जनपदों में मछली के भौगोलिक आकार का एक मतस्य नामक जनपद भी था, जिसके ध्वज में मतस्य अर्थात् मछली अंकित होती थी-मीणा उसी जनपद के वंशज हैं। चालाक आर्यों द्वारा मीणाओं को विष्णू के मतस्य अवतार का वंशज घोषित करके आर्यों में शामिल करने का षड़यंत्र रचा गया और पिछले चार दशकों में जगह-जगह मीन भगवान के मन्दिरों की स्थापना करवा दी। जिससे कि मीणाओं का आदिवासी दर्जा समाप्त करवाया जा सके।
स्रोत : ‘हिन्दू धर्मकोश’, वयं रक्षाम: और अन्य सन्दर्भ।
लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’ प्रमुख-हक रक्षक दल
(‘हक रक्षक दल’-अनार्यों के हक की आवाज)

Wednesday, February 26, 2014

मीना, मीणा, मैना, मैणा, मेंना, मैंणा आदि सभी पर्यायवाची शब्द

जब पहली बार जिस किसी ने भी ‘मीणा’ जाति को जनजातियों की सूची में शामिल करने के लिए किसी बाबू या किसी पीए या पीएस को आदेश दिये तो उसने ‘मीणा’ शब्द को अंग्रेजी में Meena के बजाय Mina लिखा और इसी Mina नाम से विधिक प्रक्रिया के बाद ‘मीणा’ जाति का जनजाति के रूप में प्रशासनिक अनुमोदन हो गया। लेकिन संवैधानिक रूप से परिपत्रित करने से पूर्व इसे हिन्दी अनुवाद हेतु राजभाषा विभाग को भेजा गया तो वहॉं पर Mina शब्द का शब्दानुवाद ‘मीना’ किया गया जो अन्तत: जनजातियों की सूची में शामिल होकर जारी हो गया। वैसे यह भी विचारणीय है कि मीना और मीणा दोनों शब्दों के लिये तकनीकी रूप से Mina/Meena दोनों ही सही शब्दानुवाद हैं, क्योंकि ‘ण’ अक्षर के लिये सम्पूर्ण अंग्रेजी वर्णमाला में कोई प्रथक अक्षर नहीं है।

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

‘मीणा’ जनजाति के बारे में तथ्यात्मक जानकारी रखने वाले और जनजातियों के बारे में बिना पूर्वाग्रह के अध्ययन और लेखन करने वाले इस बात को बखूबी जानते हैं कि ‘मीणा’ अबोरिजनल भारतीय (Aboriginal Indian) जनजातियों में से प्रमुख जनजाति है। फिर भी कुछ पूर्वाग्रही और दुराग्रही लोगों की ओर से ‘मीणा’ जनजाति को ‘मीणा’ एवं ‘मीना’ दो काल्पनिक जातियों में बांटने का कुचक्र चलाया जा रहा है। इन लोगों को ये ज्ञात ही नहीं है कि राजस्थान में हर दो कोस पर बोलियॉं बदल जाति हैं। इस कारण एक ही शब्द को अलग-अलग क्षे़त्रों में भिन्न-भिन्न मिलती जुलती ध्वनियों में बोलने की आदिकाल से परम्परा रही है। जैसे-
गुड़/गुर, कोली/कोरी, बनिया/बणिया, बामन/बामण, गौड़/गौर, बलाई/बड़ाई, पाणी/पानी, पड़ाई/पढाई, गड़ाई/गढाई, रन/रण, बण/बन, वन/वण, कन/कण, मन/मण, बनावट/बणावट, बुनाई/बुणाई आदि ऐसे असंख्य शब्द हैं, जिनमें स्वाभाविक रूप से जातियों के नाम भी शामिल हैं। जिन्हें भिन्न-भिन्न क्षे़त्रों और अंचलों में भिन्न-भिन्न तरीके से बोला और लिखा जाता है।
इसी कारण से राजस्थान में ‘मीणा’ जन जाति को भी केवल मीना/मीणा ही नहीं बोला जाता है, बल्कि मैना, मैणा, मेंना, मैंणा आदि अनेक ध्वनियों में बोला/पुकारा जाता रहा है। जिसके पीछे के स्थानीय कारकों को समझाने की मुझे जरूरत नहीं हैं। फिर भी जिन दुराग्रही लोगों की ओर से ‘मीना’ और ‘मीणा’ को अलग करके जो दुश्प्रचारित किया जा रहा है, उसके लिए सही और वास्तविक स्थिति को समाज, सरकार और मीडिया के समक्ष उजागर करने के लिये इसके पीछे के मौलिक कारणों को स्पष्ट करना जरूरी है।

यहॉं विशेष रूप से यह बात ध्यान देने की है कि वर्ष 1956 में जब ‘मीणा’ जाति को जनजातियों की सूची में शामिल किया गया था और लगातार राजभाषा हिन्दी में काम करने पर जोर दिये जाने के बाद भी आज तक प्रशासन में अंग्रेजी का बोलबाला है। जिसके चलते छोटे बाबू से लेकर विभाग के मुखिया तक सभी पत्रावलि पर टिप्पणियॉं अंग्रेजी में लिखते हैं। जिसके चलते आदेश और निर्णय भी अंग्रेजी में ही लिये जाते हैं। हॉं राजभाषा हिन्दी को कागजी सम्मान देने के लिये ऐसे आदेशों के साथ में उनका हिन्दी अनुवाद भी परिपत्रित किया जाता है। जिसे निस्पादित करने के लिये केन्द्र सरकार के तकरीबन सभी विभागों में राजभाषा विभाग भी कार्य करता है। राजभाषा विभाग की कार्यप्रणाली अनुवाद या भावानुवाद करने के बजाय शब्दानुवाद करने पर ही आधारित रहती है। जिसके कैसे परिणाम होते हैं, इसे मैं एक उदाहरण से समझाना चाहता हूँ। 

मैंने रेलवे में करीब 21 वर्ष सेवा की है। रेलसेवा के दौरान मैंने एक अधिकारी के अंग्रेजी आदेश को हिन्दी अनुवाद करवाने के लिये राजाभाषा विभाग में भिजवाया, वाक्य इस प्रकार था-'10 minute, Loco lost on graph' इस वाक्य का रेलवे की कार्यप्रणली में आशय होता है कि ‘रेलवे इंजिन के कारण रेलगाड़ी को दस मिनिट का विलम्ब हुआ।’ लेकिन राजभाषा विभाग ने इस वाक्य का हिन्दी अनुवाद किया ‘‘10 मिनट, लोको ग्राफ पर खो गया।’’ इसे शब्दानुवाद का परिणाम या दुष्परिणाम कहते हैं। इसी प्रकार से एक बार एक अंग्रेजी पत्र में भरतपुर स्थित Keoladeo (केवलादेव) अभ्यारण (इसे भी अभ्यारन भी लिखा/बोला जाता है) शब्द का उल्लेख था, जिसका राजभाषा विभाग ने हिन्दी अनुवाद किया ‘‘केओलादेओ’।

मुझे अनुवाद प्रणाली पर इसलिये चर्चा करनी पड़ी, क्योंकि जब पहली बार जिस किसी ने भी ‘मीणा’ जाति को जनजातियों की सूची में शामिल करने के लिए किसी बाबू या किसी पीए या पीएस को आदेश दिये तो उसने ‘मीणा’ शब्द को अंग्रेजी में Meena के बजाय Mina लिखा और इसी Mina नाम से विधिक प्रक्रिया के बाद ‘मीणा’ जाति का जनजाति के रूप में प्रशासनिक अनुमोदन हो गया। लेकिन संवैधानिक रूप से परिपत्रित करने से पूर्व इसे हिन्दी अनुवाद हेतु राजभाषा विभाग को भेजा गया तो वहॉं पर Mina शब्द का शब्दानुवाद ‘मीना’ किया गया जो अन्तत: जनजातियों की सूची में शामिल होकर जारी हो गया। वैसे यह भी विचारणीय है कि मीना और मीणा दोनों शब्दों के लिये तकनीकी रूप से Mina/Meena दोनों ही सही शब्दानुवाद हैं, क्योंकि ‘ण’ अक्षर के लिये सम्पूर्ण अंग्रेजी वर्णमाला में कोई प्रथक अक्षर नहीं है।

चूँकि उस समय (1956 में) आदिवासियों का नेतृत्व न तो इतना सक्षम था और न ही इतना जागरूक था कि वह इसे जारी करते समय सभी पर्याय वाची शब्दों के साथ उसी तरह से जारी करवा पाता, जैसा कि गूजर जाति के नेतृत्व ने गूजर, गुर्जर, गुज्जर, के रूप में जारी करवाया है। यही नहीं आज तक जो भी आदिवासी राजनेता रहे हैं, उन्होंने भी इस पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया और ‘मीणा’ एवं ‘मीना’ दोनों शब्द चलते रहे, क्योंकि व्यक्तिगत रूप से हर कोई इस बात से वाकिफ रहा कि इन दोनों शब्दों का वास्तविक मतलब एक ही है, और वो है-‘‘मीणा जनजाति’’, जिसे अंग्रेजी में Meena लिखा जाता है। अब जबकि कुछ असन्तोषियों या प्रचारप्रेमियों को ‘मीणा’ जन जाति की सांकेतिक प्रगति से पीड़ा हो रही है तो उनकी ओर से ये गैर-जरूरी मुद्दा उठाया गया है। जिसका सही समाधान प्रारम्भ में हुई त्रुटि को ठीक करके ही किया जा सकता है।

-लेखक : भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के राष्ट्रीय अध्यक्ष, जर्नलिस्ट्स, मीडिया एण्ड राईटर्स वैलफेयर एशोसिएशन के नेशलन चेययरमैन, प्रेसपालिका (पाक्षिक) के सम्पादक हैं। ऑल इण्डिया ट्राईबल रेलवे एम्पलाईज एशोसिएशन के संस्थापक व राष्ट्रीय अध्यक्ष और अजा एवं अजजा के अखिल भारतीय परिसंघ के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव रह चुके हैं। इसके अलावा लेखक को लेखन एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिये एकाधिक राष्ट्रीय सम्मानों से विभूूषित भी किया जा चुका है।-98750-66111

Sunday, December 9, 2012

पप्पू शर्मा के हाथ क्यों काटे?

मीणा जाति के लोग इस क्षेत्र में सामाजिक तौर पर आन-बान पर मर मिटने के लिये जाने जाते हैं, उनको जातीय पटेलों का निर्णय स्वीकार नहीं था, लेकिन पटेलों के निर्णयों को मानना उनकी सामाजिक बाध्यता रही। इस कारण वे पंचायत का विरोध नहीं कर सके! बताया जाता है कि पंचायत के मनमाने निर्णय और पप्पू शर्मा की मनमानियों पर हमेशा-हमेशा के लिये पूर्ण विराम लगाने के सुनियोजित इरादे से पीड़िता के परिजनों ने और पप्पू शर्मा के अन्याय से पीड़ित रहे कुछ अन्य लोगों ने साथ मिलकर ऐसा कदम उठाने का निर्णय लिया कि आगे से गॉंव में कोई दूसरा पप्पू शर्मा पैदा ही नहीं हो सके और उन्होंने मिलकर पप्पू शर्मा के दोनों हाथ काट डाले।

Sunday, November 25, 2012

गुर्जर आरक्षण : समाधान कोई नहीं चाहता!

सबको पता है कि राजस्थान में यादव जाति के कारण शुरू से ही राजस्थान की अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियॉं असहज थी, लेकिन जाट जाति को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने बाद अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों में भयंकर असमानता उत्पन्न हो गयी, असल में इसी का दुष्परिणाम है-राजस्थान गुर्जर आरक्षण आन्दोलन। जिसका समाधान है-जाट जाति को ओबीसी से हटाना या ओबीसी के टुकड़े करना। दोनों ही न्यायसंगत उपाय करने की राजस्थान के किसी भी राजनैतिक दल में हिम्मत नहीं हैं। स्वयं गुर्जर भी इस बात को जानते हुए खुलकर नहीं बोल रहे हैं। ऐसे में गुर्जरों की समस्या का समाधान कहीं दूर तक भी नजर नहीं आता!

Friday, November 9, 2012

अनर्गल बयानबाजी का कड़वा सच?

कोई पुरानी पत्नी को मजा रहित बतलाये या कोई किसी की पत्नी को पचास करोड़ गर्लफ्रेंड कहे| चाहे कोई किसी को बन्दर कहे! चाहे कोई राम को अयोग्य पति कहे या कोई राधा को रखैल| चाहे कोई दाऊद और विवेकानंद को एक तराजू में तोले या कोई मंदिरों से शौचालयों को पवित्र बतलाये! इन सब अनर्गल बातों को रोक पाना अब लगभग मुश्किल सा हो गया है! क्योंकि हम ही लोगों ने दुष्टों को महादुष्ट और महादुष्टों को मानव भक्षक बना दिया है और इन सभी के आगे हम और हमारे तथाकथित संरक्षक जनप्रतिनिधी पूंछ हिलाते देखे जा सकते हैं|

Sunday, November 4, 2012

धारा 498-ए अप्राकृतिक व अन्यायपूर्ण!

"केवल एफआईआर में नाम लिखवा देने मात्र के आधार पर ही पति-पक्ष के लोगों के विरुद्ध धारा-498ए के तहत मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिये"-सुप्रीम कोर्ट

Thursday, November 1, 2012

मनुवादियों ने दलित जोड़ों को मंदिर से खदेड़ा!

यदि हम वास्तव में चाहते हैं कि देश में अमन-चैन बना रहे और समाज के सभी दबे-कुचले लोग तरक्की करें और सम्मान के साथ जीवन यापन करें तो हमें मनुवाद को तत्काल प्रतिबन्धित करने और मुनवादी कुकृत्यों को अंजाम देने वालों को देशद्रोही के समान दण्डनीय अपराध घोषित करने की सख्त जरूरत है| जिसके लिये संविधान के भाग तीन के अनुच्छेद 13 (1) एवं 13 (3) में सरकार को सम्पूर्ण अधिकार प्राप्त हैं| यदि सरकार में राजनैतिक इच्छा-शक्ति हो तो इस प्रावधान के तहत मनुवादी दैत्य को नेस्तनाबूद किया जा सकता है| लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है, जिसके पीछे हर पार्टी में मनुवादियों का वर्चस्व होना बड़ा कारण है|