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Wednesday, April 6, 2011

राजगुरू , सुखदेव व भगतसिंह की फाँसी के लिये गाँधी की जिम्मदारी!


इरविन - गांधी समझौता और भगतसिँह की फाँसी
मार्च 1931 मेँ गांधीजी ने ब्रिटिस सरकार के प्रतिनिधि लार्ड एडवर्ड इरविन के साथ समझौता किया । इस समझौते के अन्तर्गत ब्रिटिस सरकार द्वारा कांग्रेसी आन्दोलन के सभी बंदी छोड दिये गये , परन्तु क्रान्तिकारी आन्दोलन गदर पार्टी के बंदी , लोदियोँ मार्शल ला के बंदी , अकाली बंदी , देवगढ , काकोरी , महुआ बाजार और लाहौर षडयन्त्र केश आदि के बंदियोँ को छोडने से इन्कार कर दिया । गांधीजी ने भी इस समझौते के अनुपालन मेँ अपना आन्दोलन वापस ले लिया और अन्य आन्दोलन कर्ता क्रान्तिकारियोँ से भी अपना आन्दोलन वापस लेने की अपील की । गांधीजी की अपील के प्रत्युत्तर मेँ लाहौर षडयन्त्र केस के क्रान्तिकारी सुखदेव ने गांधीजी के नाम खुला पत्र लिखकर गांधीजी पर क्रान्तिकारियोँ को कुचलने के लिए ब्रिटिस सरकार का साथ देने का आरोप लगाया था और पत्र मेँ दो विचार धाराओँ के बीच मतभेदोँ पर प्रकाश डाला था । उन्होँने इस समझोते पर सवाल खडे किये थे तथा गांधीजी से अपनी शंका का समाधान करने का आग्रह किया था । लेकिन गांधीजी ने सुखदेव के पत्र का कोई उत्तर नहीँ दिया था । सुखदेव के पत्र का संक्षिप्त सार यह हैँ - अत्यन्त सम्मानीय महात्मा जी आपने क्रान्तिकारियोँ से अपना आन्दोलन रोक देने की अपील निकाली हैँ । कांग्रेस लाहौर के प्रस्तावानुसार स्वतन्त्रता का युद्ध तब तक जारी रखने के लिए बाध्य हैँ जब तक पूर्ण स्वाधीनता ना प्राप्त हो जाये । बीच की संधिया और समझौते विराम मात्र हैँ । यद्यपि लाहौर के पूर्ण स्वतन्त्रता वाले प्रस्ताव के होते हुए भी आपने अपना आन्दोलन स्थगित पर दिया हैँ , जिसके फलस्वरूप आपके आन्दोलन के बन्दी छुट गए हैँ । परन्तु क्रान्तिकारी बंदियोँ के बारे मेँ आप क्या कहते हो । सन 1915 के गदर पार्टी वाले राजबंदी अब भी जेलोँ मेँ सड रहे हैँ , यद्यपि उनकी सजाऐ पूरी हो चुकी हैँ । लोदियोँ मार्शल ला के बंदी जीवित ही कब्रो मेँ गडे हुए है , इसी प्रकार दर्जनोँ बब्बर अकाली कैदी जेल मेँ यातना पा रहे है । देवगढ , काकोरी , महुआ बाजार और लाहौर षडयन्त्र केस , दिल्ली , चटगॉव , बम्बई , कलकत्ता आदि स्थानोँ मेँ चल रहे क्रान्तिकारी फरार , जिनमेँ बहुत सी तो स्त्रियाँ है । आधा दर्जन से अधिक कैदी तो अपनी फाँसियोँ की बाट जोह रहे हैँ । इस विषय मेँ आप क्या कहते हैँ । लाहौर षडयन्त्र के हम तीन राजबंदी जिन्हेँ फाँसी का हुक्म हुआ है और जिन्होँने संयोगवश बहुत बडी ख्याति प्राप्त कर ली है , क्रान्तिकारी दल के सब कुछ नहीँ हैँ । देश के सामने केवल इन्ही के भाग्य का प्रश्न नहीँ हैँ । वास्तव मेँ इनकी सजाओँ के बदलने से देश का उतना कल्याण न होगा जितना की इन्हेँ फाँसी पर चढा देने से होगा । परन्तु इन सब बातोँ के होते हुए भी आप इनसे अपना आन्दोलन खीँच लेने की सार्वजनिक अपील कर रहे है । अपना आन्दोलन क्योँ रोक ले , इसका कोई निश्चित कारण नहीँ बतलाया । ऐसी स्थिति मेँ आपकी इन अपीलोँ के निकालने का मतलब तो यहीँ हैँ कि आप क्रान्तिकारियोँ के आन्दोलन को कुचलने मेँ नौकरशाही का साथ दे रहेँ होँ । इन अपीलोँ द्वारा स्वयं क्रान्तिकारी दल मेँ विश्वासघात और फूट की शिक्षा दे रहे होँ । गवर्नमेँट क्रान्तिकारियोँ के प्रति पैदा हो गयी सहानुभूति तथा सहायता को नष्ट करके किसी तरह से उन्हेँ कुचल डालना चाहती है । अकेले मेँ वे सहज ही कुचले जा सकते है , ऐसी हालत मेँ किसी प्रकार की भावुक अपील निकाल कर उनमेँ विश्वासघात और फूट पैदा करना बहुत ही अनुचित और क्रान्ति विरोधी कार्य होगा । इसके द्वारा गवर्नर को , उन्हेँ कुचल डालने मेँ प्रत्यक्ष सहायता मिलती हैँ । इसलिए आपसे हमारी प्रार्थना है कि या तो आप क्रान्तिकारी नेताओँ से जो कि जेलोँ मेँ हैँ , इस विषय पर सम्पूर्ण बातचीत कर निर्णय लीजिये या फिर अपनी अपील बन्द कर दीजिये । कृपा करके उपरोक्त दो मार्गो मेँ से किसी एक का अनुसरण कीजिये । अगर आप उनकी सहायता नहीँ कर सकते तो कृपा करके उन पर रहम कीजिये और उन्हेँ अकेला छोड दीजिये । वे अपनी रक्षा आप कर लेगे । आशा है आप अपरोक्त प्रार्थना पर कृपया विचार करेँगे और अपनी राय सर्व साधारण के सामने प्रकट कर देगे । आपका अनेकोँ मेँ से एक भगतसिँह व उनके साथियोँ को मृत्युदण्ड के निर्णय से सारा देश आक्रोषित था व गांधीजी की ओर इस आशा से देख रहा था कि वह अनशन कर इन देशभक्तोँ को मृत्यु से बचाएगे । राष्ट्रवादियोँ ने गांधीजी से राजगुरू , सुखदेव और भगतसिँह के पक्ष मेँ हस्तक्षेप कर ब्रिटिस सरकार से उनकी फाँसी माफ कराने की प्रार्थना की । परन्तु जनता की प्रार्थना को गांधीजी ने इस तर्क के साथ ठुकरा दिया कि मैँ हिँसा का पक्ष नहीँ ले सकता । जब प्रथम विश्वयुद्ध ( 1914 - 1918 ) के दौरान भारतीय सैनिकोँ ने हजारोँ जर्मनोँ को मौत के घाट उतारा तो क्या गांधीजी ने हिँसा का पक्ष नहीँ लाया था ? परन्तु शायद वह हिँसा इसलिए नहीँ थी , क्योँकि वे सैनिक अंग्रेजोँ की सेना मेँ जर्मनोँ को मारने के लिए उन्होँने भर्ती कराये थे । विश्वयुद्ध के दौरान गांधीजी ने वायसराय चेम्स फोर्ड को एक पत्र भी लिखा था । पत्र मेँ उन्होँने लिखा था - \" मैँ इस निर्णायक क्षण पर भारत द्वारा उसके शारीरिक रूप से स्वस्थ पुत्रोँ को अंग्रेजी साम्राज्य पर बलिदान होने के रूप मेँ प्रस्तुत किये जाने के लिए कहूँगा । \" प्रथम विश्वयुद्ध मेँ उन्हेँ ब्रिटिस साम्राज्य के प्रति उनकी सेवाओँ के लिए \'केसर-ए-हिन्द\' स्वर्ण पदक से अलंकृत किया गया था । अगर गांधीजी हस्तक्षेप करते तो भगतसिँह और उसके साथियोँ को बचाया जा सकता था , क्योँकि ब्रिटिस सरकार ने ऐसे संकेत दिये थे । गांधीजी ने भगतसिँह व उसके साथियोँ की फाँसी माफ कराने के लिए लार्ड इरविन से वार्ता तो की लेकिन कोई दृढ इच्छा शक्ति प्रकट न की जिसके कारण राजगुरू , सुखदेव व भगतसिँह को नियम भंग कर 24 मार्च 1931 को प्रातःकाल दी जाने वाली फाँसी 23 मार्च को शाम मेँ ही दे दी गई । सारा देश इस अन्याय के विरूद्ध उठ खडा हुआ , लेकिन गांधीजी शांत रहेँ ।

स्त्रोत/साभार : लेखक :
नाम : विश्वजीतसिंह,
राष्ट्रधर्म से बडा कोई धर्म नहीँ होता । राष्ट्र मेरा धर्म , स्वाध्याय मेरी शिक्षा और कर्म मेरी पूजा हैँ । मैँ जीवन मेँ सत्य , प्रेम , शान्ति , अहिंसा , शौर्य और मानवता पसन्द करता हूँ । मेरे लिए ब्लॉग लेखन समय बिताने का साधन न होकर सत्य की अभिव्यक्ति का माध्यम हैँ ।
http://www.kranti4people.com/article.php?aid=602

Saturday, June 19, 2010

अगला भगत सिंह कभी भी पैदा होने वाला नहीं है!


युवा सोच के धनी श्री विकास भारतीय ने मुझे निम्न आलेख पढने का संकेत मेल पर किया, मैंने इसे पढ़कर नीचे अपनी प्रतिक्रिया भी उनको लिख भेजी है :-

TUESDAY, FEBRUARY 16, 2010


अगला भगत सिंह कौन?

आने वाले विगत वर्षो में भारत में जो भुखमरी आनेवाली है उसका अंदाजा न तो केंद्र सरकार को है नाही इसपर कोई क्रांतिकारी कदम आम जनता द्वारा ही उठाया जा रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रतिस्पर्धा के कारण छोटे उद्योगों का दिन प्रतिदिन विनाश होता जा रहा है। अपार्टमेंट्स और बहुमंजिली इमारतों से आम जनता को कुछ भी मिलने वाला नहीं है। आम जनता को तो रोजगार चाहिए। यहाँ मै ये बता देना चाहता हूँ की आम जनता आखिर है कौन? आम जनता वो है जिनके माँ बाप गरीबी रेखा से नीचे की जीवन श्रेणी में जीवन यापन करते है। जिनको मिलने वाला सरकारी फंड सरकारी लुटेरो की जेबों को गर्म रखता है। जो घुट घुट कर जीने को मजबूर है। जिनके पास खाने को नहीं है और सरकार कहती है अपने बच्चो को पढ़ाओ और काम न करवाओ। इसके लिए सरकार ने श्रम मंत्रालय तक का निर्माण किया है जिनका ज्यादातर समय कार्यालयों में सेब, चाय, सिगरेट और मशाले खाते हुए कटता है। जिस घर में बीमारी ने अपना ठेहा जमा रखा हो और घर में दो जून की रोटी न हो अगर उससे सरकार कहे की अपने बच्चो से काम न करवाओ तो यह कहा तक उचित है। अंग्रेजी आसान भाषा है ऐसा ज्यादातर विद्वानों से सुनने को मिलता है। अगर ऐसा है तो महात्मा गाँधी, राम मनोहर लोहिया और खुद केंद्र सरकार आज़ादी के समय से ही क्यों हिंदी लाने के लिए प्रयत्नसिल थे और है भी? प्रश्न यह उठता है की आखिर हम इंग्लिश क्यों सीखे? हमारे ब्यूरोक्रेट्स, अधिकारी और सरकारी कर्मचारी अगर अपने कर्तव्यों का सही से पालन करते और कर रहे होते तो आज जो भयावह स्थिति बनी है क्या वो बन पाती? क्योकि अगर शुरू से ही हिंदी का विकास और सत्प्रयोग किया गया होता तो शायद आज ये स्थिति नहीं बनती। महात्मा गाँधी ने तो यहाँ तक कहा था की ये राष्ट्र द्रोह है उन्होंने प्रसिद्ध स्वराज्य में लिखा था की अंग्रेजी जानने वाले ने आम जनता को ठगने में कुछ न उठा रखा है।
लेकिन वर्तमान में उन गरीबो का जो शीतलहर से पूल के निचे, किसी राजमार्ग के किनारे मर रहे है? शायद वो नहीं होता। अगर आज़ादी के पश्चात हमारे देश के करता धर्ताओ ने देश के साथ थोडा भी देशभक्ति दिखाया होता तो शायद जो स्थिति आज उत्पन्न हुई है वो न हो पाती। आज सामाचार पत्रों में ये मुद्दे प्राचीन सभ्यताओ की तरह अथवा हिंदी भाषा को ही ले लीजिये की तरह ख़तम होते जा रहा है। हमारे देश की जनसँख्या १ अरब से कही ज्यादा है और कुछ लाख लोगो के इंजिनियर, डॉक्टर बन जाने से अथवा कुछ हज़ार अच्छे बहुमंजिली इमारतों के बन जाने से उन गरीबो का क्या लेना देना है। सरकार दिखा रही की देश का विकास हो रहा है लेकिन सरकार इसपर प्रकाश नहीं डाल रही है। नरेगा हो या अन्य बहुत से मद जो गरीबो के लिए केंद्र सरकार द्वारा शुरू किये गए है पूरा देश जानता है की कितने गरीबो का उससे कल्याण हो पाता है। समाचार पत्र, और एन.जी.ओ समाज में रुआब और सरकारी फंड पाने हेतु या गरीबो के स्वार्थ हेतु खोला जा रहा है ये शायद उन्ही हो मालूम होगा। आर.एन.आई के आकड़ो को देखा जाये और मार्केट में बिक रहे समाचार पत्रों को देखा जाये तो इसका अंदाजा और बेहतरी से किया जा सकता है। सरकार के खिलाफ अब बहुत कम ही पत्रकार अपना मुंह खोलने को तैयार है लेकिन ये सब समय की माया है। जनता अब क्रांति के मायने भूल चुकी है अथवा उसको कोई भगत सिंह , चंद्रशेखर आज़ाद जैसा नहीं मिल पा रहा है। अथवा आज के भगत सिंह और चन्द्र शेखर आज़ाद को फिक्र हो गयी है की वो जमाना कुछ और था उस समय तो मात्र अंग्रेजो से भय था या उनकी जमात काम थी। लेकिन आज अगर आवाज उठाया तो कही मेरे ही खिलाफ सी.बी.आई जाँच न शुरू हो जाए, कही मुझे मार न दिया जाये या कही मुझे समूचे लोकतंत्र से तो नहीं जूझना पड़ेगा।
समय का तकाजा है देखना है अगला भगत सिंह कब सामने आएगा।
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अगला भगत सिंह कभी भी पैदा होने वाला नहीं है!