मीणा प्रारम्भ से ही जनजाति है।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
नक्लवाद का कडवा सच शीर्षक से लिखे गये आलेख पर प्रतिक्रिय देते समय एक पाठक की ओर से मेरी जाति-मीणा-के आदिवासी होने पर प्रश्न उठाया है। जिसे टिप्प्णी वाले बॉक्स में प्रदर्शित नहीं किया जा सकता, क्योंकि टिप्पणी में शब्द सीमा की बाध्यता है। अतः इसे मेरी पोस्ट के रूप में प्रदर्शित करना मेरी विवशता है।
श्री प्रतुलजी आपने मेरे आलेख-नक्सलवाद का कडवा सच-पर दि. १९ मार्च, २०१० को टिप्पणी दी, जिसके लिये मैं आभारी हँू। आपकी टिप्पणी को पढने के बाद आपका ब्लॉग देखा, जिसमें आपने स्वयं को पत्रकारिता से सम्बद्ध लिखा है। आपकी टिप्पणी मैं तत्कालिक आपके अवलोकन के लिये प्रस्तुत कर रहा हँू-
पर एक प्रश्न जहन में है कृपया बताएँगे। जब एससी और एसटी की सूचियाँ बन रही थीं, तब एक कार्यालयी त्रुटि या कहें चालाकी हुयी थी, वह यह कि आर्थिक आधार पर आदिवासी मीणा को एसटी वर्ग दिया जाना था और मीणा किसी भी सूची में नहीं थे। तब आदिवासी और मीणा के मध्य कॉमा (,) लगा कर आदिवासियों और मीणाओं दोनों को एसटी वर्ग का लाभ दिया गया और मीणाओं ने आदिवासी मीणाओं को दिया जाने वाला लाभ भी स्वयं ले लिया। इस बात में कितना सच है? कृपया राज खोलें।
आपने जो सवाल पूछा है, यह हजारों लोगों के दिमांग में घूमता रहता है। आपने भी सवाल सही तरह से नहीं पूछा है। मीणा और आदिवासी के बीच कौमा लगने की बात नहीं उठायी जाती है, बल्कि भील और मीणा के बीच में कौमा लगाने की बात कही जाती है, जो पूरी तरह से निराधार और मनगढंथ है। क्योंकि-
सर्व-प्रथम तो आप यह जान लें कि भारत का संविधान किसी को भी आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की बात ही नहीं करता है। बल्कि इसके विपरीत आर्थिक आधार पर आरक्षण को छीनने की बात जरूरी सुप्रीम कोर्ट ने अनेक निर्णयों में कही है। इसलिये मीणा जाति को अजजा वर्ग में आर्थिक आधार पर आरक्षण दिये जाने की बात निराधार है। हमारा संविधान अजा एवं अजजा दोनों वर्गों को केवल सामाजिक तथा शैक्षणिक आधार पर आरक्षण प्रदान करने की अनुमति देता है।
अब आप कौमा लगने की बात को भी समझ लें। राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात आदि अनेक राज्यों में भील मीणा नाम की एक जन जाति है। भील नाम की भी जनजाति है। यदि आप मान सकें तो मीणा भी जन जाति है। संविधान तो यही मानता है। लेकिन कुछ लोगों द्वारा ऐसा भ्रम फैलाया गया है कि भील मीणा जन जाति के बीच में कौमा लग गया और मीणा जाति को जनजाति की सूची में चालाकी से शामिल कर लिया गया। सम्भवतः आपका भी यही आशय है।
कृपया जान लें कि मध्य प्रदेश में केवल सिरोंज उप खण्ड को छोडकर कहीं भी मीणा जाति को जन जाति की सूची में नहीं माना गया है, जबकि राजस्थान और दिल्ली में मीणा जन जाति की सूची में शामिल हैं। जहाँ तक कौमा लगाने की बात है तो संविधान में राजस्थान के सन्दर्भ में १९५० में जारी जनजातियों की सूची में जन जातियों का निम्न प्रकार उल्लेख है :-
(१) भील, गरासिया, ढोली भील, डूँगरी भील, डँूगरी गडासिया, मेवासी भील, रावल भील, तडवी भील, भगालिया, भिलाला, पवरा, वसावा, वसावे।
(२) भील मीणा।
(३) डामोर, तडवी, टटारिया, वल्वी।
(५) गरासिया
(६) कठोडी, कटकरी, कठोडी ढोर, आदि।
(७) कोकना, कोकनी, कुकना।
(८) कोली, ढोर, टोकरे, कोलचा, कोलघा।
(९) मीणा, मीना
(१०) नाइकडा, नायका, आदि।
(११) पटेलिया
(१२) सेहरिया, सहारिया।
उपरोक्त सूची में कौमा लगने की बात दो नं. पर तो हो सकती थी, लेकिन मीणा जनजाति को ९ नं. पर अलग से प्रारम्भ से ही दर्शाया गया है। इसके अलावा आजादी से पूर्व मीणा जन जाति को चोरी चकारी करने वाली जन जाति के रूप में अंग्रेजों द्वारा दर्शा कर, इनके विरुद्ध जरायम पेशा अधिनियम लागू किया गया था, जिसके कारण इस जन जाति के कई हजार लोगों को काले पानी की सजा दी गयी थी।
यही नहीं मीणा जाति को मीणा, मीना, मैना, मीन आदि नामों से इतिहासवेत्ताओं ने भी जनजाति का दर्जा दिया गया है।
ऐसे में केवल कौमा लगने के आधार पर मीणा जन जाति को आदिवासी वर्ग में चालाकी से शामिल करने की बात, मीणा जाति के विरुद्ध फैलायी गयी सबसे बडी साजिश है। ऐसा करने वालों का उद्देश्य जो भी हो वह, इस प्रकार पूर्ण होने वाला नहीं है।
इसके अलावा आप एक बुद्धिजीवी व्यक्ति हैं, अतः आपको यह भी समझना चाहिये कि आज कल लोग जरा-जरा सी बात पर जनहित याचिकाएँ दायर कर देते हैं, ऐसे में यदि केवल कौमा वाली बात होती तो क्या यह बात १९५० से अभी तक टिक पाती?
सवाल सबसे बडा यह है कि राजस्थान की मीणा जन जाति के कुछ लोगों ने प्रशासन के क्षेत्र में प्रगति की है, जो लोगों को पच नहीं रही है। प्रगति भी अधिक नहीं की है, लेकिन मीणा जन जाति के ९९ प्रतिशत से अधिक लोग जाति को ही सरनेम के रूप में उपयोग करते हैं, इस कारण से सबको मीणा ही मीणा नजर आते हैं। सच में मीणा लोगों को इस बात को समझने की जरूरत है कि मीणा सरनेम के बजाय अपने गौत्र लिखें तो किसी को भी मीणा जन जाति के प्रति ऐसी ईर्ष्या नहीं होगी। यदि मीणा अपने निम्न गौत्र लिखें तो क्या आप जान पायेंगे कि ये मीणा जाति के लोग हैं :-जैफ, झरवाल, टाटू, बडगोत्या, घुनावत, जौरवाल, सत्तावत, मेहर, मरमट, नारेडा, गौमलाडू, बमणावत आदि आदि।
आप देखिये एससी का केन्द्र में पन्द्रह प्रतिशत आरक्षण है, ऐसा कहा जाता है कि इसका आधे से अधिक लाभ मात्र चमार जाति के लोग ही उठा रहे हैं, लेकिन वे किसी को नजर नहीं आते, क्योंकि वे सब अपनी जाति नहीं, बल्कि नाम के साथ अपना गौत्र लिख रहे हैं। जैसे कुरील, बैरवा, डाबरिया, टटावत, कचरवाल, दवलिया, मुनी, कबीला, ब्यास, चतुर्वेदी, गर्ग, खण्डेलवाल, सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी आदि आदि।
मैं समझता हँू कि आपकी ओर से उठाये गये सवाल का उत्तर आपको मिल गया होगा।
लेकिन मेरी यह समझ में नहीं आया कि नक्सलवाद पर लिखे गये मेरे आलेख से मेरी जाति के जनजाति होने पर सवाल उठाने का क्या औचित्य है? शुभकामनाओं सहित।-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा निरंकुश, सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र) एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) (जो दिल्ली से देश के सत्रह राज्यों में संचालित है। इस संगठन ने आज तक किसी गैर-सदस्य, या सरकार या अन्य बाहरी किसी भी व्यक्ति से एक पैसा भी अनुदान ग्रहण नहीं किया है। इसमें वर्तमान में ४३२० आजीवन रजिस्टर्ड कार्यकर्ता सेवारत हैं।)। फोन : ०१४१-२२२२२२५ (सायं : ७ से ८) मो. ०९८२८५-०२६६६
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उक्त पाठक श्री प्रतुल वशिष्ठ जी ने मेरे उक्त स्पष्टीकरण पर मुझे 27.06.2010 को मेल पर निम्न उत्तर प्रेषित किया है :-
क्षमाप्राथी हूँ, पूर्वाग्रह और एक सज्जन की बात पर अतिशय विश्वास के कारण लेख पर राय ना देकर छिद्रान्वेषण के स्वभाव ने आपके सामयिक विचार-प्रवाह में पत्थर फैंका. पर आपके तार्किक जवाबों ने छींटे मुझ पर ला दिए. आगे से सावधानी बरतूँगा टिप्पणी देते समय.
मुझे पत्रकारिता भाती बहुत है लेकिन हूँ नहीं. होना चाहता हूँ. दर्पण दिखाकर आपने मुझे मेरी क्षमताओं से परिचित करवा दिया, धन्यवाद.
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ReplyDelete'''सितं 2009 ... ऐसे ही लोगों ने विवेकानंद को कायस्थ( हरिजन)शूद्र अपमानित किया जिसपर स्वामी जी ..... कायस्थ तो शूद्र हैं ही तो टेलेंट उनमें कहां से होगा। जन्मत: सारे शूद्र हैं । उत्तम संस्कारों के कारण कोई भी ब्राह्मण बन सकता है समाज सुधारकों की पत्रिका में मैंने देखा कि मूझे शूद्र बताया गया है और चुनौती दी गई है कि शूद्र(हरिजन) संन्यासी कैसे हो सकता है।
ReplyDeleteदरअसल इस भाषण में विवेकानंद की ये पीड़ा आप देख सकते हैं जो उन्हें कुछ समाज सुधारकों ने दी है। इससे आप आंबेडकर की पीड़ा को बेहतर समझ सकते हैं। फुले और शाहूजी महाराज को बेहतर जान सकते हैं। दलित लेखन में जो कड़वाहट किसी को असांस्कृतिक और असभ्य लगती है, उसके समझने का सूत्र विवेकानंद देते हैं। इसके अलावा विवेकानंद रचना समग्र में कदाचित सिर्फ एक और जगह स्वामीजी अपने जाति मूल की बात करते हैँ। समुद्र यात्रा पर निकलने से पहले वो इस बात का जिक्र करते हैं कि "अंग्रेजों ने सभी जाति के लोगों को एक साथ नेटिव करार दिया है।" यहां वो इस बात का जिक्र करते हैं कि "कायस्थ कुल में जन्म होने के कारण उन्हें कई तबकों के हमले झेलने पड़े। और कि सभी जातियां खुद को कायस्थों से श्रेष्ठ मानती हैं।
"हे ब्राह्मणों, अगर ब्राह्मणों में अछूतों की तुलना में सीखने की प्रवृत्ति ज्यादा है तो ब्राह्मणों की शिक्षा पर और खर्च न किया जाए। बल्कि ऐसा सारा खर्च अछूतों की शिक्षा पर किया जाए। कमजोर को ही मदद की जरूरत है। अगर ब्राह्मण जन्मना समझदार है तो वो किसी सहायता के बिना शिक्षा प्राप्त कर लेगा। अगर बाकी लोग जन्म से समझदार नहीं हैं तो उनके लिए शिक्षा और शिक्षकों का बंदोबस्त किया जाए। मुझे तो लगता है कि यही न्याय है और यही सही है।" इसी भाषण में स्वामीजी ने कठोपनिषद को उद्धृत करते हुए कहा था - उतिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत।'''