मेरे शुभचिंतक और समालोचक जिनके विश्वास एवं संबल पर मैं यहाँ लिख पा रहा हूँ!

यदि आपका कोई अपना या परिचित पीलिया रोग से पीड़ित है तो इसे हलके से नहीं लें, क्योंकि पीलिया इतना घातक है कि रोगी की मौत भी हो सकती है! इसमें आयुर्वेद और होम्योपैथी का उपचार अधिक कारगर है! हम पीलिया की दवाई मुफ्त में देते हैं! सम्पर्क करें : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, 098750-66111
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Sunday, October 16, 2011

व्यवस्था इंसान के लिये या इंसान व्यवस्था के लिये?


डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'


पूर्वी राजस्थान के करौली जिले में गत 4 अक्टूबर को एक तीन वर्षीय बीमार बालक की इस कारण से असमय मौत हो गयी, क्योंकि उस बालक का उपचार करके उसका जीवन बचाने के बजाय कार्यरत डॉक्टर जीएन अग्रवाल ने अस्पताल के लियमों की पालना करवाने को अधिक प्राथमिकता प्रदान की|

सरकारी अस्पताल में उपचार करवाने के लिये आने वाले रोगियों का व्यवस्थित तरीके से उपचार करने के पवित्र उद्देश्य से यह व्यवस्था की हुई है कि रोगी को डॉक्टर को दिखाने से पूर्व एक प्रवेश पर्ची बनवानी होती और तब लाइन में खड़े रहकर रोगी को उपचार करवाना होता है| स्वाभाविक है कि डॉक्टर के कक्ष के समक्ष लाइन में खड़े होने से पूर्व रोगी या उसके परिजनों को पहले पर्ची बनवाने के लिये लाइन में खड़ा होना पड़ता है| ये एक प्रक्रियागत ऐसी व्यवस्था है, जिसका उल्लंघन करने पर किसी भी डॉक्टर को सजा नहीं हो सकती है| इसलिये आपात स्थिति में और रोगी की हालत गम्भीर होने पर डॉक्टर रोगी को बिना पर्ची भी देख सकता है| क्योंकि इस बात का निर्णय करने की योग्यता भी डॉक्टर के पास ही होती है कि किस रोगी को तत्काल उपचार की जरूरत है?


इस सबके उपरान्त भी 3 वर्षीय बीमार बालक के परिजन रोते और चीखते रहे कि पहले उनके बच्चे को बिना पर्ची देख लिया जावे, क्योंकि बच्चे की हालत खराब हो चुकी है, लेकिन डॉक्टर अग्रवाल को बच्चे के जीवन को बचाने के बजाय, पर्ची लेकर उपचार करवाने की व्यवस्था को बचाने की अधिक चिन्ता थी| इसलिये उसने बिना पर्ची के बच्चे का उपचार तो दूर, उसे देखना तक जरूरी नहीं समझा| जब तक बीमार के परिजन पर्ची बनवाकर लाये तब तक बच्चे के प्राण पखेरू उड़ चुके है| परिणामस्वरूप वहॉं हंगामा होना ही था| जिसे शान्त करने के लिये कलेक्टर ने डॉक्टर को एपीओ कर दिया| अर्थात् डॉक्टर को बिना कार्य किये ही तक तक वेतन मिलता रहेगा, जब तक कि उसकी अन्यत्र पोस्टिंग नहीं हो जाती है| समझ में नहीं आता कि यह दण्ड है या पुरस्कार| राजस्थान में जब भी कोई लोक सेवक, विशेषकर अफसर अपराध करते हुए पकड़ा जाता है तो उसे एपीओ (अवेटिंग फॉर पोस्टिंग आर्डर-पदस्थापना आदेश की प्रतीक्षा में) कर दिया जाता है| कुछ दिनों बाद फिर से कोई नई घटना या घौटाले की खबरें सुर्खियों में आती है और जनता सबकुछ भूल जाती है| एपीओ किये गये अफसर को किसी अच्छी कमाई की जगह पर पोस्टिंग दे दी जाती है| जबकि ऐसे अपराधियों को तत्काल निलम्बित करके विभागीय नियमों के तहत अनुशासनिक कार्यवाही करने के साथ-साथ, ऐसे लोक सेवकों के आपराधिक  कृत्य के अनुसार भारतीय दण्ड संहिता के तहत भी कठोर कार्यवाही की जानी चाहिये|

कानूनी संरक्षण नहीं मिलने के कारण व पुलिस की लापरवाही से दहेज लोभी पति ने अपनी ही पत्नी को बेचने हेतु बंधक बनाया|

उधर पश्‍चिमी राजस्थान में ही 4 अक्टूबर को अजमेर जिले में एक वधु के घरवालों द्वारा दहेज की पूर्ति नहीं किये जाने के कारण ससुरालियों के सहयोग से पति ने न मात्र अपनी पत्नी को बन्धक बनाया, बल्कि उसे अन्य पुरुष को बेचने की भी कोशिश की गयी| सबसे बड़ा आश्‍चर्य तो ये है कि हिन्दुओं में प्रचलित दहेज प्रथा अब इस्लाम के अनुयाईयों में भी पैर पसारने लगी है| अजमेर जिले की तहसील ब्यावर के सदर थाना क्षेत्र की गुंदा का बाला निवासी पीड़िता ने रिपोर्ट पेश कर 13 सितंबर को मामला दर्ज करवाया था, लेकिन आरोपी आजाद काठात, मुल्तान कमरुद्दीन सहित अन्य के खिलाफ पुलिस ने कोई कार्यवाही नहीं की जिसके चलते आरोपियों ने उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाने की हिमाकत करने वाली बेवश औरत के साल क्रूरतापूर्ण कृत्य करने में कोई डर महसूस नहीं किया|

पुलिस को संवेदनशील मामलों में रिश्‍वत या बखशीस की उम्मीद छोड़कर तत्काल कानूनी कार्यवाही कर, अपराधियों को बड़े अपराध करने से रोकने के उपाय करने पर ध्यान देना चाहिये| तब ही इस प्रकार के क्रूर अपराधों की रोकथाम सम्भव है|

Wednesday, November 17, 2010

रुक सकता है 90 फीसदी भ्रष्टाचार!

रुक सकता है 90 फीसदी भ्रष्टाचार!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

भ्रष्टाचार से केवल सीधे तौर पर आहत लोग ही परेशान हों ऐसा नहीं है, बल्कि भ्रष्टाचार वो सांप है जो उसे पालने वालों को भी नहीं पहचानता। भ्र्रष्टाचार रूपी काला नाग कब किसको डस ले, इसका कोई भी अनुमान नहीं लगा सकता! भ्रष्टाचार हर एक व्यक्ति के जीवन के लिये खतरा है। अत: हर व्यक्ति को इसे आज नहीं तो कल रोकने के लिये आगे आना ही होगा, तो फिर इसकी शुरुआत आज ही क्यों न की जाये?
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इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं कि यदि केन्द्र एवं राज्य सरकारें चाहें तो देश में व्याप्त 90 फीसदी भ्रष्टाचार स्वत: रुक सकता है! मैं फिर से दौहरा दूँ कि "हाँ यदि सरकारें चाहें तो देश में व्याप्त 90 फीसदी भ्रष्टाचार स्वत: रुक सकता है!" शेष 10 फीसदी भ्रष्टाचार के लिये दोषी लोगों को कठोर सजा के जरिये ठीक किया जा सकता है। इस प्रकार देश की सबसे बडी समस्याओं में से एक भ्रष्टाचार से निजात पायी जा सकती है।

मेरी उपरोक्त बात पढकर अनेक पाठकों को लगेगा कि यदि ऐसा होता तो भ्रष्टाचार कभी का रुक गया होता। इसलिये मैं फिर से जोर देकर कहना चाहता हूँ कि "हाँ यदि सरकारें चाहती तो अवश्य ही रुक गया होता, लेकिन असल समस्या यही है कि सरकारें चाहती ही नहीं!" सरकारें ऐसा चाहेंगी भी क्यों? विशेषकर तब, जबकि लोकतन्त्र के विकृत हो चुके भारतीय लोकतन्त्र के संसदीय स्वरूप में सरकारों के निर्माण की आधारशिला ही काले धन एवं भ्रष्टाचार से रखी जाती रही हैं। अर्थात् हम सभी जानते हैं कि सभी दलों द्वारा काले धन एवं भ्रष्टाचार के जरिये अर्जित धन से ही तो लोकतान्त्रिक चुनाव ल‹डे और जीते जाते हैं।

स्वयं मतदाता भी तो भ्रष्ट लोगों को वोट देने आगे रहता है, जिसका प्रमाण है-अनेक भ्रष्ट राजनेताओं के साथ-साथ अनेक पूर्व भ्रष्ट अफसरों को भी चुनावों में भारी बहुमत से जिताना, जबकि सभी जानते हैं की अधिकतर अफसर जीवनभर भ्रष्टाचार की गंगा में डुबकी लगाते रहते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद ये ही अफसर हमारे जनप्रतिनिधि बनते जा रहे हैं। मैं ऐसे अनेक अफसरों के बारे में जानता हूँ जो 10 साल की नौकरी होते-होते एमपी-एमएलए बनने का ख्वाब देखना शुरू कर चुके हैं। साफ़ और सीधी सी बात है-कि ये चुनाव को जीतने लिये, शुरू से ही काला धन इकत्रित करना शुरू कर चुके हैं, जो भ्रष्टाचार के जरिये ही कमाया जा रहा है। फिर भी मतदाता इन्हें ही जितायेगा।

ऐसे हालत में सरकारें बिना किसी कारण के ये कैसे चाहेंगी कि भ्रष्टाचार रुके, विशेषकर तब; जबकि हम सभी जानते हैं कि भ्रष्टाचार, जो सभी राजनैतिक दलों की ऑक्सीजन है। यदि सरकारों द्वारा भ्रष्टाचार को ही समाप्त कर दिया गया तो इन राजनैतिक दलों का तो अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा! परिणाम सामने है : भ्रष्टाचार देशभर में हर क्षेत्र में बेलगाम दौ‹ड रहा है और केवल इतना ही नहीं, बल्कि हम में से अधिकतर लोग इस अंधी दौ‹ड में शामिल होने को बेताब हैं।

‘‘भ्रष्टाचार उन्मूलन कानून" बनाया जावे।

अधिकतर लोगों के भ्रष्टाचार की दौ‹ड में शामिल होने की कोशिशों के बावजूद भी उन लोगों को निराश होने की जरूरत नहीं है, जो की भ्रष्टाचार के खिलाफ काम कर रहे हैं या जो भ्रष्टाचार को ठीक नहीं समझते हैं। क्योंकि आम जनता के दबाव में यदि सरकार ‘‘सूचना का अधिकार कानून" बना सकती है, जिसमें सरकार की 90 प्रतिशत से अधिक फाइलों को जनता देख सकती है, तो ‘‘भ्रष्टाचार उन्मूलन कानून" बनाना क्यों असम्भव है? यद्यपि यह सही है कि ‘‘भ्रष्टाचार उन्मूलन कानून" बन जाने मात्र से ही अपने आप किसी प्रकार का जादू तो नहीं हो जाने वाला है, लेकिन ये बात तय है कि यदि ये कानून बन गया तो भ्रष्टाचार को रुकना ही होगा।

‘‘भ्रष्टाचार उन्मूलन कानून" बनवाने के लिए उन लोगों को आगे आना होगा जो-
भ्रष्टाचार से परेशान हैं, भ्रष्टाचार से पीड़ित हैं,
भ्रष्टाचार से दुखी हैं,
भ्रष्टाचार ने जिनका जीवन छीन लिया,
भ्रष्टाचार ने जिनके सपने छीन लिये और
जो इसके खिलाफ संघर्षरत हैं।

अनेक कथित बुद्धिजीवी, निराश एवं पलायनवादी लोगों का कहना है कि अब तो भ्रष्टाचार की गंगा में तो हर कोई हाथ धोना चाहता है। फिर कोई भ्रष्टाचार की क्यों खिलाफत करेगा? क्योंकि भ्रष्टाचार से तो सभी के वारे-न्यारे होते हैं। जबकि सच्चाई ये नहीं है, ये सिर्फ भ्रष्टाचार का एक छोटा सा पहलु है।

यदि सच्चाई जाननी है तो निम्न तथ्यों को ध्यान से पढकर सोचें, विचारें और फिर निर्णय लें, कि कितने लोग भ्रष्टाचार के पक्ष में हो सकते हैं?

अब मेरे सीधे सवाल उन लोगों से हैं जो भ्रष्ट हैं या भ्रष्टाचार के हिमायती हैं या जो भ्रष्टाचार की गंगा में डूबकी लगाने की बात करते हैं। क्या वे उस दिन के लिए सुरक्षा कवच बना सकते हैं, जिस दिन-

1. उनका कोई अपना बीमार हो और उसे केवल इसलिए नहीं बचाया जा सके, क्योंकि उसे दी जाने वाली दवाएँ कमीशन खाने वाले भ्रष्टाचारियों द्वारा निर्धारित मानदंडों पर खरी नहीं उतरने के बाद भी अप्रूव्ड करदी गयी थी?

2. उनका कोई अपना बस में यात्रा करे और मारा जाये और उस बस की इस कारण दुर्घटना हुई हो, क्योंकि बस में लगाये गए पुर्जे कमीशन खाने वाले भ्रष्टाचारियों द्वारा निर्धारित मानदंडों पर खरे नहीं उतरने के बावजूद अप्रूव्ड कर दिए थे?

3. उनका कोई अपना खाना खाने जाये और उनके ही जैसे भ्रष्टाचारियों द्वारा खाद्य वस्तुओं में की गयी मिलावट के चलते, तडप-तडप कर अपनी जान दे दे?

4. उनका कोई अपना किसी दुर्घटना या किसी गम्भीर बीमारी के चलते अस्पताल में भर्ती हो और डॉक्टर बिना रिश्वत लिये उपचार करने या ऑपरेशन करने से साफ इनकार कर दे या विलम्ब कर दे और पीड़ित व्यक्ति बचाया नहीं जा सके?

ऐसे और भी अनेक उदाहरण गिनाये जा सकते हैं।

यहाँ मेरा आशय केवल यह बतलाना है की भ्रष्टाचार से केवल सीधे तौर पर आहत लोग ही परेशान हों ऐसा नहीं है, बल्कि भ्रष्टाचार वो सांप है जो उसे पालने वालों को भी नहीं पहचानता। भ्र्रष्टाचार रूपी काला नाग कब किसको डस ले, इसका कोई भी अनुमान नहीं लगा सकता! भ्रष्टाचार हर एक व्यक्ति के जीवन के लिये खतरा है। अत: हर व्यक्ति को इसे आज नहीं तो कल रोकने के लिये आगे आना ही होगा, तो फिर इसकी शुरुआत आज ही क्यों न की जाये?

उपरोक्त विवरण पढकर यदि किसी को लगता है की भ्रष्टाचार पर रोक लगनी चाहिये तो ‘‘भ्रष्टाचार उन्मूलन कानून" बनाने के लिये अपने-अपने क्षेत्र में, अपने-अपने तरीके से भारत सरकार पर दबाव बनायें। केन्द्र में सरकार किसी भी दल की हो, लोकतन्त्रान्तिक शासन व्यवस्था में एकजुट जनता की बाजिब मांग को नकारना किसी भी सरकार के लिये आसान नहीं है।

क्या है? ‘‘भ्रष्टाचार उन्मूलन कानून"

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19.1.ग में प्रदत्त मूल अधिकार के तहत 1993 में शहीद-ए-आजम भगत सिंह की जयन्ती के दिन (26 एवं २7 सितम्बर की रात्री को) स्थापित एवं भारत सरकार की विधि अधीन दिल्ली से 6 अप्रेल, 1994 से पंजीबद्ध एवं अनुमोदित ‘‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान" (बास) के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में लगातार अनेक राज्यों के अनेक क्षेत्रों व व्यवसायों से जुडे लोगों के साथ कार्य करते हुए और 20 वर्ष 9 माह 5 दिन तक भारत सरकार की सेवा करते हुए मैंने जो कुछ जाना और अनुभव किया है, उसके अनुसार देश से भ्रष्टाचार का सफाया करने के लिये ‘‘भ्रष्टाचार उन्मूलन कानून" बनाना जरूरी है, जिसके लिये केन्द्र सरकार को संसद के माध्यम से वर्तमान कानूनों में कुछ बदलाव करने होंगे एवं कुछ नए कानून बनवाने होंगे, जिनका विवरण निम्न प्रकार है :-

1-भ्रष्टाचार अजमानतीय अपराध हो और हर हाल में फैसला 6 माह में हो : सबसे पहले तो यह बात समझने की जरूरत है कि भ्रष्टाचार केवल मात्र सरकारी लोगों द्वारा किया जाने वाला कुकृत्य नहीं है, बल्कि इसमें अनेक गैर-सरकारी लोग भी लिप्त रहते हैं। अत: भ्रष्टाचार या भ्रष्ट आचरण की परिभाषा को बदलकर अधिक विस्तृत किये जाने की जरूरत है। इसके अलावा इसमें केवल रिश्वत या कमीशन के लेन-देन को भ्रष्टाचार नहीं माना जावे, बल्कि किसी के भी द्वारा किसी के भी साथ किया जाने वाला ऐसा व्यवहार जो शोषण, गैर-बराबरी, अन्याय, भेदभाव, जमाखोरी, मिलावट, कालाबाजारी, मापतोल में गडबडी करना, डराना, धर्मान्धता, सम्प्रदायिकता, धमकाना, रिश्वतखोरी, उत्पीडन, अत्याचार, सन्त्रास, जनहित को नुकसान पहुँचाना, अधिनस्थ, असहाय एवं कमजोर लोगों की परिस्थितियों का दुरुपयोग आदि कुकृत्य को एवं जो मानव-मानव में विभेद करते हों, मानव के विकास एवं सम्मान को नुकसान पहुंचाते हों और जो देश की लोकतान्त्रिक, संवैधानिक, कानूनी एवं शान्तिपूर्ण व्यवस्था को भ्रष्ट, नष्ट या प्रदूषित करते हों को ‘‘भ्रष्टाचार" या "भ्रष्ट आचरण" घोषित किया जावे।

इस प्रकार के भ्रष्ट आचरण को भारतीय दण्ड संहिता में अजमानतीय एवं संज्ञेय अपराध घोषित किया जावे। ऐसे अपराधों में लिप्त लोगों को पुलिस जाँच के तत्काल बाद जेल में डाला जावे एवं उनके मुकदमों का निर्णय होने तक, उन्हें किसी भी परिस्थिति में जमानत या अन्तरिम जमानत या पेरोल पर छोडने का प्रावधान नहीं होना चाहिये। इसके साथ-साथ यह कानून भी बनाया जावे कि हर हाल में ऐसे मुकदमें की जाँच 3 माह में और मुकदमें का फैसला 6 माह के अन्दर किया जावे। अन्यथा जाँच या विचारण में विलम्ब करने पर जाँच एजेंसी या जज के खिलाफ भी जिम्मेदारी का निर्धारण करके सख्त दण्डात्मक कार्यवाही होनी चाहिये।

..............‘‘भ्रष्टाचार उन्मूलन कानून के शेष सुधार अगली किश्त में शीघ्र पढने को मिलेंगे....

पाठकों से निवेदन है कि खुलकर प्रतिक्रिया दें और बहस को आगे बढाने में सहयोग करें!

Thursday, September 9, 2010

बीमारियों का प्रकोप, कैसे बचें?

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
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इन दिनों देशभर में बुखार और आईफ्लू के बीमार देखे जा सकते हैं। बीमारी नियन्त्रित नहीं हो रही हैं। महंगे उपचार के बाद भी रोगी मारे भी जा रही हैं। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि जिस मार्डन ऐलोपैथी पर हम पूरी तरह से निर्भर हैं, वह कितनी सही और निरामय है।

यह बात निर्विवाद सत्य है कि ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति जिसे आधुनिक या मॉडर्न चिकित्सा पद्धपि भी कहा जाता है की लगभग शतप्रतिशत दवाईयों का मानव पर उपयोग करने से पूर्व मूक जानवरों पर परीक्षण किया जाता है। जिसके चलते दवाईयों के शारीरिक प्रभाव एवं कुप्रभाव तो नोट कर लिये जाते हैं, लेकिन इनके मानव मन पर क्या-क्या कुप्रभाव होते हैं। इसका कोई परीक्षण या परिणाम पता नहीं चल पाता है। इसलिये ऐलोपैथिक दवाईयों से रोगियों में अनेक प्रकार की मनोविकृतियाँ पैदा हो जाती हैं। जिनके उपचार के लिये फिर से नयी दवाईयाँ दी जाती हैं और यह सिलसिला मृत्युपर्यन्त चलता रहता है।

इन दिनों भारत जैसे देशों में विदेशी कम्पनियों को अपनी दवाईयों के मरीजों पर क्लीनिकल परीक्षण की अनुमतियाँ प्रदान की जाने लगी हैं। जिनके कारण अनेक गरीब और निर्दोष लोगों की मौत तक हो जाती हैं। भारत के लोग चुप बैठे तमाशा देखते रहते हैं। यह सब भारत की आईएएस लॉबी की कभी न समाप्त होने वाली धनलिप्सा के कारण सम्भव हो पा रहा है।

इसके अलावा भारतीय चिकित्सा पद्धतियों के भारत में ही लगातार पिछडते जाने का मूल कारण है, केन्द्रीय स्वास्थ्य मन्त्रालय में नीतिनियन्ता पद पर (चिकित्सा महानिदेशक के पद पर) केवल और केवल ऐलोपैथ चिकित्सकों का काबिज होना, जो कभी नहीं चाहते कि आयुर्वेद या होम्योपैथी या अन्य निरामय चिकित्सा पद्धतियाँ प्रभावी हों। इन पैथियों के विकास, उत्थान, अनुसन्धान आदि पर कितना बजट खर्च करना है, इसका निर्धारण एक ऐलोपैथ तय करता है।

इस दिशा में हम आम लोगों और मीडिया की चुप्पी भी बडा कारण है। इसके चलते अन्य पैथियों को उतना बजट नहीं मिल पाता है, जितना जरूरी है, इसका दु:खद दुष्परिणाम यह होता है कि आयुर्वेद के वैद्य भी स्वयं को डॉक्टर लिखने/कहलवाने और ऐलोपैथिक दवाईयों का उपयोग करने में पीछे नहीं रहते हैं। जबकि उन्हें ऐलोपैथी की दवाईयों का उपयोग करने का कानूनी अधिकार नहीं होता है।

इन दिनों देशभर में आईफ्लू फैला हुआ है, जिससे एक ओर तो चश्मों की विक्री हो रही है, दूसरी ओर आईड्रॉप भी खूब बिक रहे हैं। परिवार में किसी को भी यह तकलीफ हो गयी तो आम तौर पर परिवार के सभी सदस्यों में इसका संक्रमण हो जाता है। इसके बावजूद भी ऐलोपैथिक पद्धति में इसकी रोकथाम के लिये कोई टीका ईजाद नहीं किया गया है।

यदि किसी बन्धु को यह पीडा हो तो होम्योपैथी में इसका बडा ही आसान और सरल उपचार है। वैसे तो होम्योपैथी में रोगी के लक्षणों को देखकर के दवा का चयन किया जाता है, लेकिन मेरा करीब 20 वर्ष का अनुभव है कि आईफ्लू में हर रोगी के 90 प्रतिशत लक्षण एक समान पाये जाते हैं। जिनके लिये मेरी ओर से हर बार एक ही दवाई लोगों को मुफ्त में बाँटी जाती है। जिसका नाम है-यूफ्रेसिया-30 पोटेंसी में 4-5 पिल्स दिन में 4 बार रोगी को चूसने को देने पर 24 घण्टे में आराम मिल जाता है।

जिन लोगों को तकलीफ नहीं है, यदि वे भी इसकी दो दिन में चार खुराकों का सेवन कर लें तो उनका इस तकलीफ से बचाव हो जाता है। मेरा अनुभव है कि यह 90 से 95 फीसदी मामलों में सफल रही है। फिर भी योग्य होम्योपैथ की राय लेना उचित होगा।

इसी प्रकार से देशभर में इन दिनों अनेक प्रकार के बुखार चल रहे हैं, जिन्हें अनेक नामों से पुकारा जा रहा है। जिनमें अनेक लोगों की मृत्यु भी हो रही है। इलाज के नाम पर लूट भी खूब हो रही है। पिछले 20 दिनों में मेरे परिवार के चार सदस्यों को भी बुखार ने जकड लिया था। होम्योपैथी की दवाईयों के उपयोग से सभी स्वस्थ हो चुके हैं। जबकि अनेक हमारे परिचित एक माह से भी अधिक समय से एलोपैथों के चक्कर में बेहाल हैं।

कल समाचार मिला कि अजमेर में जिस बच्ची का पिछली वर्ष विवाह हुआ था, उसका जयपुर के एक प्रसिद्ध होस्पीटल में इलाज करवाया गया, तीन लाख रुपये खर्च हो गये और फिर भी कल 08.09.10 को लडकी की मृत्यु हो गयी।

मेरा पाठकों से आग्रह है कि ऐलोपैथी के जहर से बचें।

डिब्बाबन्द भोजन का उपयोग बन्द करें। शारीरिक श्रम करने में शर्म का अनुभव नहीं करें। प्रतिदिन हल्काफुल्का व्यायाम करें। भोजन में दाल, हरी सब्जी और ताजगी का खयाल रखें और जब कभी तकलीफ हो ही जाये तो कम से कम ऐलोपैथ के चक्कर में नहीं पडें और सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि किसी भी होम्योपैथ या आयुर्वेद के वैद्य पर तब तक विश्वास नहीं करें, जब तक कि आपको उसके ज्ञान एवं अनुभव की सही एवं विश्वसनीय जानकारी नहीं हो, क्योंकि आजकल नकली आयुर्वेदाचार्य और होम्योपैथ भी कम नहीं है।

इसी प्रकार से ऐलोपैथी का ज्ञान नहीं रखने वाले किसी वैद्य या होम्योपैथ से कभी भी ऐलोपैथिक दवाईयाँ नहीं लें। अन्यथा जीवन को खतरे से निकालना असम्भव है!