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Monday, May 2, 2011

परशुराम की जयन्ति मनाने का उद्देश्य?



डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

जो लोग अहिंसा, भ्रातृत्व, मानवता, समानता और इंसाफ की व्यवस्था में आस्था एवं विश्‍वास रखते हों, उनसे भारतीय इतिहास के सबसे क्रूर (सम्भवत:) और सामूहिक नर संहार करने वाले जघन्य अपराधी परशुराम की जयन्ति मनाना तो दूर, उसका नाम तक नहीं लेना चाहेंगे, लेकिन इस देश में ऐसे क्रूर अपराधी भी जयन्ति मनाई जाती है| जिस व्यक्ति (उसे व्यक्ति कहना भी इंसान जाति का अपमान है) ने एक बार नहीं, बल्कि अनेकों बार क्षत्रियों का सम्पूर्ण पृथ्वी से सामूहिक संहार किया हो, ऐसा व्यक्ति एक अच्छे व्यक्ति के रूप में तो दूर एक इंसान के रूप में भी याद किये जाने योग्य नहीं है| बल्कि ऐसे व्यक्ति को तो जिस प्रकार से रावण का पुतला जलाया जाता है, उसी प्रकार से क्षत्रियों को और मानवता के समर्थक तथा हिंसा का विरोध करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को परशुराम के पुतले जलाये जाने चाहिये| जिससे आज के समय के उन लोगों को को सबक मिल सके, जो मानव हत्या करना अपराध नहीं मानते हैं| आम लोगों के बीच सन्देश जा सके कि इतिहास हत्यारों को कभी माफ नहीं करता है|

केवल इतना ही नहीं, बल्कि परशुराम नामक क्रूर हत्यारा जातिवाद का भी कट्टर समर्थक था| वह ब्राह्मण के अलावा अन्य किसी भी जाति के लोगों को तब तक शस्त्रविद्या दान नहीं करता था, जब तक कि वह स्वयं शिक्षा पाने वाले को शिक्षा देने के लिये सहमत नहीं हों| अर्थात् शस्त्र विद्या सिखाने में परशुराम व्यक्ति की योग्यता या क्षमता नहीं, बल्कि जाति और अपनी इच्छा को ही प्राथमिक मानते थे| इसी कारण महाभारत के प्रमुख पात्र ‘‘कर्ण’’ को परशुराम से शस्त्र विद्या सीखने के लिये विवश होकर ‘‘ब्राह्मण’’ का रूप धारण करना पड़ा था और जैसे ही एक घटना के कारण परशुराम को ज्ञात हुआ कि जिस कर्ण को वे शिक्षा दे रहे हैं, वह ‘‘ब्राह्मण’’ नहीं, बल्कि ‘‘सूतपुत्र’’ है तो परशुराम ने निम्न जातियों के प्रति कटुता, घृणा, निर्दयता और हृदयहीनता का परिचय देते हुए ‘कर्ण को शाप दे दिया’ कि ‘‘कर्ण को जब भी परशुराम से सीखी शस्त्र विद्या की सर्वाधिक जरूरत पड़ेगी, तो वह परशुराम से सीखी शस्त्र विद्या को भूल जायेगा|’’ अनेक विद्वानों का मानना है कि परशुराम के इसी क्रूर और मनमाने शाप के कारण कर्ण, अर्जुन से अधिक दक्ष और योग्य यौद्धा होते हुए भी महाभारत के युद्ध में मारा गया|

परशुराम ने अपने जीवन में चाहे कितनी भी भक्ति और शक्ति अर्जित की हो, लेकिन उक्त दो धटनाएँ मात्र ही इस बात को प्रमाणित करने के लिये पर्याप्त हैं कि परशुराम नर के रूप में पिशाच था| जिसे याद करने की नहीं, बल्कि उसे हर कदम पर तिरस्कृत करने की जरूरत है, जिससे दुबारा कोई परशुराम बनने की हिम्मत नहीं कर सके| इसके विपरीत हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी ब्राह्मणों द्वारा परशुराम की जयन्ति ही नहीं, बल्कि जयन्ति सप्ताह समारोह पूर्वक मनाये जा रहे हैं, जो अक्षय तृतीया तक चलते हैं|

निश्‍चय ही यह इस बात का द्योतक है कि परशुराम की जयन्ति मनाने वाले ब्राह्मणों की दृष्टि में परशुराम एक महामानव था और उसके कार्य भी महान थे| जिनका आज की पीढी को अनुकण करना चाहिये| महान पुरुषों की जयन्तियों पर, महान लोगों के कार्यों से शिक्षा लेने का सन्देश दिया जाता है| परशुराम भक्तों की नजर में परशुराम महान नहीं, साक्षात राम हैं, ऐसा उनके द्वारा रचित ग्रन्थों में अनेकों स्थानों पर लिखा गया है, जिसके कार्यों, आचरण और आदर्शों को आज की पीढी को अपनाने के इरादे से ही परशुराम जयन्ति धूमधाम से मनाये जाने के कार्यक्रम देशभर में आयोजित किये जा रहे हैं|

अहिंसा का सन्देश देने वाले महावीर और गॉंधी के आजाद भारत में इससे अधिक अमानवीय, शर्मनाक, अपमानजनक, गैर-कानूनी और असंवैधानिक बात कुछ भी नहीं हो सकती| यदि अनेकों बार असंख्य क्षत्रियों का सामूहिक नरसंहार करने वाला हत्यारा परशुराम पूज्यनीय है तो फिर एक निहत्थे और वृद्ध मोहनदास कर्मचन्द गॉंधी की हत्या करने वाला नाथूराम गौडसे क्यों घृणित माना जावे? सम्भवत: इसी मानसिकता के समर्थक अनेक लोग नाथूराम गौडसे को भी शहीद मानते हैं और गुपचुप ही सही, लेकिन गौडसे की भी जयन्ति और बलिदान दिवस मनाने का अवसर नहीं चूकते हैं|

यह सब उस मूल आर्य संस्कृति की क्रूरता का ही असली रंग है, जो अपने छोटे से छोटे कर्मों को तो सर्वोत्तम, उल्लेखनीय और अनुकरणीय मानती है और दूसरों के सद्प्रयासों को भी हमेशा-हमेशा को समाप्त कर देना चाहती है| तभी तो ‘‘आर्यों के भगवान मनु’’ का मनुस्मृति के अध्याय एक में निम्न मनमानी व्यवस्था लिखने और उसे लागू करने का साहस हुआ-

मनुस्मृति के अध्याय एक श्‍लोक (95 व 96)

ब्राह्मण के मुख से देवता और पितर अपना हिस्सा (हव्य) खाते हैं|

इस श्‍लोक में मनु ने ब्राह्मणों के लिये जन्म-जन्मान्तर के लिये इस बात की स्थायी व्यवस्था कर दी है कि यदि ब्राह्मणों (भू-देवों अर्थात् पृथ्वी के साक्षात देवता) को शुद्ध घी, दूध, मलाई आदि से बने उत्तम पकवान खिलाओगे तो सभी पकवान सभी देवताओं और सभी पितरों (पूर्वजों) के पेट में पहुँच जायेगें| इसका अर्थ तो यही हुआ कि ब्राह्मण का पेट लैटर-बॉक्स है, जिसमें पकवान डालो और देवताओं तथा पूर्वजों को तृप्त कर दो|

श्‍लोक (97)-
संसार के सभी पांच माहभूतों और संसार में पाये जाने वाले सभी प्राणियों में ब्राह्मण ही सर्वश्रेृष्ठ है|

श्‍लोक (99)-
धर्म की पूर्ति के लिये जन्म लेने वाले प्राणी को ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है और केवल ब्राह्मण का जन्म ही धर्म की पूर्ति के लिये हुआ है| अत: मोक्ष की प्राप्ति पर ब्राह्मण का ही जन्मसिद्ध एकाधिकार है|

श्‍लोक (100 व 101)-
चूंकि ब्राह्मण धर्म की पूर्ति के लिये ब्रह्मा के मुख से पैदा हुआ है| अत: इस पृथ्वी पर जो कुछ भी धन, धान्य और खजाना (राजा का कोश) है, उस सब पर केवल ब्राह्मणों का ही (जन्मसिद्ध) अधिकार है| जबकि दूसरे सभी व्यक्ति केवल ब्राह्मण की दया पर निर्भर हैं| ब्राह्मण की इच्छा (अनुमति) से ही अन्य लोग अन्न, वस्त्र आदि प्राप्त कर सकते हैं|

श्‍लोक (102)-
चूँकि ब्राह्मण साक्षात देवता है| अत: ब्राह्मण का सभी धन, धान्य और खजाने पर पूर्ण अधिकार है| इस प्रकार वह किसी का दिया हुआ नहीं, बल्कि सबकुछ अपना ही खाता और भोगता है, जबकि दूसरे लोग ब्राह्मण की आज्ञा से ही अन्न, वस्त्र आदि वस्तुओं को ग्रहण कर सकते हैं|

मनुस्मृति के अध्याय 9 के श्‍लोक 318 में तो ब्राह्मणों की श्रेृष्ठता सिद्ध करने के लिये यहॉं तक लिख दिया है कि-

मनुस्मृति के अध्याय 9 के श्‍लोक 318 में
 
‘‘ब्राह्मण चाहे कितने ही त्याज्य और निन्दनीय
कुकर्म करता हो, कुकर्मों में लीन ही क्यों न रहता हो,
लेकिन फिर भी ब्राह्मण पूज्यनीय ही है, क्योंकि वह
ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण
परमदेव अर्थात् सर्वोत्तम देवता है|’’
‘‘ब्राह्मण चाहे कितने ही त्याज्य और निन्दनीय कुकर्म करता हो, कुकर्मों में लीन ही क्यों न रहता हो, लेकिन फिर भी ब्राह्मण पूज्यनीय ही है, क्योंकि वह ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण परमदेव अर्थात् सर्वोत्तम देवता है|’’

इसके बाद कुछ भी कहने को शेष नहीं रह जाता है, लेकिन फिर भी ब्राह्मणों की मनमानी व्यवस्था की कभी न समाप्त होने वाली इस महागाथा को अल्पविराम देने से पूर्व यह जरूर लिखना चाहूँगा कि परशुराम की जयन्ति मनाने वाले ब्राह्मणों और मनु को भगवान मानने वाले ब्राह्मणों की दृष्टि में उनका हर कदम पर साथ देने वाली ‘‘मातृशक्ति’’ अर्थात् स्त्री का कितना सम्मान है?
‘‘स्त्रियों के साथ मैत्री नहीं हो सकती|
इनके दिल लक्कड़बग्घों से भी क्रूर होते हैं|’’
देखें-ॠगवेद मंत्र (10/95/15)

1. ‘‘स्त्री मन को शिक्षित नहीं किया जा सकता| उसकी बुद्धि तुच्छ होती है|’’ देखें-ॠगवेद मंत्र (8/33/17)

2. ‘‘स्त्रियों के साथ मैत्री नहीं हो सकती| इनके दिल लक्कड़बग्घों से भी क्रूर होते हैं|’’ देखें-ॠगवेद मंत्र (10/95/15)

3. ‘‘कृपणं ह दुहिता’’ अर्थात्-‘‘पुत्री कष्टप्रदा, दुखदायिनी होती है|’’ देखें-ब्राह्मण ग्रंथ, ऐतरेय ब्राह्मण मंत्र (7/3/1)

4. ‘‘पुरुषों को दूषित करना स्त्रियों का स्वभाव ही है| अत: बुद्धिमामनों को स्त्रियों से बचना चाहिये|’’ देखें-मनुस्मृति, अध्याय-2 (श्‍लोक-217)

5. ‘‘शास्त्र की यह मर्यादा है कि स्त्रियो के संस्कार वेदमन्त्रों से नहीं करने चाहिये, क्योंकि स्त्रियॉं मूर्ख और अशुभ होती हैं| (एक स्थान पर लिखा है कि क्योंकि निरेन्द्रिय व अमन्त्रा होने के कारण स्त्रियों की स्थिति ही असत्य रूप होती है)’’ देखें-मनुस्मृति, अध्याय-9 (श्‍लोक-18)

6. ‘‘विधवा स्त्री को दुबारा विवाह नहीं करना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से धर्म का नाश होता है|’’ देखें-मनुस्मृति, अध्याय-9 (श्‍लोक-64)

‘‘स्त्रियॉं कौनसा दुष्कर्म नहीं कर सकती|’’
देखें-चाणक्यनीतिदर्पण, अध्याय-10 (श्‍लोक-4)

7. ‘‘स्त्रियॉं कौनसा दुष्कर्म नहीं कर सकती|’’ देखें-चाणक्यनीतिदर्पण, अध्याय-10 (श्‍लोक-4)

और भी बहुत कुछ है, जो इस देश के 98 फीसदी लोगों को मूर्ख बनाकर, उनपर हजारों सालों से शासन करने वाले दो फीसदी, उन लोगों की असलीयत सामने लायेगा, जो मूल आर्य संस्कृति को फिर से इस देश पर लागू करने का षड़यंत्र रचते रहते हैं और इस षड़यंत्र में अनेक अनार्यों को भी शामिल कर लिया है| सावधान!

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