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Tuesday, May 18, 2010

उ. प्र. हाई कोर्ट का मनमाना प्रशासनिक आदेश!

उ. प्र. हाई कोर्ट का मनमाना प्रशासनिक आदेश!

इस बात में भी कोई दो राय नहीं है कि जनहित याचिका के माध्यम से कुछ लोग कानून के इस प्रावधान का दुरुपयोग और स्वयं के हित में उपयोग कर रहे हैं। लेकिन ऐसे कुछ लोगों के कारण सभी लोगों के न्याय प्राप्ति के मार्ग में बाधाएँ खडी कर दी जावें और नागरिकों के संवैधानिक संरक्षण प्राप्त करने के मौलिक अधिकारों पर परोक्ष रूप से पाबन्दी लगादी जावे, यह तो कोई न्याय नहीं हुआ। यदि कोर्ट के समक्ष यह प्रमाणित हो जाता है कि कोई व्यक्ति जनहित याचिका के प्रावधान का दुरुपयोग कर रहा है, तो कोर्ट को ऐसे लोगों को दण्डित करने के लिये कडे कानून बनाने जाने चाहिये, न कि ऐसे चालाक किस्म के लोगों के कारण अन्य निर्दोष लोगों के न्याय प्राप्ति के मार्ग में व्यवधान पैदा किये जावें। मैं समझता हूँ कि न मात्र यह न्याय की माँग है, बल्कि मेरा साफ तौर पर यह भी मानना है कि इस संशोधन की संवैधानिकता को चुनौती दी जानी चाहिये और यदि चुनौती दी गयी तो संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 21, 32 एवं 226 की अभी तक सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गयी विवेचना एवं यह न्याय के पवित्र सिद्धान्तों के सामने यह टिकने वाला नहीं है।
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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

भारत के न्यायिक इतिहास में उत्तरप्रदेश हाईकोर्ट ऐसा पहला हाई कोर्ट हो गया है, जिसमें अब किसी गरीब और आम व्यक्ति या किसी भी संस्था की ओर से आसानी से जनहित याचिका दायर नहीं की जा सकेगी। हाई कोर्ट की प्रशासनिक कार्यवाही के तहत जारी किये गये उक्त आदेश को देखने से लगता है, मानो यह आदेश कार्यपालिका के किसी अधिकारी द्वारा आम लोगों की आवाज़ को दबाने के लिए जारी किया गया हो। जबकि न्यायिक अधिकारियों से ऐसे कठोर प्रशासकीय आदेशों की अपेक्षा नहीं की जाती है।

उ. प्र. हाई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट की गाइड लाईन के नाम पर यह कदम उठाया है। जिनमें सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखण्ड से सम्बन्धित एक मामले में कहा था कि जनहित याचिकाओं का दुरुपयोग रोकने के लिये सभी हाई कोर्ट्‌स को अपने-अपने स्तर पर कदम उठाने चाहिये। उत्तर प्रदेश हाई कोर्ट ने हाई कोर्ट रूल्स 1952 के अध्याय 22 में संशोधन करके नियम एक में उपनियम 3-ए जोडा है। ऐसा बताया जा रहा है कि उ. प्र. हाई कोर्ट ने यह कहकर के उपरोक्त संशोधन किया है कि इससे हाई कोर्ट में दायर हो रही जनहित याचिकाओं के दुरुपयोग पर अंकुश लगाना आसान हो सकेगा।

अब इस नये नियम के मुताबिक जब कोई व्यक्ति उ. प्र. हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर करेगा तो सबसे पहले उसे एक शपथ-पत्र पेश करके अपना संक्षिप्त परिचय प्रमाणित करना होगा। इसके अलावा शपथ-पत्र में उसे यह भी स्पष्ट करना होगा कि उसका याचिका को दायर करने में कोई व्यक्तिगत हित या लाभ तो निहित नहीं है। उसे यह भी घोषणा करनी होगी कि जनहित याचिका मंजूर होने पर न तो उसे स्वयं को और न ही उसके किसी सम्बन्धी को किसी प्रकार का लाभ होगा। हाई कोर्ट के नये रूल में आगे यह भी कहा गया है कि शपथ-पत्र में स्पष्ट रूप से घोषणा करनी होगी कि याचिका में पारित आदेश से किसी व्यक्ति विशेष, समुदाय अथवा राज्य का नुकसान नहीं होगा।

यदि कोई सामाजिक संस्था याचिका दायर करती है तो उसे भी याचिका दायर करने के लिए अपनी विश्वसनीयता और जनहित से जुडे उसके कार्यों, उपलब्धियों आदि का विस्तृत विवरण दर्शाते हुए शपथ-पत्र पेश करना होगा। हाई कोर्ट के नये संशोधित नियम में यह और कहा गया है कि यदि उपरोक्त शर्तें या इनमें से एक भी शर्त याचिकाकर्ता द्वारा शपथ-पत्र के जरिये पेश की जाने वाली याचिका में स्पष्ट रूप से शामिल तोनहीं की जाती हैं तो याचिका पर हाई कोर्ट विचार ही नहीं करेगा।

हाई कोर्ट के उपरोक्त संशोधन संविधान की मूल भावना को ही समाप्त कर देने वाला है। इस प्रकार के कानून के बाद किसी असक्षम व्यक्ति द्वारा याचिका दायर करना तो हमेशा के लिये समाप्त हो जाने वाला है और पत्र-याचिका जैसी शब्दावली की भी समाप्ति ही समझी जावे। यह न मात्र अनुचित ही, बल्कि असंवैधानिक भी है। यदि गहराई में जाकर देखें तो हम पाते हैं कि जनहित याचिकाओं के जरिये आम लोगों के हितों और मानव अधिकारों का संरक्षण होता रहा है। ऐसे में हाई कोर्ट का यह नया कानून मानव अधिकारों का हनने करने वाला कदम सिद्ध हो सकता है।

इस बात में भी कोई दो राय नहीं है कि जनहित याचिका के माध्यम से कुछ लोग कानून के इस प्रावधान का दुरुपयोग और स्वयं के हित में उपयोग कर रहे हैं। लेकिन ऐसे कुछ लोगों के कारण सभी लोगों के न्याय प्राप्ति के मार्ग में बाधाएँ खडी कर दी जावें और नागरिकों के संवैधानिक संरक्षण प्राप्त करने के मौलिक अधिकारों पर परोक्ष रूप से पाबन्दी लगादी जावे, यह तो कोई न्याय नहीं हुआ।

यदि कोर्ट के समक्ष यह प्रमाणित हो जाता है कि कोई व्यक्ति जनहित याचिका के प्रावधान का दुरुपयोग कर रहा है, तो कोर्ट को ऐसे लोगों को दण्डित करने के लिये कडे कानून बनाने जाने चाहिये, न कि ऐसे चालाक किस्म के लोगों के कारण अन्य निर्दोष लोगों के न्याय प्राप्ति के मार्ग में व्यवधान पैदा किये जावें। मैं समझता हूँ कि न मात्र यह न्याय की माँग है, बल्कि मेरा साफ तौर पर यह भी मानना है कि इस संशोधन की संवैधानिकता को चुनौती दी जानी चाहिये और यदि चुनौती दी गयी तो संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 21, 32 एवं 226 की अभी तक सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गयी विवेचना एवं यह न्याय के पवित्र सिद्धान्तों के सामने यह टिकने वाला नहीं है।
---------------------------------लेखक जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र प्रेसपालिका के सम्पादक, होम्योपैथ चिकित्सक, मानव व्यवहारशास्त्री, दाम्पत्य विवादों के सलाहकार, विविन्न विषयों के लेखक, कवि, शायर, चिन्तक, शोधार्थी, तनाव मुक्त जीवन, लोगों से काम लेने की कला, सकारात्मक जीवन पद्धति आदि विषयों के व्याख्याता तथा समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर संचालित संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। जिसमें दि. 13.05.2010 तक 4280 रजिस्टर्ड आजीवन कार्यकर्ता देश के 17 राज्यों में सेवारत हैं। फोन नं. 0141-2222225 (सायं 7 से 8 बजे के बीच)।

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1 comment:

  1. बस्तर के जंगलों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष पुलिस के जवानों के नरसंहार पर कवि की संवेदना व पीड़ा उभरकर सामने आई है |

    बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
    अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
    बस्तर की कोयल होने पर

    सनसनाते पेड़
    झुरझुराती टहनियां
    सरसराते पत्ते
    घने, कुंआरे जंगल,
    पेड़, वृक्ष, पत्तियां
    टहनियां सब जड़ हैं,
    सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |

    बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
    पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
    पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
    तड़तड़ाहट से बंदूकों की
    चिड़ियों की चहचहाट
    कौओं की कांव कांव,
    मुर्गों की बांग,
    शेर की पदचाप,
    बंदरों की उछलकूद
    हिरणों की कुलांचे,
    कोयल की कूह-कूह
    मौन-मौन और सब मौन है
    निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
    और अनचाहे सन्नाटे से !

    आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
    महुए से पकती, मस्त जिंदगी
    लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
    पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
    जंगल का भोलापन
    मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
    कहां है सब

    केवल बारूद की गंध,
    पेड़ पत्ती टहनियाँ
    सब बारूद के,
    बारूद से, बारूद के लिए
    भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
    भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।

    फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

    बस एक बेहद खामोश धमाका,
    पेड़ों पर फलो की तरह
    लटके मानव मांस के लोथड़े
    पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
    टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
    सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
    मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
    वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
    ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
    निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
    दर्द से लिपटी मौत,
    ना दोस्त ना दुश्मन
    बस देश-सेवा की लगन।

    विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
    आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
    अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
    बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
    अपने कोयल होने पर,
    अपनी कूह-कूह पर
    बस्तर की कोयल होने पर
    आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

    अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कलम से

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