मेरे शुभचिंतक और समालोचक जिनके विश्वास एवं संबल पर मैं यहाँ लिख पा रहा हूँ!

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Saturday, August 7, 2010

व्‍यवस्‍था परिवर्तन करो और भ्रष्‍टाचार से मुक्ति पाओ

From :

http://ajit09.blogspot.com/

कृपया निम्न आलेख पर मेरी टिप्पणी पढ़ें.


व्‍यवस्‍था परिवर्तन करो और भ्रष्‍टाचार से मुक्ति पाओ
अजित गुप्ता

लगभग 15 वर्ष पूर्व की बात होगी जब दो-तीन सांसदों के पास नोटों से भरे ब्रीफकेस प्राप्‍त हुए थे। जब उनपर कानून का शिकंजा कसने की बात आयी थी तब उन्‍होंने कहा था कि हम सांसद हैं और हमपर कार्यवाही नहीं की जा सकती। इस खबर को पढ़कर मैं चौंक गयी थी। हम कितने भी शिक्षित हो जाएं लेकिन हमारी शिक्षा केवल अपने कार्य क्षेत्र से ही जुड़ी होती है और इस कारण आम जनता को नहीं मालूम की हमारे यहाँ कानून व्‍यवस्‍था क्‍या है? तब मैंने सरसरी तौर पर इस कानून को जानने की कोशिश की। मैं सरसरी तौर पर इसलिए लिख रही हूँ कि मैंने कानून की पढ़ाई नहीं की बस बुद्धि का प्रयोग करते हुए थोड़ी बहुत जानकारी एकत्र की, इसलिए देश का प्रत्‍येक नागरिक थोडी सी जागरूकता रखते हुए बहुत सारी जानकारी प्राप्‍त कर सकता है।

इस देश में अंग्रेजों ने कई कानून बनाए। चूंकि वे राजा थे और हम प्रजा, इसलिए उन्‍होंने ऐसे कानून बनाए जिससे राजा सुरक्षित रहे और प्रजा को कभी भी सींखचों के अन्‍दर किया जा सके। दुर्भाग्‍य से आज तक हमारे देश में वही कानून लागू हैं। कानून के अन्‍तर्गत राजनेता और नौकरशाहों [bureaucracy ] पर सीधी कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती है। इसके लिए उनके शीर्ष अधिकारी की सहमति आवश्‍यक है। जैसे एक इंजिनियर के ऊपर आरोप लगे तो उसके चीफ इंजिनीयर की सहमति के बाद ही उस पर कार्यवाही होगी। इसी प्रकार सांसद member of parliament या मंत्री पर मुख्‍यमंत्री या प्रधान मंत्री की सहमति आवश्‍यक है। इस कारण कोई भी राजनेता और नौकरशाह सजा नहीं पाते और खुलकर भ्रष्‍टाचार करते हैं।

इस कारण देश में लोकपाल विधेयक की बात आयी। इसके अन्‍तर्गत इन लोगों पर सीधी कार्यवाही की जा सकती थी लेकिन इसके दायरे में प्रधानमंत्री और राष्‍ट्रपति को मुक्‍त रखा गया। यह कानून पास नहीं होने दिया गया। अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधान मंत्री थे तब उन्‍होंने कानून के दायरे में प्रधान मंत्री को भी सम्मिलित कराया लेकिन विधेयक पास नहीं हो पाया। अब्‍दुल कलाम जब राष्‍ट्रपति बने तब उन्‍होंने कहा कि राष्‍ट्रपति भी विधेयक के दायरे में आने चाहिए लेकिन विधेयक फिर भी पास नहीं हुआ। इसलिए आज आवश्‍यकता है कि सर्वप्रथम लोकपाल विधेयक पारित हो जिससे रातनेता और नौकरशाहों पर सीधी कार्यवाही हो सके। इसलिए मैंने एक टिप्‍पणी में लिखा था कि जिस दिन हमारा कानून बदल जाएगा उस दिन भ्रष्‍टाचार कपूर की तरह उड़ जाएगा।

भ्रष्‍टाचार का दूसरा बड़ा कारण है विलम्बित न्‍याय व्‍यवस्‍था। इसके लिए भी अंग्रेजों का कानून ही आड़े आ रहा है। पूर्व में हमारे यहाँ ग्रामीण पंचायती कानून था, और व्‍यक्ति को अविलम्‍ब न्‍याय मिलता था लेकिन इस व्‍यवस्‍था को समाप्‍त कर न्‍यायालयों की स्‍थापना की गयी। जहाँ आज लाखों केस बरसों से प्रतीक्षारत हैं। इसलिए इस कानून में बदलाव कर पुन: पंचायती राज की स्‍थापना करनी चाहिए और लम्बित प्रकरणों को शिविर लगाकर समाप्‍त करना चाहिए। इसके लिए जनता को ही दवाब बनाना होगा। हम जागरूकता का प्रसार करें। जिस दिन जनता को भ्रष्‍टाचार का मूल कारण समझ आ गया उस दिन से भ्रष्‍टाचार समाप्‍त होना प्रारम्‍भ हो जाएगा। अभी हम समझते हैं कि हमारा कानून पुख्‍ता है और भ्रष्‍ट लोगों को निश्चित रूप से सजा होगी, लेकिन यह हमारी भूल है। मैं इसलिए अंग्रेजों का जिक्र करती हूँ कि उन्‍होंने हमारे यहाँ जो व्‍यवस्‍थाएं स्‍थापित की वे भारत के विपरीत थी। मैं आत्‍म-मुग्‍ध भी नहीं हूँ बस इतना जानती हूँ कि जो निरापद व्‍यवस्‍थाएं हमारी थी उन्‍हें हम पुन: लागू करवाएं। व्‍यवस्‍था में परिवर्तन ही हमारी समस्‍याओं का हल है।

कृपया उक्त आलेख पर मेरी टिप्पणी पढ़ें: डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

आदरणीय अजित गुप्ताजी,

आपने अपने आलेख से अवगत करवाया इसके लिये और दो मुद्दों को लेकर आपकी ओर से प्रस्तुत की गयी विवेचनात्म्क विश्लेषण के लिये आभार और साधुवाद।

आदरणीय अजित गुप्ता जी, मैं आगे कुछ लिखने से पूर्व स्पष्ट कर दूँ कि मैं भी विधि स्नातक नहीं हँू, लेकिन नाइंसाफी के बीहड में फंस जाने पर और वकीलों के विपक्षी पार्टी के हाथों बिक जाने के कारण; विवश होकर मैंने भी आप ही की तरह अपने प्रयासों से कानून का थोडा बहुत ज्ञान प्राप्त किया है। जिसके आधार पर अपनी बात कहने का प्रयास कर रहा हँू। जरूरी नहीं कि मैं जो कुछ कहँू अन्तिम सत्य हो, हाँ अनुभव और व्यवहार के साथ-साथ संविधान के प्रकाश में कुछ बातें कहना जरूरी समझ रहा हँू। आशा है विचार प्रकट करने के मेरे अधिकार की आप रक्षा करेंगी :-

आदरणीय अजित गुप्ता जी, अधिकतर प्रतिक्रियाओं में आपको दोनों सुधारों के लिये समर्थन मिला है। जिसकी बडी वजह है कि आम और व्यवस्था से परेशान हर व्यक्ति हर उस सुधार या आशा की किरण का समर्थन (केवल कागजी या मौखिक) करने का तैयार है, जिससे उसे अन्याय के अन्धकार से प्रकाश की किरण में पदार्पण करने का प्रतिबिम्ब दिखाई देता हो।

आदरणीय अजित गुप्ता जी, कुछ पाठकों की ओर से यह कह कर निराशा भी व्यक्ति की गयी है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे। हमारे बुजर्गों ने हजारों वर्ष तक लगातार अगली पीढी को इस कहावत को प्रस्तुत करके बहुत सारी ऐसी बातों को हमें झेलने के लिये विवश कर दिया है। जिसके चलते हम आज भी बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे कहकर हार मान लेते हैं। मैंने विनम्रता पूर्वक इस कहावत को चुनौती मानकर इसे आगे बढाया है और मेरा मानना है कि आज हम न मात्र बिल्ली के गले में घंटी बांध सकते हैं, बल्कि बिल्ली को आसानी से पकड भी सकते हैं। यह कहवात हजारों वर्ष पूर्व तब बनी थी, जब कोई माता दूध को ठंडा करके दही जमाती थी और रात को बिल्ली आकर दूध या दही को चट कर जाती थी, जिसके चलते दूध/दही को केवल जानवरों को खिलाने के अलावा अन्य कोई रास्ता नहीं था। ऐसे में किसी समझदार बुजर्ग ने सुझाव दिया कि यदि बिल्ली के गले में घंटी बांध दी जावे तो जैसे ही बिल्ली दूध/दही खाने आयेगी तो उसके गले में बंधी घंटी बजेगी और सबकी नींद खुल जायेगी और हम दूध/दही को खाने से बचा लेंगे, लेकिन फिर सवाल उठा कि बिल्ली जैसे चालाक जानवर के गले में घंटी कौन बांधे और बात वहीं पर समाप्त हो गयी और हजारों वर्ष से हम इस कहानी को यहीं पर अधूरा छोड रहे हैं। बिल्ली को दूध एवं दही के साथ-साथ सबकुछ चट करने की मौन सहमति देते रहे हैं

आदरणीय अजित गुप्ता जी, मैंने इस कहानी को विनम्रता पूर्वक आगे बढाने का प्रयास किया है। एक दिन दूध या दही में कम मात्रा में नशीली दवाई को मिल दो, जिससे बिल्ली केवल बेहोश हो सके और उसके स्वास्थ्य को किसी प्रकार की क्षति नहीं हो। बेहोश होने के बाद बिल्ली के गले में आसानी से घंटी बांधी जा सकती है और जब भी दूध या दही खाने बिल्ली आयेगी तो वह या तो पकडी जायेगी या भाग जायेगी, लेकिन दूध और दही के साथ-साथ सभी खाने-पीने की चीजें सुरक्षित रहेगी। खैर न तो आजकल बिल्ली को दूध-दही मिलता है और न हीं लोगों को बिल्ली के गले में घंटी बांधने की जरूरत है। चूंकि ये निराशावादी कहावत प्रचलन में है, जिसे विराम देने के लिये मैंने कहानी को आगे बढाया है। आशा है मेरी इस अनपेक्षित चर्चा को आप अन्यथा नहीं लेंगी।

आदरणीय अजित गुप्ता जी, अब मुद्दे की बात पर आते हैं। सबसे पहले मैं आपके दूसरे सुधारवादी बिन्दु पर अपनी प्रतिक्रिया देना चाहूँगा। जिस प्रकार आज समय के साथ-साथ दूध, दही, बिल्ली और दूध की मालकिन भी बदल गयी हैं, उसी प्रकार से आज गाँवों में पंच पटेल भी बदल चुके हैं। यदि आज ग्राम पंचायतों को वर्तमान या आदिकालीन किसी भी स्वरूप में न्याय की शक्तियाँ पंचायतों को प्रदान कर दी गयी तो वहाँ पर न्याय के अलावा सब कुछ होगा।

आदरणीय अजित गुप्ता जी, आपको मेरी ऐसी टिप्पणी अजीब जरूर लगेगी, लेकिन मैं भी २५-३० वर्ष पहले तक आपकी ही तरह से सोचता था। लेकिन अब जबकि पंचायतों का सारा परिदृश्य ही बदल गया है तो पंचायतों के हाथों में न्याय प्रदान करने के अधिकार को सौंपने का समर्थन कैसे किया जा सकता है?

आदरणीय अजित गुप्ता जी, मुझे नहीं पता आपको वर्तमान ग्रामीण परिवेश का कितना ज्ञान है, लेकिन मैं गाँवों से ही हँू, लगातार वहाँ के हालातों से वाकिफ भी रहता हँू और एक-एक बात को बारीकी से देखता और अनुभव करता रहता हँू। २५-३० वर्ष पूर्व गाँवों में सरपंच अपनी जेब से लोगों को नाश्ता करवाकर खुश होता था, जबकि आज के अधिसंख्य सरपंच लोगों के मुंह से निवाला निकालकर खा जाने के नये-नये तरीके ईजाद करते रहते हैं। नरेगा में पंचायतों की सारी असलियत सामने आ गयी है।

आदरणीय अजित गुप्ता जी, अब आपके पहले सुझाव की ओर आते हैं। यह सही है कि बहुत सारे अंग्रेजों के जमाने के कानून अभी भी इस देश में वाकायदा लागू हैं। जिसके कारण आपके लिखे अनुसार सांसद एवं लोक सेवक दण्ड से बच निकलते हैं। मैं भी मानता हँू कि न्याय का आधार और साक्ष्य की पूरी प्रक्रिया को संचालित करने वाला साक्ष्य अधिनियम १८६० आज भी प्रचलन में है। ऐसे सैकडों कानून प्रचलन में हैं। परन्तु ऐसा नहीं है कि अंग्रेजों के बनाये कानूनों की सभी असंगत, अन्यायपूर्ण और विभेद करने वाली बातें/प्रावधान आज भी मान्य और स्वीकार्य हैं?

आदरणीय अजित गुप्ता जी, आपने जागरूकता की बात कहीं है। इसलिये कह सकता हँू कि कानून से अनजान व्यक्ति के लिये तो यह मानने लायक बात है कि अंग्रेजों के अन्यायपूर्ण कानून आज भी इस देश में लागू हैं, लेकिन जैसा कि आपने लिखा है कि थोडी-थोडी जानकारी हासिल करके प्रत्येक व्यक्ति जागरूक बन सकता है। यदि हम आपकी इस बात पर सभी भारतीय अमल करें और साथ ही कम से कम एक और भारतीय को जागरूक बनाने का प्रयास करें तो जागरूकता पैदा करना असम्भव नहीं है।

आदरणीय अजित गुप्ता जी, मैं विनम्रतापूर्वक को आपको एवं सभी पाठकों को अवगत करवाना चाहता हँू कि हमारे संविधान के निर्माता अत्यन्त दूरदर्शी एवं विद्वान व्यक्तित्व थे। जिन्होंने अंग्रेजों का राज और अन्याय देखा था और आजादी की लडाई में प्रताडनाएँ भी झेली थी। ऐसे में उनसे ऐसी कैसे अपेक्षा की जा सकती थी कि वे अंग्रेजों के विभेदकारी कानूनों को भारतीयों पर अत्याचार करने के लिये ज्यों का त्यों जिन्दा रहने देते।

आदरणीय अजित गुप्ता जी, उपरोक्त स्थिति को ध्यान में रखकर संविधान में साफ तौर पर व्यवस्था की गयी है कि संविधान के लागू होने से पूर्व में निर्मित ऐसा कोई भी कानून चाहे वह अंग्रेजों द्वारा निर्मित हो या किसी धार्मिकता पर आधारित हो, जैसे मनुस्मृति, यदि भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों के विपरीत है तो शून्य माना जायेगा। कृपया देखें संविधान का अनुच्छेद १३ (१)।

आदरणीय अजित गुप्ता जी, केवल इतना ही नहीं संविधान निर्माताओं को उसी समय आशंका थी कि संविधान लागू होने के बाद भी मनमाने और भेदभावपूर्ण कानून बनाकर लागू किये जा सकते हैं। इसलिये उन्होंने अनुच्छेद १३ के उप अनुच्छेद (२) में पहले से ही यह प्रावधान भी कर दिया है कि संविधान लागू होने के बाद भी ऐसा कोई कानून नहीं बनाया जायेगा जो संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों का हनन करता हो या उन्हें कम करता हो और यदि बनाया भी दिया गया तो ऐसा कानून उस सीमा तक शून्य होगा, जिस सीमा तक वह मूल अधिकारों का हनन करता होगा या उनको कम करता होगा।

आदरणीय अजित गुप्ता जी, इतना ही नहीं, यदि कोई असंवैधानिक कानून किसी सरकार द्वारा बना कर लागू कर दिया गया गया है या संविधान लागू होने से पूर्व बने कानून के असंवैधानिक प्रावधान वर्तमान में प्रचलन में हैं तो उन्हें किसी भी उच्च न्यायालय में अनुच्छेद २२६ के तहत और, या सीधे उच्चतम न्यायालय में अनुच्छेद ३२ के तहत चुनौती दी जाकर असंवैधानिक और, या शून्य घोषित करवाया जा सकता है। सैकडों बार न्यायालयों द्वारा ऐसा किया भी जा चुका है। कुछ समय पूर्व ही देश के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि भ्रष्टाचार में लिप्त लोक सेवकों के विरुद्ध मुकदमा चलाने के लिये किसी भी प्रकार की पूर्वानुमति की जरूरत नहीं है। आप जानती ही होंगी कि लोक सेवक की परिधि में कौन-कौन हैं।

आदरणीय अजित गुप्ता जी, सबसे बडी समस्या यह है कि हम इतने निकम्मे और सुविधा भोगी हो गये हैं, कि हम स्वयं कुछ भी नहीं करना चाहते। हमारी लडाई कोई और लडे तो ही अच्छा लगता है। हम चाहते हैं कि इस देश में भगत सिंह जैसे पुत्र पैदा हों, लेकिन अपने घर में नहीं, बल्कि पडौसी के घर में। सबसे दुःखद तो ये भी है कि जो लोग नाइंसाफी के विरुद्ध लड रहे हैं, उन्हें भी हम सहयोग नहीं करना चाहते। अन्यथा जनता के सामने प्रशासन या सरकार की मनमानी कहीं नहीं टिक सकती। यदि देश का हर व्यक्ति केवल १ रुपया प्रतिवर्ष भी न्याय प्राप्ति के नाम पर बचत करके एक संगठन को अपनी ओर से लडने के लिये अधिकृत कर दे तो करीब ७०-८० प्रतिशत व्यवस्थागत खामियाँ तो न्यायालयों एवं सूचना का अधिकार अधिनिमय के जरिये ही हल की जा सकती हैं।

आदरणीय अजित गुप्ता जी, एक बात और कि जो लोकपाल विधेयक का मामला है, इसे भी आप कोई पवित्र विचार नहीं माने, इसके पीछे भी कुटिल जाल है। यह भी अपने बचाव का तरीका ईजाद किया गया है!

आदरणीय अजित गुप्ता जी, मेरा तो सीधा सावल है कि संविधान का अनुच्छेद १४ साफ शब्दों में कहता है कि इस देश में सभी को कानून के समक्ष समान समझा जायेगा और सभी को कानून का समान संरक्षण प्राप्त होगा। इस प्रावधान पर सुप्रीम कोर्ट ने अनेक बार विवेचना की है और हर बार एक ही बात कही है कि कानून के समक्ष सब समान हैं और सभी को कानून का एक समान संरक्षण देना सरकार का बाध्यकारी दायित्व है।

आदरणीय अजित गुप्ता जी, इसके साथ यह कह कर मैं अपनी बात समाप्त करना चाहता हूँ कि संविधान का उल्लंधन करने वाले कानूनों को चुनौती दिये जाने पर, उन्हें असंवैधानिक घोषित करना न्यायपालिका का भी बाध्यकारी दायित्व है।

आदरणीय अजित गुप्ता जी, आपने मुझे अपने आलेख को लिंक भेजकर विचार व्यक्त करने का अवसर प्रदान किया, इसके लिये आपका हृदय से आभारी हँू। शुभकमानाओं सहित।
----------------------------लेखक जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र प्रेसपालिका के सम्पादक, होम्योपैथ चिकित्सक, मानव व्यवहारशास्त्री, दाम्पत्य विवादों के सलाहकार, विविन्न विषयों के लेखक, टिप्पणीकार, कवि, शायर, चिन्तक, शोधार्थी, तनाव मुक्त जीवन, लोगों से काम लेने की कला, सकारात्मक जीवन पद्धति आदि विषयों के व्याख्याता तथा समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर संचालित संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। जिसमें तक 4399 रजिस्टर्ड आजीवन कार्यकर्ता देश के 17 राज्यों में सेवारत हैं। फोन नं. 0141-2222225 (सायं 7 से 8 बजे)। Email : dr.purushottammeena@yahoo.in

2 comments:

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति।

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  2. bahut khoob likha aapne...
    aise hi likhte rahiye...
    Meri Nai Kavita padne ke liye jaroor aaye..
    aapke comments ke intzaar mein...

    A Silent Silence : Khaamosh si ik Pyaas

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