मेरे शुभचिंतक और समालोचक जिनके विश्वास एवं संबल पर मैं यहाँ लिख पा रहा हूँ!

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Thursday, January 23, 2014

बीमार को मारने से बीमारी नहीं मिटेगी!

परिवार के लोगों की आँखों के सामने उनकी 13 से 16 वर्ष की बेटी या बहिन का सामूहिक बलात्कार किया जाता है और स्थानीय पुलिस उनकी रिपोर्ट तक दर्ज नहीं करती! डॉक्टरी रिपोर्ट बनाकर देना तो दूर, सरकारी डॉक्टर पीड़िता का प्राथमिक उपचार तक नहीं करते। स्थानीय जन-प्रतिनिधि पीड़िता और आहत परिवार को संरक्षण तथा सुरक्षा देने के बजाय बलात्कारियों और अपराधियों को ही पनाह देते हैं! तहसीलदार से लेकर राष्ट्रपति तक गुहार करने के बाद भी पीड़िता की कोई सुनवाई नहीं होती। ऐसे हालात में पीड़िता के परिवार के लोग या बलात्कारित बेटियों के पिता या ऐसी बहनों के भाईयों को क्या सन्त बने रहना चाहिये? इस सवाल का जवाब इस देश के संवेदनशील और इंसाफ में आस्था एवं विश्‍वास रखने वालों से अपेक्षित है।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

भारत में बहुत सारी समस्याएँ लाइलाज बना दी गयी हैं। नक्सलवाद भी उनमे से एक है। अनेक प्रदेशों के राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों, मंत्रियो के साथ-साथ देश के राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री भी समय-समय पर अपने सम्बोधन में नक्सलवाद को देश की सबसे बड़ी और इसे आतंकवाद जैसी बड़ी समस्या बतला चुके हैं। यही नहीं अनेक कथित बड़े लेखक भी बड़े-बड़े शहरों के वातानुकूलित कक्षों में बैठकर इसी तर्ज पर नक्सलवाद के ऊपर खूब लिखते रहते हैं।

सरकार के खजाने पर पलकर और राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री और अन्य बड़े-बडे़ राज नेताओं के बयान लिखने वाले कथित सरकारी विद्वानों में से अधिकतर ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की जमीनी हकीकत और वस्तुस्थिति को जाकर देखना, समझना तथा हकीकत को जानना तो बहुत दूर, नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों के जिला मुख्यालयों का दौरा तक कभी नहीं किया होता है। फिर भी ऐसे कथित और अपने आपको विद्वान कहने वाले और बड़े-बडे़ समाचार-पत्रों में बिकने वाले तथा इलेक्ट्रॉनिक चैनलों पर दिखने वाले अनेक कथित बुद्धिजीवी और वर्तमान तथा पूर्व नौकरशाह भी नक्सलवाद पर लिखते और बोलते समय नक्सलवाद को इस देश का कोढ बतलाने से नहीं चूकते हैं।

परन्तु सबसे दु:खद पहलु यह है कि अधिसंख्य लोग इस समस्या की असली और वास्तविक तस्वीर देश के समक्ष पेश करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहे हैं। बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि नक्सलवाद असल में है क्या, इसके बारे में ऐसे लोगों को ज्ञान ही नहीं है। इन लेखकों में से अनेक तो नक्सलवाद की असली तस्वीर देशवासियों के सामने पेश करने की खतरनाक यात्रा के मार्ग पर चाहकर भी नहीं चलना चाहते हैं। ऐसे में सौद्देश्य कूटनीतिक सोच एवं लोगों को मूर्ख बनाने की कुनीति से लिखे जाने वाले आलेख, दिए जाने वाले व्याख्यान और राजनेताओं तथा जनप्रतिनिधियों व प्रशासकों के सम्भाषण इस समस्या को सुलझाने के बजाय लगातार और दिन-प्रतिदिन उलझाने का ही काम कर रहे हैं।

राजनीति करने वाले राजनेताओं एवं भ्रष्ट तथा पूर्वाग्रही नौकरशाहों की तो मजबूरी समझ में आती है, लेकिन तथाकथित स्वतन्त्र लेखकों और प्रबुद्ध वक्ताओं से ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे नक्सलवाद के असल कारणों को दरकिनार करके, नक्सलवाद के बारे में सत्ता के गलियारे से निकलने वाली ध्वनि की तोतारटन्त नकल करते दिखाई दें।

जिन लेखकों की रोजी-रोटी बडे़ समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों में झूठ को सच बनाकर बेचने से चलती है, उनकी विवशता तो एकबारगी समझ में आती भी है, लेकिन सिर्फ अपने अन्दर की आवाज को सुनकर लिखने और बोलने वालों को कलम उठाने या बोलने से पहले अपने आपसे पूछना चाहिये कि ‘‘मैं व्यक्तिगत तौर पर नक्सलवाद के बारे में कितना जानता हूँ?’’ यदि उनकी अन्तर्रात्मा से उत्तर आता है कि ‘‘कुछ नहीं’’, तो मेहरबानी करके ऐसे लोग देश को गुमराह करने का अक्षम्य अपराध नहीं करें।

नक्सलवाद पर थोड़ा सा विस्तार से लिखने से पूर्व मैं विनम्रतापूर्वक यह कहना चाहता हूँ कि ‘‘मैं किसी भी सूरत में हिंसा का पक्षधर नहीं हूँ और नक्सलवाद से नकारत्मक रूप से प्रभावित निर्दोष लोगों के प्रति मेरी सम्पूर्ण सहानुभूति है।’’ इसलिये इस आलेख के माध्यम से मैं हर उस व्यक्ति को सम्बोधित करना चाहता हूँ, जिन्हें इंसाफ की संवैधानिक व्यवस्था को बनाये रखने में आस्था और विश्‍वास हो। जिन्हें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 द्वारा प्रदत्त उस मूल अधिकार में विश्‍वास हो, जिसमें साफ तौर पर कहा गया है कि देश के प्रत्येक व्यक्ति को कानून के समक्ष समान समझा जायेगा और प्रत्येक व्यक्ति को कानून का समान संरक्षण प्रदान किया जायेगा। जिसकी व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट का साफ शब्दों में कहना है कि ‘‘समानता के मूल अधिकार को आंख बन्द करके लागू नहीं किया जा सकता। क्योंकि समानता के मूल अधिकार का मूल अभिप्राय है-समान लोगों के साथ समान व्यवहार, न कि असमान लोगों के साथ सामान व्यवहार।’’

जिन लोगों को उक्त संवैधानिक व्यवस्था मैं सम्पूर्ण आस्था और विश्‍वास हो, वे ही इन बातों को समझ सकते हैं। लेकिन याद रहे आस्था और विश्‍वास केवल कागजी या दिखावटी नहीं, सच्ची होनी चाहिये, बल्कि जिन लोगों को समाज की सच्ची तस्वीर को देखने और जानने की समझ हो और जो देश की असल समस्याओं के व्यावहारिक पहलुओं का भी ज्ञान रखते हों वे ही इन संवैधानिक बातों को बिना पूर्वाग्रह के सृजनात्मक तरीके से समझ सकते हैं। अन्यथा पूर्वाग्रह में जीने वाले तथा रुग्ण मानसिकता के शिकार लोगों के लिए इस आलेख को समझना आसान या सरल नहीं होगा?

यदि उक्त पंक्तियों को लिखने में मैंने कोई धृष्टता या गलती (Audacity or Mistake) नहीं की है तो कृपया सबसे पहले बिना किसी पूर्वाग्रह के इस बात को समझने का प्रयास करें कि एक ओर तो कहा जाता है कि हमारे देश में लोकतन्त्र है और दूसरी ओर लोकतन्त्र के नाम पर 1947 से लगातार यहॉं के लोगों के समक्ष चुनावों का नाटक खेला जाता रहा है। यदि देश में वास्तव में ही लोकतन्त्र है तो सरकार एवं प्रशासनिक व्यवस्था में देश के सभी वर्गों का समान रूप से प्रतिनिधित्व क्यों नहीं है? अर्थात् सरकार एवं प्रशासन में समानता का मूल अधिकार कहीं खो गया लगता है! सभी वर्गों के लोगों की प्रत्येक सरकारी क्षेत्र में समान रूप से हिस्सेदारी क्यों नहीं है? प्रत्येक सरकारी क्षेत्र में समान हिस्सेदारी नहीं होने से देश में लोकतन्त्र होने के कोई मायने ही नहीं रह जाते हैं!

फिर भी कुछ तथाकथित प्रबुद्ध लोग चिल्ला-चिल्लाकर दुहाई देते रहते हैं कि हम संसार के सबसे बड़े लोकतन्त्र में रहते हैं। ऐसे लोगों से मेरा सीधा सवाल है कि यदि देश में लोकतन्त्र है तो केवल दो फीसदी लोगों के यहॉं इस देश की राजनैतिक सत्ता और संसाधन गिरवी क्यों रखे हैं? लोकतन्त्र का प्रभाव आम लोगों में दिखाई क्यों नहीं देता है? लोकतन्त्र में लोगों के पास तो सत्ता की चाबी होनी चाहिये। लोकतन्त्र का मूल स्त्रोत "आम इंसान", सरकार, सत्ता एवं संसाधनों पर काबिज दो फीसदी महाभ्रष्ट और नैतिक रूप से पतित लोगों को बेदखल क्यों नहीं कर पा रहा है?

इन और ऐसे ही अनेकानेक सवालों के उत्तर ईमानदारी से तथा निष्पक्षतापूर्वक तलाशने पर स्वत: पता चलेगा कि न तो इस देश में सच्चे अर्थों में लोकतन्त्र है और न हीं इस देश की वास्तविक ताकत जनता में निहित है! इस परिप्रेक्ष में नक्सलवाद को समझने के लिये हमें इस देश के मूल निवासियों और आदिवासियों तथा दबे कुचले वर्गों के लोगों के बारे में कुछ मौलिक बातों को गहराई से समझना होगा, क्योंकि अधिसंख्य चालाक और कथित बुद्धिजीवियों द्वारा दुराशयपूर्वक यह झूठ फैलाया जाता रहा है कि केवल आदिवासी ही नक्सलवाद के संवाहक है!

यह एक कड़वा सच है कि वर्तमान में आदिवासियों की दशा, इस देश में सबसे बुरी है। इस तथ्य को स्वयं भारत सरकार के आँकडे़ ही प्रमाणित करते हैं। सब कुछ जानते हुए भी सत्ता और प्रशासन पर काबिज बहुत कम लोग इस बात को स्वीकार करते हैं कि आजादी के बाद से आज तक आदिवासी वर्ग का केवल शोषण ही शोषण किया जाता रहा है।

आदिवासियों के उत्थान की कथित योजनाओं के क्रियान्वयन के लिये ऐसे लोगों को जिम्मेदारी दी जाती रही है, जो आदिवासियों की मौलिक पृष्ठभूमि को, आदिवासियों की सामाजिक संरचना को, आदिवासियों की संस्कृति को और आदिवासियों की सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक समस्याओं के बारे में तो कुछ भी नहीं जानते हैं, लेकिन वे इस बात को जरूर अच्छी तरह से जानते हैं कि आदिवासियों के हित में बिना कुछ किये, आदिवासियों के लिये सरकार द्वारा आवण्टित बजट को हजम कैसे किया जाता है! ऐसे ब्यूरोक्रेट्स को भ्रष्ट और स्वार्थी राजनैतिक नेतृत्व का पूर्ण समर्थन मिलता रहा है।

इसके साथ-साथ यहॉं पर यह स्पष्ट करना भी जरूरी है कि राजनैतिक नेतृत्व में सभी लोग आदिवासियों के विरोधी या दुश्मन नहीं हैं, बल्कि कुछेक को छोड़कर सभी राजनैतिक दलों में कुछ प्रतिनिधि आज भी आदिवासियों के प्रति संजीदा और संवेदनशील भी हैं।

दूसरी ओर इस देश के केवल दो प्रतिशत लोग लच्छेदार अंग्रेजी में दिये जाने वाले तर्कों के जरिये इस देश को लूट रहे हैं और 98 प्रतिशत लोगों को मूर्ख बनाया जा रहा रहे है।

मुझे तो यह जानकर आश्‍चर्य हुआ कि देश के नीति-नियन्ता पदों पर बिराजमान और इन लोगों के हर गलत-सही कार्य के समर्थक लोगों में एकाधिक लोगों की बेरहमी से हत्या जैसा जघन्यतम अपराध करने वाले हत्यारों की संख्या तुलनात्मक दृष्टि से कई गुनी है, लेकिन इसके बावजूद भी इन हत्यारों में से किसी बिरले को ही कभी फांसी की सजा दी गयी होगी? इसके पीछे भी कोई न कोई कुटिल समझ तो काम कर ही रही है। अन्यथा ऐसा कैसे सम्भव है कि अन्य 98 प्रतिशत लोगों को तुलनात्मक रूप से बहुत छोटे और कम घिनौने मामलों में भी फांसी का हार पहना कर देश के कानून की रक्षा करने का फर्ज बखूबी निभाया जाता रहा है। जबकि सत्ता पर काबिज दो फीसदी लोगों को घृणित तथा जघन्य मामलों दोषी पाये जाने के उपरान्त भी यैनकेन प्रकारेण फांसी की सजा से बचा लिया जाता है।

यदि उपरोक्त साजिश पर तनिक भी सन्देश हो या किसी को विश्‍वास नहीं हो तो सूचना अधिकार कानून के तहत पुलिस या कोर्ट से आंकडे प्राप्त करके कोई भी व्यक्ति जान सकता है कि किस-किस जाति के, कितने-कितने लोगों ने एक साथ एक से अधिक लोगों की हत्या की और उनमें से किस-किस जाति के, कितने-कितने लोगों को अंतिम रूप से फांसी की सजा दी गयी और किस विशेष जाति या वर्ग के लोगों को चार-पॉंच या अधिक लोगों की बेरहमी से हत्या करने के बाद भी और दोषी पाये जाने के बाद भी उन्हें केवल उम्रकैद की सजा सुनाई गयी या उनको सन्देह का लाभ देकर दोषमुक्त कर दिया गया? छोटे-बडे़ सभी अपराधों में आदिवासियों को सुनाई गयी सजाओं तथा कैद के आंकडों की संख्या देखकर तो कोई भी संवेदनशील व्यक्ति सदमाग्रस्त हो सकता है! यही नहीं यदि आप इस विभेद को और गहराई से जानना चाहें तो बलात्कार के आँकडे़ निकाल कर पता कर सकते हैं कि किस जाति की महिलाओं के साथ सर्वाधिक बलात्कार होते हैं? कौन लोग सर्वाधिक बलात्कार करते हैं और किस जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार होने पर किस जाति के दोषियों को कम या अधिक सजा दी जाती है एवं किन-किन जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार होने पर मामला पुलिस के स्तर पर ही रफा-दफा कर दिया जाता है या अदालत में जाकर सांकेतिक सजा के बाद मामला समाप्त कर दिये जाते हैं?

जागरूक लोग चाहें तो यह भी पता कर सकते हैं कि इस देश के दो फीसदी महामानवों के अपराध सर्वप्रथम तो दबा दिए जाते हैं, कुछेक जो अदालतों तक पहुँचते हैं, उन मामलों में आश्‍चर्यजनक रूप से प्रत्येक स्तर पर द्रुत गति से न्याय मिलता है, जबकि इसके ठीक विपरीत इस देश के शेष 98 फीसदी निरीह लोगों के मामलों में वर्षों तक केवल और केवल तारीख और बस तारीख! यही नहीं मानव अधिकार आयोग द्वारा सुलटाये जाने वाले मामले उठाकर देखेंगे तो पता चल जायेगा कि इनमें किन-किन जातियों के कितने लोगों ने न्याय की गुहार लगाई और किस-किस जाति के कितने लोगों को न्याय या सच्ची मदद मिली? या किन लोगों के खिलाफ कार्यवाही की अनुशंसा की गयी? यहॉं पर भी जाति विशेष एवं महामानव होने की पहचान निश्‍चित रूप से काम करती है। पेट्रोल पम्प एवं गैस ऐजेंसी किनको मिलती रही हैं? ऐसे अफसर जिनकी गोपनीय रिपोर्ट गलत या नकारात्मक लिखी जाती है, उनमें किस वर्ग के लोग अधिक होते हैं तथा नकारात्मक गोपनीय रिपोर्ट लिखने वाले कौन से वर्ग या जाति के अफसर होते हैं? कौनसी दैवीय प्रतिभा के चलते संघ लोक सेवा आयोग द्वारा केवल दो फीसदी लोगों को पचास फीसदी से अधिक पदों पर चयनित कर लिया जाता है? शोषित, दमित और अन्याय के शिकार लोगों के विरुद्ध जानबूझकर और दुराशयपूर्वक मनमानी एवं भेदभाव करने की यह फेहरिस्त बहुत लम्बी है!

ऐसी भयानक असंवेदनशील, असंवैधानिक, विभेदकारी, शोषक और मनमानी राजनैतिक तथा प्रशासनिक व्यवस्था में आश्‍चर्य इस बात का नहीं होना चाहिये कि नक्सलवाद क्यों पनप रहा है, बल्कि आश्‍चर्य तो इस बात का होना चाहिये कि इतना अधिक क्रूरतापूर्ण दुर्व्यवहार, मनमानी और खुला भेदभाव होने के बाद भी केवल नक्सलवाद ही क्यों पनप रहा है? इतना अन्याय सहकर भी लोग अभी भी जिन्दा कैसे हैं? अभी भी लोग शान्ति की बात करने का साहस कैसे जुटाते हैं? इतना अन्याय सहते हुए भी लोगों को लोकतन्त्र में विश्‍वास कैसे है?

यहॉं पर एक कल्पित झूठ की ओर भी पाठकों का ध्यान खींचना बहुत जरूरी तथा प्रासंगिक है, वह यह कि ‘‘नक्सली केवल आदिवासी हैं!’’ जबकि सच्चाई यह है कि हर एक वर्ग और जाति का, लोग जिनका शोषण हो रहा है, जो विभेद का शिकार हो रहे हैं। जिनकी इज्ज्त और मान मर्यादा का सरेआम मखौल उड़ाया जा रहा है, जिनकी आँखों के सामने उनकी मॉं, बहन, बेटी और बहूओं की इज्जत लूटी जा रही है, जिनके घरों और खेत-खलियानों को जलाया जा रहा है-वही मजबूर लोग अन्याय का प्रतिकार करने के लिए नक्सलवादी बनने को विवश हो रहे हैं!

कल्पना करके देखें परिवार के लोगों की आँखों के सामने उनकी 13 से 16 वर्ष की बेटी या बहिन का सामूहिक बलात्कार किया जाता है और स्थानीय पुलिस उनकी रिपोर्ट तक दर्ज नहीं करती! डॉक्टरी रिपोर्ट बनाकर देना तो दूर, सरकारी डॉक्टर पीड़िता का प्राथमिक उपचार तक नहीं करते। स्थानीय जन-प्रतिनिधि पीड़िता और आहत परिवार को संरक्षण तथा सुरक्षा देने के बजाय बलात्कारियों और अपराधियों को ही पनाह देते हैं! तहसीलदार से लेकर राष्ट्रपति तक गुहार करने के बाद भी पीड़िता की कोई सुनवाई नहीं होती। ऐसे हालात में पीड़िता के परिवार के लोग या बलात्कारित बेटियों के पिता या ऐसी बहनों के भाईयों को क्या सन्त बने रहना चाहिये? इस सवाल का जवाब इस देश के संवेदनशील और इंसाफ में आस्था एवं विश्‍वास रखने वालों से अपेक्षित है।

दूसरी तस्वीर भी देखिये, अपराध कोई अन्य (बलशाली जो-जनबल, धनबल या बाहुबल से सम्पन्न है) करता है और पुलिस द्वारा ऐसे अपराधी से धन लेकर या उसके आका राजनेता या उच्च अफसर के दबाव में छोड़ दिया जाता है या पकड़ा ही नहीं जाता है और उसके बजाय अन्य किसी निर्दोष और मासूम को ऐसे मामले में फंसा दिया जाता है। बेकसूर होते हुए भी ऐसा निरीह व्यक्ति न्याय की उम्मीद में कई वर्षों तक जेल में सड़ता रहता है। इस दौरान जेल गये व्यक्ति का परिवार, उसकी खेती-आजीविका, उसके जानवर आदि सब बर्बाद हो जाते हैं या बर्बाद कर दिये जाते हैं। उसकी युवा पत्नी और, या उसकी युवा बहन या बेटी को सरेआम अगवा कर लिया जाता है। उन्हें रखैल और बन्धुआ बनाकर रखा जाता है। अनेक बार तो 15 से 20 वर्ष के युवाओं को झूठे मामलों में फंसा दिया जाता है और उनकी सारी जवानी जेल में ही समाप्त हो जाती है। जब कोई सबूत नहीं मिलता है तो थक-हार कर वर्षों बाद अदालत उन्हें रिहा कर देती हैं। रिहा होने पर ऐसे शोषण के शिकार लोगों का कोई ठोर-ठिकाना या घर-परिवार शेष नहीं बचता। ऐसे उत्पीड़ित लोगों से क्या हम संत या अनुशासित नागरिक बन रहने की आशा कर सकते हैं?

वहीं दूसरी ओर कानून, प्रशासन, न्यायपालिका और सरकार की दृष्टि में ऐसे उत्पीड़ित और निर्दोष लोगों का न तो कोई मान सम्मान होता है और न हीं उनके जीवन का कोई सामाजिक या राष्ट्रीय मूल्य होता है। इसलिये अकारण वर्षों तक जेल में सड़ते रहने के उपरान्त भी उनको सरकार की ओर से किसी प्रकार का मुआवजा या संरक्षण या समाज में पुनर्स्थापना हेतु सहयोग मिलना तो बहुत दूर, उन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया जाता है। ऐसे व्यथित और शोषित के शिकार लोग स्वयं तो ये भी नहीं जानते कि ‘‘मुआवजा है किस चिड़िया का नाम!’’

कानून का ज्ञान रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि एक आम इंसान के लिये प्रशासन और सरकार को उसकी गलतियों के लिए गलत ठहराकर, किसी भी प्रकार का मुआवजा प्राप्त करना लगभग असम्भव होता है। इसीलिये सरकार से मुआवजा प्राप्त करने के लिये लगभग शतप्रतिशत मामलों में अदालत की शरण लेनी ही पड़ती है, जिसके लिये वकील नियुक्त करने के लिये जरूरी दौलत ऐसे शोषित लोगों के पास नहीं होती और इस देश की कानून एवं न्याय व्यवस्था बिना किसी वकील के ऐसे निर्दोष तथा शोषित लोगों को, निर्दोष करार देकर भी मुआवजा देने के नाम पर स्वयं संज्ञान लेकर बिना वकील सुनना जरूरी नहीं समझती है।

इसके विपरीत अनेक ऐसे मामले भी इस देश में सामने आये हैं, आते रहते हैं, जिनमें अदालतें स्वयं संज्ञान लेकर पीड़ितों को मुआवजा प्रदान करने के आदेश प्रदान करती रही हैं, लेकिन किसी अपवाद को छोड़कर ऐसे आदेश केवल उक्त दो फीसदी लोगों या उनके कृपा पात्र लोगों के पक्ष में ही जारी किये जाते रहे हैं।

मुझे याद आता है कि साफ तौर पर नजर आने वाले एक जनहित के मामले में एक सामाजिक कार्यकर्ता ने अपने राज्य के हाई कोर्ट को अनेक बार पत्र लिखे, लेकिन उन पत्रों पर हाई कोर्ट ने कोई संज्ञान नहीं लिया, जबकि कुछ ही दिन बाद उन पत्रों में लिखा मामला एक दैनिक में प्रकाशित हुआ और उस पर हाई कोर्ट ने तत्काल स्वयं संज्ञान लेकर उस मामले को न मात्र जनहित याचिका मानकर स्वीकार कर लिया, बल्कि इसके साथ-साथ हाई कोर्ट के तीन वकीलों का पैनल उस मामले की पैरवी करने के लिये भी नियुक्त कर दिया। अगले दिन उस दैनिक में हाई कोर्ट के इस आदेश के बारे में मोटे-मोटे अक्षरों में समाचार प्रकाशित हुआ और हाई कोर्ट द्वारा संज्ञान लिये जाने के पक्ष में अखबार द्वारा खूब कसीदे पढे गये।

इन मनमाने हालातों में इस देश के कमजोर, दमित और दबे- कुचले वर्गों और विशेषकर आदिवासियों के विरुद्ध सरकार, प्रशासन, न्यायपालिका और राजनैतिक दलों द्वारा असमानता, गैर-बराबरी, अन्याय, भेदभाव, शोषण और क्रूरतापूर्ण दुर्व्यवहार के चलते केवल स्वाभाविक रूप से पनपने वाले ही नहीं, बल्कि हर एक स्तर पर जानबूझकर पनपाये जाने वाले रोष और असन्तोष रूपी नक्सलवाद को, जो लोग इस देश की सबसे बड़ी समस्या बतला रहे हैं, असल में ऐसे लोग स्वयं ही इस देश की सबसे बड़ी समस्या हैं! जैसा कि सभी जानते हैं कि वर्तमान में अनेक राज्यों की राज्य सरकारों और केन्द्रीय सुरक्षा बलों द्वारा नक्सलवादियों के विरुद्ध निर्मम संहारक अभियान चलाया जा रहा है, उस अभियान के मार्फत नक्सलवादियों और आदिवासियों को येन-कैन प्रकारेण मारकर इस समस्या को समाप्त करने का आत्मघाती प्रयास किया जा रहा है, जबकि नक्सलवाद से इस प्रकार से कभी भी स्थायी रूप से नहीं निपटा जा सकता, क्योंकि बीमार को मारकर, बीमारी को समाप्त नहीं किया जा सकता!

यदि सरकार बीमारी के कारणों को ईमानदारी से पहचान कर, उन कारणों का ईमानदारी से उपचार और समाधान करें तो नक्सलवाद क्या, किसी भी विकट से विकट समस्या का भी समाधान सम्भव है, लेकिन अंग्रेजों द्वारा कुटिल उद्देश्यों की पूर्ति के लिये स्थापित आईएएस एवं आईपीएस व्यवस्था के भरोसे देश को चलाने वाले भ्रष्ट राजनेताओं से यह आशा नहीं की जा सकती कि सकारात्मक तरीके से नक्सलवाद या किसी भी समस्या का स्थायी समाधान किया जा सके! केवल इतना ही नहीं, अब यदि सरकारों की यही नीति रही तो नक्सलवाद या ऐसे ही किसी दूसरे नाम से लोगों का असन्तोष और गुस्सा देश के अन्य हिस्सों में भी पैर-पसारते देर नहीं करने वाला। क्योंकि प्रशासन और सत्ताधीशों का भेदभाव और अन्याय लगातार दबे-कुचले वर्गों को ऐसा करने को विवश कर रहा है। ऐसे लोगों को कुछ राजनेता भी उकसा रहे हैं। इसलिये सरकार को इस बारे में तत्काल कदम उठाने होंगे।
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लेखक : आस्तिक, हिन्दू! तीसरी कक्षा के बाद पढाई छूटी! बाद में नियमित पढाई केवल 04 वर्ष! जीवन के 07 वर्ष मेहनत-मजदूरी जंगलों व खेतों में, 04 वर्ष 02 माह 26 दिन 04 जेलों में गुजारे और 20 वर्ष 09 माह 05 दिन दो रेलों में सेवा के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृति! जेल के दौरान-कई सौ पुस्तकों का अध्ययन, कविता लेखन किया एवं जेल में ही ग्रेज्युएशन डिग्री पूर्ण की! हिन्दू धर्म, जाति, वर्ण, समाज, कानून, अर्थ व्यवस्था, आतंकवाद, राजनीति, कानून, संविधान, स्वास्थ्य, मानव व्यवहार, मानव मनोविज्ञान, दाम्पत्य, आध्यात्म सहित अनेकानेक विषयों पर सतत लेखन और चिन्तन! विश्‍लेषक, टिप्पणीकार, कवि और शोधार्थी! छोटे बच्चों, कमजोर व दमित वर्गों, आदिवासियों और मजबूर औरतों के शोषण, उत्पीड़न तथा अभावमय जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अध्ययनरत! लेखन और पत्रकारिता के क्षेत्र में अनेक राष्ट्रीय सम्मानों से विभूषित, जयपुर से प्रकाशित हिन्दी पाक्षिक समाचार-पत्र "प्रेसपालिका" का प्रकाशक एवं सम्पादक! 1993 में स्थापित और वर्तमान में देश के 22 राज्यों में सेवारत राष्ट्रीय संगठन ‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान’ (बास-BAAS) का मुख्य संस्थापक तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष! राष्ट्रीय अध्यक्ष-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन, मुख्यालय-लखनऊ, उत्तर प्रदेश!-9828502666, 8561955619

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