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Friday, May 14, 2010

अभिशप्त दाम्पत्य!

अभिशप्त दाम्पत्य!

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(आज के दौर में पति-पत्नी का वैवाहिक रिश्ता

दो प्रेमियों का नहीं, अपितु एक दूसरे के

परोक्ष दुश्मन का जैसा बन गया है। क्यों? जानें!)

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पुरुषों ने सदैव से स्त्री को अपने भोग की वस्तु की तरह, जैसे चाहा, वैसे ही प्रयोग किया है। आज की स्त्री, पहले जैसी नहीं रही है। अब वह जानती है कि अन्य सब बातों के अलावा, उसे अपने पति से यौनतृप्ति की सुखानुभूति पाने का भी मौलिक अधिकार है, जिससे उसे वंचित करना, उसके प्रति सबसे बडा अपराध है। इस अपराध के लिये कोई भी पत्नी, अपने पति को कभी भी क्षमा नहीं कर सकती।
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जयपुर से डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

अभिशप्त बोध करता हो जो देह तुम्हारे स्पर्श से,
उस लाश पर अधिकार पाकर, तुम क्या करोगे?

उपरोक्त शेर में लिखे शब्द चाहे किसी के द्वारा भी लिखे गये हों, लेकिन ये हृदय को छू लेने वाले गहरे उद्‌गार एक ऐसी स्त्री के हैं, जो किसी मजबूरी में अपने पति के साथ रहने को विवश है। हालात ऐसे हैं कि उसके लिये अपने शरीर को पति के समक्ष प्रस्तुत करना वैवाहिक मजबूरी है, लेकिन उसका दिल पति के साथ नहीं है। बल्कि पति से कौसों दूर कहीं और है, या किसी समकक्ष की तलाश में है। इसके पीछे सामाजिक, पारिवारिक या अन्य कोई भी मजबूरी हो सकती है, लेकिन इस मजबूरी की वजह से ऐसे पति-पत्नी दोनों ही सुखी नहीं रह सकते। ऐसी अवस्था दोनों के लिये अनेक प्रकार की मानसिक एवं शारीरिक पीड़ाओं की कारक सिद्ध हो सकती है। इस तकलीफदेह अवस्था से गुजरना न मात्र पति-पत्नी को बल्कि बच्चों और सम्पूर्ण परिवार के लिये अनेक बार भयंकर परिणामों को भी जन्म दे सकता है। ऐसे में कुछ कमजोर दिल वाले पति-पत्नी आत्महत्या तक कर लेते हैं।

यहाँ देखने वाली बात यह है कि वे कौनसी परिस्थितियाँ होती हैं, जिनमें प्रकृति के सबसे सुन्दर रिश्ते में बंधने के लिये पैदा हुए स्त्री-पुरुष, जैसे ही पति-पत्नी के रिश्त में बंधते हैं, आपस में प्रेम करने के बजाय एक दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं। इस कड़वी, किन्तु सच्ची बात को हमें खुले दिल, और खुले दिमांग से समझना होगा।

यदि हम जीवोत्पत्ति के इतिहास पर नजर डालें तो पायेंगे कि आदिकाल से ही नर और माद हर प्रजाति में आपसी संसर्ग के लिये पैदा हुए हैं। आपसी संसर्ग के लिये प्रकृति ने दोनों को सम्पूर्ण रूप से आजाद पैदा था। लेकिन मानव समाज के निर्माण के साथ-साथ, तुलनात्मक रूप से शारीरिक रूप से कमजोर स्त्री पर, पुरुष ने कब्जा जमा लिया, जिसे स्त्री ने अपने प्रति पुरुष का प्यार समझकर सहर्ष स्वीकार कर लिया। कालान्तर में प्यार करने वाला पुरुष, स्त्री का स्वामी बन बैठा और यह बतलाने की जरूरत नहीं होनी चाहिये कि जब कोई आपका स्वामी बन जाता है तो आप उससे आप बराबरी के रिश्ते और सम्मान की उम्मीद नहीं कर सकते। अर्थात्‌ यदि पति स्वामी है तो पत्नी स्वामी की दासी के अलावा और कुछ हो ही नहीं सकती। किसी भी दासी को यह हक नहीं होता कि वह अपने स्वामी अर्थात्‌ पति जिसे आगे चलकर पतिदेव भी कहा जाने लगा, के सामने अपना मुख खोल सके। ऐसे हालात में दासी और मालिक या पतिदेव के बीच प्यार कैसे उत्पन्न हो सकता है। प्यार के लिये तो खाली जगह अर्थात्‌ स्पेस चाहिये होती है।

हजारों वर्षों तक स्त्री इसी विचित्र और यन्त्रणादायक स्थिति में जीने को विवश रही है। इसलिये उसने इन दुखद और असहनीय हालातों को अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि पुरुष और ताकतवर हो गया, उसकी नजर में पत्नी का महत्व कम होता गया और उसने एक से अधिक स्त्रियों को अपनी पत्नी के रूप में रखना शुरू कर दिया। अधिक स्त्रियाँ होना पुरुष के वर्चस्व एवं ताकत की प्रतीक समझी जाने लगी। इतिहास में ऐसे भी उदाहरण हैं, जब स्वयं पूर्व पत्नियों ने ही अपने पति के लिये नयी पत्नियों का चयन किया। पुरुष की स्त्रीभोग की बेलगाम इच्छा रुकी नहीं और उन्होंने कुछ अतिसुन्दर स्त्रियों का सामूहिक उपयोग करने के लिये रख लिया, जिसे नाम दिया गया-वैश्या। स्वाभाविक रूप से ऐसे हालात में विवाह के कुछ समय बाद पत्नी को पुरुष द्वारा किनारे कर दिया जाने लगा।

इन दुखद हालातों में पति और पत्नी दोनों का वैवाहिक रिश्ता दो प्रेमियों का नहीं, अपितु एक दूसरे के परोक्ष दुश्मन का जैसा बन गया। स्त्री ने पति के रूप में पुरुष को अपना शोषक और दुश्मन समझ लिया। लेकिन इसके बावजूद भी संभोग की अतृप्ति को लेकर स्त्री, पुरुष के विरुद्ध बगावत करने की स्थिति में कभी नहीं रही। प्रकृति द्वारा स्त्री को सन्तान पैदा करने का जो उपहार प्रदान किया था, वही शक्ति उसकी कमजोरी बन गयी! स्त्री यदि अपने पति के अलावा यदि किसी अन्य पुरुष से सम्भोग करती तो उसके गर्भवति होने की आशंका से ही वह काँप उठती थी। ऐसे में वह अपने पति के इन्तजार में केवल घुट-घुट कर मरने के सिवा कर भी क्या सकती थी?

इन हालातों में पुरुषमन और स्त्रीमन दोनों एक-दूसरे से भिन्न ही नहीं, बल्कि एक-दूसरे के विरोधी बनते चले गये। राजाओं के परामर्शदाता और शासन के असली सूत्रधार एवं संचालक रहे पण्डितों और पुरोहितों ने समस-समय पर अनेक ग्रंथों की रचना की, जिनमें से अनेक को कालान्तर में धार्मिक ग्रंथों का दर्जा मिल गया। इन ग्रंथों में सम्पूर्ण स्त्री जाति के लिये पतिव्रत धर्म को पालन करना, उसके चरित्र एवं उसकी पवित्रता से जोड दिया गया। परिणामस्वरूप सति अनुसूईया और सावित्री जैसे कुछ महिलाओं के नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में लिख दिये गये। ऐसे में स्वयं स्त्री के लिये भी इन धर्मग्रंथों का पालन करना अपने जीवन का अनिवार्य आदर्श बन गया। इसी के कारण अनेक राजाओं की रानियों ने अपनी इज्जत बचाने के लिये सामूहिक जौहर (जिसे जानबूझकर सामूहिक आत्महत्या नहीं कहा गया) करके अपने आपको अग्रिकुण्डों में समर्पित कर दिया। ऐसे कृत्यों को भी धर्मग्रंथ रचनाकारों ने प्रशंसनीय और प्रतिष्ठाजनक बना दिया। जिसके चलते युवा पति के मरते ही पत्नियाँ सति होने को विवश होने लगी। राजा पाण्डू की पत्नी माद्री इसका बहुत बडा उदाहरण है।

इन्हीं हालतों में हजारों वर्षों तक नीयति को मंजूर ङङ्गअभिशप्त दाम्पत्य' को जीते-जीते स्त्री मन समानता या आजादी या यौनसुख या यौनतृप्ति जैसी अनुभूति को प्रायः भूल ही गया था। इसी बीच भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना के दौरान ब्रितानी महिलाओं को यहाँ की महिलाओं ने हर क्षेत्र में आजाद और पुरुषों के समान ही अपने हकों का इस्तमाल करते देखा। इसी दौर में अनेक समाज सुधारकों ने स्त्री समानता एवं आजादी के लिये प्रयास किये। जिसके चलते पुरुष प्रधान समाज ने अन्ततः स्त्री समानता एवं स्त्री की आजादी की बात को सिद्धान्त रूप से स्वीकार कर लिया। परिणामस्वरूप भारत की आजादी के बाद हमारे देश के संविधान में स्त्री को पुरुष के समकक्ष ला खडा किया, लेकिन जमीनी स्थिति स्त्री की ठीक नहीं हो सकी।

स्त्री को शिक्षा पाने का अवसर मिला और जैसे-जैसे आजाद भारत की नारी को कानून और संविधान द्वारा प्रदत्त आजादी मिलती गयी, स्त्री ने उसका जमकर उपयोग किया। दुरुपयोग करने के भी आरोप लगे। इन्दिरा गाँधी के शासन के दौरान महिलाओं के पक्ष में अनेक कानून बनाये गये। जिनका उपयोग पुरुष प्रधान समाज में कभी भी स्त्री के वश में नहीं था, लेकिन एक पुत्री के पिता के रूप में पुरुष ने अपनी पुत्री के संरक्षण हेतु ऐसे कानूनों का उपयोग करना शुरू कर दिया। जिनके बलबूते महिलाओं के हालातों में सकारात्मक परिवर्तन शुरू हुआ। पुरुष को भी स्त्री के संवैधानिक, कानूनी, सामाजिक और पारिवारिक अधिकारों और हकों का अहसास होने लगा।

लगातार स्त्रियों में शिक्षा का प्रभाव एवं स्तर बढता गया। जिसके बूते स्त्री सरकारी सेवाओं में छोटे से बडे पदों पर पदस्थ होने लगी। पद, शक्ति एवं आर्थिक आत्मनिर्भरता मिलने के साथ-साथ स्त्री में भी पुरुष के समकक्ष बनने की उत्कण्ठा जागी और उसने भी पुरुष के दुर्गुणों को अपनाना शुरू कर दिया। स्त्री सिगरेट एवं शराब पीने के साथ-साथ डिस्को-डाँस पार्टियों का हिस्सा बनने लगी और उसने भी एक से अधिक पुरुषों के साथ यौन सम्बन्ध बनाना अपना अधिकार समझ लिया।

आजादी को पचा नहीं सकने वाली और स्त्री के प्राकृतिक गुणों को तिलांजलि दे चुकी स्त्रियों को किशोरावस्था से गुजरने वाली लडकियाँ, यदि अपनी आदर्श मानने लगें तो उनके भविष्य का तथा विवाह नाम की संस्था का क्या हस्र होने वाला है, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है? दुखद परिणाम हमारे सामने हैं। हमारे घरों में रंगीन टीवी पर जो तारिकाएँ अपनी छवि छोड रही हैं। जिस प्रकार के फूहड सीरियल दिखाये जा रहे हैं। एड्‌स के नाम प्रर जिस प्रकार के विज्ञापन परोसे जा रहे हैं। उनमें विवाह पूर्व और विवाह के बाद भी स्त्री-पुरुषों को एकाधिक स्त्री-पुरुषों से यौन सम्बन्ध बनाते दिखाया जाना आम बात हो गयी है। यही नहीं इसके लिये ऐसे पात्रों में किसी प्रकार का अपराध बोध नहीं, बल्कि इसे उनके हक के रूप में दिखाया जाता है। टीवी पर अनेक ऐसे कार्यक्रम देखे जा सकते हैं, जिनमें पत्नी की अपने पति से पटरी नहीं बैठती है या विवाद हो जाता है तो इसका समाधान खोजने के बजाय दूसरे पुरुष से सम्पर्क में आ जाना या पति को तलाक दे देना, सामान्य सी बात होती दिखायी जा रही हैं। इन हालातों में हम टीवी के माध्यम से हमारी बच्चियों का विकास और समाजीकरण कर रहे हैं और फिर भी हम चाहते हैं कि हमारी बच्चियाँ विवाह के बाद एक परम्परागत गृहणी के रूप में अपने कर्त्तव्यों का ईमानदारी से निर्वाह करें, यह असम्भव है। इसी का दुष्परिणाम है कि परिवार बनने के साथ ही बिखर रहे हैं।

विज्ञान ने भी आज स्त्री को पुरुष के समकक्ष ला खडा किया है। अब स्त्री को विवाह पूर्व या विवाह के बाद परपुरुष के साथ सेक्स सम्बन्ध बनाने से गर्भवति होने का खतरा नहीं सताता है। इस झंझट से मुक्ति पाने के आज ढेरों उपाय उसके पास हैं, जिनके सहारे वह, जब चाहे, जिसके साथ चाहे यौन सुख प्राप्त कर सकती है। पुरुष भी इसके लिये कम जिम्मेदार नहीं हैं। पुरुष अभी भी अपनी पुरातन मानसिकता से बाहर निकलकर सोचने को तैयार नहीं है। उसे विवाह में अभी भी पत्नी नहीं, दासी और सेविका की आशा रहती है, क्या यह सम्भव है?

ऐसे हालात में पति-पत्नी के बीच में और तो सबकुछ है, लेकिन दाम्पत्य सुख कहीं दूर-दूर तक भी नजर नहीं आता। ऐसे हालातों में आपसी विश्वास और परिवार का सुकून खो चुके अनेक नवदम्पत्तियों के विवादों को सुनकर, उनका निराकरण करने के दौरान मैंने पाया है कि समाज का समाजीकरण अब दादी-नानी के हाथ से पूरी तरह से निकल चुका है। पुरुष भी अपने दादा या पिता से नहीं, बल्कि फिल्मी और टीवी कलाकारों के बारे में छपने वाली गप्प खबरों से अधिक प्रभावित होता है। वह अपने साथियों के अधकचरे ज्ञान के सहारे दाम्पत्य जीवन में प्रवेश करता है। जहाँ पर दो विपरीत ध्रुव एक दूसरे से मिलते ही टकराने की स्थिति में होते हैं।

इन हालातों में ऐसे नवदम्पत्तियों द्वारा अपने आपसी विवादों में अपने परिवार के लोगों को शामिल कर लेना, हालातों को और भी भयंकर बना देता है। यदि कोई दम्पत्ति अपने जीवन में शान्ति एवं सुकून की आशा करता है, तो उसे भरसक प्रयास करना चाहिये कि उन दोनों के बीच में किसी निष्पक्ष सलाहकार के अलावा अन्य किसी को नहीं आने दें। अन्यथा उनके जीनव को नर्कधाम बनने में समय नहीं लगेगा।

एक और भी विकट समस्या है, विवाह के बाद आधुनिक कहलाने वाली पत्नियाँ, अपने पतियों पर, जरूरत से ज्यादा शिकंजा कसना चाहती हैं। यही नहीं वे इसे अपना अधिकार मान कर उपयोग करना चाहती हैं। जबकि स्त्रियों को पुरुष मन को समझना होगा। स्त्रियों को समझना होगा कि हजारों वर्षों से पुरुष मानसिकता में जीन्स के साथ जो गुणसूत्र एक पुरुष को विरासत में मिले होते हैं, उन्हें तत्काल दफन करना, किसी भी पुरुष के लिये न तो आसान है न ही सम्भव है। समय के साथ पुरुष बदल रहा है, लेकिन एकदम से पुरुष को कानून के अनुसार बदल जाना चाहिये, ऐसी उम्मीद करना, पुरुष के साथ तो नाइसाफी है ही साथ ही साथ पत्नियों के लिये भी यह अनुचित सिद्ध हो रहा है। यदि पत्नी, अपने पति को बदलने के लिये रस्सी को अधिक खींचेगी तो या तो पति दोहरा जीवन जीने लगेंगे, जिससे आपसी विश्वास की रस्सी टूट जायेगी। या फिर पति दुःखी रहने लगेगा। दुःखी पति के साथ कोई भी पत्नी सुखी नहीं रह सकती। इसके विपरीत भी उतना ही सच है। इसी प्रकार स्त्री आजादी के झोंकों की हवा अपनी पत्नी को नहीं लगे, ऐसी सोच रखने वाले पुरुषों को भी समय के साथ-साथ बदलने जरूरत हैं। आज के समय में स्त्री का भी अपना व्यक्तिगत जीवन होता है, उसको भी अपने व्यक्तित्व के विकास के लिये अवसर मिलने चाहिये।

अन्त में सबसे बडी और सबसे महत्वपूर्ण बात और भी कहना चाहता हँू, जिसके बिना यह आलेख अधूरा रहेगा। हम पुरुषों ने सदैव से स्त्री को अपने भोग की वस्तु की तरह, जैसे चाहा, वैसे ही प्रयोग किया है। आज की स्त्री, पहले जैसी नहीं रही है। अब वह जानती है कि अन्य सब बातों के अलावा, उसे अपने पति से यौनतृप्ति की सुखानुभूति पाने का भी मौलिक अधिकार है, जिससे उसे वंचित करना, उसके प्रति सबसे बडा अपराध है। इस अपराध के लिये कोई भी पत्नी, अपने पति को कभी भी क्षमा नहीं कर सकती। क्षमा करना भी नहीं चाहिये। इसलिये मेरा मानना है कि पतियों को एवं अपनी पत्नियों के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित करने के मामले में भी प्रगतिशील होना होगा तथा अधिक खुलेपन का परिचय देना होगा। पत्नी को भी अपने अहसास प्रकट करने का अवसर देना होगा। अपने अन्तरंग क्षणों को सुखद बनाने के लिये आप जो कुछ जानते हैं, उससे आगे भी बहुत कुछ सीखना होगा। अन्यथा आप दोनों का जीवन निरर्थक और निष्फल होकर कभी भी बिखर सकता है।

हमारा दुर्भाग्य है कि एक दो-पहिया वाहन चलाने के लिये तो सरकार द्वारा लाईसेंस जारी किया जाता है और उसके लिये अनेक नियम भी बनाये हुए हैं, लेकिन दाम्पत्य जीवन को कैसे सुखद एवं सुखी बनाया जाये, इस सम्बन्ध में न तो कोई कानूनी शर्त है, न ही कोई नियमावली। सब कुछ दो अनजान और अनाडी लोगों पर छोड दिया जाता है। ऐसे में यदि उनके बीच दुर्घटना घटित होती है या उनमें से कोई एक पूर्व से ही अनुभवी है और दूसरा अनाडी, जिसके कारण दोनों की चाल बिगड जाती है तो जिम्मेदारी किसकी है? इसके लिये परिवार एवं समाज तो जिम्मेदार है ही, लेकिन वैवाहिक मामलों में सरकार कानून के माध्यम से हस्तक्षेप करने का अधिकार रखती है। इसलिये इन हालातों को बिगाडने के लिये सरकार भी कम जिम्मेदारी नहीं है। इसलिये जरूरी है कि सामाजिक एवं सरकारी स्तर पर वैवाहिक मामलों के लिये औपचारिक रूप से विशेषज्ञ सलाहकार नियुक्त किये जावें, जिनकी सेवाएँ सभी को विवाह पूर्व एवं विवाह के बाद भी आसानी से उपलब्ध हों।

चूँकि अभी तक ऐसी सेवाएँ हैं नहीं, इसलिये हम जैसे कुछेक लोगों को समाज के हित में इस क्षेत्र में अपनी सेवाएँ अवश्य ही देनी चाहिये। यही नहीं नवदम्पत्तियों को भी विश्वसनीय एवं योग्य सलाहकारों से निःसंकोच परामर्श प्राप्त करना चाहिये।

मैं जब भी जयपुर में होता हूँ, प्रतिदिन सायं 7 बजे से सायं 8 बजे के बीच फोन नं. 0141-2222225 पर उपलब्ध रहता हूँ।
---------------------------------लेखक जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र प्रेसपालिका के सम्पादक, होम्योपैथ चिकित्सक, मानव व्यवहारशास्त्री, दाम्पत्य विवादों के सलाहकार, विविन्न विषयों के लेखक, कवि, शायर, चिन्तक, शोधार्थी, तनाव मुक्त जीवन, लोगों से काम लेने की कला, सकारात्मक जीवन पद्धति आदि विषयों के व्याख्याता तथा समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर संचालित संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। जिसमें दि. 13.05.2010 तक 4280 रजिस्टर्ड आजीवन कार्यकर्ता देश के 17 राज्यों में सेवारत हैं। फोन नं. 0141-2222225 (सायं 7 से 8 बजे के बीच)।
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