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Wednesday, April 6, 2011

सीबीआई ने थरथराते और कंपकंपाते हुए पूर्व जज निर्मल यादव के विरुद्ध चालान पेश किया!

सीबीआई ने थरथराते और कंपकंपाते हुए
पूर्व जज निर्मल यादव के विरुद्ध चालान पेश किया!

सीबीआई जहॉं एक ओर सामान्य व्यक्ति के विरुद्ध मामला जॉंचाधीन होने पर भी प्रेस कॉंफ्रेंस करके मीडिया को बढाचढाकर तथ्यों की जानकारी देने में पीछे नहीं रहती है, वही दूसरी ओर हाई कोर्ट की सेवानिवृत जज के विरुद्ध प्रथम दृष्टया अपराधों के तथ्यों की विश्‍वसनीयता प्रमाणित हो जाने पर भी उसका नाम तक लेने में संकोच कर रही है, जिससे सीबीआई की न्यायपालिका के प्रति दौहरी नीति का स्वत: ही पता चलता है| चालान पेश होने के बाद आरोपी पूर्व जज निर्मल यादव ने टिप्पणी करते हुए कहा है कि ‘‘सीबीआई पागल हो गयी है|’’
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मनीराम शर्मा, एडवोकेट

भारत की सर्वोच्च जॉंच एजेंसी केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) ने सम्भवत: अपने इतिहास में पहली बार हाई कोर्ट के एक रिटायर्ड जज के विरुद्ध मुकदमा बना कर, कोर्ट में चालान (आरोप-पत्र) पेश किया है| चालान पेश करने के बाद सीबीआई ने जो मीडिया का प्रेस विज्ञप्ति जारी की है, उसे पढकर लगता है कि सीबीआई के अफसरों के हाथ-पॉंव फूले हुए हैं और थरथराते व कंपकंपाते हाथों से सीबीआई ने पंजाब-हरियाणा तथा उत्तराखण्ड हाई कोर्ट की पूर्व जज निर्मल यादव के विरुद्ध मुकदमा बना कर सीबीआई की विशेष कोर्ट में पेश किया है| यह स्थिति तो तब है, जबकि पूर्व जज निर्मल यादव के खिलाफ मुकदमा चलाने हेतु देश के राष्ट्रपति से भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा १९ के अन्तर्गत स्वीकृति मिलने के बाद ही यह चालान पेश किया गया है|

सीबीआई ने भष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा ११ व १२ के अन्तर्गत सीबीआई की विशेष न्यायालय में चालान पेश किया है, जिसमें आगामी पेशी ६ अप्रेल को निर्धारित की गई है| ४५ पृष्ठीय चालान में मुख्य आरोप है कि पूर्व जज निर्मल यादव ने (हरियाणा-पंजाब हाई कोर्ट की जज के रूप में कार्य करते हुए) सम्पति से सम्बन्धित एक मामले का निर्णय करने में अत्यधिक फुर्ती दिखाई तथा जिसमें हरियाणा के अतिरिक्त महाधिवक्ता संजीव बंसल द्वारा पैरवी की गयी थी| इस मामले में संजीव बंसल के निकट मित्र और दिल्ली के व्यवसायी रविन्द्र सिंह के माध्यम से १५ लाख रुपये का रिश्‍वत के रूप में भुगतान करने का प्रयास किया गया था, जिसके चलते उसके पक्ष का पोषण किये जाने का पूर्व जज निर्मल यादव पर आरोप है|

सीबीआई कोर्ट में प्रस्तुत आरोप-पत्र के अनुसार उक्त मामले का निर्णय ११ मार्च, २००८ सुनाये जाने के दौरान, पक्षकार रविन्द्र सिंह ने अतिरिक्त महाधिवक्ता संजीव बंसल, आरोपी जज निर्मल यादव एवं प्रतिपक्षी सेवा निवृत मजिस्ट्रेट जी. आर. मित्तल से टेलीफोन तथा माबाइल द्वारा लगातार सम्पर्क किया|

प्रकरण के तथ्यों के बारे में प्राप्त जानकारी के अनुसार पंचकुला के सेक्टर १६ के विवादित प्लाट नं. ६०१, जिसे कि सेवा निवृत मजिस्ट्रेट जी. आर. मित्तल को बेचने का करार हुआ था, उसके विषय में वीणा गोयल व मित्तल के बीच विवाद उत्पन्न हो गया| मितल ने कई दौर के मुकदमों के बाद निचली अदालत में मामला जीता था और यह मामला अन्नत: पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत हुआ|

अरूण जैन नामक वरिष्ठ अधिवक्ता ने गोयल की अपील याचिका तैयार की थी, किन्तु तत्पश्‍चात जैन से अनापत्ति लेकर संजीव बंसल को इस मामले की पैरवी हेतु लगाया गया| प्रकरण ०१ फरवरी, २००८ को पंजाब हरियाणा हाई कोर्ट की जज निर्मल यादव के समक्ष सुनवाई हेतु प्रस्तुत हुआ था, किन्तु उस दिन वह डिवीजन बैंच में व्यस्त थी| अत: पेशकार द्वारा मामला ०३ मार्च, २००८ को सुनवाई के लिए स्थगित किया गया, किन्तु डिवीजन बैंच से लौटने के बाद जज निर्मल यादव ने इस मामले को ०४ फरवरी, ०८ को अपने कोर्ट में लगवाकर सुनवाई की एवं निर्णय सुरक्षित रख लिया और एक माह से अधिक समय तक मामले के निर्णय को लम्बित रखने के बाद ११ मार्च, २००८ को वीणा गोयल के पक्ष में निर्णय सुनाया गया|

इस मामले में सीबीआई की ओर से पिछले दिनों कोर्ट में पेश आरोप-पत्र (चालान) में कहा गया है कि इस मामले की आरोपी पूर्व जज निर्मल यादव ने मामले की सुनवाई करने में जल्दबाजी दिखाई| यह भी आरोप है कि अगस्त २००८ में एक व्यापारी रविन्द्र सिंह ने गलती से रिश्‍वत की राशि १५ लाख रुपये पंजाब हरियाणा हाई कोर्ट की ही मिलते-जुलते नाम वाली अन्य महिला जज निर्मलजीत कौर के यहां पहुंचा दी थी, जिसने इस १५ लाख रुपये की रिश्‍वत की राशि के सम्बन्ध में पुलिस को रिपोर्ट कर दी थी| इसी से यह मामला सामने आया था|

पुलिस ने अपनी जॉंच-पड़ताल में पाया कि महिला जज निर्मलजीत कौर के निवास पर पहुँचायी गयी १५ लाख रुपये की धनराशि वास्तव में न्यायाधीश निर्मल यादव को देने के लिए भेजी गयी थी, लेकिन मिलते-जुलते नाम के कारण गलती से निर्मलजीत कौर के निवास पर पहुँचा दी गयी| चण्डीगढ पुलिस ने मात्र ९ दिन में तथ्यों का अन्वेषण कर संजीव बंसल, राजीव गुप्ता व रविन्द्र सिंह को गिरफ्तार कर लिया, जिन्होंने पुलिस को बताया कि उक्त धनराशि हाई कोर्ट की तत्कालीन जज निर्मल यादव को उक्त मामले में उनके हितों के पूर्ण करने वाला निर्णय देने के लिए भेजी गयी थी| पक्षकार एवं जज तथा अन्य शामिल लोगों के मोबाईल कॉल डिटेल से भी इन तथ्यों की पुष्टि हुई|

पंजाब के गवर्नर एस. एस. रोडरिगस ने पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तीर्थसिंह ठाकुर के ध्यान में लाते हुए २६ अगस्त, ०८ को इस मामले की सीबीआई से जांच कराने का आग्रह किया था| यद्यपि इसके विपरीत केन्द्रीय विधि एवं न्याय मंत्रालय ने सीबीआई से कहा कि संजीव बंसल, रविन्द्रसिंह और निर्मल सिंह द्वारा न्यायाधीश निर्मल यादव के साथ मिलकर षडयन्त्र कर अपराध करने का नाम मात्र का भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है| अत: भारत सरकार से आरोपी जज एवं अन्य के विरुद्ध अभियोजन चलाने की स्वीकृति के अभाव में मार्च, २०१० में सीबीआई द्वारा चण्डीगढ स्थित सीबीआई कोर्ट से मामले को बन्द करने की प्रार्थना भी की गयी थी, जिसे सीबीआई कोर्ट द्वारा अस्वीकार कर दिया था|

उपरोक्त मामला इसी स्तर पर दबने के कगार पर ही था, लेकिन सूचना का अधिकार कानून के अन्तर्गत एक आवेदन केे जबाब में खुलासा हुआ कि रिश्‍वत के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट तथा केन्द्र सरकार द्वारा क्लीन चिट देने के दो माह बाद पंजाब के गवर्नर, सीबीआई तथा गोखले कमेटी ने निष्कर्ष निकाला कि पूर्व जज निर्मल यादव को वास्तव में १५ लाख रुपये दिए जाने थे| यह तथ्य मीडिया के माध्यम से सार्वजनिक हो गया|

इसके बाद अतिरिक्त महाधिवक्ता संजीव बंसल ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था, जबकि निर्मल यादव नैतिकता के आधार पर अवकाश पर चली गई| बाद में उन्हें उत्तराखण्ड हाई कोर्ट में स्थानान्तरित कर दिया गया| भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधिपति बालाकृष्णन ने अलग से न्यायाधीशों की कमेटी से जांच हेतु अनुशंसा की थी, किन्तु इसके साथ-साथ उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की हैसियत से केन्द्रीय सरकार को निर्मल यादव के विरुद्ध किसी भी प्रकार की कार्यवाही नहीं करने की सलाह भी दी थी| उस समय के मुख्य न्यायाधिपति की अनुशंसा पर गठित गोखले कमेटी ने अपनी ९२ पृष्ठीय रिपोर्ट में कहा है कि न्यायाधीश निर्मल यादव पर लगाये गये आरोप सारभूत व गंभीर है जो न्यायाधीश निर्मल यादव को अपने पद से हटाने की कार्यवाही प्रारम्भ करने हेतु पर्याप्त हैं|

अन्तत: भारत के मुख्य न्यायाधीश कपाड़िया की राय पर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल द्वारा २८ फरवरी, २०११ को सेवा निवृत्त हो चुकी जज निर्मल यादव के विरुद्ध अभियोजन चलाने की स्वीकृति प्रदान की गई| इसके उपरान्त भी सीबीआई की ओर से जो आरोप-पत्र कोर्ट में पेश किया गया है, उसकी प्रेस विज्ञप्ति में ओरापी जज एवं अन्य के नाम तक उजागर नहीं दिये गये हैं और इसके विपरीत विज्ञप्ति में विशेष रूप से यह भी लिखा गया है कि ‘‘भारतीय कानून में एक अभियुक्त को उचित परीक्षण में दोषी न पाये जाने तक निर्दोष समझा जाता है|’’

इस प्रकार सीबीआई जहॉं सामान्य व्यक्ति के विरुद्ध मामला जॉंचाधीन होने पर भी प्रेस कॉंफ्रेंस करके मीडिया को बढाचढाकर तथ्यों की जानकारी देने में पीछे नहीं रहती है, वही सीबीआई एक हाई कोर्ट की सेवानिवृत जज के विरुद्ध प्रथम दृष्टया अपराधों के तथ्यों की विश्‍वसनीयता प्रमाणित हो जाने पर भी उसका नाम तक लेने में संकोच कर रही है, जिससे सीबीआई की न्यायपालिका के प्रति दौहरी नीति का स्वत: ही पता चलता है|

उक्त चालान पेश होने के बाद आरोपी पूर्व जज निर्मल यादव ने टिप्पणी करते हुए कहा है कि ‘‘सीबीआई पागल हो गयी है|’’ यहॉं विशेष रूप से ध्यान देने योग्य तथ्य है कि सीबीआई की विज्ञप्ति में आरोपी पूर्व जज के साथ-साथ उच्च पदासीन आरोपी व्यक्तियों के नाम तक उजागर नहीं किए गए है और अन्त में स्पष्टीकरण जोड़कर अभियुक्तों को निर्दोष भी बताया गया है| यद्यपि यह समाचार दैनिक समाचार पत्रों में पूर्व में सचित्र प्रकाशित होता रहा है| कानून की दृष्टि में किसी के भी विरुद्ध प्रस्तुत किया जाने वाला आरोप पत्र एक लोक दस्तावेज (पब्लिक डॉक्यूमेण्ट) होता है, जिसे कोई भी व्यक्ति कोर्ट में आवेदन देकर प्राप्त कर सकता है| जिसको सीबीआई द्वारा गोपनीय रखने का कोई औचित्य नहीं है|

जबकि इसके विपरीत सुप्रीम कोर्ठ द्वारा शिवनंदन पासवान (एआईआर, १९८७ सुप्रीम कोर्ट-८७७) के प्रकरण में व्यक्त विचारों के अनुसार चूंकि अपराधिक कार्यवाही समाज हित में संचालित होती है, अत: कोई भी नागरिक इसमें किसी भी स्तर पर भागीदार बन सकता है| ऐसे में प्रश्‍न यह है कि क्या सीबीआई पूर्व में भी कभी ऐसा बर्ताव करती रही है और क्या सभी मामलों में ऐसा स्पष्टीकरण जोड़ा जाता रहा है कि ‘‘कोर्ट द्वारा दोषी सिद्ध नहीं हो जाने तक आरोपियों को दोषी नहीं समझा जाना चाहिये|’’

केवल इतना ही नहीं, बल्कि सीबीआई का यह व्यवहार विनीत नारायण (विनीत नारायण बनाम भारत संघ, सुप्रीम कोर्ट-८८९) के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा व्यक्त विचारों का भी उल्लंघन करता है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा है कि ‘‘कानून अभियोजन एवं अनुसंधान हेतु अभियुक्तों को उनकी हैसियत के अनुसार वर्गीकृत नहीं करता है| समान प्रकार का अपराध करने वाले सभी अपराधियों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए|’’ ऐसे हालात में यह संदेहास्पद है कि जो सीबीआई आरोपी सिद्ध हो चुके अभियुक्तों का नाम तक प्रकट करने में संकोच कर रही है और साथ ही साथ उन्हें निर्दोष भी बताने का प्रयास कर रही है, क्या वही सीबीआई उनके विरुद्ध कोर्ट के समक्ष अभियोजन (मुकदमे) का दृढ़तापूर्वक संचालन करते समय दबाव में नहीं आयेगी| अत: यह संदिग्ध ही है कि सीबीआई कंपकंपाते और थरथराते हाथों से अभियुक्तों को दण्डित करवाने में सफल हो पायेगी|

सीबीआई की ४ अप्रेल, २०११ की प्रेस विज्ञप्ति में मात्र इतना सा कहा गया है कि अगस्त २००८ में पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट के एक अन्य न्यायाधीश के दरवाजे पर पाये गये १५ लाख रुपये के सम्बन्ध में पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश और चार अन्य लोगों के विरूद्ध चंडीगढ के विशेष न्यायाधीश के न्यायालय में आरोप पत्र दाखिल कर दिया है| विधि एवं न्याय मंत्रालय से भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा १९ के अन्तर्गत अभियोजन स्वीकृति प्राप्त होने बाद यह आरोप पत्र दाखिल किया गया है|

From : PRESSPALIKA-01.04.2011

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