मेरे शुभचिंतक और समालोचक जिनके विश्वास एवं संबल पर मैं यहाँ लिख पा रहा हूँ!

यदि आपका कोई अपना या परिचित पीलिया रोग से पीड़ित है तो इसे हलके से नहीं लें, क्योंकि पीलिया इतना घातक है कि रोगी की मौत भी हो सकती है! इसमें आयुर्वेद और होम्योपैथी का उपचार अधिक कारगर है! हम पीलिया की दवाई मुफ्त में देते हैं! सम्पर्क करें : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, 098750-66111

Sunday, December 30, 2012

बलात्कार : स्थितियां कैसे बदलेंगी?

सच यह है कि हमारे देश में कानून बनाने, कानून को लागू करने और कोर्ट से निर्णय या आदेश या न्याय या सजा मिलने के बाद उनका क्रियान्वयन करवाने की जिम्मेदारी जिन लोक सेवकों या जिन जनप्रतिनिधियों के कंधों पर डाली गयी है, उनमें से किसी से भी भारत का कानून इस बात की अपेक्षा नहीं करता कि उन्हें-संविधान, न्यायशास्त्र, प्राकृतिक न्याय, मानवाधिकार, मानव व्यवहार, दण्ड विधान, साक्ष्य विधि, धर्मविधि, समाज शास्त्र, अपराध शास्त्र, मानव मनोविज्ञान आदि विषयों का ज्ञान होना
ही चाहिये। ऐसे में देश के लोगों को न्याय या इंसाफ कैसे हासिल हो सकता है? विशेषकर तब, जबकि शैशव काल से ही हमारा समाजीकरण एक भेदभावमूलक और अमानवीय सिद्धान्तों की पोषक सामाजिक (कु) व्यवस्था में होता रहा है??? अत: यदि हम सच में चाहते हैं कि हम में से किसी की भी बहन-बेटी, माता और हर एक स्त्री की इज्जत सुरक्षित रहे तो हमें जहॉं एक और विरासत में मिली कुसंस्कृति के संस्कारों से हमेशा को मुक्ति पाने के लिये कड़े कदम उठाने होंगे, वहीं दूसरी ओर देश का संचालन योग्य, पात्र और संवेदनशील लोगों के हाथों में देने की कड़ी और जनोन्मुखी संवैधानिक व्यवस्था बनवाने और अपनाने के लिये काम करना होगा। जिसके लिये अनेक मोर्चों पर सतत और लम्बे संघर्ष की जरूरत है। हाँ तब तक के लिए हमेशा की भांति हम कुछ अंतरिम सुधार करके जरूर खुश हो सकते हैं!
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

किसी भी देश की कानून और न्याय व्यवस्था से देश के लोगों के लिये बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिये अन्य बातों के अलावा कुछ मूलभूत जरूरतें और योग्यताएं होती हैं। जिनके बारे में लिखने से पूर्व अन्य बातों के बारे में उल्लेख कर देना उचित प्रतीत होता है।

किसी भी प्रकार की शासन व्यवस्था में निवास करने वाले लोगों के लिये कानून और न्याय व्यवस्था की सीधी जरूरत आमतौर पर तब ही महसूस होती है, जबकि उस समाज का सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक ढांचा अपरिपक्व एवं अपरिष्कृत होने के साथ-साथ न्याय संगत नहीं हो। लोग ऐसी व्यवस्था में जीने को विवश हों जहॉं अन्याय, भेदभाव, मनमानी, गुलामी, शोषण, तिरष्कार आदि अमानवीय तत्व विरासत और संस्कारों में प्राप्त हुए हों। जैसे कि भारतीय समाज में जहॉं पर सम्पूर्ण स्त्री वर्ग, पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों को हजारों सालों से न मात्र दोयम दर्जे का इंसान समझा गया, बल्कि इन सभी के साथ गुलामों की तरह व्यवहार करने का निर्देश, धार्मिक कहे जाने वाले ग्रंथों में सदियों से लगातार दिया जाता रहा है। धर्म के नाम पर देश की 90 फीसदी आबादी को तिरष्कृत और बहिष्कृत करने के साथ-साथ शोषित किया जाना और इस प्रकार के प्रावधानों वाले ग्रंथों का आज भी खुलेआम प्रकाशन एवं विक्रय करने की स्वतन्त्रता अपने आप में दु:खद आश्‍चर्य और निराशाजनक बात है!

आज एक निर्दोष लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद सारा देश एक स्वर में स्त्रियों के साथ होने वाले भेदभाव और स्त्रियों को पुलिस एवं प्रशासन में समान भागीदारी दिये जाने की जरूरत की वकालत करता दिख रहा है। जिसका साफ अभिप्राय है कि स्त्रियों के साथ पुरुष न्याय नहीं कर सकते। स्त्रियों को पुरुषों के न्याय पर विश्वास नहीं है। इसलिये मांग की जाती है कि सरकार और प्रशासन में स्त्रियों का समान प्रतिनिधित्व होना चाहिये। इसी मकसद से संसद, विधानसभाओं और प्रशासन में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सुनिश्‍चित करने के लिये तैंतीस फीसदी आरक्षण का विधेयक संसद के पटल पर वर्षों से धूल फांक रहा है। जिसका सड़कों पर उतर कर उसी मानसिकता के लोग कड़ा विरोध करते हैं, जो आश्चर्यजनक रूप से आज स्त्री को हर हाल में न्याय दिलाने और स्त्रियों का सरकार एवं प्रशासन में समान प्रतिनिधित्व प्रदान करने की मांग कर रहे हैं।

इस बात से कोई भी न्यायप्रिय व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता कि जिन भी वर्गों के साथ सदियों से या हजारों सालों से अन्याय हुआ है, उनको सरकार एवं प्रशासन में समान भागीदारी प्रदान किये बिना, उनके साथ न्याय नहीं किया जा सकता! जिसका सही समाधान तो डॉ. भीमराव अम्बेड़कर द्वारा सुझायी गयी और तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा स्वीकार ली गयी, सैपरेट इलक्ट्रोल की व्यवस्था ही थी, जिसे मोहन दास कर्मचन्द गॉंधी ने अपने दुराग्रहों के चलते नाकाम कर दिया। जिसके बदले में कमजोर तबकों को हमेशा के लिये पंगु बनाये रखने के लिये संसद, विधानसभाओं, प्रशासन और शैक्षणिक संस्थानों में औपचारिक रूप से प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिये सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण प्रदान करने की संवैधानिक व्यवस्था की गयी, जिसका प्रारम्भ से लेकर आज तक उसी मानसिकता के लोग विरोध करते रहे हैं, जिनके पूर्वजों के अमानवीय, भेदभावमूलक और दुराग्रही व्यवहार के कारण देश की बहुसंख्यक आबादी को हर क्षेत्र में हजारों सालों से वंचित किया जाता रहा है और इसी बीमार एवं चालाक मानसिकता के चलते मोहनदास कर्मचन्द गॉंधी ने सैपरेट इलेक्ट्रोल को छीनने के लिये अनशन को हथियार बना डाला।

सैपरेट इलेक्ट्रोल का मकसद वंचित वर्गों को संसद, विधानसभाओं, प्रशासन एवं शैक्षणिक संस्थानों में समान प्रतिनिधित्व प्रदान करना है, जो आज तक पूरा नहीं हो सका है, क्योंकि हमारे देश के कर्णधारों ने गॉंधी के कारण सैपरेट इलेक्ट्रोल के बजाय आरक्षण को अपनाया। दुर्भाग्य तो यह है कि आरक्षण को भी संविधान की मंशा के अनुसाद प्रदान नहीं किया जाने दिया जा रहा है। जिसके चलते आज भी देश के किसी भी क्षेत्र में स्त्रियों, पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों को न्याय या समानता हासिल नहीं है। 

चूँकि यहॉं प्रस्तुत और विचारणीय विषय स्त्रियों से सम्बंधित है तो स्त्रियों को समान प्रतिनिधित्व प्रदान करने की और स्त्रियों के विरुद्ध अपराध करने वालों के खिलाफ सख्त कानून बनाने की मांग कथित रूप से हर मंच से की जा रही है। लेकिन मेरा मानना है ये दोनों बातों तब तक आंशिक तौर पर भी व्यवहार में सम्भव नहीं हो सकती हैं, जब तक की संसद, विधानसभाओं, प्रशासन और शैक्षणिक संस्थानों में स्त्रियों को सैपरेट इलेक्ट्रोल के जरिये या अजा एवं अजजा की भांति पचास फीसदी आरक्षण प्रदान नहीं कर दिया जाता है। यद्यपि आरक्षण भी इसका स्थायी समाधान नहीं है, लेकिन आरक्षण दे दिए जाने पर स्त्री देश की कुव्यवस्था के लिये स्वयं भी समान रूप से जिम्मेदार होगी।

लेकिन इन सबसे पहले हमें इस देश से ऐसे समस्त साहित्य को हमेशा-हमेशा के लिये नष्ट करना होगा, जो स्त्रियों या मानव-मात्र में विभेद करने को महिमामण्डित करता हो या जो ऐसा किये जाने को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मसर्थन करता हो! या किसी भी व्यक्ति या वर्ग या जाति या लिंग को कमतर या हीन मानव सिद्ध करता हो, बेशक ऐसा साहित्य धार्मिक या किसी भी पवित्र समझे जाने वाले ग्रंथ का हिस्सा ही क्यों न हो! क्योंकि किसी भी देश का साहित्य, उस देश की संस्कृति को जन्म देता है और संस्कृति समाज का निर्माण एवं संचालन  करती है। किसी भी समाज की संस्कृति अपने लोगों के समाजीकरण एवं दैनिक आचार-व्यवहार को जन्म देती है और उन्हें आजादी प्रदान करती है या उन्हें नियन्त्रित करती है। व्यक्ति का गलत या अच्छा समाजीकरण उसके अवचेतन मन में संस्कृतिजनित धारणाओं की स्थापना करता है। गलत समाजीकरण व्यक्ति के अवचेतन मन को रुग्ण या भेदभावमूलक बनाता है। व्यक्ति को बुराईयों या नकारत्मकता का अनुसरण करने को उत्प्रेरित करता है, जबकि इसके विपरीत अच्छा और निष्पक्ष समाजीकरण व्यक्ति को सकारात्मकता और अच्छाईयों की ओर अग्रसर करता है। अंतत: जिस समाज में जैसे व्यक्ति होते हैं, वैसा ही समाज और देश का व्यावहारिक चरित्र होता है।

भारत में धर्म-ग्रंथों एवं साहित्य से जन्मी संस्कृति में निम्न प्रकार की शिक्षाओं के आधार पर समाजीकरण प्राप्त करने वाले व्यक्ति और नागरिक किस प्रकार के होने चाहिये, इस बात का प्रमाण समाज में कहीं भी देखा जा सकता है:-

ॠग्वेद : ८/३३/१७-‘‘स्त्री के मन को शिक्षित नहीं किया जा सकता। उसकी बुद्धि तुच्छ होती है।’’

ॠग्वेद : १०/९५/१५-‘‘स्त्रियों के साथ मैत्री नहीं हो सकती। इनके दिल लकड़बग्घों के दिलों से क्रूर होते हैं।’’

अथर्ववेद के एक मंत्र (१८/३/१) के अनुसार स्त्री को मृत पति की देह के साथ जल जाना चाहिये।

ऐतरेय ब्राह्मण नामक ग्रंथ : ७/३/१-‘‘कृपण्र ह दुहिता’’ अर्थात् पुत्री कष्टप्रदा, दुखदायनी होती है।

ऐतरेय ब्राह्मण नामक ग्रंथ के उक्त अंश का भाष्य करते हुए एक पुराने और विद्वान कहे जाने वाले भाष्यकार, सायणाचार्य ने एक प्राचीन श्‍लोक उद्धरित किया है :

‘‘संभवे स्वजनदु:खकारिता संप्रदानमयेऽर्थदारिका|

यौवनेऽपि बहुदोषकारिका दारिका हृदयदारिका पितृ॥
जिसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार किया है :

‘‘जब कन्या उत्पन्न होती है, तब स्वजनों को दुख देती है, जब इसका विवाह करते हैं, तब यह धन का अपहरण करती है। युवावस्था में यह बहुत सी गलतियां कर बैठती है, इसलिये दारिका अर्थात् लड़की, अपने पिता के हृदय को चीरने वाली कही गयी है।’’

ईसा से लगभग 800 वर्ष पहले आचार्य यास्क ने ‘निरुक्त’ नामक एक ग्रंथ लिखा था| जिसका वैदिक साहित्य में बहुत ऊंचा स्थान है| इन निरुक्त (निरुक्त, अ. ३, ख. ४) में बेटी के विषय में लिखा है :

‘‘बेटी को दुहिता इसलिये कहा जाता है कि वह ‘दुर्हिता’ (बुरा करने वाली) और ‘दूरेहिता’ (उस से दूर रहने पर ही भलाई) है| वह ‘दोग्धा’ (माता-पिता के धन को चूसने वाली) है|’’

मुनस्मृति में स्त्री के बारे में :

पुरुषों को खराब करना स्त्रियों का स्वभाव है। अत: बुद्धिमानों को इनसे बचना चाहिये। पुरुष विद्वान हो, चाहे अविद्वान, स्त्रियां उसे बुरे रास्ते पर डाल देती हैं। चाहे माता हो, चाहे बहन हो, चाहे अपनी लड़की हो इनके पास एकान्त में नहीं बैठना चाहिये। ललाई लिये भूरे रंगवाली, छ उंगलियों वाली, ज्यादा बालों वाली, बिना बालों वाली, ज्यादा बोलने वाली और जिनका कोई भाई नहीं हो ऐसी स्त्रियों से विवाह न करें। (लेकिन मनु ने यहॉं यह नहीं लिखा उनके द्वारा गिनाई गयी स्त्रियों से यदि कोई भी पुरुष विवाह नहीं करेगा, तो ऐसी हालत में अविवाहित रहने वाली स्त्रियॉं क्या करेंगी? क्या वे आत्महत्या कर लें? क्या वे आजीवन अपने माता-पिता के घर पर ही रहें? क्या वे पेशा करने वाली वेश्या बन जायें?) स्त्रियों को घर के और धर्म के कामों में इतना व्यस्त रखा जाये, जिससे वे खाली नहीं रह सकें। स्त्रियों को बचाकर रखना चाहिये, क्योंकि वे सुन्दर या कुरूप का ध्यान रखे बिना किसी भी पुरुष पर मोहित हो सकती हैं। स्त्रियों में क्रोध, कुटिलता, द्वेष और बुरे कामों में रुचि स्वभाव से ही होती है। स्त्रियॉं मूर्ख और अशुभ होती हैं, इसलिये उनके वेद संस्कार नहीं करने चाहिये। विधवा स्त्री का पुनर्विवाह करने से धर्म का नाश होता है।

चाणक्य के स्त्री के बारे में विचार :

अग्नी, पानी, स्त्री, मूर्ख व्यक्ति, सर्प और राजा से सदा सावधान रहना चाहिये। क्योंकि ये सेवा करते-करते ही उलटे फिर जाते हैं। अर्थात् प्रतिकूल होकर प्राण हर लेते हैं। स्त्रियॉं एक के साथ बात करती हुई दूसरे की ओर देख रही होती हैं और दिल में किसी तीसरे का चिन्तन हो रहा होता है। इन्हें किसी एक से प्यार नहीं होता। स्त्रियॉं कौनसा दुष्कर्म नहीं कर सकती। झूठ, दुस्साहस, कपट, मूर्खता, लालच, अपवित्रता और निर्दयता स्त्रियों के स्वभाविक दोष हैं।

पंचतंत्र आदि प्रसिद्ध व रोचक ग्रंथों में ऐसी अनेक कथाएं हैं, जिनका मूल उद्देश्य स्त्री को मूर्ख और मूढ सिद्ध करना है|

शृंगारशतक के 76वें पद्य में लिखा है :

‘‘स्त्री संशयों का भंवर, उद्दंडता का घर, उचितानुचित काम की शौकीन, बुराईयों की जड़, कपटों का भण्डार और अविश्‍वास की पात्र होती हैं। महापुरुषों को सब बुराईयों से भरपूर स्त्री से दूर रहना चाहिये। न जाने धर्म का संहार करने के लिये स्त्री की सृष्टि किस ने कर दी।’’

शंकराचार्य : स्त्री नरक का द्वार है।

तुलसीदास : ढोल गंवार शूद्र पसु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।

रंडी और रांड :

स्त्रियों के लिये आम बोलचाल में दो शब्द प्रयुक्त किये जाते हैं-रंडी और रांड। शिक्षार्थी हिन्दी शब्दकोश में रंडी का अर्थ इस प्रकार है :

‘‘1. धन लेकर व्यभिचार करने वाली स्त्री, वेश्या। 2. विधवा।’’

जबकि पंजाबी भाषा में रंडी का अर्थ एक साथ विधवा और वेश्या वाचक माना गया है।

इसी प्रकार से वृहत हिन्दी शब्दकोश में रांड का अर्थ-वेश्या और विधवा दोनों बतलाया गया है।

इस प्रकार विधवा और वेश्या के लिये एक ही शब्द का प्रयोग किया जाना इस बात का संकेत है कि विधवा और वेश्या एक समान हैं। इसकी पुष्टि काशी में प्रचलित इस लोकोक्ति से होती है, जिसमें कहा गया है कि-

‘‘रांड सांड सीढी सन्यासी, इन से बचे तो सेवे काशी।’’

भारत में इस प्रकार के (अमानवीय और कुटिल) धार्मिक प्रावधानों की अनन्त शृंखला है। जिसे लिखते ही अनेक कट्टर हिन्दूवादी और संस्कृति के कथित संरक्षक यह राग अलापने लगते हैं कि मूल हिन्दू ग्रंथों में उक्त प्रावधान हैं हीं नहीं!

तो फिर मेरा सवाल ये है कि वे इन गलत प्रावधानों को गलत सिद्ध करके, इन्हें निकलवाकर मूल ग्रंथों की पवित्रता की रक्षा क्यों नहीं करते हैं?

दूसरा सवाल यह उठाया जाता है कि धर्मग्रंथों के इन प्रावधानों को सार्वजनिक करने वाले लोग विदेशियों और विधर्मियों के इशारों पर हिन्दूधर्म और संस्कृति को बदनाम करने और अन्य धर्मों को बढावा देने के लिये काम कर रहे हैं। इसलिये इस प्रकार के लेखक धर्मद्रोही और देशद्रोही हैं, जिन्हें भारत में जीने का कोई हक नहीं है। लेकिन इनमें से किसी में भी अपने पूर्वजों के कुकर्मों और कड़वे सच को स्वीकार करके सकारात्मक सुधार के लिये कार्य करने का साहस नहीं है।

अन्य बातों पर उपरोक्तानुसार संक्षिप्त चर्चा करने बाद हम फिर से मूल विषय पर लौटते हैं कि किसी भी देश की कानून और न्याय व्यवस्था से बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिये अन्य बातों के अलावा कुछ मूलभूत जरूरतें होती हैं। जैसे-

कानून बनाने, कानून को लागू करने और कानून को क्रियान्वित करने वाले लोगों को अपने देश के संविधान, न्यायशास्त्र, प्राकृतिक न्याय, मानवाधिकार, मानव व्यवहार, दण्ड विधान, साक्ष्य विधि, धर्मविधि, समाजशास्त्र, अपराधशास्त्र, मानव मनोविज्ञान आदि विषयों का न मात्र ऊपरी-ऊपरी बल्कि विषेशज्ञ के रूप में सैद्धांतिक और व्यावहारिक ज्ञान होना चाहिये। जिससे कि कानून को बनाते समय, लागू करते समय और क्रियान्वित करते समय किसी भी प्रकार की त्रुटि होने की कोई गुंजाइश नहीं रहे।

जबकि इसके विपरीत भारत में कानून बनाने, लागू करने और क्रियान्वित करने वाले लोक सेवकों के पास इन विषयों की प्राथमिक जानकारी तक नहीं होती है। ऐसे में, ऐसे लोगों से संविधान एवं न्याय शास्त्र के पवित्र सिद्धान्तों के अनुसार कानून और न्याय व्यवस्था को संचालित करने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? इसीलिये ये लोग अपने पूर्वजों की ओर से प्राप्त अवचेतन मन के अनुसार संचालित होते हुए कानून और न्याय व्यवस्था का निर्माण एवं क्रियान्वयन कर रहे हैं।

गम्भीर रूप से विचारणीय विषय है कि हमारे देश में औपचारिक रूप से कानूनों का सृजन (निर्माण) संसद एवं विधानमण्डलों के सदस्यों अर्थात् सांसदों और विधायकों द्वारा किया जाता है। जिनका उक्त विषयों में पारंगत होना तो बहुत दूर, उनके लिये तो शिक्षित होना भी कानूनी तौर पर जरूरी योग्यता नहीं है। अनौपचारिक रूप से कानूनों का सृजन सरकार करती है। जिसके मुखिया सांसद और विधायकों में से ही होते हैं। जिनके लिये भी कानूनीतौर पर किसी भी प्रकार की शैक्षणिक योग्यता का कानूनी प्रावधान संविधान में नहीं है। ऐसे में कानूनों का सृजन करने की सरकार की वैधानिक ताकत का असल में (दु) उपयोग और उपभोग (मनमाना) करने वाले सचिवों (आईएएस) की सलाह और इशारों पर किया जाता है। जबकि इन सचिवों के लिये भी उक्त में से किसी भी विषय में पारंगतता या प्राथमिक रूप से जानकार होने का कोई कानूनी प्रावधान नहीं है! ये तो हुई कानून बनाने वालों की वैधानिक स्थिति।

दूसरे कानून को लागू और क्रियान्वित करने का काम हमारे देश में आईएएस और आईपीएस के नेतृत्व में प्रशासन और पुलिस के द्वारा किया जाता है। जिसकी वास्तविक स्थिति जानने के लिये इतना सा जान लेना ही कम भयावह नहीं है कि पुलिस के सबसे छोटे लोक सेवक-सिपाही (कॉंस्टेबल) से लेकर पुलिस महानिदेशक तक किसी के लिये उक्त उल्लिखित विषयों का ज्ञाता होना तो दूर, इनमें से किसी के भी लिये कानून में स्नातक होना तक जरूरी नहीं है। अर्थात् कानून को लागू करने वाली पुलिस में ऊपर से नीचे तक किसी को ये ही ज्ञात नहीं होता है कि "कानून है, किस चिड़िया का नाम?" फिर भी पुलिस कानून को लागू कर रही है.....? ऐसे में जब मुकदमों की छानबीन और अभियोजन ही दोषपूर्ण होगा तो परिणाम वांछित कैसे प्राप्त हो सकते हैं! इसी वजह से प्रारम्भिक तौर पर स्त्रियों से सम्बन्धित एक चौथाई मामलों में ही आरोपियों को दोषी ठहराया जाता है! 

जहॉं तक प्रशासन का सवाल है तो भूगोल या पशुचिकित्सा या इंजीनियरिंग में स्नातक की उपाधि प्राप्त करके आईएसएस की परीक्षा पास करके सचिव पद पर पहुँचने वालों को गृह, विधि, कृषि, उद्योग और वित्त मन्त्रालय के सचिव के रूप में विभाग का संचालन करने के लिये नियुक्त होते हुए आसानी से हर एक राज्य और केन्द्रीय सरकार के मंत्रालयों में देखा जा सकता है। ऐसे में प्रशासन प्रमुखों (सचिवों) के द्वारा कानून का क्रियान्वयन किस प्रकार से किया जा सकता है, इस बात की कल्पना करने की जरूरत नहीं है, बल्कि देश के वर्तमान हालातों को देखें और जान लें कि ऐसा क्यों हो रहा है....?

इस बारे में आमतौर पर इस कुव्यवस्था के समर्थकों द्वारा एक जवाब दिया जाता है कि पुलिस और प्रशासन को कानून का ज्ञान करवाने के लिये विभाग स्तर पर प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। इस कारण से उन्हें कानून का पर्याप्त और गहन ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार का कुतर्क पेश करने वालों से मेरा यहॉं प्रतिप्रश्‍न है कि यदि कुछ माह या वर्ष के प्रशिक्षण से पुलिस और प्रशासन को कानून सहित, कानून को लागू करने वाले सभी विषयों में पारंगत किया जा सकता है तो फिर सरकारों द्वारा अनेकानेक विधि-विश्‍वविद्यालयों को संचालित करके समय, श्रम और धन का अपव्यय क्यों किया जा रहा है? जजों की नियुक्ति के लिये क्यों कानून में डिग्री की अनिवार्यता है। उन्हें भी प्रशिक्षित करके ही सब कुछ क्यों नहीं सिखाया जा सकता?

सच यह है कि हमारे देश में कानून बनाने, कानून को लागू करने और कोर्ट से निर्णय या आदेश या न्याय या सजा मिलने के बाद उनका क्रियान्वयन करवाने की जिम्मेदारी जिन लोक सेवकों या जिन जनप्रतिनिधियों के कंधों पर डाली गयी है, उनमें से किसी से भी भारत का कानून इस बात की अपेक्षा नहीं करता कि उन्हें-संविधान, न्यायशास्त्र, प्राकृतिक न्याय, मानवाधिकार, मानव व्यवहार, दण्ड विधान, साक्ष्य विधि, धर्मविधि, समाज शास्त्र, अपराध शास्त्र, मानव मनोविज्ञान आदि विषयों का ज्ञान होना ही चाहिये। ऐसे में देश के लोगों को न्याय या इंसाफ कैसे हासिल हो सकता है? विशेषकर तब, जबकि शैशव काल से ही हमारा समाजीकरण एक भेदभावमूलक और अमानवीय सिद्धान्तों की पोषक सामाजिक (कु) व्यवस्था में होता रहा है??? अत: यदि हम सच में चाहते हैं कि हम में से किसी की भी बहन-बेटी, माता और हर एक स्त्री की इज्जत सुरक्षित रहे तो हमें जहॉं एक और विरासत में मिली कुसंस्कृति के संस्कारों से हमेशा को मुक्ति पाने के लिये कड़े कदम उठाने होंगे, वहीं दूसरी ओर देश का संचालन योग्य, पात्र और संवेदनशील लोगों के हाथों में देने की कड़ी और जनोन्मुखी संवैधानिक व्यवस्था बनवाने और अपनाने के लिये काम करना होगा। जिसके लिये अनेक मोर्चों पर सतत और लम्बे संघर्ष की जरूरत है। हाँ तब तक के लिए हमेशा की भांति हम कुछ अंतरिम सुधार करके जरूर खुश हो सकते हैं!

No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणी, केवल मेरे लिये ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण ब्लॉग जगत के लिये मार्गदर्शक हैं. कृपया अपने विचार जरूर लिखें!