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Wednesday, April 14, 2010

भारत को आईएएस कल्याणकारी राज्य घोषित कर दिया जावे!

भारत को आईएएस कल्याणकारी राज्य घोषित कर दिया जावे!

देश के जागरूक और बद्धिजीवी लोगों को एकजुट होकर इस बात को हर मंच पर और हर अवसर पर पूरी ताकत के साथ उठाना चाहिये कि आईएएस को हर मर्ज की दवा समझे जाने की गलती को दहराने की बीमारी से राजनैतिक नेतृत्व को रोका जावे और हर विभाग में विशेषज्ञों को नीतियाँ निर्धारित करने में अग्रणी भूमिका निभाने के अवसर दिये जावें। अन्यथा यदि हम ऐसा नहीं कर सकते तो हमको यह मांग करनी चाहिये कि इस देश को लोक कल्याणकारी राज्य के बजाय आईएएस कल्याणकारी राज्य ही घोषित कर दिया जावे।

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा

देश के आम व्यक्ति के स्वास्थ्य की चिन्ता इस देश की सरकार को भी है, इस बात को कागज पर प्रमाणित करने के लिये और जरूरत पडने पर कहीं दिखाने के लिये भी कुछ ऐसे कदम सरकार द्वारा उठाये जाते हैं, जिनका जनता के स्वास्थ्य से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। इसी क्रम में गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल के नागरिकों के अधिकार के बारे में नए सिरे से केंद्र को ध्यान दिलाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने आदिवासी हलकों में अवैध मेडिकल प्रैक्टिस की वारदात पर राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों के स्वास्थ्य सचिवों की २९ जनवरी को बैठक बुलाई थी।

बैठक के ऐजेण्डा में बताया गया कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग वर्तमान स्वास्थ्य सुविधा प्रणाली में विभिन्न कमियों के सन्दर्भ में लोगों के स्वास्थ्य सम्बन्धी अधिकार के बारे में बेहद चिंतित है। खास तौर से देश में आवश्यक दवाओं, चिकित्सकों और नर्सों की कमी के कारण। ऐजेण्डे में बढाचढाकर कहा गया कि देश में हर आम और खास के मानव अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने वाली इस संस्था अर्थात्‌ राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का मानना है कि मौजूदा स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में सुधार तथा इसे नये स्वरूप में पेश करना बेहद जरूरी है। इसी के मद्देनजर आयोग देश के सभी राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों के स्वास्थ्य सचिवों की एक बैठक बुलायी गयी। आयोग के अनुसार, स्वास्थ्य देखभाल सुविधा प्रणाली में चिंता का एक अन्य कारण दवाओं की गुणवत्ता और चिकित्सकों की कमी है। यह भी कहा गया कि जहरीली दवाओं का वितरण न केवल स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है, बल्कि यह मानव अधिकारों का जबरदस्त उल्लंघन है।

उपरोक्त बैठक पर कितना धन खर्च किया गया, यह तो अपने आप में जाँच का विषय है, लेकिन इस बैठक के बाद भी किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं दिख रहा है। जो पहले था आज भी ज्यों का त्यों चल रहा है। इस बैठक से पहले में समय पर (एक्सपार्यड) एवं नकली दवा बेची जा रही थी और अब भी बेची जा रही हैं। पहले भी नीम हकीम लोगों के जीवन से खिलवाड कर रहे थे और अभी भी खिलवाड कर रहे हैं। पहले भी सरकारी डॉक्टर ड्यूटी समय में शुल्क लेकर अपने घर पर मरीजों को देखते थे और अभी भी देख रहे हैं। पहले भी खास लोगों को हर जगह विशिष्ट स्वास्थ्य सुविधायें मिल रही थी और अभी भी मिल रही हैं। इस बैठक से पूर्व भी आम आदमी सबसे निचले पायदान पर था और आज भी है। जबकि राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का कहना कि हर आम और खास इंसान को एक समान स्वास्थ्य सुविधाएँ नहीं मिलना मानव अधिकारों का सरेआम उल्लंघन है।

इस बैठक में केवल रटी-रटाई बातें ही कही और सुनी गयी और इस बात को कागज पर प्रमाणित कर दिया कि राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग को भी आम लोगों के स्वास्थ्य की चिन्ता है। जबकि कटु और सर्वज्ञान वाली बात यह है कि स्वास्थ्य सचिवों की बैठक से कोई नतीजा निकल ही कैसे सकता है। विशेषकर तब जबकि हम सभी जानते हैं कि स्वास्थ्य सचिव प्रशासनिक मामलों के विशेषज्ञ तो माने जा सकते हैं, लेकिन स्वास्थ्य जैसे वैज्ञानिक विषय के सम्बन्ध में स्वास्थ्य सचिवों से किसी भी प्रकार के समाधान या सुधार की आशा करना बेमानी है।

मैंने अनेक बार इस बारे में लिखा है कि इस देश के प्रशासनिक ढांचे में ऐसी अनेक मूलभूत खामियाँ हैं, जिनके रहते प्रशासनिक अधिकारी चाहकर भी देश के विकास में योगदान नहीं दे सकते हैं। एक साधारण व्यक्ति भी इस बात को समझता है कि गाय-भैंस का इलाज करने में केवल पशु चिकित्सक ही सक्षम होता है, न कि हृदय रोग विशेषज्ञ! जबकि साठ वर्ष से अधिक समय में इस देश का नेतृत्व इतनी सी बात नहीं समझ सका है कि प्रशासनिक व्यवस्था संचालन करने वाले लोगों से विषय विशेष की विशेषज्ञता की आशा करना मूर्खता है। आईएएस बनने के लिये किसी भी विषय में स्नातक की उपाधि का डिग्री होना जरूरी माना गया है। जो लोग कम्प्यूटर, गणित आदि विषयों में स्नातक होते हैं, प्रतियोगिता में उनके अंक अच्छे आते हैं और उन्हें प्रशासनिक सेवा में चयन कर लिया जाता है। ऐसे लोगों को आईएएस का ठप्पा लगने के बाद समाज कल्याण और स्वास्थ्य विभाग के सचिव का जिम्मा सौंपा जाता है।

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग भी ऐसे ही लोगों को स्वास्थ्य सचिव की हैसियत से बुलाकर देश के स्वास्थ्य को ठीक करने की बात करते हैं। ऐसे लोगों से स्वास्थ्य सुधारों की क्या अपेक्षा की जा सकती हैं। जिन्हें स्वयं ऐसी बैठकों में शामिल होने के लिये अपने विभाग के स्वास्थ्य अधिकारियों से सीख कर जाना होता है कि बैठक में क्या बोलना है। वे कुछ नया सुझाने या करने में सक्षम हो ही नहीं सकते। आईएएस के बजाय यदि एमबीबीएस की डिग्री हासिल करके और एक चिकित्सक के रूप में बीस-पच्चीस वर्ष की सेवा करने वाला व्यक्ति स्वास्थ्य विभाग का सचिव बनाया जावे तो आशा की जा सकती है कि वह अपने लम्बे अनुभवों के आधार पर अपने विभाग को नयी दिशा दे सकता है।

लेकिन हमारे देश में तो आईएएस को सारी बीमारियों का इलाज मानकर उपयोग किया जा रहा है। हमारा इससे बडा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि एक आईएएस जो कल तक खान मन्त्रालय का सचिव था, अगले दिन उसे मानव संसाधन विकास मन्त्रलय का सचिव बना दिया जाता है और कुछ समय बाद उसे पर्यटन, ग्रह या स्वास्थ्य विभाग का सचिव बनाकर एक विभाग का नीति नियन्ता बना दिया जाता है। ऐसे में इस देश की तस्वीर कैसी बनेगी, उसकी कल्पना करने की जरूरत नहीं है। इस देश को देखकर स्वतः ज्ञात हो जाता है कि इस देश का कैसे सत्यानाश किया जाता रहा है।

इसलिये मैं एक बार फिर से राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की स्वास्थ्य सचिवों की बैठक के सन्दर्भ में समाज के सामने इस मुद्दे को रखना जरूरी समझता हूँ कि देश के जागरूक और बद्धिजीवी लोगों को एकजुट होकर इस बात को हर मंच पर और हर अवसर पर पूरी ताकत के साथ उठाना चाहिये कि आईएएस को हर मर्ज की दवा समझे जाने की गलती को दौहराने की बीमारी से राजनैतिक नेतृत्व को रोका जावे और हर विभाग में विशेषज्ञों को नीतियाँ निर्धारित करने में अग्रणी भूमिका निभाने के अवसर दिये जावें। अन्यथा यदि हम ऐसा नहीं कर सकते तो हमको यह मांग करनी चाहिये कि इस देश को लोक कल्याणकारी राज्य के बजाय आईएएस कल्याणकारी राज्य ही घोषित कर दिया जावे।
----------------------------लेखक जयपुर से प्रकाशित और एक दर्जन से अधिक राज्यों में प्रसारित प्रेसपालिका (पाक्षिक समाचार-पत्र) के सम्पादक, होम्योपैथ चिकित्सक, मानव व्यवहारशास्त्री, दाम्पत्य विवादों के सलाहकार, विविध विषयों के लेखक, कवि, शायर, चिन्तक, शोधार्थी, तनाव मुक्त जीवन, लोगों से काम लेने की कला, सकारात्मक जीवन पद्धति आदि अनेक विषयों के व्याख्याता तथा समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध 1993 में स्थापित एवं 1994 से राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली से पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। जिसमें 4196 रजिस्टर्ड आजीवन कार्यकर्ता देश के 17 राज्यों में सेवारत हैं। फोन नं. 0141-2222225 (सायं 7 से 8 बजे) एवं मो. : 098285-02666.

1 comment:

  1. बेहद सार्थक और सटीक आलेख.........."

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