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Saturday, May 1, 2010

मथुरा-वृन्दावन में नारकीय जीवन जीने को विवश-विधवाओं की महिला-आयोग को नहीं तनिक भी चिंता

मथुरा-वृन्दावन में नारकीय जीवन जीने को विवश-विधवाओं की महिला-आयोग को नहीं तनिक भी चिंता

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा

नयी दिल्ली। मैंने अनेक बार लिखा है कि प्रत्येक संवैधानिक संस्थान तब ही हरकत में आते हैं, जबकि या तो हरकत में आने से राजनैतिक लाभ हो या पी‹िडत पक्षकार कोई ब‹डी हस्ती हो। अन्यथा तो आम व्यक्ति के लिये किसी के पास वक्त नहीं है। इस बात की एक बार फिर से पुष्टि हुई है। राष्ट्रीय महिला आयोग की राष्ट्रीय अध्यक्ष गिरिजा व्यास द्वारा जो पढी-लिखी और ऊंचे ओहदे वाली सक्षम महिलाओं के लिये आये दिन ब‹डे-ब‹डे बयान जारी करती रहती हैं, लेकिन मथुरा-वृन्दावन में नारकीय जीवन जीने को विवश हजारों बेहाल विधवाओं की सुध लेने की उनके पास फुर्सत नहीं है। सीधा सा मामला है, कि इससे उनको किसी प्रकार की पब्लिसिटी तो मिलने से रही!

कोई डे‹ढ साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि राष्ट्रीय महिला आयोग मथुरा-वृन्दावन की विधवाओं की समस्याओं पर सर्वे करके तीन माह में रिपोर्ट पेश करें, लेकिन आयोग ने अब तक रिपोर्ट देना तो दूर देश की सबसे ब‹डी अदालत में जवाब देना भी मुनासिब नहीं समझा। इस मसले पर केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार का रुख भी यही है।

करीब तीन साल पहले मथुरा-वृंदावन की विधवाओं की हालत को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका लगाई गई थी। स्वयंसेवी संगठन इन्वायरन्मेंट एण्ड कंज्यूमर प्रोटेक्शन की ओर से दाखिल इस याचिका में विधवाओं की दशा सुधारने के लिए सरकार को निर्देश देने की मांग की गई थी। इस मामले में अदालत ने केन्द्र और राज्य सरकार के अलावा राष्ट्रीय महिला आयोग को भी पक्षकार बनाया था। जिसकी सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने १४ नवंबर २००८ को आयोग से मथुरा-वृन्दावन की विधवाओं की समस्या पर समग्र सर्वे करके तीन महीने में रिपोर्ट देने को कहा था।

इसके बाद मामले में कई पेशियां हुई, लेकिन रिपोर्ट पेश करना तो दूर, सुप्रीम कोर्ट से चंद दूरी पर स्थित राष्ट्रीय महिला आयोग की ओर से कोई भी कोर्ट के समक्ष पेश तक नहीं हुआ! मामले की आफिस रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि महिला आयोग और केन्द्र सरकार को कारण बताओ नोटिस जा चुका है। नोटिस तामील भी हुआ लेकिन किसी ने जवाब नहीं दिया। उत्तर प्रदेश सरकार की भी यही स्थिति है। राज्य सरकार ने भी याचिका पर अब तक जवाब देने की जेहमत नहीं उठाई। गौरतलब है कि मथुरा वृंदावन में कई हजार विधवाएं दयनीय जीवन जी रही हैं। इनके पास रहने और खाने का साधन तक नहीं है।

ऐसे लोगों के संवैधानिक पदों पर काबिज हो जाने के कारण देश में अव्यवस्था और वह सब होता है, जिसे कानून अपराध कहता है। यदि महिला आयोग की ही ऐसी स्थिति है तो कौन सुनेगा इन निरीह विधवाओं की? ऐसे ही हालातों में जब लोगों का गुस्सा उफान पर आता है तो समाज में आतंकवाद और नक्सलवाद पनपता है। पाठकों से मेरा आग्रह है कि जब भी महिला आयोग प्रचार पाने के लिये मीडिया में बयान जारी करें तो आम जनता को उनके विरोध में आवाज उठानी चाहिये। ताकि महिला आयोग को अहसास हो सके कि उसके आम लोगों के प्रति भी कुछ संवैधानिक दायित्व हैं।

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