कश्मीर को स्वायत्तता एवं विस्थापितों की समस्या?
लेखक अपना काम कर रहे हैं, लेकिन जिन लोगों को कश्मीर विस्थापितों के दर्द का अहसास है, उन्हें अपने-अपने गॉव, कस्बे और शहर में इस बात के लिये आवाज उठानी होगी और मुद्दे को अंजाम तक पहुँचाये बिना रुकना नहीं होगा, तब ही कुछ आशा की जा सकती है। अन्यथा तो लोगों को गुमराह किया जाना और हिन्दू-मुसलमानों को भडकाने के नाम पर रोटी खाने वालों का एवं पेड न्यूज राईर्स का धन्धा चलता रहेगा।
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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'/Dr. Purushottam Meena 'Nirankush'
इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि कश्मीर का अन्तर्राष्ट्रीयकरण करने के लिये बहुत कुछ तत्कालीन प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू की अपरिपक्वता एवं अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में उनकी नासमझी उत्तरदायी है। जिसे हम दशकों से भुगत रहे हैं, लेकिन जैसा कि कुछ लोग कहते हैं कि कश्मीर मामले को पंजाब की तरह से हल किया जाना चाहिये। यह अनुचित और अविवेकपूर्ण बात है। पंजाब और कश्मीर को एक ही नजर से नहीं देखा जा सकता। हाँ आतंक से निपटने के मामले में हमें स्पष्ट नीति बनानी चाहिये और देश के किसी भी कौने में सिर उठाने वाले आतंक के विरुद्ध कठोरतम निर्णय लेने से नहीं हिचकना चाहिये, बेशक आतंकवादी कोई भी क्यों न हों।
प्रधानमन्त्री के एक बयान को आधार बनाकर कश्मीर को और अधिक स्वायत्तता के सम्बन्ध में, देश के लोगों की चिन्ता जायज है। ऐसा कोई भी निर्णय भारत संघ को कमजोर करने वाला सिद्ध होगा। अत: भारत सरकार को ऐसे किसी भी प्रकार के ऐसे निर्णय से बचना चाहिये, जो बाद में अन्य प्रान्तों के लिये नजीर बने। यदि केन्द्र सरकार देश के लोगों की चिन्ता को दरकिनार करके कश्मीर को गैर-जरूरी स्वायत्तता प्रदान करने के लिये संसद में कोई विधेयक लाती है तो विपक्षी दलों से उस विरोध की उम्मीद नहीं, जो कि जरूरी है। अत: देश की एकता तथा अखण्डता को अक्षुण्य बनाये रखने के लिये समर्पित देशभक्त नागरिकों को ऐसे किसी भी निर्णय के विरोध में सडकों पर उतरने के लिये मानसिक रूप से पहले से ही तैयार होना होगा।
इसके साथ-साथ हम सभी भारतीयों को केवल भावनाओं में बहकर ऐसी बातें नहीं करनी चाहिये, जो देश के माहौल को खराब करती हों या नयी पीढी को कश्मीर की समस्या को ईमानदारी से देखने और निर्णय करने से रोकती हों, क्योंकि इतिहास को बदला नहीं जा सकता। इसलिये हमें नेहरू की एक राजनैतिक गलति के साथ-साथ यह भी याद रखना चाहिये कि 14 एवं 15 अगस्त, 1947 की रात्री को भारत विभाजन के समय केवल पाकिस्तान और भारत नाम के दो राष्ट्रों का ही जन्म नहीं हुआ था, बल्कि उस समय अखण्ड कश्मीर भी भारत संघ या पाकिस्तान का हिस्सा नहीं था। बाद में घटित घटनाओं के परिणामस्वरूप कश्मीर सरकार ने विवश होकर, कश्मीर के भारत में विलय का समझौता किया था। हम सभी जानते हैं कि विवशता में किये गये समझौते या निर्णयों के परिणाम बहुत कम सकारात्मक होते हैं। शिमला समझौता भी इसका उदाहरण है।
इस पृष्ठभूमि में अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी के सामने सम्मानपूर्वक खडे रहने के लिये, भारत सरकार का यह वैधानिक दायित्व है कि वह तत्कालीन कश्मीर सरकार के साथ हुए समझौते का सम्मान एवं क्रियान्वयन ईमानदारी से करे। यही नहीं कश्मीर के भारत में विलय के समय तत्कालीन भारत सरकार और कश्मीर सरकार के बीच हुए करार को सम्मान दिया जाना सभी भारतीय नागरिकों को भी कानूनी और नैतिक दायित्व है।
एक सवाल यह भी उठाया जाता है कि कश्मीर के भारत में विलय के करार को भारत सरकार समाप्त क्यों नहीं कर देती। ऐसा कहने वाले कानून और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के साथ-साथ भारत की गरिमा का आकलन करने में भावनाओं को बीच में लाते हैं और ऐसे विचारक भारत संघ का गलत अर्थ लगाने का दुराग्रह करते हैं। बीज को समाप्त करके वृक्ष की रक्षा करना बुद्धिमतापूर्ण तर्क नहीं है। हाँ विलय के करार को संशोधित किया जा सकता है। जिसे समझने की जरूरत है। वर्तमान करार को समाप्त करके, भारत संघ के हित में नया करार करने के लिये जम्मू एवं कश्मीर राज्य में ऐसे दल या गठबन्धन को पूर्ण बहुत मिलना जरूरी है, जो कश्मीर के भारत में विलय के समझौते को वर्तमान सन्दर्भों में नया रूप देने को राजनैतिक रूप से तैयार हो। जब तक ऐसा नहीं होगा, कश्मीर समस्या को लेकर भावनाओं में बहने या भावनाओं को भडकाने से कोई समाधान सम्भव नहीं है।
लेकिन यदि विलय सम्बन्धी वर्तमान करार को समाप्त नहीं कर पाना संवैधानिक और ऐतिहायिक बाध्यता है, तो इसका अर्थ ये भी नहीं है कि देश के प्रति संदिग्ध भारतीय कश्मीरियों की जायज-नाजायज मांगों के समक्ष भारत सरकार को नतमस्तक हो जाना चाहिये। सवा सौ करोड भारत के लोगों का सशक्त नेतृत्व करते हुए केन्द्र सरकार को अपनी रीढ की हड्डी मजबूत रखनी होगी। जिससे आतंकियों को प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन देने वालों को कडा सन्देश जाये। जरूरत पडने पर आतंकियों के विरुद्ध लगातार और योजनाबद्ध अभियान चलाकर, लिट्टे की तरह उनके सफाये पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी है। ऐसे मामलों में मानव अधिकारों का सवाल भी खडा होता है, मैं स्वयं भी मानव अधिकारों का पैरोकार हूँ, लेकिन जब बात हद से आगे निकल जाये और सेना एवं पुलिस के प्रति क्रूरता का वर्ताव हो रहा हो, तो फिर कुछ न कुछ तो करना ही होगा।
उपरोक्त के साथ ही हमें यह भी याद रखना होगा कि कश्मीर से विस्थापित लोगों की पुन: वापसी पर भी विचार करना होगा। जिसके लिये किसी दल विशेष को जिम्मेदार ठहराकर गाली देने या कोसने से कुछ भी हल नहीं निकलने वाला। क्योंकि विस्थापित लोगों की पुन: कश्मीर में वापसी सम्भव नहीं हो पाने के लिये केवल काँग्रेस या यूपीए सरकार ही दोषी नहीं है, बल्कि सभी राजनैतिक दल समान रूप से जिम्मेदार हैं, जो कभी न कभी इस देश पर राज कर चुके हैं।
कोई साधारण व्यक्ति भी इस बात को समझ सकता है कि राजनीति करने और अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिये कश्मीर के विस्थापितों की बातें तो खूब की जाती हैं, लेकिन कोई सार्थक कदम नहीं उठाया जाता है। अन्यथा क्या कारण है कि छोटी-छोटी बातों पर संसद में ताण्डव करने वाले राजनैतिक दल कश्मीर से विस्थापित किये गये लोगों की पुन: वापसी के लिये संसद में जरूरत के अनुसार आवाज तक नहीं उठाते?
क्या यह समय की मांग नहीं कि कश्मीर विलय के प्रस्ताव की शर्तों को ध्यान में रखते हुए, कश्मीर के मूल वासिन्दों को वापस कश्मीर में बसाया जावे और कश्मीर पर निर्णय लेते समय या कश्मीर की सरकार के चुनाव के समय इन विस्थापितों को भी शामिल किया जावे।
क्या यह जरूरी नहीं हो गया है कि विस्थापितों की समस्या का समाधान नहीं होने तक भारत सरकार पर निर्णायक दबाव बनाने के लिये क्रमिक भारत बन्द हो, हर दिन कहीं न कहीं भारत यात्रा चलती रहे और संसद का संचालन तब तक रुका रहे, जब तक कि सरकार निर्णय लेकर क्रियान्वयन की समयबद्ध योजना पेश नहीं कर देती है! कौन करेगा यह सब? निश्चय ही उन्हीं दलों को करना होगा, जिन्हें इस मुद्दे पर वोट मिलते हैं और जो इस मुद्दे को बार-बार उठाते रहने का नाटक करते रहते हैं। लेकिन ऐसा क्यों नहीं हो रहा है? इसके पीछे भी गहरी साजिश की बू आती है! कुछ दलों के लिये जानबूझकर कश्मीरी विस्थापितों का मुद्दा जिन्दा रखना राजनैतिक जरूरत है। जिससे उन्हें वोट मिलते रहें और इस देश का माहौल शान्त एवं सौहार्दपूर्ण नहीं बन पाये।
ऐसे हालातों से निपटने के लिये प्रत्येक भारतीय को आगे आना होगा। लेखक अपना काम कर रहे हैं, लेकिन जिन लोगों को कश्मीर विस्थापितों के दर्द का अहसास है, उन्हें अपने-अपने गॉव, कस्बे और शहर में इस बात के लिये आवाज उठानी होगी और मुद्दे को अंजाम तक पहुँचाये बिना रुकना नहीं होगा, तब ही कुछ आशा की जा सकती है। अन्यथा तो लोगों को गुमराह किया जाना और हिन्दू-मुसलमानों को भडकाने के नाम पर रोटी खाने वालों का एवं पेड न्यूज राईर्स का धन्धा चलता रहेगा।
बहुत अच्छी सोज है आपकी ऐसी ही सोच अगर प्रत्येक भारतीय नागरीक रखने लगे तो ऐसी समस्याओं को जन्म लेने का मोका ही नही मिलेगा। किसी के द्वारा भी हुई हो भुल तो हुई परन्तु भुलों को या गल्तीयों को सुधारना अब वर्तमान सरकार का भी तो फर्ज बनता है।
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मालीगांव
साया
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लक्ष्य
यकीनन विस्थापितों को महज वोट बैंक की सियासत तक ही सीमित कर रखा है सफेदपोशों नें... हर हिंदुस्तानी को कश्मीरियों के दर्द से रिश्ता रखने की आपकी दलील वाकई हिंदुस्तान को ताकत देने का काम करेगी...
ReplyDeleteअखंड प्रताप शाही