मेरे शुभचिंतक और समालोचक जिनके विश्वास एवं संबल पर मैं यहाँ लिख पा रहा हूँ!

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Friday, August 12, 2011

विभागीय जॉंच रूपी अभेद्य सुरक्षा कवच को भेदना होगा-2


विभागीय जॉंच रूपी अभेद्य सुरक्षा कवच को भेदना होगा-2

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ’निरंकुश’

कुछ समय पूर्व मैंने एक आलेख ‘‘विभागीय जॉंच रूपी अभेद्य सुरक्षा कवच को भेदना होगा!’’ शीर्षक से लिखा था, जो अनेक हिन्दी न्यूज पोर्टल्स तथा समाचार-पत्रों में प्रकाशित हो चुका है| यह लेख ‘बासवोइस’ ब्लॉग पर भी उपलब्ध हैं, जिपर श्री बेनीवाल जी नामक एक पाठक ने निम्न टिप्पणी की है :-

Dear dr.Meena, by chance i happened to see and read your blog. congratulations and best wishes. i wish more person like you be around to wake up "We the People". sorry for writting in english since presently i do not have hindi writer. Sir, what you have said is absolutely true but all most all of us do not know under which rules a civil servant be punished for financial loss to state OR to a citizen due to thier unauthorised act. Please state rules under which a departmental/disciplinary action be got initiated and a FIR may be filed against any civil servant. These be published prominantly on your blog for all to see and take action as required. Britishers have gone but our servants are behaving like them.


मैंने उक्त टिप्पणी के उत्तर में छोटा सा समाधान सुझाकर मामले को समाधान कर देने के बजाय इस बारे में विस्तार से अपनी बात को पाठकों के समक्ष रखना उचित समझा है| आशा है कि इससे पाठक अवश्य ही लाभान्वित होंगे|

सर्व प्रथम तो आपने इस आलेख पर टिप्पणी करने के लिये श्री बेनीवाल जी सहित अन्य सभी पाठकों का आभार और धन्यवाद| श्री बेनीवाल जी की टिप्पणी के प्रतिउत्तर में कानूनी और नियमों की बातों को प्रदर्शित करने से पूर्व मैं कुछ दृष्टान्तों के माध्यम से कुछ सामान्य बातें स्पष्ट करना जरूरी समझताहूँ| जैसे-

1. केन्द्र और राज्य सरकारों के लोक सेवकों के आचरण नियम कमोबेश एक समान ही हैं|

2. हर एक लोक सेवक से सरकार अपेक्षा करती है कि वह सेवा आचरण नियमों का पालन करे, अन्यथा आचरण नियमों का उल्लंघन करने के आरोप में विभागीय अनुशासनिक कार्यवाही का सामना करने को तैयार रहे|

मैं समझता हूँ कि उपरोक्त दोनों तथ्यों के बारे में किसी प्रकार की शंका नहीं होनी चाहिये|

3. लोक सेवकों को पालनार्थ बनाये गये सेवा आचरण नियमों में प्रत्येक लोक सेवक को देश के संविधान, विधान और नियमों का पालन करना तो अनिवार्य होता है| जिनका पालन नहीं करने पर विभाग के अनुशासन एवं अपील नियमों के तहत कार्यवाही भी की जाती है|

4. लोक सेवकों को सरकार अनैतिकता और सरकार की नीति के विरुद्ध किसी प्रकार के दुराचरण की अनुमति नहीं देती है| अत: इस प्रकार का आचरण भी अनुशासनहीनता माना जाता है|

5. लोक सेवकों का अनिवार्य कर्त्तव्य होता है कि वे वफादारी, निष्ठा, समयबद्धता और पूर्ण ईमानदारी से जनता की सेवा करें और हर आम-ओ-खास के प्रति आदर प्रदर्शित करें| क्योंकि हर लोक सेवक जनता का नौकर है|

6. इसके अलावा सभी विभाग अपने कुछ विभागीय उपनियम भी बनाते हैं, जिनका पालन भी उस विभाग के सभी लोक सेवकों को अनिवार्य रूप से करना होता है| जैसे-

(1) रोडवेज का परिचालक यात्री से किराया वसूल करके, यात्री के गन्तव्य तक का टिकिट तो जारी करेगा ही, साथ ही साथ वह यात्रियों के साथ सद्व्यवहार भी करेगा और सभी यात्रियों को अपने-अपने गन्तव्य पर बस को रुकवाकर सुरक्षित उतारेगा भी|
(2) रेलवे के प्रत्येक लोक सेवक का अनिवार्य दायित्व होता है कि वह ऐसा कोई कार्य नहीं करेगा जिससे आम लोगों के बीच रेलवे की छवि को क्षति पहुँचे और जब भी किसी रेलवे सेवक को रेल संरक्षा (सेफ्टी) को आघात पहुँचाने वाली किसी बात की जानकारी मिले, वह तत्काल उस पर कार्यवाही करेगा/करायेगा और रेल संरक्षा को सुनिश्‍चित करेगा|
(3) सभी लोक सेवकों का आचरण सभ्य और सुसंस्कृत लोगों जैसा होना चाहिये, जिससे कि  सरकार या नियोक्ता या विभाग की छवि को क्षति नहीं पहुँचे|
(4) सभी लोक सेवक बिना अपने नियोक्ता की पूर्व अनुमति के कोई अचल सम्पत्ति क्रय नहीं करेंगे और न हीं कोई व्यवसाय करेंगे|
(5) जिन उद्यमियों से लोक सेवक से या उसके विभाग से वास्ता पड़ता है, उनसे उस विभाग का लोक सेवक न तो कोई उपहार स्वीकार करेगा और न हीं उनसे किसी प्रकार का अन्य देल-देन का व्यवहार करेगा|

यहॉं दृष्टान्त के लिये ही कुछ बातें लिखी गयी हैं| यह लिस्ट छोटी या बड़ी हो सकती है|

उपरोक्त दृष्टान्तों के प्रकाश में समझने वाली बात यह है कि-

1. यदि एक लोक सेवक, जिससे उपरोक्त आचरणों की अपेक्षा की जाती है, सार्वजनिक रूप से शराब पीकर आम व्यक्ति के साथ मारपीट करता है तो व्यथित व्यक्ति को ऐसे शराबी के बारे में यह जाने या समझे बिना की वह लोक सेवक है या नहीं उसे अपराधी करार देते हुए सम्बद्ध थाने में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 के तहत रिपोर्ट दर्ज करवाकर आपराधिक कार्यवाही के जरिये ऐसे आरोपी को सजा दिलवाने का कानूनी हक है और भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत वर्णित अपराध कारित करने वाले किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध पुलिस द्वारा मामला दर्ज किया जाना पुलिस का कानूनी दायित्व है| जिसके तहत आरोपी को पुलिस गिरफ्तार करके 24 घण्टे में मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करेगी और फिर उसे जेल भेज दिया जायेगा| मामले का सक्षम कोर्ट में विचारण होगा और तदोपरान्त दोषी पाये जाने पर ऐसे लोक सेवक को कारावास या जुर्माने या दोनों से दण्डित किया जायेगा| यह तो हुई भारतीय दण्ड संहिता के तहत आपराधिक कार्यवाही| 

जब ऐसे आरोपी लोक सेवक के बारे में उसके विभाग/नियोक्ता को जानकारी प्राप्त होगी या पुलिस द्वारा सूचित किया जायेगा तो 48 घण्टे या अधिक समय तक पुलिस या जेल अभिरक्षा में रहने के कारण ऐसे लोक सेवक को सर्व-प्रथम तो तत्काल प्रभाव से पूर्ववर्ती तारीख से ही निलम्बित कर दिया जायेगा और तदोपरान्त पुलिस कार्यवाही या कोर्ट के निर्णय की प्रतीक्षा किये बिना सार्वजनिक रूप से शराब पीकर आम लोगो के साथ दुर्व्यवहार करने के आरोप में सक्षम अनुशासनिक अधिकारी द्वारा विभागीय अनुशासनिक कार्यवाही करके आरोपी को दण्डित भी किया जायेगा|

2. उपरोक्त दृष्टान्त को दूसरे तरीके से भी समझें और इसे फिर से देखें| यदि उपरोक्त घटना किसी सरकारी कार्यालय में दो लोक सेवकों के बीच में घटित होती है तो आमतौर पर व्यथित या कमजोर पक्षकार विभागाध्यक्ष को इस बारे में शिकायत करता है| ऐसे में-

(1) आमतौर पर आरोपी एवं पीड़ित लोक सेवक को समझाबुझाकर मामले को वहीं शान्त कर दिया जाता है| या

(2) यदि शिकायतकर्ता आरोपी के खिलाफ विभागीय कार्यवाही पर अड़ जाता है तो आरोपी को चेतावनी देकर छोड़ दिया जाता है या फिर दोनों में से किसी का और अधिकांश मामलों में पीड़ित का स्थानान्तरण कर दिया जाता है| क्योंकि किसी अपवाद को छोड़कर उच्च स्तर का व्यक्ति ही अपने से निम्न को उत्पीड़ित करता है, ऐसे में उच्चाधिकारी उच्च स्तर के लोक सेवक के साथ खड़े हो जाते हैं| या

(3) यदि कोई लोक सेवक जैसे-तैसे साक्षी भी जुटा लेता है और उसे यूनियन का सहारा भी मिल जाता है तो विभागीय नियमों के तहत आरोपी लोक सेवक के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही भी की पाती है|

(4) इसके उपरान्त भी आरोपी भारतीय दण्ड संहिता की धाराओं के तहत मिल सकने वाली कारावास/जुर्माने की सजा से तो बच ही जाता है और इस प्रकार लगातार लोक सेवकों के अपराध एवं लोक सेवक अपराधी बढते रहते हैं| 

(5) हर एक विभागाध्यक्ष का दायित्व बनाता है कि वह अपने नियन्त्रणाधीन कार्यरत लोक सेवकों को अनुशासित बनाये रखने के लिये न मात्र स्वयं निष्पक्षतापूर्वक अनुशासनिक कार्यवाही करें, बल्कि साथ ही साथ प्रत्येक मामले को सम्बन्धित पुलिस थाने को भी भेजें, जिससे लोक सेवक आरोपियों के खिलाफ भारतीय आपराधिक कानूनों के तहत भी कार्यवाही हो सके| लेकिन ऐसा नहीं किया जाता| इसके विपरीत जब भी कोई आम व्यक्ति किसी सरकारी कार्यालय में अपने हकों को दबाये जाने पर ऊँची आवाज में भी सच्ची बात बोलने का साहस करता है तो वही विभागाध्यक्ष ऐसे व्यक्ति को खुलेआम यह धमकी देने से भी नहीं चूकता है कि ‘‘तुम यहॉं से चुपचाप दफा हो जाओ, अन्यथा सरकारी कार्य में बाधा डालने के आरोप में तुम्हें पुलिस को सौंप दूँगा|’’ मानों आम जनता कोई वस्तु या लोक सेवक की प्रजा हो? जिसे कभी भी किसी को भी सौंपा जा सकता है!

(6) इस सबके विपरीत जब किसी कार्यालय के लोक सेवकों के बीच में किसी बात को लेकर गम्भीर मारपीट या खून-खराबा हो जाता है, तो विभाग प्रमुख सबसे पहले पुलिस को बुलाता है और इसके बाद में ही अनुशासनिक कार्यवाही करता है|

(7) विभाग प्रमुख छोटे अपराधों को नजर अन्दाज करके एक प्रकार से स्वयं ही लोक सेवकों को छोटे से बड़े अपराधी बनने को प्रेरित करते हैं| छोटे मामले को तो ये कहकर टाल देते हैं, कि पुलिस को सूचना देना उसका काम नहीं है, जो कोई परेशान हो वो खुद ही पुलिस में जाये, जबकि बड़ी घटना होने पर वही विभाग प्रमुख किसी से पूछे बिना सबसे पहले पुलिस को फोन लगाता है| ऐसे विभाग प्रमुखों को याद रखना चाहिये कि उनेक प्रशासकीय नियन्त्रण में काम करने वाले प्रत्येक लोक सेवक के मान-सम्मान और जीवन की सुरक्षा करना उनका कानूनी दायित्व होता है|

जहॉं तक इस प्रकार के मामलों में कानूनी प्रावधानों का सवाल है तो हमारे सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने इस बात को अनेक बार, अनेक मामलों में निर्णीत करते हुए साफ कर दिया है कि लोक सेवकों के खिलाफ दोनों प्रकार की कार्यवाही साथ-साथ चल सकती हैं और किसी को भी दूसरी कार्यवाही के पूर्ण होने का इन्तजार करने की जरूरत नहीं है|

यह मामला सुप्रीम कोर्ट के स्तर पर क्यों गया, इस बात को भी यहॉं पर स्पष्ट करना जरूरी है-

हमारे देश के संविधान के भाग-तीन अनुच्छेद 20 के उप अनुच्छेद (2) में प्रत्येक व्यक्ति को यह मूल अधिकार दिया गया है कि ‘किसी के भी विरुद्ध एक ही अपराध के लिये न तो एक बार से अधिक मामला चलाया जायेगा और न हीं एक से अधिक बार दण्डित किया जायेगा|’ न्यायिक भाषा में इसे ‘डबल जेपोर्डी’ का सिद्धान्त कहा जाता है| मेरे अनुभव और मतानुसार ‘डबल जेपोर्डी’ के सिद्धान्त पर आधारित इस मूल अधिकार के तीन हिस्से हैं:-

(1) एक अपराध के लिये निर्दोष करार दिये जाने के बाद दुबारा उसी अपराध के लिये  अभियोजन नहीं चलाया जायेगा|

(2) एक अपराध में सजा भुगतने के बाद, उसी अपराध के लिये फिर से अभियोजन नहीं|

(3) एक ही अपराध के लिये एक से अधिक सजा नहीं|

ऊपरी तौर पर देखने से ज्ञात होता है कि यदि किसी लोक सेवक के खिलाफ आपराधिक और विभागीय अनुशासनिक मामला चलाया गया तो ऐसा करना ‘डबल जेपोर्डी’ के सिद्धान्त  का उल्लंघन होगा| अधिकतर लोक सेवक इसी भ्रान्ति का संविधान लागू होने के बाद भी 1951 से आज तक लाभ उठा रहे हैं| यह ‘डबल जेपोर्डी’ के सिद्धान्त का उल्लंघन क्यों नहीं है, इसे सुप्रीम कोर्ट के शब्दों में ही जानें|

‘‘वेंकटरमन बनाम भारत संघ, एआईआर 1954  एससी-375’’ के मामले में एक लोक सेवक को पब्लिक सर्वेण्ट इन्क्वायरीज एक्ट के अधीन एक जॉंच के परिणामस्वरूप नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया| यह कार्यवाही जॉंच कमिश्‍नर के समक्ष हुई थी| बाद में समान आरोप के लिये उस लोक सेवक के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता और भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के अन्तर्गत आपराधिक अभियोग चलाया गया| जिसे उस लोक सेवक की ओर से विभिन्न न्यायालयों में यह कहकर चुनौती दी कि एक बार सेवा से बर्खास्तगी की सजा मिलने के बाद एक ही अपराध के लिये उसके विरुद्ध फिर से कोर्ट में आपराधिक मुकदमा चलाया जाना संविधान द्वारा अनुच्छेद 20 (2)  में प्रदत्त मूल अधिकार का हनन है| अन्तत: इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि-

‘‘कमिश्‍नर के समक्ष की गयी विभागीय जॉंच कार्यवाही एक आपराधिक कार्यवाही नहीं थी, बल्कि वह तो केवल तथ्यों का पता लगाने के लिये की गयी अर्द्ध न्यायिक कार्यवाही थी, जिसके जिसके आधार पर उसके विरुद्ध सेवा से बर्खास्तगी का विभागीय दण्ड दिया गया था| अत: प्रार्थी (लोक सेवक) द्वारा किये गये अपराध के लिये भारतीय दण्ड संहिता के अधीन अभियोग चलाया जाना न तो असंवैधानिक है और न हीं ‘डबल जेपोर्डी’ के सिद्धान्त का या अनुच्छेद 20 (2) का उल्लंघन है|’’

इस प्रकार के अनेक न्यायिक निर्णयों के दृष्टान्त उपलब्ध हैं और अब यह सुस्थापित सिद्धान्त है कि लोक सेवकों के खिलाफ विभागीय अनुशासनिक कार्यवाही के साथ-साथ देश के कानूनों के अनुसार पुलिस द्वारा भी मुकदमा चलाया जा सकता है और चलाया जाता है| 

भारतीय रेलवे में, जब भी कोई रेल दुर्घटना मानवीय गलती के कारण होती है, तो आरोपी के खिलाफ विभागीय अनुशासनिक कार्यवाही तो होती ही है, जिसमें ऐसे रेल सेवक को सेवा से बर्खास्त किये जाने की सजा के साथ ही साथ दुर्घटना के कारण हुई जन-धन की क्षति के अपराध का आपराधिक मुकदमा भी ऐसे रेल सेवक के विरुद्ध चलाया जाता है|

इस विषय को समाप्त करने से पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्त के सर्क्यूलर नं. 3 (v)/99/10 दिनांक : 01.12.1999 को निम्नानुसार उद्धरित करना भी जरूरी समझता हूँ, इसके पेरा i, ii एवं V विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं :-


In order to ensure that effective punishment is quickly meted out to the corrupt, the following instructions are issued under the powers vested in the CVC in para 3(v) of DOPT Resolution No. 371/20/99-AVD III dated April 4, 1999.
In every organisation, those who are corrupt are well known. The Disciplinary Authorities and the CVOs as well as those who are hurt by such corrupt persons can arrange for traps against such public servants. The local Police or CBI can be contacted for arranging the traps.
(i) The CBI and the Police will complete the documentation after the traps within a period of two months. They will make available legible, authorised photocopies of all the documents to the disciplinary authority within two months from the date of trap for action at their end.
(ii) Once the photocopies of the documents are received, the disciplinary authority should initiate action to launch departmental inquiry. There will be no danger of double jeopardy because the prosecution which will be launched by the CBI or the Police based on the trap documents would relate to the criminal aspect of the case and the disciplinary proceedings will relate to the misconduct under the Conduct, Discipline and Appeal Rules.
(iii) Retired, honest people may be appointed as special inquiry officers so that within a period of two months, the inquiry against the corrupt pubic servants involved in traps can be completed.
(iv) On completion of the departmental process, appropriate punishment must be awarded to the trapped charged officer or public servant, if the charge is held as proved.
(v) If and when the court judgement comes in the prosecution case, action to implement the court decision may be taken appropriately.

The intention of the above instruction is to ensure that there is a sharp focus on meting out effective punishment to the corrupt in every organisation. Once these instructions are implemented, the atmosphere in organisations is bound to improve because the corrupt will get the signal that they could not survive as in the past banking on the delays taking place both in the departmental inquiry process as well as in the prosecution process. This order may be implemented by all departments effectively.

This order is also available on web site of the CVC at http://cvc.nic.in"


लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ’निरंकुश’ जयपुर से प्रकाशित हिन्दी पाक्षिक ‘प्रेसपालिका’ के सम्पादक तथा विविध विषयों के लेखक, विश्‍लेषक, आलोचक, टिप्पणीकार, कवि, शायर, चिन्तक, शोधार्थी, तनाव मुक्त जीवन पद्धति आदि अनेक विषय के व्याख्याता और समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध १९९३ में स्थापित एवं पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं| सम्पर्क सूत्र :

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