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Tuesday, May 31, 2011

सपनों के कातिल!


गैरों की दुनियॉं में-
कहॉं थे इतनी बेदर्द इंसान?
जो गिरा देते मुझको,
अपनी मंजिल की राहों से|
दर्द तो मैंने खुद ही ने चुना है,
छू कर मंजिल को लौट आया मैं|
उन अपनों के सपनों की खातिर-
रुक कर दौड़ से अधबीच में|
झुक गया था, जिनके लिये मैं,
वे ही हैं, मेरे अरमानों के कातिल|
मेरे सपनों के कातिल, मेरे अपने हैं|
जिनके खोखले सपनों के दमकते-
महलों की नींव के मजबूत पत्थर,
मेरे सपनों की कब्रगाह पर चुने गये हैं|

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश' 

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