मेरे शुभचिंतक और समालोचक जिनके विश्वास एवं संबल पर मैं यहाँ लिख पा रहा हूँ!

यदि आपका कोई अपना या परिचित पीलिया रोग से पीड़ित है तो इसे हलके से नहीं लें, क्योंकि पीलिया इतना घातक है कि रोगी की मौत भी हो सकती है! इसमें आयुर्वेद और होम्योपैथी का उपचार अधिक कारगर है! हम पीलिया की दवाई मुफ्त में देते हैं! सम्पर्क करें : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, 098750-66111

Saturday, May 22, 2010

विपन्न-सवर्ण-बच्चों का संरक्षण! डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

विपन्न-सवर्ण-बच्चों का संरक्षण!
======================================

इसलिये बहुत जरूरी है कि विपन्न सवर्णों के उत्थान के लिये ऐसा मध्य का रास्ता निकाला जावे, जिससे विपन्न सवर्णों के बच्चों को केवल आर्थिक कमजोरी की वजह से वांछित उच्च शिक्षा से वंचित नहीं होना पडे। मेरी राय में इसका एक संवैधानिक रास्ता भी बन सकता है। संविधान के अनुच्छेद 15 (3) के प्रकाश में कम से २५ प्रतिशत विपन्न सवर्णों के बच्चों को केवल शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के समय निर्धारित अंकों में छूट प्रदान करने से और इनके बच्चों को अजा एवं अजजा के बच्चों की हीं भांति छात्रवृत्ति प्रदान करने के प्रावधान लागू करने से उनका जीवन संवर सकता है। इसमें साफ कहा गया है कि सरकार बच्चों एवं स्त्रियों के कोई विशेष उपबन्ध करती है तो इससे समानता के सिद्धान्त को उल्लंघन नहीं होगा।

यदि सरकार द्वारा ऐसा किया जाता है तो इससे समाजिक न्याय स्थापित तरने की संविधान की मंशा पूरी होने के साथ-साथ विपन्न सवर्णों के बच्चों को बिना आरक्षण के प्रावधान लागू किये ही आगे बढने का अवसर प्रदान किया जा सकेगा, जो बहुत जरूरी है। इसे हम आरक्षण के बजाय आर्थिक संरक्षण प्रदान करने का वैधानिक उपचार कह सकते हैं। परन्तु इसके लिये समाज में माहौल बनना एवं विपन्न सवर्णों की ओर से इस सम्बन्ध में पुरजोर आवाज उठाया जाना बेहद जरूरी है। क्योंकि वर्तमान लोकतान्त्रिक व्यवस्था में बिना जनान्दोलन एवं बिना मांग उठाये कुछ भी मिलना सपने देखने जैसा है!
==============================
जयपुर से डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

आम बोलचाल में जिन्हें सवर्ण या सामान्य वर्ग कहा जाता है, उनमें से एक बडा तबका ऐसे लोगों का है, जिनके पास अपने बधों को पढाने के लिये अत्यधिक जरूरी आर्थिक संसाधन तक उपलब्ध नहीं है । इसके उपरान्त भी उन्हें ऐसे लोगों में शामिल माना जाता रहा है, जो सदियों से मलाईदार रहे हैं। इस प्रकार के लोगों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की बार-बार मांग उठती रहती है। लेकिन बरसाती नदी की भांति इस मांग को गति नहीं मिल पाती है। पिछले दिनों राजस्थान को आरक्षण का अखाडा बना देने वाली भाजपा की महिला मुख्यमन्त्री वसुन्धरा राजे ने गूजरों को कथित रूप से अजजा में शामिल करने का समझौता किया था, उसी समय सामान्य वर्ग की उध समझी जाने वाली जातियों के नामों का उल्लेख करते हुए, उन्हें भी आर्थिक आधार पर नौकरियों में आरक्षण प्रदान करने की घोषणा की थी। जिसका हश्र वही हुआ, जो कि होना था। जब अपनी मांग के लिये मरमिटने को तैयार और संघर्ष तथा वीरता का पर्याय गूजर जाति तक को उनका हक देने के लिये वसुन्धरा राजे ने ईमानदारी नहीं दिखाई तो सवर्ण लोगों को बिना किसी कारण के आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के वायदे को पूरा करने पर विश्वास करना अपने आपको भुलावे में रखने के सिवा और कुछ भी नहीं है।

ऐसे में आर्थिक रूप से विपन्न लोगों की दुर्दशा पर विचार करने की जिम्मेदारी भी लोकतन्त्र में राजनैतिक दलों की ही होती है। परन्तु इस देश का दुर्भाग्य है कि हमारे यहाँ हर सही और गलत बात को वोट की राजनीति में तोल कर देखा जाता है। बिना वोट की अपेक्षा के बहुत कम मामलों में ही निर्णय लिये जाते हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि आजादी के बाद उध समझी जाने वाली कथित सवर्ण जातियों का बडा तबका आर्थिक रूप से भयंकर त्रासदी का सामना कर रहा है।

राजस्थान के मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत ने अपने पहले कार्यकाल के अन्तिम वर्ष में सर्व-प्रथम इस समस्या को समझने का प्रयास किया और आर्थिक आधार पर चौदह प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने का प्रस्ताव पारित कर तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को भेजा था। उस समय केन्द्र सरकार में वसुन्धरा राजे, मन्त्री के रूप में शामिल थी, लेकिन अटल की राजग सरकार ने गहलोत के प्रस्ताव को रद्दी की टोकरी में डाल दिया। उसी प्रस्ताव पर वोट पाने की आस में वसुन्धरा राजे ने आर्थिक आधार पर आरक्षण प्रदान करने की घोषणा करके लोगों को भ्रमित करने का प्रयास किया। लेकिन राज्य सरकार के इशारे पर राजस्थान की राजधानी जयपुर में आरक्षण की मांग कर रहे ब्राह्मणों के साथ हुई अपमानजनक घटना को देश का ब्राह्मण कभी नहीं भूल सकता है। शान्तिपूर्वक मुख्यमन्त्री से मिलकर ज्ञापन देने की मांग कर रहे निर्दोष लोगों पर पुलिस ने इतनी लाठियां बरसाई थी कि दर्जनों लोग लहु- लुहान हो गये और उन्हें अस्पतालों में भर्ती कराना पडा। इनमें से अनेक लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि पुलिस के डण्डों की मार से शरीर पर बने निशानों को वे इस जीवन में कभी नहीं भुला सकेंगे और अपनी आगामी पीढियों तक को भाजपा को वोट नहीं देने देंगे । उसी वसुन्धरा राजे द्वारा उध जातियों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की घोषणा पर कैसे विश्वास किया जा सकता है?

इन हालातों में देश के करीब बीस प्रतिशत निर्धन और विपन्न सवर्ण लोगों के बधों के भविष्य के बारे में सोचना बहुत जरूरी है। अन्यथा इनमें से कुछ बधे रास्ता भी भटक सकते हैं। चाहे कोई भी राजनैतिक दल हो सच्चाई एवं ईमानदारी से कभी भी निर्णय लेने के पक्ष में इच्छाशक्ति नहीं दिखाई जाती है। इसी का परिणाम है कि सवर्ण गरीबों के लिये घोषित तथा राजस्थान विधानसभा में पारित चौदह प्रतिशत आरक्षण को राजस्थान हाई कोर्ट ने असंवैधानिक मानते हुए तथा आर्थिक आधार पर आरक्षण को सही नहीं मानते हुए स्टे कर दिया है, जबकि संघर्ष करने के लिये नये प्रतिमान स्थापित करने वाली गूजर जाति के लिये हाई कोर्ट की राय भी भिन्न प्रकार की है। इस स्थिति में सवर्ण गरीबों का आरक्षण मुद्दा कहीं अंधेरे में खो गया लगता है। सवर्णों की ओर से भी इस बारे में कोई मांग नहीं की जा रही है। सभी जानते हैं कि बिना मांगे किसी को कुछ भी नहीं मिलता है।

मैं भी व्यक्तिगत रूप से आर्थिक आधार पर आरक्षण के पक्ष में नहीं हूँ। मेरा ऐसा मत किसी पूर्वाग्रह या विक्षोभ के कारण नहीं है, बल्कि संविधान में वर्णित आरक्षण के प्रावधानों का सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा अनेक बार किये गये विश्लेषण के प्रकाश में मेरा ऐसा मानना है कि सामाजिक न्याय की संविधान-सम्मत संकल्पना को मूर्त रूप प्रदान करने के लिये केवल उन्हीं वर्गों को सरकारी सेवाओं में तथा शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण प्रदान किया जाना चाहिये जिनका सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है और जो सामाजिक तथा शैक्षणिक दृष्टि से समाज के अन्य वर्गों से पिछडे हुए हैं। यह सिद्धान्त विपन्न सवर्णों पर लागू नहीं होता है, लेकिन केवल इसीलिये विपन्न गरीबों के बच्चों के विकास को अवरुद्ध भी तो नहीं किया जा सकता।

इसलिये बहुत जरूरी है कि विपन्न सवर्णों के उत्थान के लिये ऐसा मध्य का रास्ता निकाला जावे, जिससे विपन्न सवर्णों के बच्चों को केवल आर्थिक कमजोरी की वजह से वांछित उच्च शिक्षा से वंचित नहीं होना पडे। मेरी राय में इसका एक संवैधानिक रास्ता भी बन सकता है। संविधान के अनुच्छेद 15 (3) के प्रकाश में कम से 25 प्रतिशत विपन्न सवर्णों के बच्चों को केवल शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के समय निर्धारित अंकों में छूट प्रदान करने से और इनके बच्चों को अजा एवं अजजा के बच्चों की हीं भांति छात्रवृत्ति प्रदान करने के प्रावधान लागू करने से उनका जीवन संवर सकता है। इसमें साफ कहा गया है कि सरकार बच्चों एवं स्त्रियों के कोई विशेष उपबन्ध करती है तो इससे समानता के सिद्धान्त को उल्लंघन नहीं होगा।

यदि सरकार द्वारा ऐसा किया जाता है तो इससे समाजिक न्याय स्थापित तरने की संविधान की मंशा पूरी होने के साथ-साथ विपन्न सवर्णों के बच्चों को बिना आरक्षण के प्रावधान लागू किये ही आगे बढने का अवसर प्रदान किया जा सकेगा, जो बहुत जरूरी है। इसे हम आरक्षण के बजाय आर्थिक संरक्षण प्रदान करने का वैधानिक उपचार कह सकते हैं। परन्तु इसके लिये समाज में माहौल बनना एवं विपन्न सवर्णों की ओर से इस सम्बन्ध में पुरजोर आवाज उठाया जाना बेहद जरूरी है। क्योंकि वर्तमान लोकतान्त्रिक व्यवस्था में बिना जनान्दोलन एवं बिना मांग उठाये कुछ भी मिलना सपने देखने जैसा है!

--------------------------लेखक जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र प्रेसपालिका के सम्पादक, होम्योपैथ चिकित्सक, मानव व्यवहारशास्त्री, दाम्पत्य विवादों के सलाहकार, विविन्न विषयों के लेखक, कवि, शायर, चिन्तक, शोधार्थी, तनाव मुक्त जीवन, लोगों से काम लेने की कला, सकारात्मक जीवन पद्धति आदि विषयों के व्याख्याता तथा समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर संचालित संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। जिसमें 4280 रजिस्टर्ड आजीवन कार्यकर्ता देश के 17 राज्यों में सेवारत हैं। फोन नं. 0141-2222225 (सायं 7 से 8 बजे के बीच)।
================================

No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणी, केवल मेरे लिये ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण ब्लॉग जगत के लिये मार्गदर्शक हैं. कृपया अपने विचार जरूर लिखें!