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Wednesday, April 13, 2011

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के प्रति गांधी जी का द्वेषपूर्ण व्यवहार!


नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के प्रति गांधी जी का द्वेषपूर्ण व्यवहार!
-विश्वजीतसिंह

गांधी जी के प्रबल विरोध के बावजूद सुभाष चन्द्र बोस भारी बहुमत से चुनाव जीतकर दोबारा कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिये गये। गांधी जी को दुःख हुआ, उन्होंने कहा कि ' सुभाष की जीत गांधी की हार हैं।' सत्य के प्रयोग करने वाले गांधी जी शान्त नहीं रहें, बल्कि उन्होंने नेताजी सुभाष के प्रति विद्वेष का व्यवहार अपनाया। उनके कार्यो में बाधाएँ डालते रहे और अन्त में कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र लिखवाकर ही दम लिया।

सन 1938 में सुभाष को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया । इसी दौरान यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए । सुभाष चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर अखण्ड भारत की आजादी की लडाई को ओर तेज किया जाये , यह भारत की आजादी के लिए स्वर्णिम अवसर हैं । कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुये उन्होंने इस दिशा में कार्य शुरू कर दिया। सुभाष गांधी जी के तथाकथित अहिंसा आन्दोलन के द्वारा भारत को आजादी दिलाने की खोखली नीति पर कभी विश्वास नहीं करते थे । इसी कारण गांधी-नेहरू की कांग्रेस ने द्वेषवश कभी नेताजी सुभाष का साथ नहीं दिया।
भारत की आजादी में एक महत्वपूर्ण पहलू द्वितीय विश्वयुद्ध भी हैं । इस युद्ध में ब्रिटेन सहित पूरा यूरोप बर्बाद हो गया था । अब उनमें भारत की आजादी के आन्दोलन को झेलने की शक्ति नहीं बची थी । अगर अंग्रेज द्वितीय विश्वयुद्ध में इतनी बुरी तरह बर्बाद नहीं होते और भारत में सशस्त्र क्रान्तिकारी न होते तो शायद गांधी जी का स्वतन्त्रता आन्दोलन अभी तक चल रहा होता ।

1939 में जब कांग्रेस का नया अध्यक्ष चुनने का समय आया तो सुभाष चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बनाया जाये, जो अखण्ड भारत की पूर्ण आजादी के विषय पर किसी के सामने न झुके। ऐसा कोई दूसरा व्यक्ति सामने न आने पर सुभाष ने स्वयं अध्यक्ष पद पर बने रहना चाहा। लेकिन गांधी जी अपने सामने किसी प्रतिद्वंदी को स्वीकार न कर पाते थे और वह उन्हें अपने रास्ते से हटाने का पूर्ण प्रयास किया करते थे, वह प्रतिदंदी (प्रतिद्वन्द्वी) नेताजी सुभाष रहे हो चाहे भगतसिंह। सुभाष कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर रहते हुए गांधी जी की नीतियों पर नहीं चले, अतः गांधी व उनके साथी सुभाष को अपने रास्ते से हटाना चाहते थे। गांधी ने सुभाष के विरूद्ध पट्टाभी सीतारमैय्या को चुनाव लडाया। लेकिन उस समय गांधी से कही ज्यादा लोग सुभाष को चाहते थे। कवि रविन्द्रनाथ टैगोर ने गांधी जी को पत्र लिखकर सुभाष को ही अध्यक्ष बनाने का निवेदन किया। प्रफुल्ल चन्द्र रॉय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाष को फिर से अध्यक्ष देखना चाहते थे। लेकिन गांधी जी ने इस विषय पर किसी की नहीं मानी। कोई समझौता न हो पाने के कारण कई वर्षो बाद पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ।
गांधी जी के प्रबल विरोध के बावजूद सुभाष चन्द्र बोस भारी बहुमत से चुनाव जीतकर दोबारा कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिये गये। गांधी जी को दुःख हुआ, उन्होंने कहा कि ' सुभाष की जीत गांधी की हार हैं।' सत्य के प्रयोग करने वाले गांधी जी शान्त नहीं रहें, बल्कि उन्होंने नेताजी सुभाष के प्रति विद्वेष का व्यवहार अपनाया। उनके कार्यो में बाधाएँ डालते रहे और अन्त में कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र लिखवाकर ही दम लिया।
जिस समय आजाद हिन्द फौज नेताजी सुभाष के नेतृत्व में जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिस सेना के विरूद्ध मोर्चे पर मोर्चा मारती हुई भारत की भूमि की ओर बढती आ रही थी , उस समय गांधी जी ने , जिनके हाथ में करोडों भारतीयों की नब्ज थी और जिससे आजाद हिन्द फौज को काफी मदद मिल सकती थी , ऐसा कुछ नहीं किया । बल्कि 24 अप्रैल 1945 को जब भारत आजाद हिन्द फौज और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के प्रयासों से आजादी के करीब था , तब गांधी जी के सर्वाधिक प्रिय जवाहर लाल नेहरू ने गुवाहाटी की एक सभा में कहा कि - ' यदि सुभाष चन्द्र बोस ने जापान की सहायता से भारत पर आक्रमण किया तो मैं स्वयं तलवार उठाकर सुभाष से लडकर रोकने जाऊँगा । ' नेहरू का यह व्यवहार महात्मा नाथूराम गोडसे के उस कथन की याद दिलाते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि ' गांधी व उसके साथी सुभाष को नष्ट करना चाहते थे । '
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का स्वप्न था स्वाधीन , शक्तिशाली और समृद्ध भारत । वे भारत को अखण्ड राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे । लेकिन गांधी - नेहरू की विभाजनकारी साम्प्रदायिक तुष्टिकरण की नीतियों ने भारत का विभाजन करते उनके स्वप्न की हत्या कर दी । यदि कांग्रेस नेताजी सुभाष की चेतावनी पर समय रहते ध्यान देती और गांधीवाद के पाखण्ड में ना फंसी होती तो भारत विभाजन न होता तथा मानवता के माथे पर भयानक रक्त-पात का कलंक लगने से बच जाता।

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का मानना था कि "आजादी का मतलब सिर्फ राजनीतिक गुलामी से छुटकारा ही नहीं हैं। देश की सम्पत्ति का समान बटवारा, जात-पात के बंधनों और सामाजिक ऊँच-नीच से मुक्ति तथा साम्प्रदायिकता और धर्मांधता को जड से उखाड फेंकना ही सच्ची आजादी होगी।"

जय हिन्द--विश्वजीतसिंह
साभार/स्त्रोत : http://satyasamvad.blogspot.com/2011/04/blog-post_11.html

1 comment:

  1. काश कोई साथी 1947मेँ नेहरु और माँउटबेट के बीच हुये "ट्रान्सफर आफ पावर एग्रीमेन्ट 1947" की फोटोकापी ब्रिटेन से प्राप्त करके हिन्दी/अँग्रेजी मेँ नेट पर और पुस्तक रुप मेँ उपलब्ध करवा देता तो यह सच्चाई पता चल जाती कि क्या नेहरु ने उसमेँ यह समझौता किया था कि सुभाष चन्द्र बोस को गिरफ्तार करके ब्रिटेन को युद्धबन्दी के रुप मेँ सौँप दिया जायेगा?ब्रिटेन मेँ 30 वर्ष बाद हर दस्तावेज सार्वजनिक कर दिया जाता है,भारत सरकार तो कभी सूचना का अधिकार मेँ इसे देगी नहीँ

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