मेरे शुभचिंतक और समालोचक जिनके विश्वास एवं संबल पर मैं यहाँ लिख पा रहा हूँ!

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Thursday, August 12, 2010

बुद्धिजीवियों की उपयोगिता?

(मैंने इस आलेख पर जो शीर्षक लिखा है, सर्वोत्तम नहीं जान पड़ता है,
अत: निवेदन है कि आप इसका सही शीर्षक निर्धारित करने का कष्ट करें!)

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
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इस देश में जाति के आधार पर जनगणना करने और नहीं करने पर काफी समय से बहस चल रही है। अनेक विद्वान लेखकों ने जाति के आधार पर जनगणना करवाने के अनेक फायदे गिनाये हैं। उनकी ओर से और भी फायदे गिनाये जा सकते हैं। दूसरी और ढेर सारे नुकसान भी गिनाने वाले विद्वान लेखकों की कमी नहीं है। जो जाति के आधार पर जनगणना चाहते हैं, उनके अपने तर्क हैं और जो नहीं चाहते हैं, उनके भी अपने तर्क हैं। कोई पूर्वाग्रह से सोचता है, तो कोई बिना पूवाग्रह के, लेकिन सभी अपने-अपने तरीके से सोचते हैं। लेकिन लोकतन्त्र में कोई भी व्यक्ति किसी पर भी दबाव के जरिये अपने विचारों को थोप नहीं सकता है।

इस सबके उपरान्त भी यदि भारत सरकार जाति आधारित जनगणना करवाने को राजी हो जाती है, तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जाना चाहिये कि केवल जाति आधारित जनगणना की मांग करने वालों के तर्क ही अधिक मजबूत और न्याससंगत हैं और इसके विपरीत यदि सरकार जाति आधारित जनगणना करवाने को राजी नहीं होती है, तो भी इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जाना चाहिये कि जाति आधारित जनगणना की मांग का विरोध करने वालों के तर्क गलत या निरर्थक हैं!

हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में अपनाये गये, दलगत राजनीति पर अधारित संसदीय जनतन्त्र में सबसे पहले राजनैतिक दलों को किसी भी कीमत पर मतदाता को रिझाना जरूरी होता है। जिसके लिये 1984 में सिक्खों के इकतरफा कत्लेआम और गुजरात में हुए नरसंहार को दंगों का नाम दे दिया जाता है। वोटों की खातिर बाबरी मस्जिद को शहीद करके देश के धर्मनिरपेक्ष मस्तक पर सारे विश्व के सामने झुका दिया जाता है। मुसलमानों के वोटों की खातिर, मुसलमानों की औरतों के हित में शाहबानों प्रकरण के न्यायसंगत निर्णय को संसद की ताकत के बल पर बदल दिया जाता है और दूसरी ओर धर्मनिरपेक्षता की संरक्षक कहलाने वाली काँग्रेस की नेतृत्व वाली केन्द्रीय सरकार बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा को मौलवियों के विरोध के चलते भारत में वीजा देने में लगातार इनकार करती रही है?

हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना को लेकर जन्मी जनसंघ के वर्तमान स्वरूप भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान संरक्षक लालकृष्ण आडवाणी, धर्म के आधार पर भारत विभाजन के खलनायक माने जाने वाले मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर सजदा करके, पाकिस्तान की सरजमीं पर ही जिन्ना को धर्मनिरेपक्षता का प्रमाण-पत्र दे आते हैं। फिर भी भाजपा की असली कमान उन्हीं के हाथ में है।

इसके विपरीत भाजपा के वरिष्ठ नेता जसवन्त सिंह को जिन्ना का समर्थन करने एवं सरदार वल्लभ भाई पटेल का विरोधी ठहराकर, सफाई का अवसर दिये बिना ही पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है, लेकिन राजपूत वोटों में सेंध लगाने में सक्षम पूर्व राष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत के इन्तकाल के कुछ ही माह बाद, राजपूतों को अपनी ओर लुभाने की खातिर बिना शर्त जसवन्त सिंह की ससम्मान भाजपा में वापसी किस बात का प्रमाण है। नि:सन्देह जातिवादी राजनीति का ही पोषण है!

उपरोक्त के अलावा भी ढेरों उदाहरण गिनाये जा सकते हैं। असल समझने वाली बात यह है कि इस देश की राजनीति की वास्तविकता क्या है? 5-6 वर्ष पूर्व मैं राजस्थान के एक पूर्व मुख्यमन्त्री के साथ कुछ विषयों पर अनौपचारिक चर्चा कर रहा था, कि इसी बीच राजनैतिक दलों के सिद्धान्तों का सवाल सामने आ गया तो उन्होनें बडे ही बेवाकी से टिप्पणी की, कि-"मुझे तो नहीं लगता कि इस देश में किसी पार्टी का कोई सिद्धान्त हैं? हाँ पहले साम्यवादियों के कुछ सिद्धान्त हुआ करते थे, लेकिन अब तो वे भी अवसरवादी हो गये हैं।" कुछ वर्षों के सत्ता से सन्यास के बाद जब इन्हीं महाशय को राज्यपाल बना दिया गया तो मैंने एक कार्यक्रम में उन्हें यह कहते हुए सुना कि-"इस देश में काँग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है, जो सिद्धान्तों की राजनीति करती है।"

भारतीय जनता पार्टी की एक प्रान्तीय सरकार में काबीना मन्त्री रहे एक मुसलमान नेता से चुनाव पूर्व जब यह सवाल किया गया कि आपने भाजपा, भाजपा की नीतियों से प्रभावित होकर जोइन की है या और कोई कारण है? इस पर उनका जवाब भी काबिले गौर है? "मेरे क्षेत्र में मसुलामनों का वोट बैंक है और कांग्रेस ने मुझे टिकिट नहीं देकर जाट जाति के व्यक्ति को अपना उम्मीदवार बनाया है। चूँकि मुसलमान किसी को भी वोट दे सकता है, लेकिन जाट को नहीं देगा, ऐसे में मौके का लाभ उठाने में क्या बुराई है! जीत गये तो मुस्लिम कोटे में मन्त्री बनने के भी अवसर हैं।" आश्चर्यजनक रूप से ये महाशय चुनाव जीत गये और काबीना मन्त्री भी रहे, लेकिन एक बार इन्होंने अपने किसी परिचत के दबाव में अपने विभाग के एक तृतीय श्रेणी के कर्मचारी का स्थानान्तरण कर दिया, जिसे मुख्यमन्त्री ने ये कहते हुए स्टे (स्थगित) कर दिया कि आपको मन्त्री पद और लाल बत्ती की गाडी चाहिये या ट्रांसफर करने का अधिकार?

इसके बावजूद भी इस देश में लगातार प्रचार किया जा रहा है कि इस देश को धर्म एवं जाति से खतरा है! सोचने वाली बात ये है कि यदि कोई दल सत्ता में ही नहीं आयेगा तो वह सिद्धान्तों की पूजा करके क्या करेगा? हम सभी जानते हैं कि आज किसी भी दल के अन्दर कोई भी सिद्धान्त, कहीं भी परिलक्षित नहीं हो रहे हैं। ऐसे में किसी भी दल से यह अपेक्षा करना कि वह देशहित में अपने वोटबैंक की बलि चढा देगा, दिन में सपने देखने जैसा है।

इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि माहौल बनाने के लिये हर विषय पर स्वस्थ चर्चा-परिचर्चाएं होती रहनी चाहिये। बद्धिजीवियों को इससे खुराक मिलती रहती है, लेकिन इस देश का दुर्भाग्य है कि जिस प्रकार से यहाँ के राजनेताओं की अपनी मजबूरियाँ हैं, उसी प्रकार से लेखकों एवं पाठकों की भी मजबूरियाँ हैं। जिसके चलते जब एक पक्ष सत्य पर आधारित चर्चा की शुरूआत ही नहीं करता है, तो असहमति प्रकट करने वाले पक्ष से इस बात की अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह केवल सत्य को ही चर्चा का आधार बनायेगा। हर कोई स्वयं के विचार को सर्वश्रेष्ठ और स्वयं को सबसे अधिक जानकार तथा अपने विचारों को ही मौलिक सिद्ध करने का प्रयास करने पर उतारू हो जाता है।

इस प्रकार की चर्चा एवं बहसों से हमारी बौद्धिक संस्कृति का ह्रास हो रहा है। जिसके लिये हम सब जिम्मेदार हैं। दु:ख तो इस बात का है कि इस पर लगाम, लगना कहीं दूर-दूर तक भी नजर नहीं आ रहा है। क्योंकि कोई भी अपनी गिरेबान में देखने को तैयार नहीं है। जाति के आधार पर जनगणना का विरोध करने वाले विद्वजन एक ही बात को बार-बार दौहराते हैं कि जातियों के आधार पर गणना करने से देश में टूटन हो सकती है, देश में वैमनस्यता को बढावा मिल सकता है। जबकि दूसरे पक्ष का कहना है कि इससे देश को कुछ नहीं होगा, लेकिन कमजोर और पिछडी जातियों की वास्तविक जनसंख्या का पता चल जायेगा और इससे उनके उत्थान के लिये योजनाएँ बनाने तथा बजट आवण्टन में सहूलियत होगी।

कुछ लोग इस राग का आलाप करते रहते हैं कि यदि जातियों के आधार पर जनगणना की गयी तो देश में जातिवाद को समाप्त नहीं किया जा सकता है। मेरी यह समझ में नहीं आ रहा कि हम जातियों को समाप्त कर कैसे सकते हैं? कम से कम मुझे तो आज तक कोई सर्वमान्य एवं व्यावहारिक ऐसा फार्मूला कहीं पढने या सुनने को नहीं मिला, जिसके आधार पर इस देश में जातियों को समाप्त करने की कोई आशा नजर आती हो?

सच्चाई तो यही है कि इस देश की सत्तर प्रतिशत से अधिक आबादी को तो अपनी रोजी-रोटी जुटाने से ही फुर्सत नहीं है। उच्च वर्ग को इस बात से कोई मतलब नहीं कि देश किस दिशा में जा रहा है या नहीं जा रहा है? उनको हर पार्टी एवं दल के राजनेताओं को और नौकरशाही को खरीदना आता है। देश का मध्यम वर्ग आपसी काटछांट एवं आलोचना करने में समय गुजारता रहता है।

बुद्धिजीवी वर्ग अन्याय एवं अव्यवस्था के विरुद्ध चुप नहीं बैठ सकता। क्योंकि बुद्धिजीवी वर्ग को चुप नहीं रहने की बीमारी है। राजनेता बडे चतुर और चालाक होते हैं। अत: उन्होंने बुद्धिजीवी वर्ग को उलझाये रखने के लिये देश में जाति, धर्म, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता, भाषा, मन्दिर-मस्जिद, गुजरात, नक्सलवाद, आतंकवाद, बांग्लादेशी नागरिक, कश्मीर जैसे मुद्दे जिन्दा रखे हुए हैं। बुद्धिजीवी इन सब विषयों पर गर्मागरम बहस और चर्चा-परिचर्चा करते रहते हैं। जिसके चलते अनेकानेक पत्र-पत्रिकाएँ एवं समाचार चैनल धडल्ले से अपना व्यापार बढा रहे हैं।
उक्त विवेचन के प्रकाश में उन सभी बद्धिजीवियों से एक सवाल है, जो स्वयं को बुद्धिजीवी वर्ग का हिस्सा मानते हैं, यदि वे वास्तव में इस प्रकार से आपस में उलझकर वाद-विवाद करने में उलझे रहेंगे तो उनको बुद्धिजीवी कहलाने का क्या हक है? ऐसे बुद्धिजीवियों को अपनी उपयोगिता के बारे में विचार करना चाहिये!

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यह आलेख निम्न लिंक पर भी अलग-अलग शीर्षक से पढ़ा जा सकता है :-
1. >जाति जनगणना विवाद- भारतीय बुद्धिजीवि वर्ग की बौद्धिक शुन्यता का परिचायक
http://www.vicharmimansa.com/blog/2010/08/13/जाति-जनगणना-विवाद-भारतीय/
2. बुद्धिजीवियों की उपयोगिता?
http://www.merikhabar.com/news_details.php?nid=32816
3. क्‍या इन्‍हें बुद्धिजीवी कहलाने का हक है?
http://www.pravakta.com/?p=12290
4. बुद्धिजीवियों से एक सवाल
http://www.janokti.com/author/drmeena/
5. वोटों की खातिर जाति आधारित जनगणना की मजबूरी
http://www.pressnote.in/nirkunsh_89124.html
6. जनगणना और बुद्धिजीवी
http://www.pressnote.in/nirkunsh_89124.html
7. बुद्धिजीवियों की उपयोगिता?
http://www.bharatkesari.com/cjarticles.aspx?p=Dr.PurushottamMeena
8. सभी बद्धिजीवियों से एक सवाल?
http://presspalika.mywebdunia.com/articles/

4 comments:

  1. आपने जो लिखा है वो देश का कड़वा सच है। कृपया स्‍वतंत्रता दिवस विशेष पर मेरे लेख को भी देखें। शुभकामनाएं।

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  2. सुन्दर अभिव्यक्ति,
    आभार...

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  3. हमारे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
    मालीगांव
    साया
    आपकी पोस्ट यहा इस लिंक पर भी पर भी उपलब्ध है। देखने के लिए क्लिक करें
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